-सोरठा-
चिन्मय ज्योति स्वरूप, परमात्मा होते यहीं।
नमूँ नमूँ चिद् रूप, चतामणि चैतन्य को।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय अर्हंत देव जिनवर, जय जय छ्यालिस गुण के धारी।
जय समवसरण वैभव श्रीधर, जय जय अनंत गुण के धारी।।
जय जय जिनवर केवलज्ञानी, गणधर अनगार केवली सब।
जय गंधकुटी में दिव्यध्वनी, सुनते असंख्य सुर नर पशु सब।।२।।
इन चौंतिस कर्मभूमियों में, केवलज्ञानी होते रहते।
फिर कर्म अघाती भी हनकर, वे सिद्धि वधू वरते रहते।।
ऐसे ये सिद्ध अनंत हुये, हो रहे और भी होवेंगे।
जय जय सब सिद्धों की वे मुझ सिद्धि में निमित्त होवेंगे।।३।।
निज साम्य सुधारस आस्वादी, मुनिगण जहँ नित्य विचरते हैं।
आचार्य प्रवर चउविध संघ के, नायक जहँ मार्ग प्रवर्ते हैं।।
दीक्षा शिक्षा देकर शिष्यों, पर अनुग्रह निग्रह भी करते।
प्रायश्चित देकर शुद्ध करें, बालकवत् पोषण भी करते।।४।।
गुरु उपाध्याय मुनि अंग पूर्व, शास्त्रों का वाचन करते हैं।
चउविध संघों को यथायोग्य, श्रुत का अध्यापन करते हैं।।
मिथ्यात्व तिमिर से मार्ग भ्रष्ट, जन को सम्यक् पथ दिखलाते।
जो परंपरा से गुरुमुख से, पढ़ते वे निज निधि को पाते।।५।।
निज आत्म साधना में प्रवीण, अतिघोर तपस्या करते हैं।
वे साधू शिवमारग साधें, बहु ऋद्धि सिद्धि को वरते हैं।।
विक्रिया ऋद्धि चारण ऋद्धी, सर्वौषधि ऋद्धी धरते हैं।।
अक्षीणमहानस ऋद्धी से, सब जन को तर्पित करते हैं।।६।।
इन चौंतिस कर्मभूमियों में, जन्में ही मुनि बन सकते हैं।
फिर गगन गमन ऋद्धी बल से, सर्वत्र भ्रमण कर सकते हैं।।
वे ढाई द्वीप तक ही जाते, उससे बाहर नहिं जा सकते।
नर जन्म व मुक्ती मार्ग यहीं, यहां से ही सिद्धि पा सकते।।७।।
तीर्थंकर धर्म चक्रधारी, जिन धर्म प्रवर्तन करते हैं।
इन कर्मभूमियों में ही वे, शिव पथ का वर्तन करते हैं।।
जय जय इस जैन धर्म की जय, यह सार्वभौम है धर्म कहा।
सब प्राणिमात्र को अभयदान, देवे सब सुख की खान कहा।।८।।
तीर्थंकर के मुख से खिरती, वाणी सब जन कल्याणी है।
गणधर गुरु उसको धारण कर, सब ग्रंथ रचें जिनवाणी है।।
गुरु परम्परा से अब तक भी, यह सारभूत जिनवाणी है।
इसकी जो पूजा भक्ती करें, उनके भव भव दुख हानी है।।९।।
इस जंबूद्वीप की आठ सहस, अरु चार शतक चौबिस प्रतिमा।
उनचास सहस चउ सौ चौंसठ, ये मध्यलोक की जिन प्रतिमा।।
नवसौ पचीस कोटि त्रेपन अरु, लाख सत्ताइस सहस कहीं।
नवसौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, इन सबको मैं नित नमूँ सही।।१०।।
व्यंतर ज्योतिष के असंख्यात, जिनगृह की जिनप्रतिमायें हैं।
प्रति जिनगृह इक सौ आठ, एक सौ आठ रहें प्रतिमायें हैं।।
