गांधीनगर दिल्ली में प्रभावना-यहाँ कूचा सेठ में मुझे ज्वर आ गया, कई दिनों अस्वस्थ रही, पुनः स्वस्थ हुई, तब गांधीनगर वालों की भक्ति से गांधीनगर आ गई। यहाँ पंडित प्रकाशचंद जैन हितैषी, जो कि सन्मति संदेश के संपादक हैं, मेरे पास आकर शास्त्र चर्चायें किया करते थे। इनकी धर्मपत्नी आहार-दान देती थीं। यहां प्रतिदिन एक-एक घर में महिलाओं ने शुद्ध जल का नियम लेना शुरू किया और आहार-दान देना शुरू किया। प्रतिदिन चौकों की संख्या बढ़ती गई और पड़गाहन करने वालों की संख्या तथा भक्ति बढ़ती गई। मैं सोचने लगी- ‘‘लोग कहते हैं दिल्ली में धर्म नहीं है किन्तु यहाँ तो मंदिरों की संख्या बढ़ती जा रही है।
पूजा करने वाले बढ़ रहे हैं, आहार देने वाले बढ़ रहे हैं अतः एक बात यह समझ में आती है कि मंदिरों की वृद्धि से पूजक बढ़ते हैं और गुरुओं के आगमन से त्याग में वृद्धि होने से आहार देने वाले बढ़ते हैं। ऐसा अनुभव आता है।’’ कूचा सेठ के त्यागी भवन में एक दिन मोतीचंद के पास एक पत्र अलवर से आया, जो कि ब्रह्मचारी श्री शिवकरण का था। उसमें लिखा था- ‘‘आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज संघ सहित यहाँ ठहरे हुए हैंं।
दिल्ली निर्वाणोत्सव में प्रभावना के लिए ही यहाँ आये हैं लेकिन मैंने एकांत में परामर्श किया तो ऐसा लगा कि अभी तक दिल्ली के लोग आचार्य संघ को लेने के लिए नहीं आये हैंं अतः संघ कुछ दिन यहाँ रहकर वापस राजस्थान में जा सकता है। यहाँ शूद्र जल त्यागी कम होने से चौकों की भी बहुत कमी है। मैं स्वयं अपने हाथ से चौका लगाता हूँ। कई साधुओं को पड़गाता हूँ। चूंकि यहाँ मेरी धर्मपत्नी आदि महिलायें मेरे साथ में नहीं हैं ।’’ पत्र विस्तृत था।
मोतीचंद ने पढ़कर सुनाया। इसके बाद भी एक-दो पत्र इसी आशय के प्राप्त हुए, तभी मैंने अपने हाथ से आचार्यश्री के नाम एक विस्तृत पत्र लिखा जिसमें यह विषय प्रमुख था कि- ‘‘आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी महाराज के बारे में मैंने सुना था कि वे जहाँ की समाज उन्हें आने के लिए मना कर दे, वहाँ वे अवश्य पहुँच जाते थे।
आप तो उनके क्षुल्लक शिष्य रहे हैं, आपने उनकी सिंहवृत्ति का खूब अनुभव किया है अतः आपको दिल्ली के श्रावकों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। आपको तो निर्वाणोत्सव में चार चांद लगाना है, भविष्य का उज्ज्वल इतिहास बनाना है अतः मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप अवश्य पधारें। यहाँ आपके आते ही सारी समाज भक्त बन जायेगी।’’ ऐसा पत्र लिखकर मोतीचन्द को देकर और बहुत कुछ उन्हें समझाकर अलवर भेजा था। मोतीचन्द ने वहाँ पहुँचकर आचार्यश्री के पास एकांत में बैठकर मेरा पूरा पत्र सुना दिया था।
आचार्यश्री ने मेरा पत्र सुनकर हँसते हुए प्रसन्नता व्यक्त की थी। इसके बाद मैं लाला श्यामलाल जी, डा. कैलाशचंद जी, महताब सिंह जी जौहरी, पन्नालाल जी तेज प्रेस आदि प्रमुख श्रावकों को बुलाकर, अलवर में जाकर आचार्यश्री को नारियल चढ़ाकर लाने के लिए अथक प्रयास कर रही थी। यहाँ भी आये दिन संघ को लाने के लिए मीटिंगें होतीं, चर्चायें होतीं किन्तु इतने बड़े संघ को लेने के लिए कई चौके चाहिए। अलवर कौन जाये? बिना चौकों की व्यवस्था किये कौन जाकर नारियल चढ़ावे? यही समस्या लेकर बार-बार डाक्टर कैलाशचंद आदि मेरे पास आते रहते थे। मेरा कहना था कि-‘‘आप लोग एक बार जाकर नारियल चढ़ाकर प्रार्थना करके आ जाओ। बाद में सब सोचना।’’ लेकिन इन सबका यह कहना था कि-‘‘कोरे नारियल चढ़ाने से क्या होगा?’’
