वंदन शत शत बार है,
त्रैकालिक उन सिद्धप्रभू को वंदन शत शत बार है।
जिनका नाममंत्र जपने से होते भवदधि पार हैं।।
त्रैकालिक उन……..।।टेक.।।
द्विविध रत्नत्रय धारण करके, धरा दिगंबर वेष है।
आत्म ध्यान पीयूष पान कर, हरा मृत्यु का क्लेश है।।
विविध तपश्चर्या कर करके, भरा सुगुण भंडार है।
त्रैकालिक उन सिद्ध प्रभू को वंदन शत शत बार है।।१।।
सर्वौषधि अमृतस्रावी आदिक बहु ऋद्धी प्राप्त हैं।
भव्यों के सब कष्ट मिटाते, करते उन्हें सनाथ हैं।।
ऋद्धि सहित चौंसठ गुण पाके, बने मुक्ति भरतार हैं।
त्रैकालिक उन सिद्धप्रभू को, वंदन शत शत बार है।।२।।
आह्वानन स्थापन करके, प्रभो! आपका यजन करें।
हृदय कमल में आप विराजो, मोहतिमिर का हनन करें।।
सन्निधिकरण विधीपूर्वक, हम करें भक्ति साकार है।
त्रैकालिक उन सिद्धप्रभु को वंदन शत शत बार है।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सीता नदि को जल स्वच्छ, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधारा देते चर्ण, भव भव त्रास हरूँ।।
मैं पूजूूँ भक्ति समेत, सिद्धों के गुण को।
परमानंदामृत हेतु, पाऊँ निज गुण को।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, प्रभु के चरण जजूूँ।
पाऊँ निज अनुभव गंध, जिनवर शरण भजूँ।।मैं.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अति धवल अखंड, धोकर थाल भरूँ।
होवे मुझ ज्ञान अखंड, तुम ढिग पुंज धरूँ।।मैं.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुलादि सुगंधित पुष्प, लाऊँ चुन चुन के।
पाऊँ निज समरस सौख्य, प्रभु चरणों धरके।।मैं.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू है मोतीचूर, अर्पूं तुम सन्मुख।
हो क्षुदा वेदनी दूर, पाऊँ स्वातम सुख।।मैं.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रजाल, आरति करते ही।
नशे मोह तिमिर का जाल, ज्योती प्रगटे ही।।मैं.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये दीपंं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध सुगंधित धूप, अगनी में खेऊँ।
उड़ जावे चहुँदिश धूम्र, तुम पद को सेवूँ।।मैं.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेब बादाम, फल से यजन करूँ।
हो निजपद में विश्राम, भव भव भ्रमण हरूँ।।
मैं पूजूूँ भक्ति समेत, सिद्धों के गुण को।
परमानंदामृत हेतु, पाऊँ निज गुण को।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ्य बनाय, रत्न मिलाऊँ मैं।
सिद्धों के चरण चढ़ाय, गुणमणि पाऊँ मैं।।मैं.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर लाया पयोिंसधु से भृंग में।
नाथ के पाद में तीनधारा करूँ।।
विश्व में शांति हो सर्वविपदा टलें।
धर्म पीयूष मिल जाय तुम भक्ति से।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
मल्लिका केवड़ा पुष्प सुरभित लिये।
नाथ के पादपंकज चढ़ाऊँ अबे।।
सौख्य भंडार पूरो मिटे व्याधियाँ।
स्वात्म निधियाँ मिलें कीर्ति फैले यहाँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
नित्य निरंजन सिद्ध, परमहंस परमातमा।
पाऊँ निज गुण सिद्धि, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
अथ मंडलस्योपरि चतुर्थवलये (चतुर्थदले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
कर्मों को जीता जिन माने फिर मुक्तिधाम को प्राप्त हुये।
जिन सिद्धों की अर्चा कर लो, आतम सुख भी पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
घर पुत्र पिता परिजन पुरजन, ये अपने नहीं पराये हैं।
भगवान को अपना मान चलो, जिनगुण संपद पा जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं जिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जो अवधीज्ञान धरें मुनिवर, फिर मुक्तिरमा को वर लेते।
वे आत्म रसास्वादी प्रभु हैं, उन नमत अवधि पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
