—पंचचामर छंद—
जयो जयो जयो जिनेंद्र इंद्रवृंद बोलते।
त्रिलोक में महागुरू सु आप नाम तोलते।।
सुधन्य धन्य धन्य आप साधुवृंद बोलते।
जिनेश आप भक्त ही तो निज किवांड खोलते।।१।।
समोसरण में आपके महाविभूतियाँ भरीं।
अनेक ऋद्धि सिद्धियाँ सुआप पास में खड़ीं।।
अनंत अंतरंग गुण समूह आप में भरें।
गणीन्द्र औ सुरेंद्र चक्रि आप संस्तुती करें।।२।।
हरिन्मणी के पत्र पद्मराग के सुपुष्प हैं।
अशोक वृक्ष देखते समस्त शोक अस्त हैं।।
अनेक देववृंद पुष्पवृष्टि आप पे करें।
सुगंध वर्ण वर्ण के सुमन खिले खिले गिरें।।३।।
जिनेश आपकी ध्वनी अनक्षरी सुदिव्य है।
समस्त भव्य कर्ण में करे सुअर्थ व्यक्त है।।
न देशना कि चाह है न तालु ओष्ठ पुट हिलें।
असंख्य जीव के धुनी से चित्त पद्मिनी खिलें।।४।।
सुचामरों कि पंक्तियाँ ढुरें ये सूचना करें।
नमें तुम्हें सुभक्त वे हि ऊर्ध्व में गमन करें।।
सुसिंहपीठ आपका अनेक रत्न से जड़ा।
विराजते सु आप हैं अत: महत्व है बढ़ा।।५।।
प्रभा सुचक्र कोटि सूर्य से अधिक प्रभा करे।
समस्त भव्य के उसी में सात भव दिखा करें।।
सुदेवदुन्दुभी सदा गभीर नाद को करे।
असंख्य जीव का सुचित्त खींच के वहाँ करे।।६।।
सफेद छत्र तीन जो जिनेश शीश पे फिरें।
प्रभो त्रिलोकनाथ आप सूचना यही करें।।
सुप्रातिहार्य आठ ये हि बाह्य की विभूतियाँ।
सुरेश ने रचे तथापि आप पुण्यराशियाँ।।७।।
प्रभो !तुम्हीं महान मुक्तिवल्लभापती कहे।
प्रभो! तुम्हीं प्रधान ईश सर्व विश्व के कहे।।
प्रभो! तुम्हें सदा नमें सुभक्ति आप में धरें।
अनंत काल तक वहीं अनंत सौख्य को भरें।।८।।
नमो नमो जिनेन्द्रदेव! आप सौख्यरूप हो।
नमो नमो जिनेन्द्रदेव! आप चित्स्वरूप हो।।
अनंत दिव्यज्ञान से, समस्त लोक भासते।
अनंत दिव्य चक्षु से समस्त विश्व लोकते।।९।।
नमो जिनेन्द्र देव! आप सर्वशक्तिमान हो।
अनंत वस्तु देखते तथापि नहीं श्रांत हो।।
नमो जिनेन्द्र देव! आप में अनंत गुण सही।
गणीन्द्र भी गिनें तथापि पार पावते नहीं।।१०।।
प्रभो ! असंख्य भव्य जीव आपकी शरण गहें।
अनादि से अनंत दु:ख वार्धि पार वो लहें।।
असंख्य जीव मानवश न आस पास आवते।
स्वयं हि वे अपार भव अरण्य में हि जावते।।११।।
अनेक जीव दृष्टि रत्न पायके निहाल हों।
अनेक जीव तीन रत्न पाय मालामाल हों।।
अनेक जीव आप भक्ति में विभोर हो रहे।
अनेक जीव मृत्यु को पछाड़ पुण्य को लहें।।१२।।
मुनींद्र वृंद हाथ जोड़ शीश नावते सभी।
पुन: पुन: नमें तथापि तृप्ति ना लहें कभी।।
सुरेन्द्रवृंद अष्टद्रव्य लाय अर्चना करें।
सुदिव्य रत्न को चढ़ाय तृप्ति ना धरें कभी।।१३।।
नरेन्द्रवृंद भक्ति में विभोर नृत्य भी करें।
सुरांगना जिनेन्द्र भक्ति गीत गा ध्वनी करें।।
खगेन्द्रवृंद गीत गा संगीत नृत्य को करें।
खगांगना के साथ नाथ ! अर्चना करें वहां।।१४।।
जिनेन्द्र ! आपकी सभा असंख्य भव्य से घिरी।
तथापि क्लेश ना किसी को ये प्रभाव से भरी।।
निरक्षरी ध्वनी खिरे सभी के कर्ण में पड़े।
सभी समझ रहें स्वयं प्रभो ! प्रभाव से जुड़े।।१५।।
सुभव्य जीव ही सुनें लोकते निजात्म तत्व।
अपूर्व तेज आपका न कोई पार पा सके।।
जयो जयो जयो प्रभो ! अनंत ऋद्धि पूर्ण हो।
करो मुझे निहाल नाथ ! आप भक्ति पूर्ण हो।।१६।।
-दोहा-
तुम गण सूत्र पिरोय स्रज, विविध वर्णमय फूल।
धरें कण्ठ उन ‘ज्ञानमति’ लक्ष्मी हो अनुकूल।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थंकरचक्रवर्तिकामदेवपदसमन्वितश्रीशांतिनाथ—कुंथुनाथ—
अरनाथेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भाक्तिकजन तीर्थंकरत्रय—विधान भक्ति से करते हैं।
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू को यजते हैं।।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सब रोग शोक भय हरते हैं।
नवनिधि ऋद्धी सिद्धी पाकर, कैवल्य ज्ञानमति लभते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।