एक दिन रात्रि में लाल मंदिर में संघ को लाने के लिए मीटिंग हुई। साहू शांतिप्रसाद जी ने भी भाग लिया। सभी ने निर्णय करके पुनः अनिश्चित कर दिया और विचार-विमर्श ही चलता रहा कि-‘‘यहाँ पर इतने बड़े संघ के लिए चौकों की व्यवस्था कैसे क्या होगी? मैंने गांधीनगर जाकर वहाँ के श्रावकों को जैसे-तैसे तैयार कर लिया और अलवर जाकर नारियल चढ़ाने के लिए आगे कर दिया पुनः लाला श्यामलाल जी, पन्नालालजी आदि को बुलाकर समझाना शुरू कर किया- ‘‘देखो! जब बालक पेट में रहता है तब माँ के स्तन से दूध नहीं आता है पुनः जन्म लेने के बाद अपने आप मां के स्तनों में दूध आ जाता है। वैसे ही अभी तुम्हें सब समस्याएँ दिखती हैं
किन्तु आचार्य संघ के आते ही उनके पुण्य प्रभाव से अपने आप अनेक शूद्रजल त्यागी श्रावक तैयार हो जावेंगे। दिल्ली के ही क्या, अन्य गाँवों के भी श्रावक आकर चौका लगायेंगे। अरे! आज तक कहीं भी आहार दान के न मिलने से मेरा उपवास हुआ हो ऐसा नहीं हुआ है। भाई! साधुओं का भाग्य भी तो उनके साथ आयेगा ही आयेगा।’’ इत्यादि प्रकार से सम्बोधन कर-करके ही मैंने श्रावकों को अलवर जाकर आचार्यश्री को नारियल चढ़ाने की प्रेरणा दी। आखिर मेरा प्रयास सफल हुआ, लोग अलवर पहुँचे। विधिवत् आचार्यश्री के समक्ष श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया। तब मेरे हर्ष का पार नहीं रहा।
टिकैतनगर और दिल्ली में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
इसी बीच फरवरी १९७४ में टि कैतनगर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन था। भगवान् बाहुबली की सवा सात फुट ऊँची मूर्ति की प्रतिष्ठा होने वाली थी। रवीन्द्र कुमार पहले से ही अपने घर आये हुए थे। मोतीचन्द आदि के लिए अनेक निमंत्रण आ चुके थे। अतः यहाँ से मोतीचन्द, कु. सुशीला, कु. शीला, कु. कला को भी टि कैतनगर भेज दिया था। इस समय मेरे साथ में कोई भी ब्रह्मचारिणी नहीं थी। यहाँ दिल्ली में शक्तिनगर में भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ससंघ वहाँ जाने वाले थे। वहाँ के श्रावक मेरे पास भी आकर प्रार्थना कर चुके थे और आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की भी आज्ञा थी,
अतः मैं भी अपने संघ सहित वहाँ पहुँच गई। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी भी मेरे साथ पैदल ही चलकर आ गई थीं। यहाँ हम लोगों को एक श्रावक की कोठी में ठहराया गया था। वहां से शक्तिनगर का मंदिर भी दूर था और जहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का मंडप बना था, वह भी दूर था।
जहाँ आचार्यश्री ठहरे थे, वह भी दूर था। फिर भी प्रतिदिन आर्यिका रत्नमती जी मेरे साथ सर्वत्र आती-जाती रहती थीं। यद्यपि उन्हें चलने से पैरों में दर्द हो जाता था, कभी-कभी सूजन भी आ जाती थी लेकिन मनोबल विशेष होने से वे शरीर से निर्मम होकर कष्ट झेलते हुए मेरा साथ निभाती रहती थीं, यही उनमें विशेषता थी। यहाँ प्रतिष्ठा में अच्छी प्रभावना हुई, सभी साधुओं को प्रसन्नता रही।
हैण्ड पम्प का जल शुद्ध है या नहीं?
