आज समाज में दहेज प्रथा ने कन्याओं के जन्म को भारभूत बना दिया है । जिन कन्याओं के माता-पिता नौकरी से आजीविका करने वाले हैं उनकी कन्याओं के विवाह की समस्या या तो वे स्वयं जानते हैं या जिनके पास आकर वे अपनी दुःख वेदना प्रगट करते हैं, वे जानते हैं।
अथवा यों कहिए कि सभी जानते हैं क्योंकि प्रायः कन्यायें सभी के घर में जन्म लेती हैं अत: सभी को किसी न किसी दिन अनुभव आता ही आता है। अन्तर इतना ही है कि श्रीमन्तों को अनुभव कुछ कम आता है अथवा नहीं भी आता है। आज लड़के वालों की खुली मांग ने जैन समाज की सभ्यता का मुँह काला कर दिया है।
जो लोग खुली मांग नहीं रखते हैं वे भी प्रायः किसी न किसी रूप में माँग लेते हैं। जो गृहस्थ मध्यम वर्ग के व्यापारी हैं उनकी भी लड़कियों के लिये दहेज दे पाना एक समस्या बनी हुई है।
दहेज की मांग
इस दहेज की मांग के कारण आज २५-२५, ३०-३० वर्ष तक की लड़कियां कुवारी ही दिख रही हैं और उनके माता-पिता चिन्ता से रात-दिन विक्षिप्त बने रहते हैं । ऐसे भी उदाहरण देखने में आते रहते हैं कि दहेज में इच्छित धन न मिलने के कारण कितनी लड़कियाँ अपने पीहर मे ही पड़ी हुई हैं।
यदि कोई ससुराल में हैं भी, तो सास-ससुर की उलाहना से तंग आकर जीवन को समाप्त करने की सोचने लगती हैं। इतना ही नहीं कोई-कोई बहुएँ तो अपघात करके मर भी जाती हैं।
प्रतिवर्ष ऐसे कई एक उदाहरण सुनने में आ ही जाते हैं। इन सब दुर्घटनाओें का मूल कारण यह दहेज की मांग है जो कि सभ्य समाज के लिए सर्वथा निंद्य है।
माता-पिता अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार जो कुछ कन्यादान के समय दे देते हैं, वरपक्ष वालो को उसे ही बहुमूल्य समझना चाहिये और याचना प्रवृत्ति को जलांजलि दे देनी चाहिये।
यदि अपना पुत्र सुपुत्र है तो सम्पत्ति से क्या प्रयोजन। अर्थात् वह स्वयं कमाकर अपना जीवन सुचारू बना सकता है और यदि पुत्र कुपुत्र है तो सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है?
अर्थात् वह पिता के द्वारा या ससुराल से प्राप्त हुई सम्पत्ति को दुर्व्यसन में ही लगा देगा। यदि अपना पुत्र योग्य है तो उसके लिये अन्य किसी से याचना करके उसे दुःखी करने में क्या लाभ है और यदि अपना पुत्र योग्य नहीं है तो वह पराई सम्पत्ति को क्या संभालेगा ?
इसलिये आज दहेज प्रथा की निंदा करने मात्र से कुछ नहीं होगा, अपने कर्तव्य को संभालते हुए ‘माँग’ प्रथा को सर्वथा छोड़ देना चाहिए और प्राचीन तथा अच्छी परम्परा को चलाना चाहिये। अब मैं आपको एक ऐसे ‘‘दहेज’’ का इतिहास सुनाती हूँ कि जिस दहेज ने साधुओें को जन्म दिया है।
महमूदाबाद के निवासी लाला सुखपाल दास जी और उनकी धर्मपत्नी ‘फूलमती जी’ एक अच्छे धर्मनिष्ठ, विवेकशील, श्रावकों दम्पत्ति थे। उन्होंने अपनी पुत्री ‘मोहिनी देवी’ का विवाह टिकैतनगर के श्रेष्ठी धन्यकुमार के सुपुत्र ‘छोटेलाल जी ’ के साथ किया था। उस समय सुखपालदास जी ने पुत्री की धर्मभावना के अनुरूप तथा अपने धार्मिक संस्कारों के निमित्त से अपनी सुपुत्री मोहिनी को दहेज में एक ग्रंथ दिया जिसका नाम था ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’।
दहेज के इस ग्रंथ को मोहिनी देवी ने भी एक अमूल्य निधि समझा और ससुराल में प्रतिदिन नियमित क्रम से मंदिर के दर्शन के बाद उसका स्वाध्याय करती रहीं।