माया के अंधेरे में प्राणी, नहिं ज्ञानकिरण पा सकते हैं।
सिद्धों की शरण में आ जावो, फिर ज्ञानज्योति पा जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं अवधिजिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जो मुनि परमावधि पा लेते, उस ही भव से शिव प्राप्त करें।
तुम उनकी शरण में आ जावो, जिनधर्मामृत पा जावोगे।।सिद्धों।।१।।
नानाविधि से संक्लेश किये, ज्ञानावरणादि बंधा करते।
इन कर्मों से छुटकारा हो, ऐसी युक्ती पा जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं परमावधिजिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जो मुनि सर्वावधि ज्ञानी हैं, त्रिभुवन के मूर्त सभी जानें।
इनके भी मुक्ति इसी भव से, नमते युक्ती पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
इन मुनियों काr श्रद्धा भक्ती, भवदधि से पार लगा देगी।
तुम इनकी शरण में आ जावो, फिर ज्ञान ऋद्धि पा जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वावधिजिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जिनकी अवधि का अंत नहीं, वे ही अनंत अवधी मानें।
ये केवलज्ञानी ऋषि होते, इनसे निजरश्मी पावोगे।।सिद्धों.।।१।।
सब जन में केवलज्ञान भरा, यह कर्मावरण उसे ढकता।
कैसे विनाश हो कर्मों का, भक्ती से शक्ति पावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतावधिजिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जैसे कोठे में धान्य भरें, सब पृथक् पृथक् रह सकते हैं।
वैसे ही कोष्ठबुद्धि मुनि को, नमते बुद्धी पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
मति ज्ञानावरण क्षयोपशम से, बुद्धी में अतिशय आ जाता।
तुम इन मुनियों की भक्ति करो, धारणा शक्ति पा जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
ज्यों बीज से खेत फले कोसों, त्यों ज्ञान बढ़े जिन मुनियों का।
उन बीज बुद्धि ऋषि को पूजो, तुम ज्ञान किरण पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
आत्मा में ज्ञान अनंत भरा, कर्मों ने इसको क्षीण किया।
गुरुभक्ति से इसे बढ़ाकर तुम, आकाश को भी छू जावोगे।।सिद्धों.।।२।।
ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
सिद्धों के गुणों को गाते चलो, मनवाञ्छित फल पा जावोगे।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ाते चलो, धन सुख संपद पा जावोगे।।टेक.।।
जो एकमात्र पद पढ़ते ही, संपूर्ण ग्रंथ का अर्थ करें।
यह पदानुसारी बुद्धि ऋद्धि, जजते इसको पा जावोगे।।सिद्धों.।।१।।
सब पाठ याद कर कर भूलें धारणावरण स्मृति हरता।
ऋषियों की पदरज शिर पे धरो, स्मरण शक्ति पा जावोगे।।सिद्धों.।।
ॐ ह्रीं पादानुसारिणीबुद्धिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सारे जग में शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र, के बाहर का भी जो सुन लें।
संख्यातों योजन तक मानव पशु के सब शब्द समझ भी लें।।
संभिन्न श्रोतृबुद्धी मुनि को वंदन कर ले मन उज्ज्वल हो।।हम.।।१।।
जो परम तपस्या करते हैं, वे ही ऐसी ऋद्धीr पाते।
इनसे जन जन का हित करके, वे मुक्तिवल्लभा पा जाते।।
इन मुनियों की पूजा करते-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं संभिन्नश्रोतृत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
जो जन गुरु के उपदेश बिना, स्वयमेव बोध को पाते हैं।
वे स्वयंबुद्ध ऋद्धी धरते, भक्तों की बुद्धि बढ़ाते हैं।।
इन मुनियों को वंदन करते-२ मेरा मन अतिशय उज्ज्वल हो।।हम.।।१।।
यह तन नाना रोगों का घर, नश्वर है घृणित अपावन है।।
इस तन से संंयम धारणकर, मुनि बनते तरण व तारण हैं।
ऐसे मुनियों की पूजाकर-२ मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
जो आत्मज्ञान को पाकर के, वैराग्य लिये संयम धारे।
ऐसे मुनि ही प्रत्येक बुद्ध, होकर अगणित जन को तारें।।