यहाँ कुछ चौकों में हैण्ड पम्प का जल काम में लिया गया। मुझे मालूम हुआ तब मैंने कह दिया कि-‘‘मैं अपनी संघस्थ आर्यिकाओं को साथ लेकर निकट में स्थित सब्जी मण्डी के मंदिर में चली जाऊँगी, वहाँ ही आहार करूँगी। प्रतिष्ठा के कार्यक्रमों में जितनी बार आ सकूगी आ जाऊँगी।’’ इतना सुनते ही श्री सुन्दरलाल जी जैन बीड़ी वाले, जो कि एक प्रसिद्ध सेठ थे, अच्छे कार्यकर्ता थे, वे आये और बोले- ‘‘माताजी! हैण्ड पम्प का जल बिल्कुल शुद्ध है, धरती से ताजा-ताजा पानी आता है।
इसके लगाने की व्यवस्था आप समझिये। यह कथमपि अशुद्ध नहीं है। जहाँ तक रही ‘जीवानी’ की बात, तो हम लोगों ने हैण्ड पम्प में ‘जीवानी’ पहुँचाने के लिए एक दूसरा पाइप जोड़ रखा है अतः कुएं के जल से भी अधिक यह शुद्ध है। देखो! आजकल कुए का पानी न निकाला जाने से उसमें कैसे- कैसे लाल-लाल कीड़े पड़ जाते हैं, जिन्हें देखते ही घृणा आती है ।
इत्यादि प्रकार से बहुत कुछ समझाने के बाद जब मैंने उनकी बात नहीं मानी, तब वे किंचित् गरम भी हुए। मैंने कहा-‘‘सेठ जी! हम साधु-साध्वियों पर आपका आग्रह नहीं चलेगा।’ तब वे विनम्र हो गये और बोले- ‘‘अच्छा, कुछ भी हो, मैं आपको इस प्रतिष्ठा से पूर्व कथमपि जाने नहीं दूँगा, भले ही एक मील से कुएँ का पानी लाना पड़े।
मैं स्वयं पानी लाकर चौका बनवाऊँगा।’ इतना कहकर वे गये और पुनः नजदीक में कुएँ की तलाश करने लगे। तभी निकट में ही किसी वैष्णव मंदिर में कुआ मिल गया और सेठ सुन्दरलाल जी ने अपनी कोठी की बाउंड्रीवाल तुड़वाकर नजदीक से कुएं के पानी की व्यवस्था करा दी। बाद में वे फिर मेरे पास आये और अनेक प्रकार से प्रशंसा करते हुए कहने लगे- ‘‘माताजी! जो अपने आप में दृढ़ रहते हैं, कहीं किसी भी स्थान पर क्यों न हो, वे अपने धर्म की, नियम की रक्षा कर ही लेते हैं। मैं विदेश में गया था, मुझे चीनी के बर्तनों में खाना खाने का त्याग था।
वहाँ प्रत्येक पात्र चीनी के थे फिर भी मेरे लिए अन्य पात्रों की पृथक से व्यवस्था बनाई गई और मैंने अपने नियम को निभाने में दृढ़ता ही रखी थी। आज मुझे आपकी चर्या और दृढ़ता का गौरव है।’’ इसके बाद मैंने सोचा-‘‘देखो! लोग पहले तो डराते हैं पुनः दृढ़ता देखकर प्रशंसा करने लगते हैं।’’ इस विषय में मैं यहाँ स्पष्टीकरण करना उचित समझती हूँ कि-इस प्रांत में कुएं का जल काम में कम लेने से प्रायः वह सड़ जाता है, तमाम कीड़े उसमें पड़ जाते हैं अतः लोगों ने जगह-जगह कुएँ बंद करा दिये हैं।
इधर प्रांत में जगह-जगह हैण्ड पम्प लगे हुए हैं अतः मैंने सुना है कि आचार्यश्री नमिसागर मुनिराज, जो कि चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के ही शिष्य थे, उन्होंने भी हैण्डपम्प को शुद्ध समझकर उसका जल आहार में लिया है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने भी आहार में लिया है।
