स्वयंसिद्ध, जय स्वयंसिद्ध, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना भाते हैं, ऐसा जीवन का प्रतिक्षण हो।
हो रसना पर सिद्धाय नम:, अनुभव में ज्ञानामृत कण हों।।हम.।।१।।
सब सिद्ध प्रभू सिद्धालय में, अगणित गुणमणि रत्नाकर हैं।
अगणित गुण……।
कतिपय बत्तिस गुण के स्वामी, फिर भी अनंत गुण सागर हैं।।फिर.।।
इनका आह्वानन करते ही, पावन मंदिर का कण कण हो-२।।हम.।।२।।
इन प्रभु का स्थापन करके, सन्निधीकरण हम करते हैं।
आठों द्रव्यों से पूजा कर, सब पाप धूलि को हरते हैं-२।।
इन सिद्धों की पूजा करके, हम सबकी बुद्धि विचक्षण हो।।हम.।।
स्वयंसिद्ध, जय स्वयंसिद्ध, मम हृदय विराजो-२।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२, नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध की…।।टेक.।।
अगणित नदियों का नीर पिया, नहिं अब तक प्यास बुझा पाये।
इसलिये सिद्ध की पूजा को, कंचन झारी में जल लाये।।
प्रभु पद में धारा करते ही……सब मन की प्यास बुझायें।।
।।प्रभु.।।१।।
ये क्रोध मान माया व लोभ, चारों कषाय दु:खदायी हैं।
इनने मेरी संयम निधि को, लूटा भव भ्रमण कराती हैं।।
हम इनका नाश करें भगवन् …..! फिर पुण्य रतन भर लायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२, नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।।
।।प्रभु.।।टेक.।।
भव भव में रोग शोक संकट, मानस देहज दु:ख पाये हैं।
इसलिये आपकी पूजा को, चंदन केशर घिस लाये हैं।।
प्रभुपद में चर्चन करते ही…….मुझ मन शीतल हो जाये।।
।।प्रभु.।।१।।
ज्वर कुष्ठ भगंदर कामलादि, व्याधी तन जर्जर करती है।
प्रभु भक्ती परम रसायन से, काया कंचन सम बनती है।।
गंधोदक तन में लगते ही…… सब रोग तुरत नश जायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२, नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
नश्वर सुख पाने की इच्छा, से दु:ख अनंत उठाये हैं।
सरसों सम सुख नहिं मिला किंतु, भवदधि में गोते खाये हैं।।
इसलिये धौत सित अक्षत ले…… हम पुंज चढ़ाने आये।।
।।प्रभु.।।१।।
यह आत्मा शुद्ध अखडित है, निज ज्ञान किरण से जग व्यापी।
सब आठ कर्म से संबंधित, भव व्याधी रग रग में व्यापी।।
अक्षय पद पाने हेतु प्रभो…..! तुम चरणों शीश नमायें।।।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
मकरध्वज ने तीनों जग में, निज शर से सबको वश्य किया।
प्रभु चरणाम्बुज में आ करके, वह भी तो क्षण में वश्य हुआ।।
निष्काम तुम्हारे चरणों में,……हम पुष्प चढ़ा सुख पायें।।
।।प्रभु.।।१।।
समता पीयूष पियें मुनिजन, स्वात्मा का अनुभव करते हैं।
फिर शुक्लध्यान में तन्मय हो, वैâवल्यरमा को वरते हैं।।
निज साम्यसुधारस पीने को……प्रभु चरण कमल को ध्यायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
यह क्षुधा पिशाची पिंड लगी, हम कैसे छुटकारा पायें।
प्रभु परमानंदामृत पीते, इसलिये आप शरणे आये।।
नैवेद्य चढ़ाकर तुम सन्मुख….. हम परम तृप्ति को पायें।।
प्रभु.।।१।।
जो आकिंचन भी तपोधनी, ज्ञानामृत भोजन करते हैं।
सर्दी में धैर्यमयी कंबल, ओढ़े गर्मी भी सहते हैंं।।
ऐसे मुनि भी तुम वंदन कर…. हर्षित मन ध्यान लगायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
मिथ्यात्व अंधेरे में हमने, निज को किंचित् नहिं पहिचाना।