इन मुनियों की पूजा करते-२, भक्ती ध्वनि का कोलाहल हो।।हम.।।१।।
जो मुनी बहुत विध तप तपते, वे मुक्ति राज्य को पा लेते।
ऐसे मुनि के चरणोदक से, जन मस्तक पावन कर लेते।।
इन गुरु की पूजा करने से-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
जो गुरुओं का उपदेश सुनें, बोधित हो रत्नत्रय धारें।
अट्ठाइस मूलगुणों से युत, वे साधू भव्यों को तारें।।
इन गुरुओं की पूजा करते-२, मिल जावे पूजा का फल हो।।हम.।।१।।
यह मोहनीय है महाशत्रु, सब कर्मों का यह राजा है।
इसका दर्शन मोहनीय भेद, नशते सम्यक्त्व प्रकाशा है।।
क्षायिक सम्यक्त्व मिले मुझको-२, मेरा जीवन अति उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं बोधितबुद्धत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
मन वच तन से अति सरल, मनोगत सभी वस्तु को जो जानें।
वे ऋजुमति मनपर्यय ज्ञानी, मूर्तिक पदार्थ को ही जानें।।
उन मुनियों की पूजा करते-२, सब जन मन में भी हलचल हो।।हम.।।१।।
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग पढ़ते-पढ़ते।
द्रव्यानुयोग के पात्र बनें, जिनवाणी को पढ़ते-पढ़ते।।
इन ऋषियों को वंदन करते-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं ऋजुमतिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
जो जन के सरल कुटिल मनगत, संपूर्ण मूर्त वस्तू जानें।
वे विपुलमती मनपर्यय मुनि, इस भव से सकल कर्म हानें।।
ऐसे सिद्धोें की पूजा कर-२, भक्तों का मन अति निर्मल हो।।हम.।।१।।
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, तीनों गुप्ती को धरते हैं।
वे नर तन को पावन करके, निज आत्मनिधी को वरते हैं।।
इन मुनियोें को शत-शत वंदन-२, मेरा जीवन भी उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं विपुलमतिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
ग्यारह अंगों दश पूर्वों को, पढ़कर दशपूर्वी मुनि इनसे।
जब दशवां पूर्व पढ़ें तब ही, विद्यादेवी के आने से।।
जो चारित से विचलित नहिं हों-२ उन नमते आतम निर्मल हो।।हम.।।१।।
इन मुनियों का व्रत ब्रह्मचर्य, त्रैलोक्यपूज्य कहलाता है।
इन शरणागत में आने से, चारित्र विमल हो जाता है।।
इन मुनि की पूजा करने से-२, लौकांतिक सुरपद का फल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं दशपूर्वित्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
आत्मज्योति, जय आत्मज्योति, मम हृदय विराजो-२।।
हम यही भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर-नगर में जिनभक्ती, सब जन-जन का शुभ मंगल हो।।हम.।।टेक.।।
जो चौदह पूर्वों के ज्ञाता, श्रुतकेवलज्ञानी पद लभते।
उनके चरणों का आश्रय ले, क्षायिक समकित भी पा सकते।।
ये परोक्ष से त्रिभुवन जानें-२, इन भक्ती से श्रुतनिधि फल हो।।हम.।।१।।
जो आर्त रौद्र दुर्ध्यान रहित, शुभ धर्म शुक्ल के ध्यानी हैं।
इन मुनि की महिमा अद्भुत है, ये पाते शिव रजधानी हैं।।
इन सिद्धों की पूजा करते-२, मेरा जीवन अति उज्ज्वल हो।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
स्वर व्यंजन लक्षण चिन्ह स्वप्न, नभ भौम अंग ये आठ निमित।
इनसे शुभ अशुभ बताते जो, उनके ऋद्धी अष्टांग निमित।।
इन मुनियों को वंदन करके, पूजन कर पुण्य कमा जाना।।यह.।।१।।
ये साधू आत्मसाधना कर, समतापियूष का पान करें।
निज शुक्लध्यान के द्वारा ही, सब कर्मनाश शिवनारि वरें।।
उन सिद्धों की पूजा करके, परमानंदामृत पा जाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टांगनिमित्तज्ञातृत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
अणिमा महिमा लघिमा गरिमा, प्राप्ती प्रकाम्य ईशित्व वशी।
अप्रतीघात अन्तर्ध्यानी, विक्रिया कामरूपी आदी।।
विक्रिया ऋद्धि मुनियों को जजो, तुम इनकी पूजन कर जाना।।यह.।।१।।
ये ऋद्धी जो मुनि पाते हैं, वे विष्णुकुमार सदृश होते।
