उत्तम क्षमादी धर्म हैं, औ दया धर्म प्रधान है।
वस्तू स्वभाव सु धर्म है, औ रत्नत्रय गुणखान है।।
जो जीव को ले जाके धरता सर्व उत्तम सौख्य में।
वह धर्म है जिनराज भाषित पूजहूँ तिंहुकाल मैं।।१।।
भरतैरावत क्षेत्र में, चौथे पांचवे काल।
शाश्वत रहे विदेह में, धर्म जगत् प्रतिपाल।।२।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
आह्वाननं।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधीकरणं।
चाल-नंदीश्वर पूजा……….
रेवानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधार करूँ सुखदाय आतम शुद्ध करूँ।।
जिनधर्म विश्व का धर्म सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म गुण रत्नाकर है।।१।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।
जजते ही धर्म अमंद, निज मन कमल खिला।।
जिनधर्म विश्व का धर्म सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म गुण रत्नाकर है।।२।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेत, पुंज समर्पित हैं।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।३।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सित कुुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।
मदनारि विजयहित धर्म, पूजूँ सुखकारे।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।४।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली पयसार पायस मालपुआ।
जिनधर्म अमृतसम पूज, आतम सौख्य हुआ।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।५।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणि दीप कपूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।६।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।
नित आतम अनुभवसार, कर्म कलंक हरे।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।७।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला फल आम्र, जंबू निंबु हरे।
शिवकांता संगम हेतु, तुम ढिग भेंट करे।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।८।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरे।
जिनवृष१ को अर्घ चढ़ाय शिवसामाज्य वरें।।
जिनधर्म विश्व का धर्म सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म गुण रत्नाकर है।।९।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तश्रीजिनधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा मैं करूँ, जैन धर्म हितकार।
चउसंघ में शांति करो, हरो सर्व दुख भार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, श्री जिनधर्म महान्।
दुख दारिद संकट टले, बनूँ आत्मनिधिमान।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (४३ अर्घ्य)
मंगल रूप महान, जग में लोकोत्तम कहा।
श्री केवलि भगवान, कथित धर्म सबको शरण।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
वस्तु स्वभाव हि धर्म कहाता, जल स्वभाव से शीतल।
आत्म स्वभाव ज्ञान दर्शनमय, शुद्ध भाव से निर्मल।।
यह स्वभाव है तर्क अगोचर, इसकी पूजा करके।
वस्तु स्वभावी शुद्धात्मा को, प्राप्त करूँ जिन वृष से।।१।।
ॐ ह्रीं वस्तुस्वभावमयजिनधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दया धर्म का मूल, सर्व प्रधान जगत में।
जीवन दान महान्, सर्वश्रेष्ठ त्रिभुवन में।।
गृहस्थ मुनि के भेद, से दो भेद दया के।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, मम चित बसे दया ये।।१०।।
ॐ ह्रीं जीवदयापरमधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन रत्न, आठ अंग युत माना।
मोक्षमार्ग का मूल, मुनियों ने है जाना।।
नि:शंकित है अंग, जिन वच में नहि शंका।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, निज में हो दृढ़ श्रद्धा।।११।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य नि:शंकितअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इह भव में विभवार्दि, आगे चक्री आदिक।
नाना सुख की चाह, अथवा अन्य मतादिक।।
जो नहिं करते भव्य, नि:कांक्षित है उनके।
