एक बार आचार्य श्री धर्मसागर के पास लाल मंदिर के एक कमरे में कुछ लोग पंचरंगी ध्वज का विरोध लेकर आ गये। मैं बैठी सब सुनती रही। आचार्यश्री भी सुन रहे थे। कुछ देर बाद मैंने आचार्यश्री धर्मसागर जी से आज्ञा लेकर समाधान देना और समझाना शुरू किया। मैंने कहा- ‘‘यदि चार सम्प्रदाय मान्य कोई एक वस्तु निर्णीत हुई है तो प्रभावना की दृष्टि से अच्छा ही है, बुरा क्या है?…..दिल्ली में भी दिगम्बर जैन मंदिरों के शिखरों पर कहीं चौकोन-लम्बी सी लाल रंग की ध्वजाएं हैं। ब्र. सूरजमलजी प्रतिष्ठा के अवसर पर पांच रंग की पट्टियों की ध्वजा बनवाकर ध्वजारोहण कराते हैं। इसके अतिरिक्त जम्बूद्वीप पण्णत्ति में भी पंचरंगी ध्वजाओं का वर्णन है। जैसे कि-‘‘अकृत्रिम मंदिरों में मणिमय खम्भों के ऊपर ध्वजासमूह निर्दिष्ट किये गये हैं। ये सिंह, गज, हंस, वृषभ, कमल, मयूर, मकर, चक्र, छत्र और गरुड़ इन दस चिन्हों से चिन्हित रहती हैं। इनमें से एक-एक ध्वजा के मोतियों व मणियों की मालाओं से शोभायमान उत्तम पांच वर्ण वाली एक सौ आठ-एक सौ आठ दिव्य परिवार ध्वजाएँ होती हैं-
उन लोगों ने प्रसन्न होकर मेरी बात स्वीकार की। तब मैंने कहा- ‘‘इस निर्वाणोत्सव में आप किसी भी विषय में अधिक ऊहापोह या विरोध न कर यदि कार्यों के सम्पन्न करने-कराने में शक्ति लगायेंगे, तो बहुत ही अच्छा रहेगा।’’ उन्हें भी यह बात अच्छी लगी।
भगवान् महावीर पुस्तक
भगवान् महावीर के बारे में एक पुस्तक श्री तुलसीगणी (तेरापंथी-श्वेताम्बरों)ने लिखी। साहू शांतिप्रसाद जी चाहते थे कि यह पुस्तक दिगम्बर और श्वेताम्बर के तीन भेद, ऐसे चारों सम्प्रदायों में मान्य होकर लाखों की तादाद में अनेक भाषाओं में छपे। उसकी टाइप कापी आचार्यश्री धर्मसागर जी के पास आई थी। आचार्यश्री ने वह कापी मुझे दे दी और बोले- ‘‘ज्ञानमती जी! यह पुस्तक दिगम्बर परम्परा के मान्य करने योग्य है या नहीं है? सो देखकर बताओ।’’ मैंने लगभग साठ (६०)गलतियाँ निकालकर पेज पर लिखकर आचार्यश्री को दे दिया। साहू शान्तिप्रसाद जी आये, आचार्यश्री ने वह कागज उन्हें दे दिया पुनः वे अन्य लोगों से चर्चा कर कई दिन बाद आये और बोले- ‘‘इन गलतियों के प्रमाण चाहिए।’’ आचार्यश्री ने पुनः मुझसे प्रमाण दिखाने को कहा, तब मैंने दो-तीन दिन तक खूब परिश्रम करके अनेक ग्रंथों का मंथन कर प्रमाण निकालकर दिये। वह मेरे द्वारा लिखित कागज भी आचार्यश्री ने साहूजी को दे दिया। उसमें से एक प्रमाण नमूने के तौर पर आप देखिये। जैसे कि उस पुस्तक में भगवान् महावीर के बड़े भाई…..को माना है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार तीर्थंकर अपनी माता के अकेले ही पुत्र होते हैं। उनके भाई-बहन आदि कोई नहीं होते। जैसे कि लिखा है-