मुनियों की रक्षा करके वे, सातिशय पुण्य भागी होते।।
ये मुनी मोक्षपद पा लेते, इनका वंदन कर सुख पाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं विक्रियाऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
जातीविद्या कुलविद्या तज, तपविद्या धर जो साधू हैं।
विद्यानुवाद पढ़कर भी मुनि, माने विद्याधर साधू हैं।।
ये विद्याओं से काम न लें, इनकी पूजा कर सुख पाना।।यह.।।१।।
जो महासाधु संयमधारी, तपकर अज्ञान हटाते हैं।
फिर शुक्लध्यान से कर्म घात, शिवलक्ष्मी पा हर्षाते हैं।।
ये आत्मसुधारस पीते हैं, इनका वंदन कर हर्षाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं विद्याधरत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
जल जंघा तंतू फल व पुष्प, ये बीज गगन अरु श्रेणी हैंं।
इन पर चलते नहिं जीव मरें, आठों विध चारण ऋद्धी हैं।।
इन चारण ऋद्धी मुनियों की, पूजा कर पुण्य कमा जाना।।यह.।।१।।
जो मुनी अहिंसा व्रत पालें, वे परम दयालू माने हैं।
निज आत्मा पर करुणा करके, वे ही मुक्तिश्री पाते हैं।।
इन परमानंदरसास्वादी, को नमते निज सुख पा जाना।।।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
पूरब भव के संस्कारोें से, ज्यों की त्यों ज्ञान प्रगट होता।
गुरु मुख से विनय सहित पढ़कर, वैनयिक ज्ञान विकसित होता।।
या तपबल से प्रज्ञा प्रगटे, इन मुनि का वंदन कर जाना।।१।।
गणधर की प्रज्ञा स्वाभाविक, ये प्रज्ञाश्रमण महामुनि हैं।
औत्पत्तिक विनयज कर्मज अरु, परिणामिक प्रज्ञा चउविध है।।
प्रज्ञाश्रमणों का वंदन कर, अतिशय प्रज्ञा को पा जाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमणऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
मनुजोत्तर पर्वत पर्यंते, इच्छानुसार नभ में विहरें।
आकाशगमनकारी वे मुनि, तप बल से ऋद्धी प्राप्त करें।।
इन महासंयमी मुनियों की, अर्चा कर पाप नशा जाना।।यह.।।१।।
प्राणीवध का परिहार करें, रत्नत्रय साधन में रत हैं।
इनके चरणों के आश्रय से, मिल जाती जिनगुण संपत् है।।
ये विषय कषाय महा अरि हैं, इनसे छुटकारा पा जाना ।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं आकाशगामित्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
हालाहल विष का जहर चढ़ा, जिनके वचनों से दूर भगे।
ऐसी आशीविष ऋद्धि धरें, वे जन जन का उपकार करें।।
इनके चरणों का आश्रय ले, दुख से छुटकारा पा जाना।।यह.।।१।।
नानाविध व्याधी से पीड़ित, या दरिद्रता से दुखी हुये।
इन मुनि का आशिष मिलते ही, सब दुख से जन जन मुक्त हुये।।
फिर भी ये परम वीतरागी, इनसे मन पावन कर जाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं आशीर्विषत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२३।।
यह मानव तन, अनमोल रतन, पा विषयों में मत फंस जाना।
भवसिंधु अगर तरना चाहो, जिनचरण शरण में आ जाना।।टेक.।।
यदि क्रोधित हो मुनि कह देवें, ‘‘मर जा’’ तत्क्षण जन मर जावें।
नहिं किंतु दिगंबर मुनि ऐसा, दुष्कृत्य कभी भी कर पावेंं।।
इनके अवलोके विष उतरे, तुम इनकी शरण में आ जाना।।यह.।।१।।
इनके देखे अस्वस्थ जीव, हों पूर्ण स्वस्थ धन धान्य भरें।
ये दृष्टीविष हैं दयासिंधु, सब जन का ही उपकार करें।।
इनकी पूजा भक्ती करके, इन कृपादृष्टि को पा जाना।।यह.।।२।।
ॐ ह्रीं दृष्टिविषत्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्धभूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
करें जो उग्र तप उपवास, छह महिने से ऊपर भी।
नहीं अपमृत्यु हो फिर भी, वे ही मुक्ती को पाते हैं।।नमन.।।१।।
प्रभो! मैं उग्र तप कर लूँ, यही शक्ती मिले मुझको।
गुरू की भक्ति से निश्चित, सभी जन इष्ट पाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं उग्रतप:ऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्धभूमी को, जहाँ भगवन् विराजे हैं।।टेक.।।