पूजूँ अंग द्वितीय, मिले आत्म सुख जिससे।।१२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य नि:कांक्षितअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय से पूत, मुनियों का तन मानो।
मलमूत्रादिक वस्तु, भरित घिनावन जानो।।
ग्लानि न करके भव्य, गुण में प्रीत बढ़ावें।
निर्विचिकित्सा अंग, इसे जजत सुख पावें।।१३।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्साअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुत्सिग मार्ग कुधर्म, कुपथ लीन जन बहुते।
इनको माने मूढ़, सम्यग्दृष्टी बचते।।
चौथा अंग अमूढ़, दृष्टि कहा जाता है।
इसे पूजते भव्य, उनने भव नाशा है।।१४।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य अमूढदृष्टिअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा शुद्ध शिवमार्ग, अज्ञानी जन आश्रय।
दोष कदाचित् होंय, उन्हें ढकें शुभ आशय।।
निज आत्मा के धर्म, मार्दव आदि बढ़ावें।
उपगूहन यह अंग, इसे जजत सुख पावें।।१५।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य उपगूहनअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक या चारित से, जो जन च्युत हो जावें।
उसमें सुस्थिर कर दे, युक्ती आदि उपाये।।
निज को भी शिवमार्ग, में ही दृढ़ रखे जो।
स्थितिकरण यह अंंग, इसे जजें सुख लें वो।।१६।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य स्थितीकरणअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सहधर्मी जन संघ, कपट रहित हो प्रीती।
यथायोग्य सत्कार, यह वात्सल की रीती।।
गाय वत्सवत्प्रेम, वात्सल्य गुण माना।
सम्यग्दर्शन अंग, इसे जजत सुख पाना।।१७।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्यअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज प्रभावना करे, निज गुण तेज बढ़ावे।
पूजा दान तपादिक, से जिनधर्म दिपावे।।
यह प्रभावना अंग, तम अज्ञान हटावे।
इसको पूजें भव्य, धर्म महात्म्य दिखावें।।१८।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य प्रभावनाअंगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट अंगयुत दृष्टि यह, दोष पच्चीस विहीन।
परमानन्द अमृत भरे करे दोष सब क्षीण।।१९।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित होते ही हुआ, सम्यग्ज्ञान अपूर्व।
फिर भी ज्ञानाराधना, करो अष्टविध पूर्व।।
स्वर व्यंजन से शुद्ध पूर्ण जो, करे प्रगट उच्चारण।
शब्दाचार करे वृद्धिंगत, शुद्ध ज्ञान आराधन।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२०।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य शब्दाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूत्र आदि का अर्थ शुद्ध हो, गुरु की परम्परा से।
पूर्वापर संबंध जुड़ा हो, नहिं अनर्थ हो जिससे।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२१।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य अर्थाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द अर्थ की पूर्ण शुद्धि हो, उभयाचार कहावे।
उभय नयों से भी सापेक्षित, ज्ञानज्योति प्रगटावे।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य उभयाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रय संध्या उल्का ग्रहणादिक, बहुत अकाल बखाने।
इन्हें छोड़ सिद्धांत ग्रंथ को, पढ़े जिनाज्ञा मानें।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२३।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य कालाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हाथ पैर आदि धोकर के, शुभ स्थान में पढ़ते।
हाथ जोड़ श्रुत भक्ति आदि कर, विनय बहुत विध धरते।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२४।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय विनयाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ रस आदि त्याग कर श्रुत को, पढ़े नियम धर रूचि से।
यह उपधान सहित आराधन ज्ञान बढ़े नित इससे।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२५।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य उपधानाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्रंथ और गुरुजन का आदर, पूजा भक्ति करें जो।