आचार्यश्री विद्यानंद जी भी हैण्ड पम्प का जल आहार में लेते हैं। मैंने स्वयं हस्तिनापुर में हैण्ड पम्प लगते हुए देखा है। यहाँ ३-४ घण्टों में ही हैण्डपम्प लग गया और धरती से शुद्ध पानी निकल आया। यहाँ मोतीचन्द जी ने भी एक हैण्डपम्प में ‘जीवानी’ डालने का साधन बना रखा था। इस इलाके में मवाना, मेरठ आदि में भी कई मंदिरों में हैण्ड पम्प के जल से मंदिर में भगवान का अभिषेक किया जाता है अतः मेरी समझ में भी यह हैण्ड पम्प का जल अशुद्ध नहीं है।
मैंने भी इन दिनों कमण्डलु में यह जल लेना शुरू कर दिया है। एक बार सन् १९७५ में मेरठ में आचार्यश्री धर्मसागर जी के समक्ष अनेक श्रावकों ने यह विषय रखा था तब आचार्यश्री स्वयं बोले थे कि यह जल शुद्ध है, इसमें कोई दोष नहीं है किन्तु संघ के एक-दो साधु को इष्ट न होने से उन्होंने आहार में खुला नहीं किया था। उनकी आज्ञा से ही मैंने कमण्डलु में लेने के लिए खुला किया था।
इससे पूर्व तो मैं इतनी कड़ी थी कि- ‘‘टिकैतनगर में पिता ने घर में हैण्ड पम्प लगवाया था। वे चाहते थे कि माता मोहिनी जी दो प्रतिमा के व्रतों को धारण करने के बाद वह जल पियें। उन्होंने मेरे पास पत्र लिखकर आज्ञा मांगी थी किन्तु मैंने मना कर दिया था। इस पर पिता ने कई बार माँ पर गुस्सा भी किया था किन्तु वे दृढ़ रही थीं। इधर कई वर्षों से पं. रतनचंद मुख्त्यार आदि सप्तम प्रतिमाधारी भी इसका पानी भोजन में लेते रहे हैं अतः अब तो मैंने अपने संघस्थ ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों के लिए यह जल खुला कर दिया है। चूॅँकि मैं समझती हूँ कि शुद्धि-अशुद्धि की व्यवस्था देखनी चाहिए, ‘लकीर के फकीर’ बने रहने में कोई सार नहीं है।
सम्यग्ज्ञान रूपरेखा
मैं सन् १९७४ में गाँधीनगर में ठहरी हुई थी। इसके पूर्व कई बार मोतीचन्द ने यह भाव व्यक्त किये थे कि- ‘‘माताजी! आपका उपदेशरूप ज्ञानामृत हम जन-जन में पहुँचाये, ऐसी इच्छा है अतः एक ‘मासिक पत्रिका’ निकालना चाहते हैं।’’ यह चर्चा चलती रहती थी कि समाचार पत्रिकाएँ तो बहुत हैं। यह पत्रिका ऐसी हो, जिसमें स्वाध्याय के लिए उपयोगी विषय हो, जैन धर्म को समझाने के विषय हों। हां! समाचार भी निर्विवाद ऐसे संक्षेप में चार-पांच पेज में दिये जायें तो चलेगा। ऊहापोह चलता रहा। रवीन्द्रकुमार ने ‘सम्यग्ज्ञान’ नाम का सुझाव दिया। मुझे अच्छा लगा और मैंने यही नामकरण कर दिया।
विषय विभाजन में मैंने सोचा‘‘अपने यहाँ शास्त्रों में चार अनुयोग हैं। इन चार में ही सारा जैन वाङ्मय का रहस्य आ जाता है। फिर भी पुराने लोग पुराण चरित ग्रंथों में रुचि रखते थे, साथ ही श्रावकाचारों को भी शास्त्र की गद्दी पर पढ़ते थे किन्तु आजकल के प्रबुद्ध लोग तो कानजी पंथ की हवा चलने से मात्र समयसार, मोक्षमार्ग प्रकाशक आदि के सिवाय कोई ग्रंथ उठाकर देखना भी नहीं चाहते हैं। प्रायः चार अनुयोगों की तरफ सामान्य लोगों का लक्ष्य नहीं है अतः चार अनुयोगों के चार स्थायी स्तम्भ बनाये जायें पुनः महिलाओं और बालकों के लिए भी सामग्री अवश्य चाहिए।’’