प्रभु तुम हो केवलज्ञान सूर्य, इसलिये उचित समझा आना।।
दीपक से तुम आरति करते….. मन का अंधेर मिटायें।।
।।प्रभु.।।१।।
परिवार महल धन संपति को, मेरा मेरा कह दु:ख पाया।
मैं नित्य अकेला ही निश्चित, अब तुम प्रसाद से मन आया।।
प्रभु वंदन अर्चन कर करके…..निज ज्ञानज्योति चमकायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
शाश्वत जिनमंदिर में असंख्य भी, धूप घड़ों में अग्नि जले।
नित सुरगण सुरभि धूप खेते, तब धूम्र दशों दिश में फैले।।
हम धूपायन में धूप खेय…… कर निज के कर्म जलायें।।
।।प्रभु.।।१।
यद्यपि पूजन में आरंभी हिंसा किंचित् हो जाती है।
फिर भी समुद्र में विषकणवत्, वह हानि नहीं कर पाती है।।
इस कारण पूजा भक्तों के….. वर अतिशय पुण्य बढ़ाये।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश फैलाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
अंगूर अनार सेब केला, फल अनंनास ले आये हैं।
वर मोक्ष महाफल पाने को, तुम निकट चढ़ाने आये हैं।।
फल से पूजा करके भगवन…….रत्नत्रय निधि को पायें।।
।।प्रभु.।।१।।
शत इंद्र सभी सुरतरु के फल, ला लाकर पूजा करते हैं।
जिनवर पूजा का ही महात्म्य, वे इच्छित फल को लभते हैं।।
निज परमानंद सुफल पाने……. हम शरण आपकी आये।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
प्रभु सिद्ध की अर्चा-२ नर जीवन में नव प्रकाश भर लाये।
।।प्रभु सिद्ध.।।टेक.।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, उसमें नवरत्न मिलाये हैं।
निजभाव अपूर्व-अपूर्व मिले, यह आशा लेकर आये हैं।।
चरणों में अर्घ्य चढ़ा करके……नवलब्धिरमा पा जायें।।
।।प्रभु.।।१।।
सज्जाति सद्गार्हस्थ्य प्रव्रज्या, इन्द्र सौख्य साम्राज्य कहे।
आर्हन्त्य परम निर्वाण सात ये परमस्थान प्रधान रहें।।
तुम पूजा से इनको पावें….. हम यही भावना भायें।।
।।प्रभु.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
नाथ पद कंज में शांतिधारा करें।
विश्व में शांति होवे यही कामना।।
आधि सब दूर हों चित्त में शांति हो।
भक्ति से प्राप्त हो शांति आत्यंतिकी।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
नाथ के गुण सुमन आज चुन के लिये।
विश्व में गुण सुरभि फैलती है प्रभो!।।
पुष्प अंजलि समर्पण करूँ प्रेम से।
पुण्य संपत्ति पाऊँ सुयश वृद्धि हो।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सिद्ध सुगुण बत्तीस को, नमूँ नमूँ नत शीश।
पुष्पांजलि कर पूजते, फले आप आशीष।।१।।
अथ मंडलस्योपरि तृतीयवलये (तृतीयदले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(तर्ज—चंदना पुकारे स्वामी द्वार पे खड़ी)
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
सिद्ध परमदेव लोक अग्र पे रहें।
यहाँ से ही भक्त सिद्धभक्ति कर रहे।।
सिद्धप्रभू शुद्ध चैतन्य गुण से, चिंतामणी फल देते सभी को-२।।
कल्पवृक्ष भी मांगे से फल दे, सिद्धप्रभु बिन मांगे फल देते-बिन मांगे फल देते।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा करके….।।१।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धचेतनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आत्मा है शुद्ध ज्ञानभानु स्वभावी।
केवलज्ञानरूप शुद्ध पूर्ण प्रभावी।।
तेरह चारित को पालन करके।
तेरहवें गुणस्थान पहुँचे प्रभु जी।।पहुँचे.।।
