आचार्य श्री धर्मसागर जी द्वारा मुजफ्फरनगर में दीक्षायें
(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
गणधरवलय विधान- यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान महावीर की प्रतिमा के सामने छोटा सा पांडाल बनवाकर दिल्ली के श्री विपिनचंद जैन ने गणधरवलय विधान कराया। आचार्य संघ के सानिध्य में यह विधान सानन्द सम्पन्न हुआ। इस विधान में श्री सुकुमार चंद मेरठ वालों ने भी भाग लिया। विधान फाल्गुन की अष्टान्हिका में २० मार्च से २८ मार्च १९७५ तक हुआ।
सल्लेखना
इसके बाद एक दिन मुनिश्री वृषभसागर जी ने मुझसे कहा- ‘‘माताजी! मै यहीं क्षेत्र पर आचार्यश्री के सानिध्य में सल्लेखना ग्रहण करना चाहता हूँ। आप मुझे सहयोग दीजिये।’’ कुछ विचार-विमर्श के बाद मैंने उनके विचारों की सराहना की और आचार्यश्री से निवेदन किया, आचार्यश्री के सम्मुख उन्होंने संस्तर ग्रहण कर लिया।
सल्लेखना की घोषणा हो जाने से दिल्ली और आस-पास से प्रतिदिन दर्शनार्थी लोग आने लगे। उस समय सरधना के श्रावकों ने बहुत ही रुचि और भक्ति से यहाँ की व्यवस्था संभाली। मुनिश्री वृषभसागर जी ने क्रम-क्रम से आहार छोड़ना शुरू कर दिया। एक दिन मेरे से बोले- ‘‘माताजी! मुझे उत्तमार्थ प्रतिक्रमण करा दो।’’
मैंने कई एक मुनियों को बिठाकर उत्तमार्थ प्रतिक्रमण सुना दिया। उसके बाद उन्होंने २८ मार्च को आहार में केवल जल मात्र लेकर पुनः आचार्य श्री के समक्ष आकर चतुराहार का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया। आचार्यश्री ने कहा भी कि ‘‘जल धीरे-धीरे छोड़ो।’’ किन्तु उन्होंने कहा-‘‘महाराज जी! इस शरीर को मैंने बहुत दिनों तक खिलाया-पिलाया है लेकिन यह आत्मा का साथ देने वाला नहीं है।’’ उपवास में महाराज जी ज्ञानामृत भोजन से तृप्त हो रहे थे। साधु वर्ग प्रति घंटे उन्हें स्वाध्याय सुना रहे थे।
मैं भी दिन में दो-तीन बार उन्हें कुछ अध्यात्म और वैराग्यप्रद विषय सुनाया करती थी। आठवें दिन श्री सुकुमार चंद ने महाराज की सावधानी देखकर कहा- ‘‘आज तक मैंने ऐसी समाधि नहीं देखी।’’ अंत में ७ अप्रैल १९७५ को प्रातः ३ बजकर १० मिनट पर णमोकार मंत्र सुनते हुए शांति से मुनिश्री ने इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार २९ मार्च से ७ अप्रैल तक नौ दिन ये पूर्ण निराहार रहे हैं। इनकी अन्त्येष्टि प्रातः ९ बजे हजारों नर-नारियों की उपस्थिति में की गई। उनकी गृहस्थावस्था की धर्मपत्नी ने आज श्वेत वस्त्र धारण कर लिये। इनका पुत्र भी विरक्तचित्त धर्मात्मा था। इन समाधिरत मुनिश्री के दर्शन लगभग पचास हजार नर-नारियों ने हस्तिनापुर आकर किये थे।
इसी दिन मध्यान्ह में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन रखा गया। उसमें पंडित रतनचंद मुख्त्यार, श्री प्रेमचंद जैनावाच आदि श्रावकों, आर्यिकाओं, मुनियों, ब्रह्मचारियों ने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। विद्वानों ने इस पर भी प्रकाश डाला कि यह सल्लेखना ‘आत्मघात’ नहीं है, प्रत्युत् रत्नत्रय की आराधना है, जीवन भर किये गये धर्म को अपने साथ ले जाने का उपाय है, पंडितमरण है इत्यादि। अंत में ९ बार महामंत्र के जपपूर्वक सभा विर्सिजत हुई।