हे लोकमातः! आप एक प्रसू हैं-एक ही पुत्र को जन्म देने वाली हैं, फिर भी आप विश्व की माता हैं। आप मनुष्यों में नारी हैं, फिर भी देवताओं में भी देवता होने से अधिदेवता हैं। आप स्त्री पर्याय को धारण करते हुए भी स्त्री पर्याय के मायाचारी आदि दोषों से रहित हैं। हे मातः! आपका चारित्र आश्चर्यकारी है। इसी प्रकार से अनेक प्रमाण मैंने निकाल कर दिये थे। तब साहूजी ने पुनः आचार्यश्री के पास आकर निवेदन किया कि- ‘‘कुछ भी हो, आप इस पुस्तक को मान्य घोषित कर दीजिये, एक दो विषयों का संशोधन कर दीजिये। किन्तु दो-चार विषय संशोधित करके भी यह पुस्तक दिगम्बर सम्प्रदाय से कोई संबंध नहीं रखती थी। अतः आचार्यश्री ने उसे मान्यता देने से सर्वथा ही मना कर दिया। साहूजी मेरे पास भी आये और बार-बार निवेदन करने लगे- ‘‘माताजी! जो भी हो, आप इस पुस्तक को चारों सम्प्रदाय मान्य कराकर छपवाने की आज्ञा दिला दीजिये।’’ मैंने कहा-‘‘जो स्थिति थी, सो मैंने आचार्यश्री की आज्ञानुसार उन्हें लिखकर दे दी। अब यह विषय आचार्यश्री का है…..।’’ अंततोगत्वा आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज बहुत ही दृढ़ रहे और बोले- ‘‘यदि आप इस पुस्तक को चार सम्प्रदाय मान्य छपा देंगे, तो हम दिगम्बर सम्प्रदाय से इस पुस्तक का बहिष्कार करा देंगे।’ उनके इस कठोर अनुशासन भरे शब्दों से ये लोग चुप हो गये और उसे छापने का साहस नहीं कर सके पुनः मुझसे कई महानुभावों ने निवेदन किया कि- ‘‘माताजी! आप एक ऐसी पुस्तक भगवान् महावीर स्वामी के बारे में तैयार कर दें, जो सर्वमान्य हो।’ मैंने जितने भी विषय दोनों सम्प्रदाय में टकराव के थे, उन विषयों को गौण करके एक पुस्तक लिखी। जैसे कि भगवान् महावीर का विवाह हुया या नहीं, दोनों विषयों को न लेकर उन्होंने ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ली थी यह लिख दिया आदि। किन्तु आचार्य तुलसीगणी की पुस्तक अमान्य हो जाने से पुनः उस समय कुछ चर्चा नहीं चल पाई। वह तुलसीगणी की पुस्तक और मेरे द्वारा लिखित पुस्तक टाइप कापी रूप में ये दोनों आज भी यहाँ जम्बूद्वीप पुस्तकालय में विद्यमान हैं।
भगवान महावीर कैसे बने?