आर्हंत्यलक्ष्मी पाकर के केवली।
श्री विहार कर सिद्ध हुए जी-सिद्ध हुए जी।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।।पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
शुद्ध चिद्रूप आप मुक्ति के पती।
नमूँ नमूँ मुझे मिले पंचमी गती।।
आपके प्रभाव से अनंते प्राणी।
मुक्तिरमा को प्राप्त किया है-प्राप्त किया है।
ऐसी आपकी कीर्ति सुनकर।
मैंने भी अब शरण लिया है-शरण लिया है।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धचिद्रूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आपका स्वरूप शुद्ध स्वात्मरूप है।
आपकी भक्ती से भक्त स्वात्म रूप हैं।
आपके प्रभाव से सर्प आदि के।
विष तत्क्षण ही दूर हो जाते-दूर हो जाते।
मन में भक्त जो संकल्प करते,
आपकी भक्ति से पूर्ण हो जाते-पूर्ण हो जाते।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धस्वरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आपने स्वरूपभाव प्राप्त कर लिया।
इसीलिए शीघ्र मुक्तिरमा वर लिया।।
क्रूर सिंह व्याघ्रादि पशू,
आपके प्रभाव से दूर भग जाते-२।।
शत्रु मित्र बन जाते तुरत ही,
आपकी भक्ति से वश हो जाते-२।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं स्वरूपभावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आप पूर्वभव में महाव्रती बने थे।
केवली के मूल में सम्यक्त्वी बने थे।।
सोलह कारण भावना भायी,
तीर्थकर प्रकृति को बांध लिया था, बांध लिया था।।
फिर स्वर्ग जाकर नर भव पाकर,
पंचकल्याणक वैभव लिया था, वैभव लिया था।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धदृढीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
आज सिद्धचक्र का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
तीनों लोक एक साथ देखते प्रभो।
फिर भी अपनी आत्मा में तिष्ठते विभो।।
आपकी कृपादृष्टि जिसको मिली है,
वे ही निजात्मा को देख ही लेते, देख ही लेते।।
जिसने आपकी शरण लिया है,
वे भी निजात्मा को प्राप्त कर लेते, प्राप्त कर लेते।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धावलोकिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
शुद्ध हो स्वयंभू तुम्हीं स्वयं स्वात्म ध्याया।
तभी तो विशुद्ध हुये स्वात्म तत्त्व पाया।।
इसीलिए आये शरण—हो…….।
इसीलिए आये शरण, भव दु:ख मिटा दो।
शिवपथ दिखा दो।।नाथ पूछें.।।१।।
मोक्षमार्ग दो प्रकार आपने बताया।
भक्ति और निवृत्ती से उसको दिखाया।।
इसीलिए भक्ति करें-हो………।
इसीलिये भक्ती करें, शिवपथ दिखा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
तुम्हीं शुद्ध योगी कहे शुक्ल ध्यान ध्याके।
इसी से महान हुये मोक्षधाम पाके।
इसीलिये पूजें चरण-हो……..।
इसीलिये पूजें चरण, ध्यान को सिखा दो।।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।१।।
आर्तरौद्र ध्यान दोनों जग में भ्रमाते।
धर्मध्यान से ही प्राणी शुक्लध्यान पाते।
इसीलिये आये यहाँ-हो………..।
इसीलिये आये यहाँ साम्यरस पिला दो।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धयोगिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
जन्मजात शुद्धरूप नग्नवेष धारा।
स्वात्मा में लीन होके स्वयं को निहारा।।
प्रार्थना करें प्रभूजी-हो…….
