कई बार अनेक श्रावक-लाला श्यामलाल जी, डा. कैलाशचंद जी आदि का कहना रहा कि- ‘‘इतने बड़े निर्माण कार्य के लिए एक संस्थान का निर्माण होना चाहिए।’’
अतःदिगम्बर ‘जैन त्रिलोक शोध संस्थान’ ‘‘दिगम्बर जैन इंस्टीट्यूट ऑफ कास्मोग्रेफिक रिसर्च’’ नाम से एक संस्थान की स्थापना की गई।
इसके नाम का एक साइन बोर्ड, जिसमें ताराओं से नाम लिखा गया था, वह तैयार किया गया और विधिवत् कार्तिक कृष्णा अमावस्या-भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष कल्याणक के उत्तम दिवस इस संस्थान की स्थापना कर यह बोर्ड यहीं धर्मशाला में ऊपर सामने लगा दिया गया।
इसी दिन ‘वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला’ नाम से एक गंथमाला की भी स्थापना की गई। अजमेर में प्रेस में छप रही अष्टसहस्री को लाकर यहाँ पहाड़ीधीरज पर ही सम्राट प्रेस में छपने को दे दिया। मोतीचंद जी सारी व्यवस्था देखते थे। प्रायः अन्तिम प्रूफ मैं देखकर देती थी, तब फर्मा छपता था। यह अष्टसहस्री ग्रंथ ही इस ग्रंथमाला का प्रथम पुष्प बना है।
मंदिर में विधान
एक दिन पहाड़ीधीरज के मंदिर में शांतिविधान का कार्यक्रम रखा गया। इतनी भीड़ हुई कि मंदिर ही छोटा लगने लगा। कुछ महिलाओं ने, जो कि पूजन-सामग्री भी साथ में लाई थीं किन्तु मंदिर में जगह नहीं होने से वे नहीं कर सकीं, पुनः सबके आग्रह से दो दिन और शांति विधान कराया गया।
यहाँ की महिलाओं में विधान-पूजन के प्रति बहुत भक्ति थी पुनः अष्टान्हिका में यहीं पर सिद्धचक्र विधान हुआ, जिसे मोतीचन्द ने विधिवत् सम्पन्न कराया, अच्छी प्रभावना हुई।
चातुर्मास के बाद विहार
चातुर्मास के बाद यहाँ से विहार कर मैं संघ सहित कैलाशनगर पहुँची, वहाँ पर भी अच्छी प्रभावना हुई। प्रतिदिन उपदेश से बहुत लोगों ने लाभ लिया। वहाँ से दरियागंज आश्रम आदि में ठहरते हुए नजफगढ़ पहुँची। यहाँ भी अच्छी भक्ति थी। इस बीच अनेक स्थानों पर विहार और उपदेश होते रहे, धर्म प्रभावना होती रही।
नजफगढ़ में चातुर्मास
सन् १९७३ का चातुर्मास यहाँ नजफगढ़ दिल्ली में हुआ। यहाँ नजफगढ़ में मंदिर की बहुत बड़ी जगह थी। लोगों की प्रार्थना से यहाँ पर जंबूद्वीप निर्माण का कार्य शुरू किया गया था पुनः कुछ विघ्न-बाधाओं के आ जाने से वहाँ यह कार्य संभव नहीं हो सका। यहाँ पर मैंने त्रिलोकभास्कर आदि पुस्तके लिखीं और कातन्त्र व्याकरण का हिन्दी में अनुवाद किया। यहाँ के बाबू उल्फतराय, मुरारीलाल, सागरचंद आदि अनेक श्रावकों और श्राविकाओं ने धर्मलाभ लिया था।
छोटे-मोटे अनेक विधान हुए पुनः ‘तीन लोक विधान’ बड़े रूप में कराया गया। ‘‘दगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ नाम से संस्थान की स्थापना होते ही तीन लोक को विशेष रूप से आबाल गोपाल समझ सके, यह आवश्यकता महसूस हुई। ‘‘धर्मध्यान के चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय आदि संस्थानविचय।