वे प्रतिदिन विधिवत् शास्त्र को चौकी पर विराजमान कर ‘ऊंकारं बिदुसंयुत्तं………इत्यादि मंगलाचरण करतीं पुन: शास्त्र को खोलकर उसका एक संस्कृत श्लोक भी पढ़ लेतीं पुन: शास्त्र बन्द कर जिनवाणी की स्तुति करके उसे ऊपर विराजमान कर देतीं।
जब वह शास्त्र पूरा हो जाता तो पुनः उसी का स्वाध्याय प्रारंभ कर देतीं क्योंकि उस ग्रंथ में उन्हें बहुत ज्ञान सामग्री प्राप्त हो रही थी। उन मोहिनी देवी ने प्रथम संतान के रूप में कन्यारत्न को जन्म दिया जिसका नाम कन्या के नाना सुखपालदास जी ने पता नहीं क्या सोचकर ‘मैना’ रख दिया और उसे गोद में खिलाते हुये वे सहसा कह दिया करते थे कि यह ‘मैना’ घर में नहीं रहेगी, घर से उड़ जायेगी। दीक्षा के बाद नानी फूलमती ने यह बात प्रायः सभी को बताई थी।
वह मैना (मैं) जब ६-७ वर्ष की थी, तभी से मां मोहिनी ने मुझ से कभी-कभी उस ग्रंथ को पढ़ाकर सुनना शुरू कर दिया। जब मैं ८ वर्ष की हो गई, तब मुझे भी नियमित स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी और कहा कि तुम भी इसी ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रंथ का ही स्वाध्याय करो। मैंने भी उसी विधि से नियमित रूप से उस ग्रंथ का स्वाध्याय प्रारंभ कर दिया ।
मुझे तो उस ग्रंथ ने साक्षात् मोक्षमार्ग दे दिया। उस ग्रंथ के पढ़ते-पढ़ते मुझे सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो गई। मैंने सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा के सिवाय कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरू को नमस्कार करने का सर्वथा त्याग कर दिया।
इतना ही नहीं, मुझे उसके स्वाध्याय से सम्यग्ज्ञान मिला, सम्यक् प्रकाश मिला और धीरे-धीरे मेरे हृदय में वैराग्य के अंकुर फूटने लगे।
मेरे मन के भाव
मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हुए कि मैं इस भव में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर शक्ति अनुसार संयम धारण करूँ और अगले भव में इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से लौकांतिक देव हो जाऊँ ।
यद्यपि आज मैं समझती हूँ कि आगामी भव में किसी पद की चाहना निदान है, यदि अपने परिणामों में विशुद्धि है तदनुरूप संयम है, तो कोई स्थान दुर्लभ नहीं है किन्तु याचना क्यों करना! फिर भी उस ८-१० वर्ष की वय में मेरे हृदय में इस पद्मनंदिपंचविंशतिका के स्वाध्याय से बहुत ही प्रसन्नता थी और इस ग्रंथ को ही अपना सर्वस्व समझती थी ।
उस समय मेरे लिये वह ग्रंथ भगवान के समान प्रतीत होता था और उसमें एक श्लोक भी ऐसा था कि जिससे मैं उस वाणी को साक्षात् भगवान की वाणी समझ रही थी।
वह श्लोक यह है-संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलौक्य चूड़ामणि:। तद्वाच: परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिका:।।
इस समय इस कलिकाल में भरतक्षेत्र में तीनों लोकों में श्रेष्ठ ऐसे केवली भगवान् नहीं हैं फिर भी जगत् को प्रकाशित करने वाले उनके वचन यहां विद्यमान हैं हीं और उन वचनों के आश्रयभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप उत्तम रत्नत्रय के धारक श्रेष्ठ मुनिराज भी विद्यमान हैं।
इसलिये उन मुनियों की पूजा वास्तव में जिनवचनों की ही पूजा है, और इससे साक्षात् जिन भगवान की पूजा की गई है ऐसा समझना चाहिए। यद्यपि उस समय तक मुझे मुनियों का दर्शन नहीं हुआ था इसलिए मैं यही समझती थी कि आज भी साक्षात् जिनेन्द्र देव की वाणी मौजूद है उसी के प्रकाश में अपनी आत्मा का हित मार्ग देखा जा सकता है।
पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ मुझे बहुत ही प्रिय था
इस पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रन्थ के एक-एक श्लोक मुझे बहुत ही प्रिय लगते थे और मैं उन्हें बार-बार पढ़ा करती थी। इस ग्रंथ में ‘अनित्यपंचाशत्’ अधिकार को पढ़कर अनित्य भावना बढ़ती जाती थी।
उसके बाद के ‘एकत्वसप्तति’ अधिकार आत्मा के एकपने का ज्ञान तो होता ही था साथ ही उसके अनंत अचिन्त्य गुणों का भी बोध हो गया था। ‘‘चित्तत्वं तत्प्रतिप्राणिदेह एव व्यवस्ंथतम्’’।
यह चैतन्य तत्व प्रत्येक प्राणी के शरीर में ही विराजमान है। पुनरेव इस अधिकार का एक श्लोक आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है-
संसार में कुछ दुःख और कुछ सुख है ऐसा मूर्ख प्राणियों के ही चित्त में प्रतिभास होता है किन्तु संसार में सदा दु:ख ही दु:ख है ऐसा प्रतिभास विवेकीजनों को होता है। इसके बाद का ‘‘यतिभावनाष्टक’’ तो मैंने रट ही लिया था। जिसके एक श्लोक की भावना देखिये-
ये तेषां यमिनां यथोक्ततपसां ध्यानप्रशांतात्मनाम् । मार्गे संचरतो मम प्रशमिन: काल: कदा यास्यति ।।६।।
जो साधु ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर के ऊपर बनी हुई शिला के ऊपर बैठते हैं, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान लगाते हैं और भयंकर शीतकाल में खुले स्थान पर स्थित होकर ध्यान करते हैं तथा जो आगम के अनुसार तपश्चरण करते हैं, ध्यान से सहित हैं और आत्मा को अतिशय शांत बना चुके हैं ऐसे उन साधुओं के मार्ग में चलते हुए अत्यन्त शांति के साथ मेरा काल कब बीतेगा। आज भी यही भावना बनी हुई है।
जबकि दीक्षा लेकर स्त्रीपर्याय में सर्वोत्तम ऐसे पद में स्थित हूँ। इन भावनाओं से मेरे हृदय में आनंद की लहर दौड़ पड़ती थी और आज भी जब ये श्लोक हृदय में आते हैं तो एक अद्भुत ही आनंद अनुभव होने लगता है।
इस ग्रंथ में केवल वैराग्य और मुनि भावना की ही चर्चा हो ऐसी बात नहीं है प्रत्युत गृहस्थ धर्म का भी बहुत सुन्दर विवेचन है। दान, पूजन और जिनेन्द्र देव की भक्ति का, आलोचना का भी बहुत ही सुन्दर वर्णन है।
श्रावकों के कर्तव्य में जिन मंदिर और जिन प्रतिमा के निर्माण कराने के महत्व को बताया है कि-
जो भव्य जीव भक्ति से कुंदरू के पत्ते के बराबर जिनमंदिर बनवाते हैं तथा जौ के बराबर जिनप्रतिमा का निर्माण कराते हैं उनके पुण्य का वर्णन करने के लिये यहां सरस्वती भी समर्थ नहीं हैं फिर जो भव्यजीव उन दोनों का ही (जिनमंदिर और जिनप्रतिमा का) निर्माण कराते हैं उनके विषय में क्या कहा जाय! अर्थात् वे तो अतिशय पुण्यशाली हैं ही हैं। इसी प्रकार से इस ग्रंथ में निश्चय पंचाशत, परमार्थविंशति, शरीराष्टक और ब्रह्मचर्याष्टक अधिकार भी अतिशय महत्वपूर्ण हैं।
भय और संयम
संसार से भय और संयम में अनुराग कराने के लिये एक श्लोक तो अनर्घ्य मूल्यवान है। जिन्हें संसार के दुःखों से छूटने की इच्छा है मैं कहती हूँ उन्हें यह श्लोक बड़े-बड़े अक्षरों में लिखकर अपने शयनकक्ष और बैठक स्थान में लगा लेना चाहिए जिससे सोते समय, जागते समय तथा पद-पद पर भी इस पर ध्यान जाता रहे। यदि कदाचित् किसी काल में यह श्लोक हृदय में उतर जायेगा तो मोक्षमार्ग में लगने में, संयम ग्रहण करने मे देरी नहीं लगेगी। वह श्लोक यह है-