प्रार्थना करें प्रभूजी, मोह से छुड़ा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।१।।
मेरा चित्त चंचल है, निज में न रुकता।
प्रभो! आप करूणा कर दो, ध्यान में हो थिरता।।
याचना यही है प्रभु जी!-हो…….
याचना यही है प्रभु जी! चिन्मय बना दो।
यह दो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धजाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
बारह विध तप करके शुद्ध हो गये हो।
आत्मा के तेज से ही तेजपुंज भये हो।।
प्रभु देह से भी मेरी-हो…….
प्रभु देह से भी मेरी ममता छुड़ा दो,
यह तो बता दो।।नाथ.।।१।।
देह ये अपावन और क्षणिक है जगत में।
फिर भी इसी से मिले तीन रत्न सच में।।
प्रभो! मेरे रत्न तीनों-हो……..
प्रभो! मेरे रत्न तीनों मुझको दिला दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धतपसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
वर्ण गंध रस स्पर्श पुद्गल के गुण हैं।
इनसे ही देह बना आत्मा उसी में हैं।
आप ज्ञानमूर्ति प्रभु जी-हो…….
आप ज्ञानमूर्ति प्रभु जी ज्ञान को बढ़ा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।१।।
व्यवहारनय से हम हैं मूर्त देह धारी।
इसीलिये दु:ख भोग रहे संसारी।।
प्रार्थना करें प्रभु जी-हो…….
प्रार्थना करें प्रभु जी, पावन बना दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
आप तो निजात्मा के सुख में मगन हो।
ऐसा करो जिससे मेरा भी दुख शमन हो।।
मोहराज से छुड़ा के-हो
मोहराज से छुड़ा के निज सुख दिला दो।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।१।।
साता औ असाता दोनों आकुलता करते।
इनको विनाशा आप निजानंद धरते।।
इसीलिये आये शरण-हो…..
इसीलिये आये शरण सब दुख मिटा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
प्रभु आप पावन हैं शुद्ध गुणधारी।
हम हैं अपावन और दुखी संसारी।।
हमें करो पावन प्रभु जी-हो……
हमें करो पावन प्रभुजी अशुची मिटा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धपावनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
मोक्ष में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
ज्ञान से बना शरीर शुद्ध देह धारा।
भक्तों ने आके यहाँ किया जय जयकारा।।
तुम्हीं ज्ञानसूर्य प्रभु जी-हो……
तुम्हीं ज्ञानसूर्य प्रभुजी मोहतम भगा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।१।।।
अज्ञान तम ने जग को अंधसम बनाया।
भक्तों को ज्ञान नेत्र खोल के जगाया।
मेरे हृदय में ज्ञान-हो……
मेरे हृदय में ज्ञानज्योती जला दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धशरीराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
त्रैलोक्य जानने योग्य कहा, मुनियों ने उसे प्रमेय कहा।
प्रभु शुद्धप्रमेय तुम्हीं जग में, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
प्रभु नरक बिलों में बहु सागर, वर्षों तक दु:ख सहा जाकर।
उन दुख से तुम्हीं छुड़ा सकते, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धप्रमेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
शुभ अशुभ शुद्ध उपयोग कहे, संसारी में तीनों ही रहें।
प्रभु परम शुद्ध उपयोगमयी, हम अर्घ्य. ।।हे.।।१।।
तिर्यंचगती में क्षुधा, तृषा, वध बंधन की वहाँ बहुत व्यथा।
हम दु:खों से व्याकुलित हुये, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धयोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
अर्हंत अवस्था में प्रभु के, पुष्पों की वर्षा आदि दिखें।
देवों द्वारा बहु विभव हुये, हम अर्घ्य.।। हे.।।१।।
मानव जीवन में कष्ट घने, नानाविध रोग व शोक घने।।
सब दुख से आप बचा सकते, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धभोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