इस पर भी सोचकर मैंने ‘नारी जगत’ और ‘बाल जगत’ ये दो स्थायी स्तम्भ निश्चित कर दिये। मोतीचंद का कहना था कि- ‘‘इसमें हम आपके ही लिखे छहों स्तम्भ के लेख रखेंगे।’’ वैसी ही रूपरेखा बनाई गई। मैंने ‘सम्यग्ज्ञान’ प्रथम अंक के लिए उपर्युक्त चिंतन के अनुसार छह लेख तैयार किये और भी कुछ फुटकर सामग्री जैसे कि ‘ध्यान दीजिये, ‘याद कर लीजिये’ आदि भी तैयार की। मोतीचंद ने ‘पत्रिका’ के नाम आदि को रजिस्टर्ड कराने की जिम्मेवारी कैलाशचंद जैन करोलबाग वालों पर डाली, चूंकि संस्थान के विधान का रजिस्ट्रेशन भी इन्होंने ही कराया था।
इन सब व्यवस्थाओं के हो जाने के बाद मेरे अति निकटस्थ भक्त डा.कैलाशचंद राजा टॉयज आये और कहने लगे- ‘‘मोतीचन्द! तुम कतई पत्रिका निकालने में समर्थ नहीं हो सकोगे। यह बच्चों का खेल नहीं है। बस एक-दो अंक निकालकर फैल हो जावोगे। पत्रिका चलाना तुम्हारे वश की बात नहीं है। बहुत कठिन है.।’’
इस प्रकार उन्होंने मानों उत्साहवर्धन करने वाली चुनौती दी। इस प्रकार से बहुत कुछ बोलने लगे। खैर! मोतीचंद ने साहस नहीं छोड़ा और बोले- ‘‘माताजी के शुभाशीर्वाद से मैं कतई फैल नहीं हो सकता। पत्रिका निकलेगी और चलेगी, समाज में ज्ञानवर्धन की ठोस सामग्री देगी। यह सामाजिक विवादों से बिल्कुल दूर रहेगी।’’ अनंतर प्रथम अंक छपाया गया। ‘वीरशासन जयंती’ श्रावण कृष्णा एकम् की तिथि उस पर डाली गई। चूंकि यह महत्वपूर्ण दिवस है। युग की आदि भी इसी तिथि से होती है और महावीर भगवान की प्रथम देशना भी इसी दिन खिरी थी अतः मैंने यह मंगल दिवस ही इसका प्रारंभ दिवस रखा। दिल्ली में दिगम्बर जैन नया मंदिर धर्मपुरा में कोई कार्यक्रम था,
वहाँ पर आचार्यश्री धर्मसागर जी और मुनिश्री विद्यानंद जी भी पहुँचने वाले थे। मंदिर के कार्यकर्ताओं से स्वीकृति लेकर मोतीचन्द ने इस सम्यग्ज्ञान पत्रिका के विमोचन के लिए आचार्यश्री से आज्ञा लेकर छोटा सा पंप्लेट छपा दिया। इसी मध्य कुछ महानुभाव आये, बोले- ‘‘आपकी पत्रिका का विमोचन वहाँ मंदिर में नहीं हो सकेगा, चूंकि मुनिश्री विद्यानंदजी ने मनाकर दिया है।’’ मोतीचन्द चिंतित हुए। मैंने कहा- ‘‘आप तो आचार्यश्री के करकमलों से उनके पास लाल मंदिर स्थान पर ही जाकर विमोचन करा लो। बस! कार्य हो जावेगा, चिंता क्यों करते हो?’’ मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार दोनों ही इसके संपादक थे।
दोनों ही पत्रिका लेकर लालमंदिर में आचार्य श्री धर्मसागर जी के पास पहुँचे और उनके करकमलों से विमोचन करा लिया। उस समय मुनिश्री ने रोका था किन्तु बाद में वे भी इस पत्रिका की प्रशंसा करते रहे हैं। खैर! मोतीचन्द ने सोचा- ‘‘यह क्या? ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः’ इस कहावत के अनुसार पहले ही अमंगल हो गया।’’ किन्तु आज वे स्वयं कहा करते हैं- ‘‘माताजी! आपके दीक्षित जीवन के छत्तीस वर्ष में से पूरे बीस वर्ष तो मैंने देखे हैं।
