(३५)
अब देखें इधर अयोध्या में, राज्याभिषेक भरतेश्वर का ।
करके चल दिए पिता दशरथ, जहाँ मेला लगा मुनीश्वर का ।।
दीक्षा लेकर राजन दशरथ ,शुभ ध्यान योग में लीन हुए।
पर पुत्रशोक से कभी—कभी ,उनके शुभाव भी मलिन हुए।।
(३६)
यहाँ भरत महल में रहकर भी, मुनिसदृश धर्म पालन करते।
जल में हो भिन्न कमल जैसे, भोगों से अनासक्त रहते ।।
असिधारा व्रत पाला इनने, ज्ञानीजन सब कह गये यही।
रागिनियों बीच विरक्त रहे, ऐसे नर होते हैं कम ही।।
(३७)
जंगल—जंगल और ग्राम—शहर, श्रीराम जहाँ भी जाते थे।
करके कल्याण सभी जन का, आगे ही बढ़ते जाते थे।।
राजागण भक्ति से प्रेरित हो, नगर निमंत्रण देते हैं।
स्वीकार न करके राम वहीं, वन और अटवी में रहते हैं।।
(३८)
जंगल में ही तब बसा दिया, वह रामपुरी बन गयी वहीं।
श्रीराम जहां पर पग रखते, वहाँ कमल बिछाते थे नृप ही।।
रत्न औ सुवर्ण के आसन पर, श्रीरामचंद्र को बैठाते।
वह जहां ठहरते उसी जगह, भोजनशालाएँ खुलवाते।।
(३९)
इक दिवस राम बोले लक्ष्मण!,इन सबसे हमें प्रयोजन क्या ।
हम चलकर ऐसी जगह रहे, जिसकी खातिर यह राज्य तजा।।
है नदीपार दंडकवन जो, जहाँ भूमीचर नहिं रहते हैं।
और भ्रात भरत की राजाज्ञा का, भी प्रवेश वहाँ वर्जित है।।