कर्मों से आत्मा पृथक् किया, प्रभु शुद्ध परम आनंद लिया।
शुद्धात्मा होकर सिद्ध हुए, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
प्रभु देव गती में भी दुख है, मानस दुख इष्ट वियोग भी हैं।
इन दु:खों से छुटना चाहें, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रा शुद्धावलोकिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु अर्हत् मुद्रा के धारी, सब दोष रहित हो अविकारी।
इस शुद्ध रूप से सिद्ध हुये, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
चारों गति के नाना दुख भी, भोगें है काल अनंतों ही।
अब पंचम गति मिल जाय मुझे, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धार्हत्जाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
ये अशुभ कर्म जब उदय हुये, सब जीव अनादि अशुद्ध रहें।
तुमने सब कर्म विनाश किया, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
मेरी आत्मा शुद्धात्मा है, निश्चयनय से परमात्मा है।
यह शुद्ध निपात केवली हो, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिपाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु मातृ गर्भ में शुद्ध कहे, रजमल से पूर्ण अलिप्त रहे।
शुक्तापुट में मुक्ताफलवत्, जिनवर की महिमा गाये हैं।।हे.।।१।।
यह महिमा तीर्थंकर की है, अति शुद्ध धाम में वास किया।।
हमको भी शुद्ध निवास मिले, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धार्ह गर्भवासाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
सिद्धों के गुणों को गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु आप शुद्ध सिद्धालय में, नित वास करें सौख्यालय में।
त्रिभुवन में अतिशय शुद्ध तुम्हीं, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
मेरा निवास भी सिद्धालय, भक्ती से मिलेगा सौख्यालय।
ऐसी युक्ती प्रभु मिल जाये, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसिद्धवासाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
भगवान् आप शुद्ध परम वास कहाए।
इस हेतु आप पाद की नित वंदना करूँ।।हे.।।१।।
सब विघ्न दूर हो प्रभो! तेरे प्रसाद से।
करिये कृपा मुझ पे मैं सिद्धिअंगना वरूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धपरमवासाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
हो आप शुद्ध सिद्ध परम आत्मा सुखी।
इस हेतु आप पदकमल की वंदना करूँ।।हे.।।१।।
व्यवहार नय से आत्मा मेरी अशुद्ध है।
करके कृपा विशुद्ध करो प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसिद्धपरमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु आप शुद्ध गुण अनंत से महान हैं।
इस हेतु आप की अनंत वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैंने अशुद्ध हो अनंत दु:ख सहे हैं।
उनसे मुझे छुड़ा दो यह प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धानंतगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध शांत हो अनंत शांति पा लिया।
मैं आपकी भक्ती से यम की तर्जना करूँ।।हे.।।१।।
मैं हूँ अशुद्ध औ अशांत जन्म व्याधि से।
कैसे सुखी बनूँ यही तो याचना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धशांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
भगवंत आपही भदंत शुद्ध स्वरूपी।
मैं भी बनूँ विशुद्ध पाप खंडना करूँ।।हे.।।१।।
मेरे समस्त दोष आप दूर कीजिये।
मैं बार बार शिर झुका के वंदना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धभदंताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध हो निरुपम तुम्हीं वर्णादि रहित हो।
तुम स्वात्म रूप हो इसी से वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मेरा स्वरूप शुद्ध है पुद्गल तनू रहित।