आपके प्रत्येक कार्य में प्रायः विघ्न-बाधाएँ अवश्य आती हैं किन्तु आप संघर्षों को झेलते हुए आगे बढ़ती रहती हैं, अतः विघ्न-बाधाएँ आपका कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं। संघर्षों से जूझना ही आपका जीवन रहा है।’’ मुझे खुशी है कि आज यह सम्यग्ज्ञान पत्रिका अपने तेरह वर्ष पूर्ण कर चौदहवें वर्ष में चल रही है। रवीन्द्र कुमार कहा करते हैं- ‘‘माताजी! इन तेरह वर्षों में मैंने करीब पाँच लाख से अधिक पत्रिकाएँ प्रकाशित की है। जिन्हें लगभग पचास लाख लोगों ने तो पढ़ा ही होगा।
यदि किसी कारण वश पत्रिका दो-चार दिन विलंब से निकलती है तो पाठकों के पत्रों का ढेर लग जाता है। लोग कितनी रुचि से इस पत्रिका की प्रतीक्षा करते रहते हैं सो उनके पत्रों से पता चलता है।’’ इस पत्रिका में शुद्ध धार्मिक लेख ही रहते हैं जो कि शास्त्रों से संबंधित होते हैं। मनगढ़ंत कथाओं को और समाज के विवाद के विषयों को इसमें स्थान नहीं दिया जाता है। यही कारण है कि यह पत्रिका प्रत्येक मुनि, आर्यिकाओं और आचार्यों को भी प्रिय लगती है। वे भी इसे रुचि से पढ़ते हैं।
मॉडल रचना
जम्बूद्वीप का ८²८ फुट का मॉडल बनकर आ चुका था। इसमें देवभवन, चैत्यालय, सुन्दर-सुन्दर डिजाइन के बनवाने थे। मोतीचंद ने कई एक कारीगर-बढ़ई बुलाये, कुछ नमूने भी बनवाये किन्तु मुझे अच्छे नहीं लगे। दिल्ली में मोतीचन्द का विशेष परिचय न होने से सनावद से पेंटर बालकृष्ण को बुलाया, जो मंदिर में चित्रकला तो बनाता ही था बहुत सुन्दर झांकियाँ भी बनाता था अतः उसने आकर इस जम्बूद्वीप मॉडल में यथास्थान देवभवनों की अच्छी-अच्छी छिजाइनें मेरे अभिप्राय के अनुसार कागज पर बनाकर दिखायीं, मुझे संतोष होने से मोतीचन्द ने उसी अपने चित्रकार से लकड़ी के देवभवन, चैत्यालय, तोरणद्वार, गोमुख, कमल आदि बनवा लिये।
उसी से उन्होंने सुन्दर रंग भी करवा लिया। तब वह मॉडल इतना सुन्दर बन गया कि दर्शकजनों का मन हरने लगा। वह मॉडल दिल्ली में नमिसागर औषधालय कूचासेठ के ऊपर एक कमरे में रखा गया था। बाद में वह हस्तिनापुर लाया गया। उसे रखने के लिए बड़े मंदिर में एक कमरा बनाकर उसमें रखा गया। सन् १९७५ की प्रतिष्ठा के समय आचार्यश्री धर्मसागर जी और उपाध्याय मुनि श्री विद्यानंद जी आदि विशाल चतुर्विध संघ के सानिध्य में उस मॉडल के कमरे का अनावरण कर उद्घाटन कराया गया था।
अनंतर वही मॉडल जम्बूद्वीप रचना बनने तक यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर प्रवेश करते ही एक कमरे में रखा गया था। जिसे लाखों लोगों ने देखा है। सन् १९८७ में यह मॉडल सनावद आदि के लोगोें की प्रेरणा से सिद्धवरकूट क्षेत्र पर श्रीमती मैनाबाई महेश्वर के सौजन्य से रखा दिया गया है। सन् ७४ में ही इस भव्य मॉडल को देख-देख कर कई बार मेरे मन में यह भावना जागृत हुई थी कि-
