मन वचन तन का करें निग्रह आत्म अनुग्रह नित करें।
वे साधु त्रिकरण शुद्धि कर निज आत्म को पावन करें।।
मनबल बचनबल कायबल की ऋद्धि को प्रगटित करें।
उन साधु का आह्वानन कर निज शक्ति को विकसित करें।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
तीर्थवारी महास्वच्छ झारी भरी।
ऋद्धिधर साधु के पाद धारा करी।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण द्रव के सदृश कुंकुमादी लिये।
राग की दाह को मेटने पूजिये।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्ररश्मी सदृश श्वेत अक्षत लिये।
आत्मनिधि पावने पुंज रचना किये।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।३।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार मल्ली सुमन ले लिये।
मारहर योगि पादाब्ज में अर्पिये।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।४।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गूझिया औ तिकोने भरे थाल में।
भूख व्याधी हरो नाथ पूजूँ तुम्हें।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।५।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रज्वलित दीप लेके करूँ आरती।
चित्त में प्रगटती ज्ञान की भारती।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।६।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध ले अग्नि में खेवते।
मोह शत्रू जलें आप पद सेवते।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।७।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम नींबू नरंगी व अंगूर हैं।
पूजते आत्म पीयूष को पूर है।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।८।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि ले स्वर्ण थाली भरूँ।
साधु पद पूजते सर्व सिद्धी वरूँ।।
तीन बलऋद्धि अर्चा करूँ भक्ति से।
सर्वशक्ती मिले भक्ति की युक्ति से।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋद्धिमंत योगीन्द्र के, चरणों धार करंत।
सब जग में भी शांति हो, रोग शोक का अंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपा जुही गुलाब ले, पुष्पांजलि विकिरंत।
सर्व सौख्य संपति बढ़े, मिले भवोदधि अंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
मन वच तन से शुद्ध, त्रय बल ऋद्धी को नमूँ।
मम आत्मा हो शुद्ध, पुष्पांजलि कर पूजते।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
बल ऋद्धी के तीन प्रकारा, मनबल ऋद्धि मनोबल धारा।
दोय घड़ी में सब श्रुत चिंते, उन पूजत मनबल को सिंचे।।१।।
ॐ ह्रीं मनोबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हीन कंठ नहिं श्रम नहिं होवे, सब श्रुत उच्चारण कर लेवें।
यही वचन बल ऋद्धि विशेषा, जजत मिले वचसिद्धि अशेषा।।२।।
ॐ ह्रीं वचनबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायोत्सर्ग करें बहु भेदा, त्रिभुवन उठा सकें बिन खेदा।
कायबली अतिशायी ऋद्धी, पूजत हो मुझ शक्ति समृद्धी।।३।।
ॐ ह्रीं कायबलऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रत्नत्रयधारी मुनी, वे ही स्वमन को वश करें।
नित मौन धर वचगुप्ति पालें, काय आसन थिर करें।।
उन साधु के मन वचन तन का बल बढ़े स्वयमेव ही।
हम उन गुरु को पूजते, निज शक्ति प्रगटन हेतु ही।।४।।
ॐ ह्रीं त्रिविधबलऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं बलऋद्धिभ्यो नम:।
जय जय जिनेश्वर केवली, अघहरण जग चूड़ामणी।
जय जय गणेश्वर ऋद्धिधर, चिंतित फलें चिंतामणी।।
जय जय मुनीश्वर त्रयबली, त्रैलोक्य एक शिखामणी।
जय मोह अहि के विष प्रहारण, नाथ! तुम गारुत्मणी।।१।।
बाहूबली भगवान निश्चल, कायबल वरऋद्धियुत।
जो एक वत्सर तक खड़े ध्यानस्थ अविचल भूमिभृत।।
बाली मुनी ने तप किया तब कायबल ऋद्धी मिली।
कैलाशपर्वत को दबाया रो पड़ा दशमुख बली।।२।।
बहु देव देवी अप्सरायें, इन्द्रगण भी आवते।
मुनिवंदना गुणगान पूजन, करत शीश नमावते।।
संगीत बाजे विविध बजते किकणी घंटा खने।
वीणा बजाते नृत्य करते ताल दे देकर घने।।३।।
खेचर युगलियां भक्ति से मुनिवंदना करते वहाँ।
नर नारियाँ भूचर सदा विद्या के बल फिरते वहाँ।।
मनबलि वचनबलि कायबलि, ऋषिगण जहाँ विचरण करें।
उस भूमिरज मस्तक धरें, बहुजन्म पातक परिहरें।।४।।
गणधर सुव्रतधर चक्रधर हलधर, गदाधर सर्वदा।
श्रुतधर अशनिधर कुलधरा, तप संस्तवन करते मुदा।।
अध्यात्म योगी वीतरागी, शुद्ध आतम ध्यावते।
वर निर्विकल्प समाधिरत हो परम आनंद पावते।।५।।
मैं भक्ति श्रद्धा भाव से हे नाथ! तुम शरणा लिया।
बस स्वात्म शक्ती प्राप्ति हेतू तु निकट धरना दिया।।
हे भक्तवत्सल! दीनबंधो! कृपा मुझ पर कीजिये।
हे नाथ! अब तो मुझे केवल, ‘‘ज्ञानमति’’ श्री दीजिये।।६।।
जिनवर गणधर साधुवर, नमूँ नमूँ नत शीश।
मन वच तन शुद्धी करो, यही प्रार्थना ईश।।७।।
ॐ ह्रीं मनोबलवचनबलकायबल ऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।