इसके बाद ९ अप्रैल को आचार्यश्री यहाँ हस्तिनापुर से विहार कर १२ अप्रैल को मुजफ्फरनगर पहुँच गये। आचार्यश्री की आज्ञा से मैं यहीं पर रुक गई। आचार्यश्री ने सभा में स्वयं कहा कि- ‘‘माताजी! आपके यहाँ रुके बगैर यह जम्बूद्वीप निर्माण का महान् कार्य संपन्न नहीं हो सकता है।’’
यहाँ मेरे पास आर्यिका रत्नमती माताजी और आर्यिका शिवमती ये दो रही हैं। यहाँ हस्तिनापुर में दिगम्बर जैन बड़े मंदिर पर १५-४-१९७५ को दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की बैठक हुई, जिसमें संस्थान के सदस्यों ने मेरे समक्ष यह महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया- ‘‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ द्वारा हस्तिनापुर में निर्मित मंदिर एवं जम्बूद्वीप की रचना में अभिषेक एवं पूजन दिगम्बर आम्नाय के अनुकूल होगा। इस समय दिगम्बर आम्नाय में तेरह पंथ एवं बीस पंथ दोनों प्रचलित हैं। दोनों आम्नाय वाले अपनी-अपनी परम्परानुसार अभिषेक एवं पूजन कर सकते हैं।
इस बैठक में संस्थान के उपाध्यक्ष सुकुमार चंद जी मेरठ, जयचंद जी मेरठ, लाला बूलचंद जैन मवाना, लखमीचंद जैन मवाना आदि महानुभाव उपस्थित थे। सभी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। इसके बाद वैशाख सुदी तीज-अक्षय तृतीया के दिन यहाँ सुमेरुपर्वत का कार्य प्रारंभ किया गया। नींव को भरने का काम सबसे अधिक महत्वपूर्ण था। इसमें बहुत बड़ा लोहे का जाल कमलाकार बनाकर रखा गया, जिसमें लगभग साठ टन लोहा होगा।
यहाँ सन् १९७५ के चातुर्मास में प्रतिदिन प्रातः प्रवचनसार का स्वाध्याय चलता था, जिसमें ब्र. हुकुमचंद जैन सलावा वाले, ब्र. मुख्त्यारसिंह जैन आदि स्थानीय विद्वान् सम्मिलित होते थे। मध्यान्ह में धवला, जीवंधरचंपू, वृत्तरत्नाकर आदि अनेक ग्रंथों को मैं अपने शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाती थी। दशलक्षण पर्व में प्रातः प्रवचनसार पर व्याख्यान, मध्यान्ह में तत्त्वार्थसूत्र की १-१ अध्याय का अर्थसहित विवेचन एवं एक-एक धर्म पर प्रवचन करती थी।
इसी अवसर पर अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासमिति के महामंत्री श्री सुकुमारचंद जी मेरठ ने यहाँ पर ऋषि मण्डल विधान कराया। इस विधान के कराने वाले मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार थे। यहां इस दशलक्षणपर्व में भोपाल, ग्वालियर, देहरादून, खतौली, मेरठ, मवाना, दिल्ली, टिकैतनगर आदि के यात्री पधारे थे।
उधर सहारनपुर में आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज अपने संघ सहित चातुर्मास कर रहे थे। उनके संघ से मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी आदि मुनिगण और कई आर्यिकाएं विहार कर मुजफ्फरनगर आ गये थे, वहाँ चातुर्मास कर रहे थे। मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी ने बारह वर्ष की सल्लेखना ले रखी थी। सो काल पूरा होने से उन्होंने यहाँ यम सल्लेखना शुरू कर दी थी।
उन्होंने कई बार सूचना भिजवाई कि- ‘‘ज्ञानमती माताजी! यहाँ आवें।’’ शास्त्र में भी ‘सल्लेखना के अवसर पर साधु ९६ मील तक बाहर जा सकते हैं’ ऐसा लिखा है तथा मैंने वर्षा योग स्थापना के समय इस विषय को खोल भी दिया था अतः मैंने दशलक्षण के बाद आसोज में मुजफ्फरनगर के लिए विहार कर दिया। वहाँ पहुँचकर क्षपक मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी एवं संघ के दर्शन किये।