संस्थानविचय में तीन लोक के संस्थान-आकार का चिंतवन करना। ऊध्र्वलोक में १६ स्वर्ग, नव ग्रैवेयक, नवअनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं उनके ऊपर सिद्धशिला है। अधोलोक में सात नरक हैं और नीचे निगोदस्थान हैं। मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। इनके भी ठीक बीच में ‘जंबूद्वीप’ है।
इत्यादि द्वीप-समुद्रों का विस्तार से चिंतवन करना यह सब संस्थानविचय धर्म-ध्यान है, ऐसा ‘ज्ञानार्णव’ जैसे महाग्रंथ में लिखा है। मैंने तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जंबूद्वीप पण्णत्ति और लोक विभाग आदि ग्रंथों के आधार से यह ‘त्रिलोक भास्कर’ नाम का ग्रन्थ तैयार किया।
बड़े योजन में दो हजार कोश माने हैं अतः आज एक कोश में दो मील की परम्परा चालू होने से एक महायोजन को चार हजार मील से गुणा करके मैंने इस पुस्तक में सर्वत्र योजना की सरल गणित कर दी, जिससे आज के स्वाध्यायप्रेमियों को सरलता हो जावे। यह ग्रंथ एक हजार छपे थे।
इसके कवर पर भी तीन लोक की मोटाई को बतलाने वाला, ऐसा तीन लोक का भव्य चित्र छपाया गया था। आज यह ग्रन्थ द्वितीय संस्करण न छप सकने के कारण उपलब्ध नहीं है, मात्र नमूने की एक-दो प्रतियां हैं। इसे अनेक प्रबुद्ध लोगों ने बहुत ही पसंद किया था।
अष्टसहस्री ग्रंथ प्रकाशन में विघ्न
दिल्ली में सेठ चांदमलजी पांड्या गौहाटी (आसाम) वाले आते ही रहते थे। उनके सामने जब-अष्टसहस्री छप रही है, यह चर्चा आई, तब उन्होंने साफ कह दिया- ‘‘माताजी!- मैं इसे नहीं छपाऊँगा।’’ अनंतर उन्होंने संघस्थ एक शिष्या से कह दिया- ‘‘देखो! मैं क्या करूँ? एक विशेष मुनिराज ने मुझे मना कर दिया है, हालांकि मैंने बहुत बार माताजी से कहा था कि यह ग्रंथ मैं ही छपाऊँगा अतः एक लाख रुपये की कोई बात नहीं है किन्तु मैं उन विशेष मुनिराज की आज्ञा कैसे उल्लंघन करूँ? ।’’
मुझे सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि- ‘‘अहो! वे मुनिराज मुझे कितना वात्सल्य दिखाते हैं? कितना बहुमान और आदर देते हैं? पुनः उन्होंने ऐसा कार्य वैâसे किया? अरे! क्या इन जैसे श्रेष्ठी को रोक देने से इनका रुपया बढ़ जायेगा। हाँ! ज्ञानदान में खर्च करने से अवश्य बढ़ता, न कि घटता।
वास्तव में मैंने मेरे इस त्रेपन वर्ष के जीवन में आज तक किसी के कार्य में विघ्न नहीं डाला है, प्रत्युत् कोई पूछने आये कि- ‘‘माताजी! अमुक ने ऐसा धर्मकार्य करने को कहा है, करूँ क्या? तो भले ही वे मेरा विरोध ही क्यों न कर रहे हों किन्तु मैंने उनके कार्य की भी सराहना करके पूछने वालों को प्रेरणा ही दी है कि हाँ, आप उनका कार्य अवश्य कीजिये।
धन को धर्म में लगाने से आपका धन बढ़ेगा ही न कि घटेगा। खैर, मैंने यही सोचकर संतोष किया कि इन श्रेष्ठी का योग मेरे ग्रंथ प्रकाशन में नहीं लगना था। चलो, जिनका योग होगा, वे करेंगे।’’
इसी बीच ब्यावर के सेठ हीरालाल जी रानीवाला जन्होंने ब्यावर में पाँच हजार रुपये दिये थे। मोतीचंद ने उसी से कागज खरीदा था। सेठ हीरालाल रानीवाला के सुपुत्र श्री सुरेन्द्र कुमार के संकेत से पुनः मोतीचंद ने उनसे कहा- ‘‘आप अष्टसहस्री का प्रथम भाग पूरा छपा दें।