मैंने एक पुस्तक लिखी थी ‘भगवान् महावीर कैसे बने?’’ यह सचित्र थी और इसमें संक्षेप में भगवान महावीर के पूर्व के ३४ भव दिखलाये गये थे। यह छपते ही एक सप्ताह में समाप्त हो गई और लोगों की मांग बहुत आने लगी। तब मेरी आज्ञा लेकर मोतीचन्द ने उसी समय पुनः दस हजार प्रतियाँ और छपायी थीं। कुल मिलाकर उस समय भगवान् महावीर संबंधी साहित्य का अच्छा सत्कार हुआ था। इस बीच में मुझे एक बात याद आ जाती है-
दिगम्बर सम्प्रदाय के दो आचार्य
इस २५००वें निर्वाण महोत्सव की चारों सम्प्रदाय की समिति में श्वेताम्बर मंदिर मार्गी, स्थानकवासी और तेरहपंथी, ऐसे तीन सम्प्रदाय थे और दिगम्बर का एक ही था अतः उस समिति में आचार्यश्री देशभूषण जी और आचार्य श्री धर्मसागर जी इन दोनों के नाम थे। चर्चा उठी की ‘‘आचार्यश्री धर्मसागर जी का नाम हटा दिया जाये।’’ मेरे पास एक दिन यह चर्चा आई, तब मैंने बहुत ही प्रयास किया, यहाँ तक कह दिया कि- ‘‘यदि आचार्यश्री धर्मसागर जी का नाम हटा दिया गया, तो मैं अनशन कर दूँगी…।’’ अंततोगत्वा दोनों ही आचार्यों के नाम रहे थे।
दिल्ली में विशाल दिगम्बर जैन साधु समूह
सन् १९७४ में १. आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज २. मुनिश्री ऋषभसागर जी ३. मासोपवासी मुनिश्री सुपार्श्वसागरजी ४. मुनिश्री नेमीसागरजी ५. मुनिश्री बोधिसागर जी ६. मुनिश्री संयमसागर जी ७. मुनिश्री दयासागर जी ८. मुनिश्री महेन्द्रसागर जी ९. मुनिश्री अभिनंदनसागर जी १०. मुनिश्री संभवसागरजी ११. मुनिश्री वर्धमानसागर जी १२. मुनिश्री भूपेन्द्रसागर जी १३. मुनिश्री बुद्धिसागरजी १४. मुनिश्री पद्मसागर जी १५. मुनिश्री चारित्रसागरजी १६. मुनिश्री विनयसागरजी १७. मुनिश्री विजयसागर जी १८. (मैं) आर्यिका ज्ञानमती १९. आर्यिका श्री जिनमती जी २०. आर्यिका श्री आदिमती जी २१. आर्यिका श्री संभवमती जी २२. आर्यिका श्री भद्रमती जी २३. आर्यिका श्री कल्याणमती जी २४. आर्यिका श्री श्रेष्ठमती जी २५. आर्यिका श्री गुणमती जी २६. आर्यिका श्री विद्यामती जी २७. आर्यिका श्री जयमती जी २८. आर्यिका श्री सिद्धमती जी २९. आर्यिका श्री विमलमती जी ३०. आर्यिका श्री रत्नमती जी ३१. आर्यिका श्री निर्मलमती जी ३२. आर्यिका श्री शुभमती जी ३३. आर्यिका श्री यशोमती जी ३४. ऐलक श्री विनयसागर जी ३५. ऐलक श्री कीर्तिसागर जी ३६. क्षुल्लक श्री वीरसागर जी ३७. क्षुल्लक श्री गुणसागर जी ३८. क्षुल्लक श्री भद्रसागर जी ३९. क्षुल्लक श्री सुरलसागर जी ४०. क्षुल्लिका श्री मनोवती जी ।
आचार्य श्री देशभूषण जी संघ चातुर्मास दिल्ली-१९७५
१. आचार्य रत्नश्री देशभूषण जी महाराज २. मुनिश्री ज्ञानभूषण जी ३. मुनिश्री सन्मति भूषणजी ४. क्षुल्लक श्री बाहुबलिजी ५. क्षुल्लक श्री जिनभूषणजी ६. क्षुल्लक श्री चन्द्रभूषणजी ७. क्षुल्लक श्री इन्द्रभूषणजी ८. आर्यिका श्री चारित्रमती जी ९. आर्यिका श्री शीलमती जी १०. क्षुल्लिका श्री वीरमती जी ११. क्षुल्लिका श्री कृष्णमती जी १२. क्षुल्लिका श्री अजितमती जी १३. क्षुल्लिका श्री अनन्तमती जी १४. क्षुल्लिका श्री राजमती जी। मुनिश्री विद्यानंद जी- आर्यिका श्री चन्द्रमती (आ.श्री शांतिसागर जी की शिष्या) अन्य ३ आर्यिका, क्षुल्लिका।