यह बहुमान भावश्रुत करके, केवलज्ञान करे वो।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२६।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य बहुमानाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस गुरु से या जिन शास्त्रों से, ज्ञान प्राप्त हो जाता।
उनका नाम छिपावे नहिं, वह कहा अनिह्नव जाता।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२७।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य अनिन्हवाचाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान अष्टविध धारते, प्रगटे केवलज्ञान।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं करूँ, स्वात्म सुधारस पान।।२८।।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विकल के भेद से, चारित द्विविध महान।
विकल चरित श्रावक धरें, बनें शील गुणवान।।
सम्यक्त्व सहित अणुव्रत सुपांच, गुणव्रत शिक्षाव्रत कहे सात।
ये बारह व्रत हैं गृहीधर्म, इनको पूजें वो लहें शर्म।।२९।।
ॐ ह्रीं विकलचारित्रस्य सम्यक्त्वसहितअणुव्रतादिद्वादशविधश्रावकधर्माय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो दर्शन व्रत सामायिकादि, ग्यारह प्रतिमा व्रत हैं अनादि।
इनसे श्रावक बनते महान्, यह प्रथम धर्म पूजें सुजान।।३०।।
ॐ ह्रीं विकलचारित्रस्य दर्शनव्रतादिएकादशप्रतिमारूपश्रावकधर्मेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनीधर्म के भेद, तेरह विध श्रुत में कहे।
उन्हें धरें बिन खेद, वे साधू भवदधि तिरें।।
महाव्रत अहिंसा प्रथम है जगत में।
सभी प्राणियों की दया है प्रगट में।।
दिगम्बर मुनी ही इसे पालते हैं।
जजें जो अहिंसा वो अघ टालते हैं।।३१।।
ॐ ह्रीं सकलचारित्रस्य अहिंसामहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
असत् अप्रशस्ते वचन जो न बोलें।
हितंकर मधुर मित सदा सत्य बोलें।।
यही सत्य व्रत दूसरा व्रत कहाता।
इसे पूजहूँ ये वचनसिद्धि दाता।।३२।।
ॐ ह्रीं सकलचारित्रस्य सत्यमहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराया धनं शिष्य आदी न लेना।
महाव्रत अचौर्य निधी वो बखाना।।
इसे पूजते स्वात्म संपत्ति मिलती।
जिसे प्राप्त करते महासाधुगण ही।।३३।।
ॐ ह्रीं सम्यव्चारित्रस्य अचौर्यमहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुता मात भगिनी सदृश सर्व महिला।
महाव्रत सुब्रह्मचर धरे कोई विरला।।
त्रिजग पूज्य इंद्रादिवंदित ये व्रत है।
इसी से परमब्रह्म होता प्रगट है।।३४।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह सभी मुक्ति जाने में बाधे।
दिगम्बर मुनी ही सभी वस्तु त्यागें।।
जगत भार से छूटते ही विदेही।
जजूँ पाँचवां व्रत बनूँ मुक्तिगेही।।३५।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य अपरिग्रहमहाव्रताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्युग प्रमाणे धरा देख चलना।
बिना कार्य के एक भी पग न ध्रना।।
सुगुरुदेव तीर्थादिवंदन निमित्त से।
गमन हो समिति ईरिया को जजूँ मैं।।३६।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य ईर्यासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर हित व मित मिष्ट वच नित्य भाषें।
सुभाषासमिति को मुनीगण प्रकाशें।।
इसे धारते मुक्तिकन्या भि हो वश।
जजूँ भक्ति से प्राप्त निर्दोष हों वच।।३७।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य भाषासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कृतादी रहित अन्न प्रासुक स्वहितकर।
गृहस्थी के द्वारा दिया लेवें मुनिवर।।
स्वकर पात्र में लें खड़े एक बारे।
यही एषणा समिति क्षुध व्याधि टारे।।३८।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य एषणासमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमण्डलु व शास्त्रादि जो वस्तु धरना।
उठाना यदी प्राणियों पे हो करुणा।।
प्रथम चक्षु से देख पिच्छी से शोधें।