बहुत उपवास करके भी, जिन्हों की दीप्ति बढ़ जावे।
नहीं आहार करके भी, अतुल बल वे बढ़ाते हैं।।नमन.।।१।।
महामुनि दीप्ततपधारी, मुक्ति कन्या वरण करते।
इन्हों की भक्ति करके हम, जनम दुख को नशाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं दीप्ततप:ऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्धभूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
अधिक उपवास करने से, मूत्रमल आदि नश जावे।
करें आहार नहिं नीहार, ऐसी ऋद्धि पाते हैं।।नमन.।।१।।
महामुनि तप्ततपधारी, अतीन्द्रिय सुख के अधिकारी।
तुम इनकी वंदना कर लो, ये भव दुख से बचाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं तप्ततप:ऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्ध भूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
अनेकों ऋद्धि से संयुत, महातप जो सदा तपते।
देह की कांति से शोभें, सभी के दुख नशाते हैं।।नमन.।।१।।
महामुनि कर्म को घातें, मोक्ष में जाके बस जाते।
करें हम वंदना इनकी, ये आतमनिधि दिलाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं महातप:ऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्ध भूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
घोर तप ऋद्धि जो धारें, सु बारह तप सभी तपते।
भयंकर वन में रह करके, अभय पद वे ही पाते हैं।।नमन.।।१।।
करें उपवास अवमोदर्य, वृत्तपरिसंख्य रस त्यागें।
त्रिविध योगी महामुनि ये, स्वयं शिवधाम पाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं घोरतप:ऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्ध भूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
पराक्रम घोर है जिनका, त्रिजग संहार में क्षम हैं।
जलधि शोषण धरा निगलन, कार्य की शक्ति पाते हैं।।नमन.।।१।।
महामुनि वीतरागी हैं, अशुभ िंकचित् नहीं करते।
जगत हितकर कृपासागर, निजातम सिद्धि पाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं घोरपराक्रमऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्ध भूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
मुनी के घोरगुणऋद्धी, डरें सब भूत प्रेतादी।
लाख चौरासि उत्तरगुण, धरें निजधाम पाते हैं।।नमन.।।१।।
परमऋषि साम्य परिणामी, चार आराधना धारी।
इन्हों की भक्ति पूजा से, निजातम सिद्धि पाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं घोरगुणऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
नमन है सर्वसिद्धों को, जिन्होंने कर्म नाशे हैं।
नमन उस सिद्ध भूमी को, जहाँ भगवन् विराजें हैं।।टेक.।।
घोरगुण ब्रह्मचारी मुनि, अखंडित ब्रह्मचारी हैं।
परम शांती धरें निज में, अखंडित सौख्य पाते हैं।।नमन.।।१।।
उपद्रव रोग कलहादी, वैर दुर्भिक्ष वध बंधन।
सभी संकट टलें क्षण में, जो गुरुपूजा रचाते हैं।।नमन.।।२।।
ॐ ह्रीं घोरगुणब्रह्मचारित्वऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जिनका संस्पर्श परम औषधि, सब रोग शोक दु:ख हरे तुरत।।
उनकी पूजा भक्ती कर पाप नशाऊँ।।भक्ती.।।१।।
ये मुनि आमौषधि ऋद्धि धरें, निज आत्मा को भी स्वस्थ करें।
इनके चरणों का आश्रय ले, सुख पाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं आमौषधिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जिनके तन का मल किंचित् भी, सब रोग शोक हर देता भी।।
उन खेल्लौषधि मुनि के, चरणों शिर नाऊँ।।भक्ती.।।१।।
रोगी मुनि की सेवा करते, जो मन में ग्लानी नहिं धरते।
उनको हो ऐसी ऋद्धि प्रगट, गुण गाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं क्ष्वेलौषधिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
तन का बाहिर मल जल्ल कहा, ये भी औषधि सम प्रगट रहा।
इन जल्लौषधि मुनि नमते रोग नशाऊँ।।भक्ती.।।१।।
