हे भगवन्! मैं तीर्थंकर आदि महापुरुषों के उस पुण्य को सुनना चाहता हूँ जिसमें सर्वज्ञप्रणीत समस्त धर्मों का संग्रह किया गया हो। हे देव! मुझ पर प्रसन्न होइए, दया कीजिए और कहिए कि आपके समान कितने सर्वज्ञ-तीर्थंकर होंगे ?
मेरे समान कितने चक्रवर्ती होंगे ?
कितने नारायण, कितने बलभद्र और कितने उनके शत्रु-प्रतिनारायण होंगे ?
उनका अतीत चरित्र कैसा था? वर्तमान में और भविष्यत् में कैसा होगा?
हे वत्तृश्रेष्ठ! यह सब मैं आपसे सुनना चाहता हूँ। हे सबका हित करने वाले जिनेन्द्र! यह भी कहिए कि वे सब किन-किन नामों के धारक होंगे ?
किस-किस गोत्र में उत्पन्न होंगे ?
उनके सहोदर कौन-कौन होंगे ?
उनके क्या-क्या लक्षण होंगे ?
वे किस आकार के धारक होंगे ?
उनके क्या-क्या आभूषण होंगे ?
उनके क्या-क्या अस्त्र होंगे ?
उनकी आयु और शरीर का प्रमाण क्या होेगा ?
एक-दूसरे में कितना अन्तर होगा ?
किस युग में कितने युगों के अंश होते हैं ?
एक युग से दूसरे युग में कितना अन्तर होगा ?
युगों का परिवर्तन कितनी बार होता है ?
युग के कौन से भाग में मनु-कुलकर उत्पन्न होते हैं ?
वे क्या जानते हैं ?
एक मनु से दूसरे मनु के उत्पन्न होने तक कितना अन्तराल होता है ?
हे देव! यह सब जानने का मुझे कौतूहल उत्पन्न हुआ है, सो यथार्थ रीति से मुझे इन सब तत्त्वों का स्वरूप कहिए। इस प्रकार प्रश्न कर महाराज भरत चुप हो गये और कथा सुनने में उत्सुक होते हुए अपने योग्य आसन पर बैठ गये, तब समस्त सभा ने भरत महाराज के इस प्रश्न की सातिशय प्रशंसा की, जो कि समय के अनुसार किया गया था, प्रकाशमान अर्थों से भरा हुआ था, पूर्वापर संबंध से सहित था तथा उद्धतपने से रहित था।