मैं इसकी प्राप्ती हेतु आपको नमन करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिरूपमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य वंदना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध हो निर्वाण धाम में सदा रहो।
इस हेतु आप पद कमल की वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैं जन्म मरण करते-करते श्रांत हुआ हूँ।
इनसे छुड़ाइये प्रभो! यह प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिर्वाणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य वंदना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध गर्भ से हुये सिद्धातमा तुम्हीं।
नहिं तुमको पुनर्जन्म अत: वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैं गर्भवास के दु:खों से छूटना चहूँ।
करिये कृपा हे नाथ! पुनर्जन्म ना धरूँं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसंदर्भगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
मैं सिद्ध के गुणों की नित्य वंदना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
एकाग्र शुद्ध चित्त से निज आत्म को ध्याया।
मैं भी शुद्धात्मध्यान से निज आत्म सुख भरूँ।।हे.।।१।।
संपूर्ण कर्मनाश आप सिद्ध हो गये।
मैं भी सदैव भक्ति से निजसंपदा भरूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धस्वान्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
जो गुणरत्नाकर सिद्धात्मा, कृतकृत्य हुये शिवधाम रहें।
त्रिभुवन में घूम चुके बहुदिन, मानो इससे विश्राम गहें।।
उन त्रिभुवन पूज्य जगद्गुरु की, हम कोटि वंदना करते हैं।
हम को भी अपने सम कर लो, बस यही प्रार्थना करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं द्वात्रिंशद्गुणसहितसिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:। (१०८ बार)
नाथ! त्रैलोक्य के पूर्ण चंदा तुम्हें।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे जिनंदा तुम्हें।।टेक.।।
कोई मतिज्ञान श्रुतज्ञान से केवली।
साधु कोई अवधि ज्ञान से केवली।।नाथ.।।१।।
कोई मति श्रुत मन:पर्ययी तीन से।
केवली हो पुन: शिव गये तीन से।।नाथ.।।२।।
कोई मति श्रुत अवधि मन:पर्यय धरें।
केवली हो पुन: मुक्तिकन्या वरें।।नाथ.।।३।।
पाँच संयम धरें मुक्तिलक्ष्मी वरें।
कोई परिहार शुद्धी बिना शिव धरें।।नाथ.।।४।।
कोई सम्यक्त्व चारित्र ज्ञानादि से।
च्युत हुये फेर धारा पुन: शिव गये।।नाथ.।।५।।
कोई चारित्र आदि से च्युत ना कभी।
मुक्ति कन्या वरी इंद्र वंदित सभी।।नाथ.।।६।।
देव उपसर्ग से संहरण सिद्ध हों।
साधु बिन संहरण अनंत भी सिद्ध हों।।नाथ.।।७।।
साभरण१ सिद्ध पांडव मुनी मानिये।
आभरण बिन सभी सिद्ध हों जानिये।।नाथ.।।८।।
केवली कर समुद्घात भी सिद्ध हों।
बिन समुद्घात आनंत भी सिद्ध हों।।नाथ.।।९।।
केवली खड्ग आसन धरें सिद्ध हों।
कोई पर्यंक आसन धरें सिद्ध हों।।नाथ.।।१०।।
मुक्ति अन्यासनों से नहीं शास्त्र में।
मैं नमूँ मैं नमूँ भक्ति है आप में।।नाथ.।।११।।
सर्व सिद्धातमा एक सम गुण धरें।
भूत नैगमनयों से विविधिता धरें।।नाथ.।।१२।।
ये सभी सिद्ध आनंत आनंत हैं।
लोक के अग्र पे सर्व राजंत हैं।।नाथ.।।१३।।
जन्म से मृत्यु से शून्य हैं शून्य हैं।
ज्ञान से सौख्य से पूर्ण हैं पूर्ण हैं।।नाथ.।।१४।।
आपके पास में आज मैं आ गया।
कीजिये नाथ! मुझ भक्त पे अब दया।।नाथ.।।१५।।
जन्म के दु:ख से अब बचा लीजिये।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण कर लाज रख लीजिये।।नाथ.।।१६।।
अगणित गुणमणि के धनी, गणधर गण से वंद्य।
दे दीजे अष्टम अवनि, हर लीजे दुख द्वंद।।१७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं द्वात्रिंशद्गुणसमन्वितसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।