तप तपते तन पावन होता, सब जन के दुख दारिद धोता।
ऐसे गुरुओं के, गुण गाकर हर्षाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं जल्लौषधिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जिनकी पसेव कण आदि सभी, तन मल बन जाते औषधि भी।
इन ऋषियों की ऋद्धी को शीश नमाऊँ।।भक्ती.।।१।।
जो गुरु की सेवा करते हैं, आहारदान बहु देते हैं।
वे पुण्य सातिशय भरें, जजत सुख पाऊँ ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं विप्रुषौषधिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जिनके तन से स्पर्श वायु, करती रोगी को दीर्घ आयु।।
उनके चरणों की धूली शीश चढ़ाऊँ।।भक्ती.।।१।।।
जो मुनि सर्वौषधि ऋद्धि धरें, सब व्याधि विषादिक कष्ट हरें।
उनकी पूजा कर पूर्ण स्वस्थता पाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वौषधिऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जो इक मुहूर्त में द्वादशांग, चिंतन करते नहिं होय श्रांत।
उन मनोबली मुनियों को नितप्रति ध्याऊँ।।भक्ती.।।१।।
इन गुरुओं के गुण को गावें, मेरा मन सुस्थिर हो जावे।
इन भगवंतों को हृदय कमल में बिठाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं मनोबलऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
जो द्वादशांग का पाठ करें, बस इक मुहूर्त में पूर्ण करें।।
फिर भी नहिं थकता कंठ, उन्हें शिर नाऊँ।।भक्ती.।।१।।
इन मुनि को वचन सिद्धि वरती, केवलि में दिव्यध्वनि खिरती।।
इन मुक्तिरमापति के गुण को नित ध्याऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं वचोबलऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
श्री सिद्धचक्र भगवंत, महागुणवंत।
नमूँ शिर नाऊँ, भक्ती से अर्घ्य चढ़ाऊँ।।टेक.।।
संवत्सर भी उपवास करें, बाहूबलि सम वो शक्ति धरें।
इन कायबली के, चरण हृदय में लाऊँ।।भक्ती.।।१।।
ये त्रिभुवन को भी अंगुलि पर, बस उठा सकें यह शक्ति प्रवर।
शिवधाम बसें ऐसे गुरु के गुण गाऊँ।।भक्ती.।।२।।
ॐ ह्रीं कायबलऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
नीरस या विषमय भोजन हो।
पाणिपात्र में आते पय हो।।
क्षीरस्रवी ये ऋद्धि महान्।।करो.।।१।।
मुक्तिरमा इनको ही चाहे।
भक्त भक्तिनद में अवगाहें।
मैं भी नमूँ सदा गुणखान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं क्षीरस्राविऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
करपुट में आहार दिया जो।
रूखा भी घृतमय होता वो।।
घृतस्रावी ये ऋद्धि महान्।।करो.।।१।।
ये मुनि शिवपद पा जाते हैं।
हम इनका आश्रय पाते हैं।
इनके भक्त बनें धनवान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं सर्पि:स्राविऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
करपुट में कटु भी भोजन हो।
मधुवत् मधुर स्वाद परिणत हो।।
भक्त स्वस्थता लहें महान्।।करो.।।१।।
इनके वचन मधुर प्रिय हितकर।
पुण्य उदय से भक्त शिवंकर।
नमूॅँ नमूँ ये सौख्य निधान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं मधुरस्राविऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
पाणिपात्र में आया भोजन।
अमृत सम बन जाता तत्क्षण।।
अमृतस्रावी मुनि सुखदान।।करो.।।१।।
इनके वच अमृत सम पोषें।
भक्ती कर जन मन संतोषें।
नमूँ नमूँ ये समसुख खान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं अमृतस्राविऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
जिस घर में आहार करें मुनि।
भोजन क्षीण न होता उस दिन।।
संख्यातों करते क्षुध हान।।करो.।।१।।
मुनि के चहुँदिश चार हाथ में।
जीव असंख्ये एक साथ में।
ये अक्षीण ऋद्धि अमलान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसऋद्धिसंपन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने दिर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
