जो हमेशा धर्मश्रवण करने में लगे रहते हैं, विद्वानों ने उन्हें श्रोता माना है। अच्छे और बुरे के भेद से श्रोता अनेक प्रकार के हैं, उनके अच्छे और बुरे भावों के जानने के लिए नीचे लिखे अनुसार दृष्टान्तों की कल्पना की जाती है। स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणों की अपेक्षा रखकर ही वक्ता को सन्मार्ग का उपदेश देना चाहिए तथा श्रोता को सुनना चाहिए क्योंकि सत्पुरुषों की चेष्टाएँ वास्तविक कल्याण की प्राप्ति के लिए होती हैं अन्य लौकिक कार्यों के लिए नहीं। जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त होता है, वही प्रशंसनीय माना जाता है। इसी प्रकार जो वक्ता वात्सल्य आदि गुणों से भूषित होता है, वही प्रशंसनीय माना जाता है। शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीति ये श्रोताओं के आठ गुण जानना चाहिए। भावार्थ-सत्कथा को सुनने की इच्छा होना शुश्रूषा गुण है, सुनना श्रवण है, समझकर ग्रहण करना ग्रहण है, बहुत समय तक उसकी धारणा रखना धारण है, पिछले समय ग्रहण किये गये उपदेश आदि का स्मरण करना स्मरण है, तर्क द्वारा पदार्थ के स्वरूप के विचार करने की शक्ति होना ऊह है, हेय वस्तुओं को छोड़ना अपोह है और युक्ति द्वारा पदार्थ का निर्णय करना निर्णीति गुण है। श्रोताओं में इनका होना अत्यन्त आवश्यक है। सत्कथा के सुनने से श्रोताओं को जो पुण्य का संचय होता है, उससे उन्हें पहले तो स्वर्ग आदि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है और फिर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार मैंने शास्त्रों के अनुसार आप लोगों को कथामुख (कथा के प्रारंभ) का वर्णन किया है, अब इस कथा के अवतार का संबंध कहता हूँ, सो सुनो। गुरुपरम्परा से ऐसा सुना जाता है कि पहले तृतीयकाल के अंत में नाभिराज के पुत्र भगवान् ऋषभदेव विहार करते हुए अपनी इच्छा से पृथिवी के मुकुटभूत कैलाशपर्वत पर आकर विराजमान हुए।
कैलाश पर्वत पर विराजमान हुए उन भगवान् ऋषभदेव की देवों ने भक्तिपूर्वक पूजा की तथा जुड़े हुए हाथों को मुकुट से लगाकर स्तुति की। देवाधिदेव भगवान् आश्चर्यकारी विभूति के साथ जब समवसरण सभा में विराजमान थे, तब भक्ति से भरे हुए महाराज भरत ने हर्ष के साथ आकर उन्हें नमस्कार किया। महाराज भरत ने मनुष्य और देवों से पूजित उन जिनेन्द्रदेव की अर्थ से भरे हुए अनेक स्तोत्रों द्वारा पूजा की और फिर वे विनय से नत होकर अपने योग्य स्थान पर बैठ गये। इसके अनन्तर मूर्तिमान् विनय की तरह महाराज भरत हाथ जोड़ सभा के बीच खड़े होकर यह वचन कहने लगे। प्रार्थना करते समय महाराज भरत के दाँतों की किरणरूपी केशर से शोभायमान मुख से जो मनोहर वाणी निकल रही थी, वह ऐसी मालूम होती थी, मानो उनके मुख से प्रसन्न हुई उज्ज्वल वर्णधारिणी सरस्वती ही निकल रही हो। हे स्वामिन्! तीनों लोकों की लक्ष्मी के मुख देखने के लिए मंगल दर्पण के समान आचरण करने वाले आपके इन वचनों के विस्तार में प्रतिबिम्बित हुई संसार की समस्त वस्तुओं को यद्यपि मैं देख रहा हूँ, तथापि मेरे हृदय में कुछ पूछने की इच्छा उठ रही है और उस इच्छा का कारण आपके वचनरूपी अमृत के निरन्तर पान करते रहने की लालसा ही समझनी चाहिए। हे देव! यद्यपि लोग कह सकते हैं कि गणधर को छोड़कर साक्षात् आपसे पूछने वाला यह कौन है ? तथापि मैं इस बात को कुछ नहीं समझता, आपकी सातिशय भक्ति ही मुझे आपसे पूछने के लिए प्रेरित कर रही है।