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय:। संसारे भ्रमता चिरं यदखिला: प्राप्ता मयाऽनन्तश: ।।
तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विमुक्तिप्रदां । सम्यग्दर्शनबोधवृत्तपदवीं तां देव पूर्णां कुरू ।।३१।।
इस संसार में चिरकाल से भ्रमण करते हुये मैंने अनंत बार तो इन्द्र पद प्राप्त किया है और अनंतों बार निगोद पर्याय प्राप्त की है, तथा इन्द्र और निगोद के मध्य जितनी भी योनियां हैं-पर्यायें हैं उन सबकों भी अनंतों बार प्राप्त किया है। इनमें से कोई पर्याय हमारे लिये अपूर्व नहीं रही है।
इसलिये हे भगवन् ! जिस पदवी को मैंने आज तक प्राप्त नहीं किया है ऐसी जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पदवी है उसी की पूर्णता करो। बस अब उसी पदवी की मुझे इच्छा है और कुछ भी नहीं चाहिए क्योंकि यह रत्नत्रय पदवी ही मोक्ष को प्रदान कराने वाली है।
यह श्लोक जितना उपयोगी हमारे लिये उस बाल्यकाल में हुआ था उतना ही क्या उससे भी अधिक उपयोगी मुझे आज प्रतीत हो रहा है क्योंकि अभी तो हमें एक देश ही रत्नत्रय प्राप्त हुआ है अभी महाव्रतों में उपचारता लगी हुई है।
अतः आज भी मैं सतत श्री जिनेन्द्रदेव से यही प्रार्थना किया करती हूँ कि- ‘‘भगवन् ! मेरे सम्यक्त्व की रक्षा हो, संयम (संयमासंयम) की रक्षा हो, वृद्धि हो तथा अंत में समाधिपूर्वक मरण हो जिससे मुझे सुगति की प्राप्ति हो और इस भव में नहीं तो आगे-तीसरे भव में मुझे इस रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त करने की शक्ति मिले। ’’
पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ से उपलब्धि
इस प्रकार इस पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ के स्वाध्याय से मुझे जितनी उपलब्धि हुई है वह वचनों से नहीं कही जा सकती है पुनः उसको लिखना तो केवल नाम मात्र है। यहां मुझे केवल इतना ही बताना है कि यह ग्रंथ प्रत्येक गृहस्थ और साधु सभी के लिये स्वाध्याय का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
इसका पठन, चिन्तन, मनन और वाचन प्रत्येक ज्ञान-पिपासु को करना चाहिए, इतना ही नहीं अपने पुत्र-पुत्रियों को भी यह ग्रंथ पढ़ाना चाहिए और साथ ही अपने इष्ट, मित्र, परिवार जनों को भी इसको पढ़ने की प्रेरणा देनी चाहिए तथा अपनी कन्याओं को यही ग्रंथ दहेज मे देना चाहिए। जब मेरे वैराग्य की बात घर में स्पष्ट हो गई और मैंने यह निर्णय दे दिया कि मैं विवाह के बन्धन से कतई नहीं बंधूंगी। तब पिता महमूदाबाद जाकर महिपाल दास जी को लिवा लाए ।
वे आकर मुझे समझाने लगे जब कुछ परिणाम नहीं निकला तब वे मुझे फटकारने लगे और गुस्सा करने लगे। इससे भी कुछ नतीजा नहीं निकला देखकर वे शांत होकर पूछने लगे- ‘‘मैना! तुमने इतनी छोटी उम्र में भला क्या देखा है जो तुम्हें वैराग्य हो गया है और तुम दीक्षा की चर्चा कर रही हो। ’’ तब मैंने कहा- ‘मैंने बचपन से ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका का स्वाध्याय किया है उसी से मुझे वैराग्य हो गया है।’
पुनः मैंने बहुत से श्लोक सुना-सुनाकर उनका अर्थ बताना शुरू कर दिया। कुछ देर तक प्रश्नोत्तर चलता रहा बाद मे वे अपनी बहन (मेरी गृहस्थावस्था की माँ) से बोले- ‘जीजी! तुमने पद्मनंदिपंचविंशतिका, दर्शन कथा, शीलकथा, जम्बूस्वामीचरित, आदि पढ़ा-पढ़ा कर इस लड़की को बरबाद कर दिया है इसका दिमाग खराब कर दिया है अब यह हमारे, तुम्हारे वश की नहीं रही है…….।’
