नरेन्द्र छंद-
ध्वज भूमि पंचम में ध्वजा, दश चिह्न चिह्नित शोभहीं।
प्रत्येक दिश दस विधों इक सौ आठ इक सौ आठ हीं।।
ये महाध्वज प्रत्येक इक सौ आठ लघुध्वज को धरें।
इन सब ध्वजाओं को जजूँ जिन समवसृति में फरहरें।।१।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पद्मसरोवर नीर, धारा देते अघ टले।
ध्वज भूमि सुखसीर, समवसरण पूजूँ सदा।।१।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन गंध सुगंध, चर्चत अंतर शांत हो।
ध्वज की भूमि अमंद, समवसरण पूजूँ सदा।।२।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल धुले अखंड, पुंज चढ़ाते सुख मिले।
ध्वज की भूमि अनिंद, समवसरण पूजूँ सदा।।३।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला कमल सुगंधि, पुष्प चढ़ाते यश बढ़े।
ध्वज की भूमि अनिंद, समवसरण पूजूँ सदा।।४।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू पेड़ा मिष्ट, चरू चढ़ाते क्षुध टले।
ध्वज की भूमिविशिष्ट, समवसरण पूजूँ सदा।।५।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति उद्योत, आरति करते तम भगे।
ध्वज की भूमि समेत, समवसरण पूजूँ सदा।।६।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित गंध, खेते दशदिश अघ भगे।
ध्वज की भूमि अनिन्द, समवसरण पूजूँ सदा।।७।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल की जाति अनेक, अर्पण करते धन बढ़े।
ध्वज की भूमि समेत, समवसरण पूजूँ सदा।।८।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदि विशेष, अर्घ चढ़ाते सुख बढ़े।
ध्वज की भूमि समेत, समवसरण पूजूँ सदा।।९।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सुवरण झारी में भरूँ, गंगा नदि को नीर।
शांतीधारा मैं करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली केवड़ा, बेला बकुल गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, शीघ्र स्वात्म सुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
परमानंद पियूष घन, वर्षा करें जिनंद।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सर्व सुख कंद।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-स्रग्विणी छंद-
जो समोशर्ण में नाथ को पूजते।
वे जनम मृत्यु के दु:ख से छूटते।।
पांचवीं ध्वज धरा शोभती है वहाँ।
मैं जजूँ जिन समोसर्ण को नित यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितवृषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्य प्राणी वहाँ नाथ गुण गावते।
साधुगण नित्य ही आत्म को ध्यावते।।पांचवीं.।।२।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितअजितनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ संभव हरें, सर्व व्याधी व्यथा।
शारदा भी नहीं कह सके गुण कथा।।पांचवीं.।।३।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितसंभवनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अभिनंदनं को नमूँ भक्ति से।
अन्य से स्वात्म होवे पृथक् युक्ति से।।पांचवीं.।।५।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितसुमतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभ मुक्ति लक्ष्मीपती लोक में।
जो जजें वे लहें मुक्ति सुख शीघ्र में।।पांचवीं.।।६।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितपद्मप्रभसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सुपारस प्रभू को सदा वंदते।
वे जरा मृत्यु के दु:ख को खंडते।।पांचवीं.।।७।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितसुपार्श्वनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ चंदा प्रभू सर्व संकट हरें।
जो जजें भक्ति से सर्व संपति भरें।।पांचवीं.।।८।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचंद्रप्रभजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदन्तेश को जो जजें भाव से।
स्वात्म पीयूष को वे चखें चाव से।।पांचवीं.।।९।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितपुष्पदंतजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ शीतल वचन चित्त शीतल करें।
जो जजें रोग शोकादि पीड़ा हरें।।
पांचवीं ध्वज धरा शोभती है वहाँ।
मैं जजूँ जिन समोसर्ण को नित यहाँ।।१०।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितशीतलजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ श्रेयांस श्रेयोभिवृद्धी करें।
जो जजें नव निधी सुख समृद्धी वरें।।पांचवीं.।।११।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितश्रेयांसजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ वसुपूज्य सुत कल्पतरु श्रेष्ठ हैं।
जो जजें वे जगत में बने श्रेष्ठ हैं।।पांचवीं.।।१२।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितवासुपूज्यसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो विमलनाथ को वंदते भाव से।