महाराज जी ने मुझसे कई बार सल्लेखना के विषय में परामर्श किये। अनन्तर उनकी इच्छा से वहाँ पर ‘चारित्र शुद्धि विधान’ का आयोजन किया गया। कु. त्रिशला एवं कु. माधुरी ने कमलाकार मण्डल बहुत ही सुन्दर बनाया। विधान संपन्नता के बाद २२ अक्टूबर को रथयात्रा हुई।
वहाँ पर मैंने २६-२७ अक्टूबर को अनेक स्त्री-पुरुषों को सामायिक विधि सिखलायी। अनन्तर २९ अक्टूबर को विहार कर मैं हस्तिनापुर वापस आ गई। आर्यिका रत्नमती माताजी सुपार्श्वसागर जी की सल्लेखना देखने के लिए वहीं पर रह गई।
आचार्यश्री धर्मसागर जी द्वारा दीक्षायें
सहारनपुर चातुर्मास समाप्त कर आचार्यश्री संघ सहित ११ दिसम्बर को मुजफ्फरनगर पधार गये। सल्लेखनारत मुनिश्री सुपार्श्वसागर पानी ले रहे थे। यहाँ पर आचार्यश्री के कर-कमलों से ५ फरवरी १९७६ को ४ मुनि दीक्षायें, ६ आर्यिका दीक्षाएं एवं १ क्षुल्लक दीक्षा सम्पन्न हुई। क्षुल्लक निर्वाणसागर, ब्र. वीरचंद, ब्र. पूनमचंद और ब्र. मल्लप्पा, इन चारों ने मुनिदीक्षा ली। इनके नाम क्रम से निर्वाणसागर, विपुलसागर, पूर्णसागर और मल्लिसागर रखे गये।
ऐसे ही ब्र. जीवनीबाई-आर्यिका चेतनामती हुर्इं। ब्र. श्रीमती (मल्लप्पा की धर्मपत्नी) आ. समयमती बनीं। कु. शान्ता और कु. सुवर्णा ने आर्यिका होकर नियममती और प्रवचनमती नाम पाया। ब्र. फिरोजीदेवी ने आर्यिका होकर समाधिमती नाम पाया। कु. सुधा आर्यिका बनीं, इसका नाम सुरत्नमती रखा गया। ऐसे ही ब्र. शिवकरण जी ने क्षुल्लक दीक्षा लेकर सिद्धसागर नाम प्राप्त किया।
समाधिमरण
यहीं ३१ जनवरी को प्रातः ७ बजे ७३ वर्षीय मुनिश्री बोधिसागर जी का आचार्यसंघ के सानिध्य में अकस्मात् समाधिमरण हो गया। इसी तरह दिल्ली में विराजमान बहुत पुरानी शत वर्षीया चन्द्रमती जी का छह फरवरी को समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया।
पुनः २९ फरवरी को मुनिश्री सुपाश्र्वसागर जी की समाधि आचार्य संघ के सानिध्य में सम्पन्न हुई। उस दिन एस.डी.एम. के आदेशानुसार सारे मुजफ्फरनगर की दुकानें दिन में ३ बजे तक बंद रहीं। दाह-संस्कार वहेलना में किया गया।
सिद्धचक्र विधान
यहाँ हस्तिनापुर में बड़ौत के अनन्तवीर जैन ने ९-३-७६ से १६-३-७६ तक सिद्धचक्र विधान किया। उधर आर्यिका रत्नमती माताजी मुजफ्फरनगर से विहार कर यहाँ हस्तिनापुर मेरे पास वापस आ गर्इं। इसके बाद मैंने हस्तिनापुर से खतौली की ओर विहार कर दिया। मेरे साथ आर्यिका रत्नमती जी थीं।
दक्षिण के मल्लप्पा श्रावक यहां आये हुए थे। आचार्यश्री के पास उनकी पत्नी और दो पुत्रियाँ दीक्षा ले रही थीं, तब आर्यिका रत्नमती जी ने मल्लप्पा जी को घण्टों खूब समझाया कि तुम भी दीक्षा क्यों नहीं ले लेते हो? तुम भी मुनिदीक्षा लेकर अपना आत्म-कल्याण करो। आर्यिका रत्नमती जी की प्रेरणा से श्रावक मल्लप्पा ने भी दीक्षा की भावना बना ली।
तब आचार्यश्री से प्रार्थना करने पर वे भी अतीव प्रसन्न हुए। इन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली, तब इनका नाम ‘मल्लिसागर’ रखा गया।