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07. पश्चिमधातकीखण्डद्वीपस्थ तीर्थंकर पूजा
September 15, 2024
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jambudweep
पूजा नं. 4
पश्चिमधातकीखण्डद्वीपस्थ तीर्थंकर पूजा
—स्थापना (गीता छंद)—
पश्चिम सुधातकि खण्ड में, वर पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा विहरें जिनेश्वर, चार अनुपम देह हैं।।
ये सूरिप्रभ व विशालकीर्ती, वङ्काधर चंद्रानना।
आह्वान कर पूजूँ उन्हें, होवे निजात्म प्रभावना।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
विशालकीर्तिवङ्काधरचंद्रानननामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र अवतर अवतर संवौषट्
आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ
-विशालकीर्तिवङ्काधरचंद्रानननामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थित श्रीसूरिप्रभ-
विशालकीर्तिवङ्काधरचंद्रानननामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
—अथ अष्टक ( चामर छंद )—
पवित्र नीर स्वर्ण भृंग में भराय लाइया।
जिनेंद्र पाद पद्म में त्रिधार को कराइया।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थित श्री सूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
पवित्र गंध लेय नाथ पाद पद्म चर्चिया।
समस्त ताप नाश हेतु आप चर्ण पूजिया।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य:संसारतापविनाशनाय चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
अखंड श्वेत शालि पुञ्ज आपको च़ढ़ायके।
अखंड संपदा मिले प्रभो तुम्हें मनायके।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुलाब श्वेत लाल पीत वर्ण वर्ण के लिये।
जिनेंद्र आप चर्ण में चढ़ाय मोद पा लिये।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा।
सुहाल खीर मोदकादि थाल में भराइया।
प्रभो! तुम्हें चढ़ाय भूख व्याधि को नशाइया।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थित श्री सूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
कपूर ज्योति ज्वालके जिनेंद्र आरती करूँ।
समस्त चित्त मोह नाश ज्ञान भारती भरूँ।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थित श्री सूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपंं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंध धूप अग्नि पात्र में सुखेयके अबे।
समस्त पाप पुञ्ज को जलाय दो प्रभो अबे।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इलायची बदाम द्राक्ष आपको चढ़ावते।
शिवांगना वरें स्वयं समस्त सौख्य पावते।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलंं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादि अर्घ्य में सुवर्ण पुष्प को मिलायहूँ।
निजात्म तीन रत्न हेतु आपको चढ़ायहूँ ।।
अनंत ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य हेतु अर्चना।
जिनेंद्र! आश पूरिये करूँ अनंत वंदना।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
नाथ पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूँ ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, पुष्पाञ्जलि अर्पण करूँ ।
मिले आत्मसुख लाभ, जिन पद पंकज पूजते ।।११।।
दिव्य पुष्पाञ्जलि: ।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
(तृतीय वलय में २० अर्घ्य)
—सोरठा—
विहरमाण जिनराज, समवसरण में राजते।
पुष्पाञ्जलि कर आज, जजूँ जिनेश्वर को यहाँ।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
श्री सूरिप्रभ तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—अर्घ्य (गीता छंद )—
पश्चिम सुधातकि द्वीप में वर अचल मेरु प्रसिद्ध है।
पूरब विदेह सुमध्य सीता नदी उत्तर में कहे ।।
विजयापुरी पितु नागराज प्रसू सुभद्रा सुर नमें।
