-स्थापना-(अडिल्ल छंद)-
रामचन्द्र के समय सप्तऋषि थे हुए।
जिनके तप से जन जन मन पावन हुए।।
उनमें चौथे ऋषी सर्वसुन्दर कहे।
उनकी पूजा हेतू आह्वानन करें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षे! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षे! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षे! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (दोहा)-
सुरसरिता जल से करूँ, गुरुपद में जलधार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल चन्दन से करूँ, गुरुपूजन सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत पुंजों से करूँ, गुरुपूजन सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पमाल लेकर करूँ, गुरुपूजन सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन सरस बनाय के, अर्पूं गुरुपद सार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन दीपक से करूँ, गुरु आरति सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दहन करके करूँ, गुरुपूजन सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना विध फल से करूँ, गुरुपूजन सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य ‘चन्दनामति’ लिया, गुरुपूजन हित आज।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतीधारा मैं करूँ, गुरुपद में सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि को मैं करूँ, गुरुपद में सुखकार।
ऋषी सर्वसुन्दर करो, मेरा भी उद्धार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- सप्तऋषी मण्डल रचा, पूजा हेतु महान।
पुष्पांजलि करके वहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
शंभु छंद-तन से सुन्दर मन से सुन्दर था, रूप सर्वसुन्दर ऋषि का।
इसलिए दूर कर सके घोर-उपसर्ग वे मथुरा नगरी का।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसर्वसुन्दरमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये नम:।
तर्ज-जरा सामने तो………
सप्त ऋषियों की करूँ मैं अर्चना, उनके पद की करूँ मैं वंदना।
सर्वसुन्दर उन्हीं में चतुर्थ हैं, उनकी जयमाल पढ़ करूँ वंदना।।टेक.।।
देव शास्त्र गुरु हैं इस जग में, तीन रतन माने जाते।
इनके आराधन से जग में, तीन रतन पाए जाते।।
तीनों रत्नों की करूँ अभ्यर्थना, सप्तऋषियों की करूँ मैं अर्चना।
सर्वसुन्दर उन्हीं में चतुर्थ हैं, उनकी जयमाल पढ़ करूँ वंदना।।१।।
बृहस्पति गुरु भी श्रीगुरु की, महिमा नहिं कह सकते हैं।
जिनवर की महिमा हम गुरुओं, के द्वारा ही सुनते हैं।।
उन्हीं गुरुओं की करूँ अभ्यर्थना, सप्तऋषियों की करूँ मैं अर्चना।
सर्वसुन्दर उन्हीं में चतुर्थ हैं, उनकी जयमाल पढ़ करूँ वंदना।।२।।
तप करके उन सब ऋषियों ने, ऋद्धि अनेकों पाईं थीं।
उनमें से चारण ऋद्धी की, महिमा प्रमुख दिखाई थी।।
उस ऋद्धि की करूँ अभ्यर्थना, सप्त ऋषियों की करूँ मैं अर्चना।
सर्वसुन्दर उन्हीं में चतुर्थ हैं, उनकी जयमाल पढ़ करूँ वंदना।।३।।
उनकी पूजन करके अब, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
पद अनर्घ्य ‘‘चन्दनामती’’ पाने के लिए हम आए हैं।।
उसी पद की करूँ अभ्यर्थना, सप्तऋषियों की करूँ मैं अर्चना।
सर्वसुन्दर उन्हीं में चतुर्थ हैं, उनकी जयमाल पढ़ करूँ वंदना।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसुन्दरमहर्षये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी की अर्चना, देवे सौख्य महान।
इनके पद की वंदना, करे कष्ट की हान।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।