तर्ज-चाँद मेरे आ जा रे…….
अर्घ्य का थाल सजाया है-२,
समयसार की जयमाल का पूर्णार्घ्य बनाया है।।टेक.।।
आत्मा का सार बताने वाला यह ग्रंथ हमारा।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी का अध्यात्म ग्रंथ यह प्यारा।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।१।।
सिद्धों को नमन कर प्राकृत की गाथाएँ रच डालीं।
दश अधिकारों से समन्वित टीका इसकी है निराली।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।२।।
श्री अमृतचन्द्राचार्य व जयसेनाचार्य हुए हैं।
दोनों ने लिखी संस्कृत में सुन्दर सी टीकाएँ हैं।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।३।।
श्री अमृतचंद्र की टीका का नाम आत्मख्याति है।
तात्पर्यवृत्ति टीका श्री जयसेनाचार्य की कृति है।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।५।।
कुल मिल चउ सौ चव्वालिस गाथाएँ इसमें लिखी हैं।
श्री अमृतचंद्र की चउ शत पन्द्रह गाथाएँ मिली हैं।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।५।।
दोनों संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद हुआ है।
गणिनी माँ ज्ञानमती ने सुन्दर अनुवाद किया है।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।६।।
उस ज्ञानज्योति टीका को पढ़ना अवश्य है सबको।
निश्चय व्यवहार नयों का करना है समन्वय हमको।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।७।।
निर्र्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि ही साकार इसे करते हैं।
उपसर्ग परीषह सहकर आतम सिद्धी करते हैं।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।८।।
इस समयसार पूजन की जयमाला मिलकर गाओ।
पूर्णार्घ्य चढ़ा श्रुत सम्मुख ‘‘चन्दनामती’’ सुख पाओ।।
अर्घ्य का थाल सजाया है….।।९।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकचतुश्चत्वािंरशदधिकचतु:शतगाथासूत्रसमन्वित-
श्रीसमयसारमहाग्रंथाय महा जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।
-दोहा-
शांति-कुंथु-अरनाथ को, नमन करूँ त्रयबार।
हस्तिनागपुर में हुए, तीनों के अवतार।।१।।
उनके चार कल्याण से, है यह तीर्थ पवित्र।
इस पावन भू पर बना, जम्बूद्वीप प्रसिद्ध।।२।।
तीनों प्रभु त्रयपद सहित, हुए त्रिजग के ईश।
उनकी तीनों मूर्तियाँ, बनी नमूँ नत शीश।।३।।
गणिनी माता ज्ञानमति, का है ज्ञान प्रभाव।
जिनकी कृपा प्रसाद से, हुए अनेकों कार्र्य।।४।।
उनकी शिष्या चन्दना-मती आर्यिका नाम।
गुरु आशीषों का मुझे, मिला आज वरदान।।५।।
गुरूप्रेरणा से लिखा, मैंने नया विधान।
समयसार जी ग्रंथ को, पढ़कर पाया ज्ञान।।६।।
वीर संवत् पच्चीस सौ, छत्तिस का शुभ वर्ष।
श्रुतपंचमि तिथि को किया, पूर्ण इसे मन हर्ष।।७।।
यह विधान करके सभी, करो भाव निज शुद्ध।
किन्तु भटकना नहिं कभी, करके भाव अशुद्ध।।८।।
समयसार साकार है, जिनमुद्रा में आज।
उनकी भक्ति प्रसाद से, मिले ज्ञान साम्राज्य।।९।।
कुंदकुंद स्वामी रचित, समयसार यह ग्रंथ।
इसको पढ़कर बन गये, कितने ही निर्ग्रन्थ।।१०।।
जब तक है इस ग्रंथ का, धरती पर अस्तित्व।
चिरंजीव हो पाठ यह, ज्ञानामृत सुप्रसिद्ध।।११।।