शुद्ध सम्यक्त्व की ज्योति उनमें जगे।।पांचवीं.।।१३।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितविमलनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थकृत श्री अनंतेश को पूजते।
वे उपासक गृही धर्म को पूरते।।पांचवीं.।।१४।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितअनंतनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री धरमनाथ नव लब्धि को धारते।
जो जजें वे नवों निद्धि को पावते।।पांचवीं.।।१५।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितधर्मनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांत् प्रभु की सदा जो करें अर्चना।
वे करें क्रोध मानादि की वंचना।।पांचवीं.।।१६।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितशांतिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथु जिन की करूँ भक्ति से वंदना।
दु:ख दारिद्र संकट रहे रंच ना।।पांचवीं.।।१७।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितकुंथुनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अरहनाथ को अर्चते नित्य ही।
वे अरी मोह हन पावें शिव की मही।।पांचवीं.।।१८।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितअरनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिजिन मोह यम काम को जीत के।
पाइ निज संपदा मुक्ति को जाय के।।पांचवीं.।।१९।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितमल्लिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋद्धिधारी मुनी भी जिन्हें वंदते।
वे मुनी सुव्रतेश्वर विघन खंडते।।पांचवीं.।।२०।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितमुनिसुव्रतनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नमीनाथ के भक्त ज्ञानी बनें।
मोह रागादि ईर्ष्यादि शत्रू हनें।।पांचवीं.।।२१।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितनमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमि प्रभु सिद्धि कांता पती ख्यात हैं।
जो उन्हें पूजते वे महाभाग हैं।।पांचवीं.।।२२।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितनेमिनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वप्रभु भक्त के विघ्न निरवारते।
जो जजें क्रोध अरि वे हि संहारते।।पांचवीं.।।२३।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितपार्श्वनाथसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर अतिवीर महावीर सन्मति प्रभो।
वो लहें सर्व सुख जो जजें आपको।।पांचवीं.।।२४।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ईश चौबीस की अर्चना सौख्यदा।
साधु के हेतु जिनभक्ति है मोक्षदा।।पांचवीं.।।२५।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
नव केवल लब्धी धरें, त्रिभुवनपति जिनदेव।
नमूँ नमूँ मस्तक नमां, करूँ चरणयुग सेव।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय श्री जिनवर समवसरण जय पंचम धर्म ध्वजाभूमी।
जय तृतिय कोट से परिवेष्टित, लहरातें ध्वज संयुत भूमी।।
जय जय चारण ऋद्धीधारी, मुनिगण वहाँ विचरण करते हैं।
ऊँचे लहरातें ध्वज सुंदर, सुरनर खगपति मन हरते हैं।।२।।
प्रत्येक दिशा में दश प्रकार चिह्नों से चिह्नित ध्वज सोहें।
प्रत्येक एक सौ आठ एक सौ आठ सर्व जन मन मोहें।।
हैं चिह्न सिंह गज वृषभ गरुड़, अरु मोर चंद्र भास्कर सुंदर।
फिर हंस कमल अरु चक्र कहे, दशविध ये चिन्ह बने मनहर।।३।।
ये महाध्वजायें चार हजार तीन सौ बीस चार दिश की।
ये स्वर्णमयी स्तंभों में संलग्न बनी हैं रत्नों की।।
निजनिज जिनवर ऊँचाई से बारहगुणिते ऊँची मानी।
प्रत्येक महाध्वज के आश्रित लघु इक सौ आठ ध्वजा मानी।।४।।
सब मिलकर चार लाख सत्तर हजार आठ सौ अस्सी हैं।
रत्नों से बनी ध्वजाएं ये फिर भी रेशम की दिखती हैं।।
ये पवन झकोरे से हिलतीं ऊपर अतिशय लहराती हैं।
मानों भव्यों को जिनवर भक्ती करने हेतु बुलाती हैं।।५।।
इस भूमी आगे तृतिय कोट चांदी का बना बहुत सुुंदर।
चारों द्वारों के रक्षक सुर हैं भवनवासि भक्ती तत्पर।।
इन गलियोें में भी धूप घड़े नवनिधियाँ इच्छित फल देतीं।
नाटकशालायें उभय तरफ दर्शक जन का मन हर लेतीं।।६।।
सब इंद्र चक्रवर्ती नरपति, खगपति धरणीपति भी आते।
इन सभी ध्वजाओं की पूजा, करके मन में अति हरसाते।।
जैवंत रहे यह जिन वैभव, जैवंतो समवसरण महिमा।
जैवंतो सदा ध्वजा भूमी, जय जय जिनवर की गुण गरिमा।।७।।
-घत्ता-
जय जय श्री जिनवर, करम भरम हर, जय जय श्री जिनगुणमाला।
जय ‘ज्ञानमती’ धर, शिवरमणीवर दीजे निजगुण मणिमाला।।८।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो समवसरण विधान करते, भव्य श्रद्धा भाव से।
तीर्थंकरों की बाह्य लक्ष्मी, पूजते अति चाव से।।
फिर अंतरंग अनन्त लक्ष्मी, को जजें गुण प्रीति से।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्य कर, वे मोक्षलक्ष्मी सुख भजें।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।