इस जंबूद्वीप के अकृत्रिम, जिनमंदिर अट्ठत्तर ही हैं।
जिनमंदिर शाश्वत चार शतक, अट्ठावन मध्यलोक में हैं।।११।।
ये सात करोड़ बहत्तर लख, जिनमंदिर भवनवासि के हैं।
चौरासी लाख सत्तानवे, हजार तेइस वैमानिक के हैं।।
अठ कोटि सुछप्पन लक्ष सत्तानवे, सहस चार सौ इक्यासी।
सब जिनगृह व्यंतर ज्योतिष के, उन संख्यातीत कही राशि।।१२।।
इन कर्म भूमि में अगणित भी, कृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमायें।
सुरपति चक्री हलधर आदिक, नर सुरकृत वंदत सुख पाएं।।
जो प्रतिमा प्रातिहार्य संयुत, अरु यक्ष यक्षिणी से युत हैं।
निज चिह्न व मंगल द्रव्य सहित वे अर्हंतों की प्रतिकृति हैं।।१३।।
सब प्रातिहार्य चिह्नादि रहित, प्रतिमा सिद्धों की कहलाती।
अथवा अकृत्रिम प्रतिमायें, सब सिद्धों की मानी जाती।।
आचार्य उपाध्याय साधु की, प्रतिमायें कर्मभूमि में हैं।
कुछ पंचपरमेष्ठी नव देवों, की प्रतिमायें भी निर्मित हैं।।१४।।
अर्हत सिद्ध आचार्य उपाध्याय, साधु पंच परमेष्ठी हैं।
जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा, जिनगृह सब मिल नवदेव कहें।।
ये होते कर्मभूमियों में, हो चुके अनंतों होवेंगे।
इन सबको वंदन बार बार, भक्तों के कलिमल धोवेंगे।।१५।।
इन कर्मभूमि की महिमा से ही, जंबूद्वीप महान कहा।
निज आत्म सुधारस आस्वादी, मुनिगण करते हैं वास यहां।।
बहिरात्म अवस्था छोड़ अंत—रात्मा बन नर पुरुषार्थ करें।
परमानंदामृत आस्वादी, परमात्मा बन शिवनारि वरें।।१६।।
जय जय सुमेरु पर्वत कृत्रिम, इक सौ इक फुट ऊंचा सुन्दर।
सोलह जिनमंदिर जिनप्रतिमा से, शोभ रहा अतिशय मनहर।।
इसके दर्शन से पाप टलें, हो पुण्य प्रगट जग में ख्याती।
जन मनोकामना जो करते, वह शीघ्र सफल देखी जाती।।१७।।
जय जय जंबूतरु शाल्मलि तरु, के जिनमंदिर जिनप्रतिमायें।
जय जंबूद्वीप के जिनमंदिर, जय उनमें राजित प्रतिमायें।।
जय देवभवन के इक सौ तेइस, जिनगृह जिनप्रतिमाओं की।
जो रुचि से यहां दर्श करते, वे वंदें अकृत जिनालय भी।।१८।।
-घत्ता-
जय जय तीर्थंकर, विश्व हितंकर, धर्मचक्रधर तुमहिं नमूँ।
जय ‘ज्ञानमती’ को, केवल कर दो, निजगुण भर दो नित प्रणमूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थ द्वात्रिंशद्विदेहसंबंधिसर्वतीर्थंकरकेवलिगणधरश्रुत—
केवलिसर्वसाधुसर्वतीर्थक्षेत्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीताछंद—
जो भव्य जंबूद्वीप के तीर्थंकरों को तीर्थ को।
केवलि प्रभू, गणधर गुरु, श्रुतकेवली सब साधु को।
नित पूजते हैं भक्ति से वे आत्मनिधि को पावते।
फिर ‘ज्ञानमति’ रविकिरण से, भविजन कमल विकसावते।।१।।
इत्याशीर्वाद:।