-स्थापना-
तर्ज-श्रीपति जिनवर करुणायतनं……
हे नाथ! तुम्हारी पूजन का, शुभ भाव हृदय में आया है।
जग के दु:खों से घबराकर, यह भक्त तेरे ढिग आया है।।टेक.।।
सोलहकारण की एक-एक, भावना पढ़ी जब से मैंने।
संसार प्रपंचों को तजने, का भाव बनाया है मैंने।।
बस इसीलिए पूजन करने का, भाव हृदय में आया है।
जग के दु:खों से घबराकर, यह भक्त तेरे ढिग आया है।।१।।
शारीरिक-मानस-आगंतुक, दु:खों से भरा भवसागर है।
यहाँ इष्ट वियोग अनिष्ट योग दुख, चिरकालीन निशाचर है।
उनसे मुक्ति पाने हेतू, संवेग भाव मन आया है।
जग के दु:खों से घबराकर, यह भक्त तेरे ढिग आया है।।२।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
करके मन में भावना, है संवेग प्रधान।।३।।
ॐ ह्रीं संवेगभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं संवेगभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं संवेगभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (दोहा)-
गंगा नदि का नीर ले, धार करूँ जिन पाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूँ हरूँ मन ताप।।१।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि की गंध ले, चर्चं जिनवर पाद।
मैं संवेगसुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।२।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल धवल सुगंध ले, अर्पूं जिनवर पाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूँ हरूँ मन ताप।।३।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही गुलाब सु केवड़ा, अर्पूं जिनवर पाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।४।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन सरस बनायके, अर्पूं जिनवर पाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।५।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत का दीप जलायके, करूँ आरती नाथ।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।६।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित अग्नि में, दहन करूँ जिनपाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।७।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनार ले, अर्पूं जिनवर पाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।८।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’ अर्पण है जिनपाद।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।९।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतीधारा मैं करूँ, आत्मशांति के काज।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, आत्मसुरभि के काज।
मैं संवेग सुभावना, जजूूँ हरूँ मन ताप।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(पंचम वलय में १४ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-सोरठा-
सोलहकारण में, है संवेग सु भावना।
उसके पालन हेतु, करलूँ आतम साधना।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पंचमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
पृथिवीकायिक जीवों की, कुलकोटि सात लख मानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।१।।
ॐ ह्रीं पृथिवीकायदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जलकायिक जीवों की भी, कुलकोटि सात लख मानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।२।।
ॐ ह्रीं जलकायदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नीकायिक जीवों की, कुलकोटि सातलख मानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।३।।
ॐ ह्रीं अग्निकायदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायुकायिक जीवों की, कुलकोटि सातलख मानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।४।।
ॐ ह्रीं वायुकायिकदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वनस्पति वृक्षों की दशलख, कुलकोटियाँ बखानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।५।।
ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित्यनिगोद के दु:ख को जिह्वा, द्वारा कहा न जा सकता।
सात लाख कुलकोटि में, लेकर जन्म मरण करता।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।६।।
ॐ ह्रीं नित्यनिगोददु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इतरनिगोदी जीवों की, कुलकोटि सातलख मानी हैं।
उनकी विराधना नहिं हो उनमें, भी जीवात्मा मानी है।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।७।।
ॐ ह्रीं इतरनिगोददु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं न्र्वपामीति स्वाहा।
द्वीन्द्रिय जीव असंख्याता-संख्यात भेदयुत माने हैं।
उनके कुल दो लाख तरह के, जिनआगम में बखाने हैं।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।८।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रीन्द्रिय जीव असंख्याता-संख्यात भेद युत माने हैं।
उनके कुल दो लाख तरह के, जिन आगम में बखाने हैं।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।९।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुरिन्द्रिय भी असंख्याता-संख्यात भेदयुत माने हैं।
उनके कुल दो लाख तरह के, जिनआगम में बखाने हैं।।
ऐसी योनि मिले नहिं मुझको, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।१०।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवकायदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पञ्चेन्द्रिय मनुजों की चौदह-लख कुलकोटि बखानी हैं।
मनुजयोनि पाकर हमने, उसकी कीमत पहचानी है।।
ऐसी दुर्लभ मनुजयोनि में, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।११।।
ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियमनुष्यपर्यायजनितदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
देवगती में देवों की कुलकोटि, चार लख मानी हैं।
सम्यग्दर्शन युक्त देवगति, की महिमा ही बखानी है।।
देवगती पाने हेतू अब, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।१२।।
ॐ ह्रीं देवगतिजनितदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिर्यंचगति में जीवों की, कुलकोटि चार लख मानी हैं।
इसके दुख को जान मुझे, तिर्यंचगति नहिं पानी हैं।।
सम्यग्दर्शन दृढ़ हो मेरा, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।१३।।
ॐ ह्रीं तिर्यंचगतिजनितदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
नरकगति के जीवों की, कुलकोटि चार लख मानी हैं।
वहाँ के दु:ख को जान मुझे, अब नरकगती नहिं पानी है।।
सम्यग्दर्शन दृढ़ हो मेरा, यही भावना भानी है।
जग से हो वैराग्य प्रभो! मिल जावे मुक्ति निशानी है।।१४।।
ॐ ह्रीं नरकगतिजनितदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
इन चौरासी लाख योनियों, में अनादि से भ्रमण हुआ।
हे प्रभु! आत्मज्ञान बिन मेरा, शिवपथ में नहिं गमन हुआ।।
पूर्ण अर्घ्य ले इसीलिए, संवेग भावना पूजूँ मैं।
जिनवर के चरणों में आकर, भव भव दुख से छूटूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिजनितसंसारदु:खविरक्ताय संवेगभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं संवेगभावनायै नम:।
तर्ज-हम लाएँ हैं तूफान से…….
हम आए हैं जिनवर चरण, पूर्णार्घ्य को लेके।
संवेगभावना को निज, हृदय में संजोके।।टेक.।।
चौरासिलाख योनियों में, समय बिताया।
मैंने अनादिकाल से बस, दुख को ही पाया।।
कुछ पुण्य से नरभव में आए, जन्म को लेके।
संवेगभावना को निज, हृदय में संजोके।।१।।
स्वर्गों के सुख भोगे वहाँ भी, शांति न पाई।
नरकों में रो रोकर वहाँ की, आयु बिताई।।
मानव जनम सार्थक करूँ, सम्यक्त्व को लेके।
संवेग भावना को निज, हृदय में संजोके।।२।।
प्रभु के निकट मैं सोलहकारण, भावना भाऊँ।
सम्यक्त्व की महिमा से आतम, शुद्ध बनाऊँ।।
भव भव में मिले भक्ति यही, आश मन लेके।
संवेगभावना को निज, हृदय में संजोके।।३।।
संसार के दुख से प्रभो! अब, डर लगा करता।
वैâसे तिरूँ भवसिंधु को, चिन्तन किया करता।।
बस इसलिए ही भावनाएँ, भाई हैं मन में।
संवेग भावना को निज, हृदय में संजोके।।४।।
पूजन से मेरी आत्मा भी, पूज्य बनेगी।
भावों की परिणती से शिव-गती भी मिलेगी।।
बस ‘‘चन्दनामती’’ चढ़ाऊँ, अर्घ्य प्रभो मैं।
संवेग भावना को निज, हृदय में संजोके।।५।।
ॐ ह्रीं संवेगभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।