श्री सूरिप्रभ गर्भावतार सुपूजते नहिं भव भ्रमें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण पुंज भगवन पुण्यफल, प्रभु जन्मते बाजे बजे।
देवों के आसन कंप उठे ,शत इंद्रगण हर्षित अबे।।
सुर शैल पर तीर्थेश प्रभु का, जन्म अभिषव था हुआ।
जिन जन्म कल्याणक जजत, मेरा जनम पावन हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु राज्य शासन किया, फिर मन में विरक्ती छा गई।
सुरगण स्वयं ही आ गये, वर पालकी तब आ गई।।
सुरपति मनोहर बाग में, लेकर गये प्र्ाभु चौक पे।
‘‘सिद्धं नम:’’ कह लोच कर, दीक्षा ग्रही पूजूँ अबे।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु विध तपस्या कर जिनेश्वर, शुक्लध्यानी हो गये।
दीक्षा तरू तल में त्रिलोकी, सूर्य केवल पा गये।।
सुंदर समवसृति में अधर, तिष्ठे असंख्यों भव्य को।
संबोध वच पीयूष से, तारा जजूँ जिनसूर्य को।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु काल भू पर श्रीविहार, समस्त जन सुख हेतु हैं।
गुणथान चौदह के उपरि, मुक्तीनगर अभिप्रेत है।।
अतिशय अतींद्रिय सौख्य, परमानंद अमृत पायेंगे।
श्री सूरिप्रभ का मोक्षकल्याणक, जजूँ गुण गायके।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
श्री सूरिप्रभ नाथ को, नमूँ नमूँ शत बार।
सकल विघ्नघन नाशकर, पाऊँ निजगुणसार।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसूरिप्रभतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री विशालकीर्ति तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—चौपाई—
पूर्व विदेह क्षेत्र अमलान, पुण्डरीकिणी नगरी जान।
पिता विजय राजा गुणवान, माता विजया सुर नर मान्य।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में तीर्थंकर भगवान, नाम विशालकीर्ति गुणखान।
सुर जन्मोत्सव किया अपार, जजत प्रभू को हर्ष अपार।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शशी चिन्ह प्रभु राज्य करंत, पुन: विरक्त भये भगवंत।
इंद्र करें उत्सव गुरु मान्य, जजूँ प्रभू का तप कल्याण।।३।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा तरु नीचे धर ध्यान, प्रभु ने पाया केवलज्ञान।
पांच सहस धनु अधर जिनेश, जजूँ ज्ञानकल्याण हमेश।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म नाश करके शिवकांत, प्रभू बनेंगे अक्षय नान्त।
संप्रति मैं पूजूँ जग सिद्ध , नमूँ मोक्षकल्याण प्रसिद्ध ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
नित्य निरंजन परम गुरु, परम हंस चिद्रूप।
पंचकल्याणकपति प्रभो, जजत लहूँ निजरूप।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविशालकीर्तितीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री वङ्काधर तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—गीता छंद—
पश्चिम विदेहे अचल मेरू, नदी सीतोदा तटे ।
नगरी सुसीमा पद्मरथ, रानी सरस्वति मातु के ।।
जब गर्भ तिष्ठे इंद्रगण, सुरवृंद माँ पितु को जजें ।
हम गर्भकल्याणक जजत, संपूर्ण दु:खों से बचें ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवमास नंतर अवतरें, सुरगृह स्वयं बाजे बजें ।
जन्में जिनेश्वर उसी क्षण, सुरपति मुकुट भी थे झुके।।
माँ के प्रसूती सद्म जा, शचि ने शिशू को ले लिया ।
सुरशैल पर अभिषव हुआ, पूजत जगत भव कम किया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साम्राज्य क्षणभंगुर दिखा, वैराग्य मन में आ गया ।
सुर पालकी पे प्रभु चढ़े, लौकांति सुर स्तुति किया ।।
इंद्राणि निर्मित चौक पर, तिष्ठे स्वयं दीक्षा लिया ।
प्रभु तपकल्याणक पूजते, मिल जाय जिन दीक्षाप्रिया ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शंख चिन्ह प्रसिद्ध थे, लवलीन आतम ध्यान में।
सब घातिया को घात कर, प्रभु केवली भास्कर बने ।।
धनदेव निर्मित समवसृति में, गंधकुटि में शोभते ।