खैर, घटना तो लम्बी चौड़ी है। मैं यहां विषयांतर में न ले जाकर इसी ग्रंथ का माहात्म्य बतलाना चाहती हूँ। पुन: जब आचार्य देशभूषण जी महाराज टिकैतनगर आये, उनके सामने भी मेरी चर्चा रखी गई तब महाराज जी ने कहा कि- ‘ऐसे-ऐसे श्मशान वैराग्य बहुतों को होते रहते हैं, इस तरह कोई दीक्षा नहीं ले सकती है।’
अनंतर महाराज जी ने भी मेरे से यही पूछा
‘तुम्हें वैराग्य कैसे हुआ? ’ उस समय भी मैंने विनय से हाथ जोड़कर गुरूदेव से निवेदन किया कि- ‘महाराज जी ! मुझे इस पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ के स्वाध्याय से अच्छी तरह विदित हो गया है कि यह संसार असार है इसमें एक संयम ही सार है।’ पुनः इन्द्रत्वं च निगोदतां च…….दुःख कचित्……सुखं विंचित्……इत्यादि श्लोक बोलना शुरू कर दिया।
कुछ क्षण बाद आचार्य श्री ने मां से कहा- ‘इस लड़की को सच्चा वैराग्य है, श्मशान वैराग्य, मर्वट वैराग्य अथवा क्षणिक वैराग्य नहीं है।’ अस्तु……….।
इस ग्रंथ के प्रसाद से मैंने तो दीक्षा ली ही तथा जिन्हें यह ग्रंथ दहेज में मिला था उन्होंने भी दीक्षा ले ली और आर्यिका रत्नमति माताजी के नाम से १३ वर्ष दीक्षित जीवन में रहने के पश्चात् हस्तिनापुर में उनकी सुन्दर समाधि हुई है।
उन्होंने एक बार बताया था कि मैं जब घर में एक बार इस ग्रंथ को पढ़ रही थी कि मेरे मन में ब्रह्मचर्य व्रत की भावना उठी, मैंने मन में ही अष्टमी-चतुर्दशी को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालने का नियम ले लिया था जिसे कि मैंने विवाह के बाद गार्हस्थ जीवन में परिपूर्ण निभाया था।’
इतना ही नहीं उन्होंने इस ग्रंथ का स्वाध्याय कर-करके अपने बालक-बालिकाओं को दूध के साथ ऐसा अमृत पिला दिया था कि जिससे उनके धर्म संस्कारों से संस्कारित तथा मेरे निमित्त को पाकर उनकी पुत्री मनोवती भी आज आर्यिका अभयमती माताजी के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उनकी पुत्री कु. माधुरी आज आर्यिका चंदनामती माताजी के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा इनके सुपुत्र रवीन्द्र कुमार शास्त्री भी आजन्म ब्रह्मचार्य व्रत को लेकर दि.जैन त्रिलोक शोध संस्थान की उन्नति में लगे हुए हैं और अपनी आत्मा का कल्याण करते हुए धर्म की सेवा में समर्पित है। यह सब है इस ग्रंथ के स्वाध्याय का प्रसाद जो कि सभी गृहस्थों को ऐसे आदर्श दहेज देने की प्रेरणा दे रहा है।
इस ग्रंथ की महिमा मैंने आपको इसलिए बताई कि इससे प्रेरणा पाकर धार्मिक ग्रंथो को दहेज में देने की परम्परा चले जो प्रत्येक नवदंपत्ति को धर्मपथ मे चलने की प्रेरणा देवे जिससे उनके गृहस्थ जीवन में धर्मपरंपरा अक्षुण्ण बनी रहे और उसके प्रसाद से उन सभी के जीवन में सुख-संपत्ति, संतति और शांति की वृद्धि हो।
इसी भावना से मैंने आपको बताया है आप सभी श्रावकों को यह नियम करना चाहिए कि- ‘हम अपनी कन्याओं को तो दहेज में धर्म ग्रंथ देंगे ही साथ ही अन्य संबंधीजनों की कन्याओं को भी दहेज में अथवा भेंट में धर्मग्रन्थ अवश्य देंगे। तभी आज के युग में धन संपत्ति के दहेज की मांग कम होगी, जिससे कन्याओं का जीवन सुखी होगा और सर्व परिवारों में सुख, शांति का साम्राज्य फैलेगा |