जय जय तीर्थंकर बालयती, जय जय जय बाल ब्रह्मचारी।
जय वासुपूज्य जय मल्लिनाथ, जय नेमिनाथ शिव सुखकारी।
जय पार्श्वनाथ जय महावीर, पाँचों तीर्थंकर बालयती।
मैं नमूं अनंतो बार नमूँ, पा जाऊँ पंचम सिद्धगती।।१।।
आत्मा औ तनु के अन्तर को, कर तनु से निर्मम हो जाऊँ।
मैं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हूँ, यह समझ स्वयं में रम जाऊँ।।
इन्द्रिय बल आयू श्वांस चार, प्राणों को धर धर मरता हूँ।
निश्चयनय से नहिं जन्म—मरण, फिर भी निश्चय नहिं करता हूँ।।२।।
मैं इन प्राणों से भिन्न सदा, पुद्गल से भिन्न निराला हूँ।
सुख सत्ता दर्शन ज्ञान वीर्य, चेतनमय प्राणों वाला हूँ।।
हे वासुपूज्य ! तव चरण कमल, की भक्ती से यह मिल जावे।
जो खोई शक्ति अनन्त मेरी, तव नाम मात्र से प्रगटावे।।३।।
जिन काम मोह यमराज मल्ल, तीनों को जीत विजेता हैं।
वे मल्लिजिनेश्वर मेरे भी, दुष्कर्म मल्ल के भेत्ता हैं।।
हे मल्लि प्रभो ! मेरे त्रय विध, मल को हरिए निर्मल करिए।
मुरझाई सुखवल्ली मेरी, वचनामृत से पुष्पित करिये।।४।।
भव वन में भ्रमते—भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमिप्रभो ! अब नियम बिना, नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत को नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।५।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजीमति मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
हे भगवन् ! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टय श्री, जो अतिशायी सिद्धिप्रिय हो।।६।।
भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ, विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील ! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिवपथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, अब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।७।।
महावीर वीर सन्मति भगवन् ! अतिवीर सदा मंगल करिये।
हे वर्धमान भववारिधि से, अब मुझको पार तुरत करिये।।
हे वीर प्रभो ! तब शासन में, मुझको रत्नत्रय निधी मिली।
मैं भक्ति सहित प्रणमूँ तुमको, मेरी मन कलियाँ आज खिलीं।।८।।
हे वीर प्रभो ! मंगलमय तुम, लोकोत्तम शरणभूत तुम ही।
भव भव के संचित पाप पुंज, इक क्षण में नष्ट करो सब ही।।
मैं बारम्बार नमूँ तुमको, भगवन् ! मेरे भव त्रास हरो।
आनन्त्य गुणों की पूर्ती कर, स्वामिन् ! अब मुझे कृतार्थ करो।।९।।
जय जय तीर्थंकर त्रिभुवनपति, जय जय अनुपम गुण के धारी।
जय जय चिच्चिंतामणी आप, चिंतित वस्तू दें सुखकारी।।
जय जय अनमोल रतन जग में, तुम नाम रसायन भी माना।
जय जय तुम नाम मंत्र उत्तम, वह महोषधी भी परधाना।।१०।।
यह महामोह अहि के विष को, गारुत्मणि बन अपहरण करे।
भव वन की जन्मलता को भी, जड़ से उखाड़कर दहन करे।।
तुम नाम अलौकिक शक्ति बाण, मृत्यू योद्धा का घात करे।
भव भव में बंधे कर्म शत्रू, उन सबका जड़ से नाश करे।।११।।
तुम नाम मंत्र अद्भुत जग में, यह शिव ललना को वश्य करे।
समरसमय अतिशय सुख देके, कर्मोदय के सब कष्ट हरे।।
तुम नाम आर्त औ रौद्रध्यान, दोनों को जड़ से नाशे है।
वर धर्म्यध्यान औ शुक्लध्यान, के बल से निज परकाशे है।।१२।।
माया मिथ्यात्व निदान शल्य, तीनों को दहन करे क्षण में।
जो विषय वासना की इच्छा, उसको भी शमन करे क्षण में।।
चिच्चमत्कारमय चेतन की, परिणति में नित्य रमाता है।
तुम नाम मंत्र सचमुच भगवन् , स्वातम रस पान कराता है।।१३।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ अमल अकल, अविकारी ज्योतिस्वरूपी हूँ।
निज देहरूप देवालय में, रहते भी चिन्मयमूर्ती हूँ।।
इस विध से आतम अनुभव ही, पर से सब ममत हटाता है।
यह निज को निज के द्वारा ही, बस निज में रमण कराता है।।१४।।
दोहा
नाम मंत्र प्रभु आपका, करे सकल कल्याण।
‘ज्ञानमती’ सुखसंपदा, करे अंत निर्वाण।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य—मल्लिनाथ—नेमिनाथ—पार्श्वनाथ—महावीरस्वामि— पंचबालयतितीर्थंकरेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा ! दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो पांच बालयति का विधान, श्रद्धा भक्ती से करते हैं।
वे त्रिभुवन पूजित ब्रह्मचर्य, पाकर स्वात्मा में रमते हैं।।
देवर्षिदेव लौकांतिकसुर, होकर अंतिम भव लभते हैं।
कैवल्य ज्ञानमति भास्कर हो, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
चौबीसों तीर्थंकर प्रणमूं, प्रभु पंच बालयति नमन करूँ।
गौतम स्वामी माँ सरस्वती, को वंदूं पूर्वाचार्य नमूं।।
श्री मूलसंघ में कुंदकुंद आम्नाय सरस्वती गच्छ कहा।
गण बलात्कार में परंपराचार्यों को नित ही नमूं यहाँ।।१।।
यह पंचबालयति का विधान, मैने रचना की भक्तीवश।
यह रोग शोक दारिद्रय दु:ख संकट हरने वाला संतत।।
वीराब्द पचीस सौ उनतालिस भादों अनंत चौदस तिथि में।
यह विधान रचना पूर्ण हुई, होवे मंगलकर सब जग में।।२।।
इस युग के चारित्र चक्री श्री, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।३।।
महावीरजी अतिशय तीरथ पर, प्रभु पंच बालयति का मंदिर।
अन्यत्र बालयति तीर्थंकर के, मंदिर बहुत बने भू पर।।
तीर्थंकर का शासन जब तक, तब तक विधान तिष्ठे जग में।
सब जैनतीर्थ स्थायि रहें, सुख शांति सुभिक्ष रहे जग में।।४।।
-दोहा-
गणिनी ज्ञानमती रचित, यह विधान सुखकार।
केवल ज्ञानमती करे, भरे सुगुण भंडार।।