उन्होंने स्वीकृति दे दी और समय पर उनका रुपया भी आ गया। वह ग्रन्थ निराबाध छप गया। मैंने यह अनुभव किया है कि-‘‘मेरे हर एक बड़े कार्य में किन्हीं न किन्हीं विघ्न संतोषियों द्वारा विघ्न अवश्य आये हैं फिर भी कोई न कोई महानुभाव उस कार्य को पूरा करने के लिए मिलते ही रहे हैं और कार्य भी संघर्षों को झेलकर होते ही रहे हैं।’’
मैं नजफगढ़ के चातुर्मास के बाद दिल्ली शहर में कूचासेठ के त्यागी भवन में ठहर गई थी। यहीं से कहीं भी जाना-आना होता रहा था।
मुनिश्री विद्यानंद जी का दिल्ली आगमन
इधर मुनिश्री विद्यानंद जी दिल्ली आ गये थे। इस समय ये एक अच्छे प्रभावी साधु रहे हैं। हालांकि यहाँ आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज संघ सहित विराज रहे थे। २५सौवें निर्वाणोत्सव को सफल कराने के लिए ये गुरुदेव अग्रणी थे और महाप्रभावी थे। जब यहाँ ‘संसदभवन’ में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई थी, तब श्वेताम्बर संप्रदाय के सुशीलमुनि जी आदि वहाँ पहुचे थे।
उस समय अनेक संघर्षों के बावजूद भी आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज सारे दिगम्बर जैन समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए वहां पहुँचे थे।
उस समय उन्होंने जो दिगंबरत्व की ध्वजा फहरायी थी और वहाँ जो दिगम्बरत्व का महत्व बढ़ा था, वह शब्दों से परे है लेकिन हमारे दिगम्बर जैन समाज में हमारे ही बंधु इन दिगम्बर गुरुदेव के प्रति उस समय भी टीका-टिप्पणी करने से नहीं चूके थे। यह महान कार्य सन् १९७२ में ही आचार्यश्री ने दिल्ली में किया था। ये गुरुदेव स्वयं हर एक महान कार्य को करने में महान रहे हैं।
निर्वाणोत्सव की तैयारियां
यहाँ प्रायः कभी साधुवर्गों में, कभी चारों संप्रदाय के लोगों में, सभायें (मीटिंग) चलती ही रहती थीं। निर्वाणोत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने के लिए देश ही नहीं, विदेश में भी भगवान् महावीर के आदर्श जीवन और अहिंसामयी उपदेश को पहुँचाने के लिए जोरदार तैयारियाँ हो रही थीं।
परमगुरुदेव आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज भी मुझे हर एक कार्य में, मीटिंगों में बुलाते थे। कार्य करने की गतिविधि समझाया करते थे। इधर जब से मुनिश्री विद्यानंद जी आये थे, वे भी मुझे हर एक कार्य में बुलाते थे, परामर्श करते थे।
तीनलोक प्रतीक
एक दिन मैं मुनिश्री विद्यानंद जी के पास ही बैठी हुई थी। मेरे द्वारा संस्थापित संस्था का नाम ‘त्रिलोक शोध संस्थान’ है, इस पर चर्चा चल रही थी। चर्चा में यह विचार बना कि इस महोत्सव में तीन लोक को ही अपना प्रतीक-चिन्ह बनाया जावे। सर्वत्र तीन लोक का आकार बने। यहाँ तक कि डाक-खाने की पेटियाँ आदि भी तीन लोक के आकार की बनें, बड़ा आनंद आ जायेगा।’’