‘‘भगवान् ! किसी न किसी दिन ऐसे भव्य आकर्षक जम्बूद्वीप मॉडल को एक गाड़ी में रखकर सारे भारत में इसका भ्रमण कराया जाये और जन-जन को अपनी निवास स्थली-जन्मभूमि का परिचय कराया जाये। साथ ही भगवान् महावीर के अहिंसामयी उपदेश का जैनेतर लोगों में खूब प्रचार किया जाये।’’ मेरी यह भावना सफल हुई जबकि सन् १९८२ में ‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’ नाम से पुनः एक आकर्षक जम्बूद्वीप के मॉडल को बनवाया गया और दिल्ली के लालकिला मैदान से ४ जून १९८२ को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी के करकमलों से उसके प्रवर्तन का शुभारंभ कराया गया।
वह ‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’ सारे भारत में लगभग तीन वर्ष घूमी है पुनः २८ अप्रैल १९८५ को यहाँ हस्तिनापुर में ही उसका समापन हुआ। उसी दिन यहां केन्द्र के तत्कालीन रक्षामंत्री पी.वी. नरसिंहाराव ने उस ‘ज्ञानज्योति’ की अखंड स्थापना की है जो कि यहाँ जलती हुई दर्शकों को ज्ञान रोशनी दे रही है। वह जम्बूद्वीप मॉडल भी फिलहाल यहां त्रिमूर्ति मंदिर में ही एक तरफ रखा हुआ है।
ग्रन्थों के मुख पृष्ठ के चित्र
सनावद के पेंटर बालकृष्ण से अष्टसहस्री कवर का भव्य चित्र बनवाया गया, जिसमें सर्वप्रथम आचार्यश्री उमास्वामी जी तत्त्वार्र्थसूत्र का मंगलाचरण ‘मोक्षमार्गस्यनेतारं’’ आदि लिख रहे हैं पुनः आचार्यश्री समंतभद्र महामुनि ‘‘देवागमनभोयान’’ को प्रारंभ कर देवागम स्तोत्र लिख रहे हैं। उसके बाद श्री अकलंकदेव सूरि ‘अष्टशती’ भाष्य लिख रहे हैं। इसके बाद श्री विद्यानंद आचार्य देव ‘अष्टसहस्री’ लिख रहे हैं। यह कवर चित्र ग्रंथ की विशेषता को प्रकट करने वाला इतना आकर्षक बन गया कि सभी को बहुत ही प्रिय लगा।
ऐसे ही ‘‘भगवान महावीर कैसे बने?’’ इस पुस्तक का कवर चित्र बनवाया। इसमें भी भगवान महावीर का बाल्यावस्था में सर्प के साथ क्रीड़ा का चित्र है, पुनः उनके ध्यान का चित्र बनाकर उपर कमलासन पर विराजमान भगवान का अर्हंत अवस्था का चित्र है। यह भी अतीव आकर्षक रहा है। ऐसे ही ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर के कवर का चित्र, बाल विकास के कवर का चित्र आदि अनेक सुन्दर चित्र बनवाये, जिससे ‘वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला’ से प्रकाशित ग्रन्थ और पुस्तके आबालगोपाल में तो प्रिय बनी ही हैं, प्रबुद्ध जनों ने एवं साधु-साध्वियों ने भी प्रशंसा की है।
कार्य व्यस्तता
मैं गंथ लेखन के कार्य में लगी रहती थी। श्रावकों के आग्रह से प्रातः एक घंटा उपदेश भी सुना दिया करती थी। दिल्ली में उपदेश के मेरे अनेक टेप कैसेट भी मोतीचंद ने और डा. कैलाशचंद जी ने बनाये थे। इधर निर्वाणोत्सव के प्रसंग में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज, उपाध्याय मुनि श्री विद्यानंदजी आदि के सानिध्य में अनेक परामर्श होते रहते थे। इन सबमें आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज की आज्ञा से मुझे भी बैठना पड़ता था। अनेक बार तेरहपंथी, स्थानकवासी और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भी साधु-साध्वियों के साथ परामर्श में, मीटिंगों में मैं भाग लेती रहती थी। प्रायः सभी प्रसंगों में आचार्यश्री और मुनि श्री विद्यानंद जी मुझे बुला लेते थे।