वृद्धिंगत महिमा के धारी।
प्रभु तुम गुण अनंत भंडारी।।
जिनका केवलज्ञान महान्।।करो.।।१।।
नमूँ नमूँ मैं भक्ति भाव से।
मेरा ज्ञान पूर्ण हो प्रगटे।
सर्व सुखों के आप निदान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
कृत्रिम अकृत्रिम जिनमंदिर।
सिद्धायतन कहाते सुंदर।।
सिद्धक्षेत्र भी पूज्य महान्।।करो.।।१।।
ज्ञानकिरण से सर्वलोक को।
व्याप्त किया सारे अलोक को।
जगत व्याप्त विष्णू भगवान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धायतनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
वंदूं सदा सिद्ध भगवान।
करो मेरे कर्मों की हान।।टेक.।।
बुद्ध ऋषी केवलज्ञानी हैं।
पंचकल्याणक के स्वामी हैं।।
नमूँ चरण कमलों में आन।।करो.।।१।।
सभी ऋद्धियों को प्रगटित कर।
शिवलक्ष्मी के हुये श्रेष्ठ वर।
नमते नवनिधि ऋद्धि प्रधान।।करो.।।२।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानबुद्धर्षये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
मन वच व काय तीनों योगों को जीत के।
प्रभु सिद्ध हो गये हो पूजूूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं योगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
त्रिकरण विशुद्ध योगी से ध्येय आप ही।
परमात्म सिद्ध तुमको पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५०।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
वसु आठ कर्म जीते बाहर तपों के बल से।
प्रभु सिद्ध आप मानें पूूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं वसुसिद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५१।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
कल्याण सबका करके स्वस्ती तुम्हीं हुये।
हे स्वस्ति सिद्ध तुमको पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं स्वस्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५२।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
अर्हंत सिद्ध बनते नैगमनयाश्रिता।
पूजूँ सदैव तुमको जिनवर अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५३।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
आठों करम को नाशा हो सिद्ध आप ही।
हे सिद्ध तुमको पूजूूँ रुचिधर अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५४।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
लक्ष्मी प्रकृष्टधारी, परमात्मा हुए।
पूजूँ तुम्हें जिनेश्वर, रुचि से अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं परमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५५।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
जो ब्रह्मज्ञान उत्तम वह आप में रहा।
निज ज्ञान पूर्ण हेतू पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५६।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
उत्पत्ति परम आगम की आपसे ही तो।
श्रुतज्ञान मुझ को दीजे पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं परमागमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५७।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
सब लोक अरु अलोक को युगपत् प्रकाशते।
निज का प्रकाश दीजे, पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं प्रकाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५८।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
स्वयमेव स्वयंभू तुम्हीं त्रैलोक्य जानकर।
मैं भी स्वयं का हित करूँ पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५९।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
प्रभु ज्ञान से बड़े हो नहिं आप सम है दूजा।
त्रिभुवन सभी प्रकाशा पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
प्रभु आप ही अनंते गुण से गुणी हुये।