ये आदान निक्षेप समिती सपूजें।।३९।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य आदाननिक्षेपणसमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हरितकाय जंतू रहित भूमि पर जो।
स्वमलमूत्र आदी विकृति को तजें वो।।
विउत्सर्ग समिति धरें जैन साधू।
जजूँ मैं इसे फिर स्वशुद्धात्म साधू।।४०।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य व्युत्सर्गसमित्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महादोष रागादि से चित्त दूरा।
मनोगुप्ति ये पालते साधु शूरा।।
पुन: शुभ अशुभ भाव दोनों निरोधे।
निजानंद रसलीन गुप्ती सुपूजें।।४१।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य मनोगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनगुप्ति आगम के अनुकूल बोलें।
पुन: मौन धर मुक्ति का द्वार खोलें।।
इसी से वचनसिद्धि दिव्यध्वनी भी।
मिलेगी अत: पूजहूूँ धार भक्ती।।४२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य वचोगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वतन की क्रिया सर्व शुभ ही करें जो।
पुन: कार्य से मोह तज सुस्थिरी हों।।
उभय कायगुप्ती शुक्ल ध्यान पूरे।
जजूँ मैं इसे नंतबल मुझ प्रपूरे।।४३।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य कायगुप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत पाँच समिति औ, तीन गुप्ति ये तेरह विध।
सम्यक्चारित मुक्ति प्रदायक अठबिस मूलगुणों से युत।।
द्वादश तप बाईस परीषह, चौंतिस उत्तर गुण जानों।
लाख चौरासी गुण सर्वाधिक, पूजत ही भव दुख हानो।।४४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसर्वोत्कृष्टचतुरशीतिलक्षगुणयुतसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय है धर्म, निश्चित मुक्ति प्रदाता।
सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र से सुखदाता।।
निश्चय और व्यवहार द्विविध धर्म रत्नत्रय।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय निज को करूँ धर्ममय।।४५।।
ॐ ह्रीं रत्नत्रयधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
क्रोध के बहु निमित मिलते, हो न मन में कलुषता।
निज अशुभ कर्मोदय निमित, लख पियें समर समयसुधा।।
उत्तम क्षमा यह धर्म जग में, वैर निज पर का हरे।
यह पूर्ण शांती सौख्यदाता, पूजते मन खुश करे।।४६।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृदुभाव मार्दव मान हरता, विनय गुण चित में भरे।
हो उच्चगोत्री मनुष चक्री, सुरपती के पद धरे।।
कुल जाति बल रूपादिमद से, मिलत है नीची गती।
अतएव मार्दव गुण बड़ा है, पूजते दे शिवगती।।४७।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन वचन तन की कुटिलता से, योनि तिर्यक् की मिले।
मन वचन तन की सरलता से, ऋजू शिवगति भी मिले।।
विश्वासघात समान नहिं है, पाप जग में अन्य कुछ।
अतएव आर्जव धर्म उत्तम, पूजहूँ मैं भक्तियुत।।४८।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जवधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह लोभ पाप महान् जग में, सर्व पापों का जनक।
धन स्वास्थ्य इंद्रिय आदि का भी, लोभ है दुखकर प्रगट।।
गंगा यमुना स्नान से नहिं, आत्म शुद्धी हो कभी।
तज लोभ उत्तम शौच से हो, स्वात्मशुचि पूजूँ अभी।।४९।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच हैं प्रशस्त सुवचन निंदा, पाप कलहादिक रहित।
हो जाय विपदा धर्म पर, ऐसा न सच बोले क्वचित।।
जिनकथित मेरू आदि हैं, अपमृत्यु भी हो लोक में।
यह सत्य वच सर्वोच्च जग में, पूजहूँ दे धोक मैं।।५०।।
ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रस और स्थावर सभी, षट्काय जीवों पर दया।
पंचेन्द्रियों औ चपल मन को, शास्त्रविधि से वश किया।।
संयम सकल या देशसंयम, देवगति ही देयगा।
जो भव्य धारेंगे इसे, उन जन्म दुख हर लेयगा।।५१।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप बाह्य आभ्यंतर उभय, बारह प्रकार प्रसिद्ध हैं।
जो करें उपवासादि उनको, ऋद्धि सिद्धी प्रगट हैं।।
स्वाध्याय प्रायश्चित विनय, व्युत्सर्ग वैयावृत्य तप।