मैं भी खुशी से गद्गद हो गई। मैंने कहा- ‘‘इस प्रतीक में तो चारों संप्रदाय में से किसी को भी विवाद नहीं होगा। आपने बहुत अच्छा सोचा है। यही तीन लोक इस निर्वाणोत्सव में ऐसा सुन्दर प्रतीक बना कि चारों तरफ पुस्तकों में, स्टीकर आदि अनेक प्रचार की सामग्रियों मेें, यहाँ तक कि लोगों के घरों में ग्रील, रेलिंग आदि में भी यह तीन लोक प्रतीक छा गया।
बस तीन लोक में त्रसनाली और सिद्धशिला की रचना की लाइनें मैं चाहती थी किन्तु कतिपय महानुभावों ने तीनलोक के बीच चक्र और हाथ का निशान बना दिया, जो धर्मचक्र और अभयदान का सूचक माना गया। फिर भी यह निशान मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने अपनी प्रेरणा से हुए निर्माण आदि स्थलों में आगमोक्त त्रसनाली सहित ही तीनलोक बनवाया है।
जैसे कि यहाँ हस्तिनापुर में मुख्य कार्यालय के सामने बना है और धर्मशाला आदि में विंडो की ग्रिल आदि दरवाजों में वैसा ही तीनलोक बनवाया गया है जैसा कि आगमसम्मत है। मैंने कहीं पर भी यह हाथ के चिन्ह वाला तीनलोक नहीं रखा है। मेरा कहना यह रहता है कि-‘‘कार्य ऐसा हो जो कि मनगढ़ंत न हो कि जिससे आगे की पीढ़ी वैसा ही वास्तविक समझ ले।’’
खैर! यह एक तीनलोक का प्रतीक और पंचरंगी ध्वज, उस निर्वाणोत्सव में ये दोनों ही चारों संप्रदाय में मान्य रहे हैं और इनका पूरे भारत में खूब प्रचार हुआ है।
चार संप्रदाय कौन?
१. दिगम्बर संप्रदाय
२. श्वेतांबर सम्प्रदाय
३. स्थानकवासी श्वेतांबर संप्रदाय
४. तेरहपंथी श्वेतांबर संप्रदाय।
ये श्वेताम्बर में जो तीन भेद हैं, उनमें से मंदिरमार्गी भगवान् की मूर्ति मानते हैं, उनमें नेत्र लगाये जाते हैं आदि। स्थानकवासी स्थानक बनवाते हैं, ये मूर्ति नहीं मानते हैं, ये ढूँढ़िया कहलाते हैं, इनके साधु मुंह पट्टी लगाते हैं। ऐसे ही इन्हीं में तेरहपंथी संप्रदाय है इनके साधु भी मुँह पट्टी लगाते हैं, ये लोग भी मूर्तिपूजा नहीं मानते हैं।
इन दोनों में बहुत अन्तर नहीं है। मुँह पट्टी में मात्र कुछ अन्तर है। हमारे यहाँ दिगम्बर में भी पहले एक तारणस्वामी हुए हैं। उन्होंने मंदिर में मूर्ति न रखकर शास्त्र रखाया था। ये मूर्तिपूजा नहीं मानते थे। इनका सम्प्रदाय नहीं चल सका। आज मात्र बुंदेलखंड में इनका जरा-सा ही अस्तित्व दिखता है। सभी जैन इस सम्प्रदाय को जानते भी नहीं हैं।
ऐसे ही दिगम्बरों में तेरहपंथ-बीसपंथ चल गया। इसका भी इतिहास बहुत पुराना नहीं है। आज से लगभग चार सौ वर्ष१ पूर्व जयपुर में पंडितों ने तेरह पंथ चला दिया। तभी शास्त्र और गुरु परम्परा के अनुयायी बीस पंथी कहलाने लगे। खैर! यह विषय अलग कहीं चर्चित किया जायेगा।
दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनियों में आचार्यश्री शांतिसागर जी परम्परा वाले सभी साधु बीसपंथी कहलाते हैं। वास्तव में ये आगमपंथी हैं। कई एक वर्षों से ही कुछ साधु अपने को तेरहपंथी कहने लगे हैं। दिगम्बर मुनियों में तो कोई अन्तर है नहीं, सबकी चर्या और वेष एक ही है, मात्र श्रावकों में भगवान की पूजा में किंचित् अन्तर है, जो कि नगण्य है।