द्वादश सभा में भव्य नमते, हम प्रभू को पूजते ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु धर्म अमृत मेघ से, भवि तृप्त कर शिव जायेंगे।
परिपूर्ण परमानंद अमृत, सुख अतीन्द्रिय पायेंगे।।
सौधर्म इंद्र सुरादिगण, निर्वाण पूजन करेंगे।
हम आज ही निर्वाण,कल्याणक जजत सुख भरेंगे ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
तीर्थंकर श्री वङ्काधर, वङ्का समान महान।
कर्म शत्रु के नाशने, पूजूँ भक्ति प्रधान।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री वङ्काधरतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री चन्द्रानन तीर्थंकर पंचकल्याणक अर्घ्य
—सखी छंद—
श्री क्षेत्र विदेह अपर में, सीतोदा नदि उत्तर में।
पुरि पुण्डरीकिणी नृप के, घर में सुरत्न बरसे थे।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर मुकुट हिले जिन जन्में। प्रभु वृषभ चिन्ह धर जग में।।
अठ एक हजार कलश से। जिन न्हवन किया सुर हरसें।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रानन नाम प्रसिद्धी। संसार सौख्य से विरती।।
तप लिया स्वयं जा वन में। पूजत मिल जावे तप में।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानाविध तप तप करके। प्रभु शुक्लध्यान में तिष्ठे।।
केवल रवि उगा प्रभू के। मैं जजूँ त्रिजग भी चमके।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मृत्युञ्जयी बनेंगे। मुक्ती का राज्य करेंगे।।
हम भक्ति भाव से पूजें। भव भव के दुख से छूटें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
चंद्रानन जिनराज हैं, त्रिभुवनपति भगवान।
नमूँ नमूँ बहु भक्ति से, पाऊँ स्वात्म निधान।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्राननतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्र्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
तीर्थंकर जग के पिता, विहरमाण सुरवंद्य।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, हरूँ सकल जग द्वंद।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
आदिविहरमाणचतुस्तीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
(108 बार या 9 बार )
जयमाला
—रोला छंद—
जयो जयो जिनराज, तुम महिमा मुनि गावें।
जयो जयो जिनराज, गणधर भी शिर नावें।।
जयो जयो जिनराज, गुण अनंत के स्वामी।
जयो जयो जिनराज, त्रिभुवन अंतर्यामी।।१।।
ज्ञानावरण विनाश, ज्ञान अनंत प्रकाशा।
दर्शनावरण विनाश, केवलदर्श प्रकाशा।।
सर्व मोह को चूर, सौख्य अनंत विकासा।
अंतराय कर दूर, वीर्य अनंत विकासा।।२।।
हे प्रभु! आप अनंत, चार चतुष्टय धारी।
शत इंद्रों से वंद्य, त्रिभुवन जन मनहारी।।
नाथ! आपकी जाप, कर्मकलंक विनाशे।
जपूँ जपूँ दिन रात, अनुपम सौख्य प्रकाशे।।३।।
अहो! जगत के सूर्य, मुनिमन कमल विकासीr।
अहो! जगत के चंद्र, भविजन कुमुद विकासी।।
अहो! भविकजनबंधु! तुम सम नहिं हितकारी।
त्रिभुवनजन अभिनंद्य, नमूँ नमूँ सुखकारी।।४।।
तीन लोक में आप, एक सुमंगलकर्ता।
हरो सकल दुख ताप, सब सुख मंगलकर्ता।।
तीन लोक में आप, सर्वोत्तम मुनि मानें।
हरो हरो भव ताप, लोकोत्तम जग जाने।।५।।
तीन लोक में आप, सबके लिये शरण हो।
नमूँ नमूँ नत माथ, मेरे आप शरण हो।।
सर्व उपद्रव दूर, करके सब सुख दीजे।
‘‘ज्ञानमती’’ सुखपूर, मिले कृपा अब कीजे।।६।।
—घत्ता—
जय जय जिनराजा, जग सिरताजा, निजहितकाजा तुमहिं जजूँ।।
प्रभु निज पद दीजे, ढील न कीजे, अरज सुनीजे नित्य भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीसूरिप्रभ-
विशालकीर्तिवङ्काधरचंद्रानननामचतुस्तीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोगकर, फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ ज्ञानमति ’’ हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें ।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
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