औ ध्यान आत्मविशुद्धि करते, इन बिना नहिं मुक्तिपद।।५२।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि रत्नत्रय का दान उत्तम, त्याग आगम में कहा।
आहार औषधि अभयदान, सुदान चउविध भी कहा।।
इन दान में खर्चा गया धन, कूप जलसम बढ़ेगा।
फल भी अनंते गुणे देकर, मोक्ष में ले धरेगा।।५३।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ भी न मेरा यह अकिंचन, धर्म सब दुख देयगा।
मुनिवर अकिंचन धर्म पालें, निजगुण अनंते ले सदा।।
जो भी अणुव्रत धारते, क्रम से ममत्व घटाइये।
त्रैलोक्य संपति के धनी बन, स्वात्मरस सुख पाइये।।५४।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिंचन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब नारियों को मातृवत, गिन ब्रह्मचारी जो बनें।
महिलाएं भी ब्रह्मचारिणी बन, पूज्य होतीं जगत में।।
निज ब्रह्म में रति ब्रह्मचर्य सुरेन्द्रगण भी नमत हैं।
इकदेश व्रत ब्रह्मचर्य से, यहां अनल भी जल बनत हैं।।५५।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैराग्य त्याग दो काष्ठ खंड से, निर्मित सुघड़ नसैनी है।
दशधर्मों की दश पैड़ी से युत, मोक्षमहल की सीढ़ी हैं।।
मुमुक्षु मुनीगण इससे चढ़कर, मुक्तिरमा ढिग जाते हैं।
दश धर्मों को मैं नित पूजूँ, ये निज राज्य दिलाते हैं।।५६।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तदशधर्माय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
इक सौ सत्तर हैं कर्मभूमि, उनमें जिनधर्म सदा रहता।
सब जीव दयामय धर्म और, वस्तू स्वभाव से भी रहता।।
रत्नत्रयमय है धर्म व दशविध, धर्म तीर्थकर भाषित हैं।
मैं जजूँ नित्य पूर्णार्घ्य लिये, यह शाश्वत सौख्य सुधारस है।।५७।।
ॐ ह्रीं सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिसंजातजीवदयामयवस्तुस्वभावस्वरूप-
रत्नत्रयरूपदशलक्षणधर्मस्वरूपत्रैकालिकजिनधर्मेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन- चैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
तीर्थंकर प्रभु के श्रीविहार में, धर्मचक्र आगे आगे।
चलता रहता जिससे भू पर, जीवों के दुख दारिद भागे।।
सर्वाण्ह यक्ष चारों दिश में, यह धर्मचक्र शिर पर धारे।
जिनधर्म अनादी औ अनंत, इसकी जयमाला भव टारे।।१।।
जयो जिनेन्द्र धर्म जीव की दया प्रधानमय।
जयो जिनेन्द्र धर्म वस्तु का स्वभाव शुद्धमय।।
जयो जिनेन्द्र धर्म जो क्षमादि दश प्रकार हैं।
जयो जिनेन्द्र धर्म रत्न-तीनरूप सार है।।१।।
इसे धरें स्वयंवरा अनंत ऋद्धियाँ वरें।
हितंकरा अनंत सिद्धियां स्वयं पगे परें।।
शुभंकरा ध्वनी अनंत भव्य को सुखी करे।
समस्त जीव राशि को प्रियंवदा सुखी करे।।२।।
गणेश धारते इसे महा प्रमोद भाव से।
मुनीश धारते इसे बचें विभाव भाव से।।
सुरेश नित्य चाहते मनुष्य जन्म में मिले।
नरेश नित्य गावते यही धरम हमें मिले।।३।।
महान धर्म इन्द्रवंद्य केवली प्रणीत है।
महान धर्म चक्रिवंद्य सर्व मंगलीक है।।
महान धर्म साधु पूज्य लोक में सुश्रेष्ठ है।
महान धर्म भव्य को सदैव शर्ण देत है।।४।।
अनादि जैन धर्म ये समस्त सौख्य खान ही।
अनादि जैनधर्म को मनीषि धारते यहीं।।
अनादि जैनधर्म से विनाशते करम सभी।
अनादि जैनधर्म के लिए नमोऽस्तु हो अभी।।५।।
अनादि जैनधर्म से बड़ा न कोई मित्र है।
अनादि जैनधर्म का दया हि मूल इष्ट है।।
अनादि जैनधर्म में सदैव चित्त को धरो।
अहो अनादि जैनधर्म! मुझपे नित कृपा करो।।६।।
जिनेन्द्र धर्म से सुचक्रवर्ति संपदा मिले।
जिनेन्द्र धर्म से सुरेन्द्र की भि संपदा मिले।।
जिनेन्द्र धर्म से हि तीर्थनाथ संपदा मिले।
जिनेन्द्र धर्म से हि शीघ्र मुक्तिवल्लभा मिले।।७।।
जन्म मरण व्याधी महा, उसके नाशन हेत।
धर्म महौषधि विश्व में, नमूँ नमूँ शिव हेत।।
ॐ ह्रीं सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रज्ञप्तजिनधर्माय जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शेरछंद- जो भक्ति से नवदेवता विधान करेंगे।
वे भव्य नवोनिधि से भंडार भरेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ से नवलब्धि वरेंगे।
फिर मोक्षमहल में अनंत सौख्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।