शिवधाम में विराजो पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
नहिं अंत है कभी भी ध्रुव धाम में रहा।
ध्रुव पद मिले मुझे भी पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं परमानंताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
लोकाग्र पर हो स्थिर प्रभु सिद्धलोकवासा।
मन वचन काय रुचि से पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रवासाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
मिलता है सिद्धभक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
सब कर्मनाश करके नहिं जन्म अब धरोगे।
तुम हो अनादि भगवन् पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।१।।
ॐ ह्रीं अनादये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
जो नाना ऋद्धि धरें मुनिवर, तप बल से अतिशय बुद्धि धरें।
निज आत्मा की उपलब्धि प्राप्त, करके शिवधाम निवास करें।।
नैगमनय से इन ऋद्धि सहित, सिद्धों को वंदन करते हैं।
उनके गुणमणि की प्राप्ति हेतु, हम अर्घ्य चढ़ाकर यजते हैं।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिगुणसमन्वितेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:। (१०८ बार जाप करना)
अष्ट द्रव्य से थाल सजाकर, भक्ति भाव से लाये हैं।
चित् चिंतामणि सिद्धगुणों की, पूजा करने आये हैं।।
जय जय जिनवरं – जय जय जिनवरं।
जय जय जिनवरं – जय जय जिनवरं।।टेक.।।
महासाधु बहु विध तप तप कर, नाना ऋद्धी प्राप्त करें।
भक्तजनों के कष्ट दूर कर, स्वात्मा की उपलब्धि करें।।
मोक्षधाम में सभी सिद्ध हैं, एक समान अनंत गुणी।
अतीत नैगमनय से अंतर, नमूँ ऋद्धिधर सिद्ध गुणी।।
परमपिता परमेश्वर जिनको, शीश झुकाने आये हैं।। चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।१।।
द्रव्य पुरुषवेदी मुनिवर जो, भाव पुरुषवेदी भी हैं।
क्षपक श्रेणि आरोहण करते, प्राप्त किया जिन सिद्धी हैैैै।।
द्रव्य पुरुषवेदी कोई मुनि, भाव से स्त्रीवेद धरें।
क्षपक श्रेणि चढ़ कर्म नाशकर, शिवरमणी को प्राप्त करें।।
इन सिद्धों के चरण कमल में, शीश झुकाने आये हैं।। चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।२।।
द्रव्य पुरुषवेदी कोई मुनि, भाव नपुंसक वेद सहित।
कर्म घातकर मोक्ष प्राप्त कर, सिद्ध हुये हैं वेद रहित।।
आर्षग्रंथ में यह वर्णित है, भाववेद कोई भी हो।
द्रव्यवेद से पुरुषवेद ही, मोक्ष प्राप्ति में साधन हो।।
यही दिगंबर परंपरा है, शरण इसी की आये हैं।। चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।३।।
कोई मुनि प्रत्येकबुद्ध हैं, कोई स्वयंबुद्ध होते।
कोई बोधितबुद्ध साधुगण, सब ही स्वात्मशुद्ध होते।।
जन्म जरा मृत्यू से विरहित, मोक्षधाम को प्राप्त करें।
इन सब सिद्ध प्रभू के चरणों, हाथ जोड़ हम नमन करें।।
अतिशय सौख्य सहित गुणधर की, चरण शरण में आये हैं।।चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।४।।
त्रिभुवन अग्रशिखर पर सुस्थित, अंतिम तनु से किंचित् कम।
गला मोम सांचे का जैसे, आकृति उनकी है उत्तम।।
इंद्रिय विषयों से विरहित ये, सौख्य अतीन्द्रिय प्राप्त किया।
परमानंदामृत अनुभवरत, पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान लिया।।
वर्ण गंध रस रहित अमूर्तिक, सिद्धशरण में आये हैं।। चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।५।।
त्रिभुवन में बहु घूम चुका प्रभु! नहिं किंचत् सुख प्राप्त किया।
निश्चयनय से आप सदृश मैं, यह निश्चय कर शरण लिया।।
आप भक्ति से शक्ति प्रगट हो, मुक्तिमार्ग में अचल रहूँ।
केवल ‘ज्ञानमती’ प्रगटित हो, शिव प्राप्ती तक यही चहूूँ।।
नाथ! आपकी कृपादृष्टि की, आश लगाकर आये हैं।। चित्.।।
जय जय जिनवरं-४…..।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं चतु:षष्टिगुणसमन्वितेभ्य: सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।