न्याय प्रभाकर सिद्धान्त वाचस्पति पू० गणिनी आर्यिका रत्न ज्ञानमती जी ने जब त्याग मार्ग में प्रवेष किया उस समय समाज में गृहीत मिथ्यात्व, संस्कार “शान्यता, धार्मिक अज्ञान, अषिक्षा, संस्थाओं की निश्क्रियता एवं नारी का पिछडा़पन व्याप्त थे। राश्ट्र की पराधीनता के कारण देष हीन दषा ग्रस्त था। प० पू० आचार्य “शान्ति सागर महाराज के उपदेषों से यद्यपि सुधार प्रारम्भ हो रहा था तथापि बहुत कुछ होना “कोश था। दीक्षित होने पर पू० माता जी ने इन विकारों पर चर्तुमुखी प्रहार करने का लक्ष्य बनाया। वे स्वंय चारित्र मार्ग पर अग्रसित होकर यथोचित मार्गोपदेष करने को तत्पर हुईं। उन्होंने कुषाग्र बुद्धि के साथ सर्वप्रथम आगम, अध्यात्म, साहित्य भाशा और न्याय आदि का ज्ञान प्राप्त किया। देष के पद भ्रमण से उत्तर से दक्षिण, पूरब, पष्चिम दिषाओं में स्थानीय जनता में उन्होंने उपरोक्त विकारों को मिटाने हेतु तथा रत्नत्रय के विकास हेतु प्रचार किया।
सन् 1960 से गुजरात में सोनगढ़ से कानजी द्वारा उपदिश्ट निष्चय एकांत एवं असंयम और मुनि विरोधी प्रचार अन्य प्रान्तों में भी होने लगा था। अव्रती अवस्था में ही “शुद्धोपयोग और आत्मानुभूति के गीत गाये जाने लगे थे। व्यवहारनय व पुण्य को सर्वथा हेय और असत्यार्थ घोशित किया गया इससे लोग मिथ्या प्रभावित होने लगे। समयसार आदि द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों को ही महत्व देकर अन्य अनुयोगों की उपेक्षा का प्रादुर्भाव हुआ। श्रावक की पूजा पाठ व्रत आदि क्रियाओं को महत्व हीन निरूपित किया जाने लगा। मात्र ज्ञान के राग अलापने का प्रारम्भ हो गया। क्रमबद्ध पर्याय को सर्वथा स्वीकार कर अकालमरण का निशेध किया जाने लगा। नियतिवाद के एकान्त से होनहार और पुरूशार्थहीनता का ज्वार व्याप्त होने लगा। जीवदया और अहिंसा की सार्थकता का अवमूल्यन प्रारम्भ हुआ। वर्ग विषेश द्वारा स्वंय को सम्यग्दृश्टि एंव कानजी केा भावी तीर्थकर तक घोशित किया गया। संस्थायें स्थापित कर ऐकान्तिक षिक्षण प्रषिक्षण आदि द्वारा दिगम्बरत्व के विरोधी विद्वान तैयार किये गये। साधुओं को द्रव्यलिंगी घोशित कर उनके यथेश्ट विहार में बाधा खड़ी की गई आदि। इससे समाज में संगठन का अभाव होकर वह क्षतिग्रस्त हो गया।
उपरोक्त परिस्थितियों का पू० माता जी ने अनुभव किया। अत्यन्त करुणा के स्वाभाविक प्रभाव से स्व के साथ परकल्याण का उनका लक्ष्य बन गया। उन्होंने श्रावक और साधुवर्ग दोनों में ही अज्ञान के निरसन हेतु धार्मिक आगम ज्ञान का अलख जगाया। उन्होंने अनेकान्त शैली से प्रवचन एवं लेखन के माध्यम से दिगम्बर जैन समाज को मार्ग में स्थिर किया। यह उस युग की अनिर्वाय आवष्यकता थी। एकान्त मिथ्यात्व का निरसन कर उन्होंने समाज में अनेकान्त मार्ग का निरन्तर स्थायी प्रभाव स्थापित करने हेतु विद्वानोें को संगठित किया। उनके निर्देषन में सन् 1977 में हस्तिनापुर मे अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रथम प्रषिक्षण षिविर पं० बाबूलाल जमादार के संयोजकत्व में आयेाजित किया गया। अर्शमार्गीय विद्वान भी एकान्त के दुश्प्रभाव से चिन्तित थे। व्यवहार धर्म का लोप उनके हृदय में “शाल्य के भांति चुभ रहा था। वे सहर्श बड़ी संख्या में माता जी के ज्ञानयज्ञ में सम्मिलित हुए थे। मुझे भी माता जी ने ज्ञान प्रसार की प्रेरणा दी और मैं इस क्षेत्र में कार्य करने को तत्पर हुआ था। विद्वत् प्रषिक्षण हेतु माता जी ने प्रवचन निर्देषिका, षिक्षण हेतु बाल विकास आदि की रचना की थी। बाल विकास तो अरुण और तरुण वर्ग का कण्ठहार बन गया। इस ज्ञान प्रसार को राश्टीय स्वरूप देने हेतु जम्बूद्वीप को केन्द्र चुना गया। श्रावक जनों श्रेश्ठियों, विद्वानों और राश्ट्रीय नेताओं को इससे जोड़ा गया। ब्र० मोतीचन्द्र, ब्र० रवीन्द्र कुमार तथा दिल्ली के श्री “याम लाल ठेकेदार ने योगदान दिया। वर्तमान में पू० चन्दनामती माता के निर्देषन में पू० क्षु० मोतीसागरजी के गंभीर मंत्रणा एवं परामर्ष में कर्मयोगी ब्र० रवीन्द्र कुमार जी के कर्मठ अध्यक्षत्व में यह संस्था गतिषील है। युग की आवष्यकता अनुभव कर सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाषन भी अनवरत हो रहा है। पू० माता जी की प्ररेणा से अ० भ० दि० जैन युवा परिशद का गठन भी यहीं किया गया। अ० भ० दि० जैन महासभा के नवीन अध्यक्ष मानवीय श्री निर्मल कुमार सेठी का मनोयनयन यहीं हुआ। महासभा का दीर्घकाल तक जम्बूद्वीप को येागदान रहा है। वर्तमान में प्रायः आर्शमार्गीय सभी संस्थायें इस केन्द्र से संयुक्त हैं।
पू० माता जी के ज्ञानसागर से एक ऐसे रत्न का प्रादुर्भाव हुआ जिसने माताजी के जीवनोपयोगी समस्त साधनो से रत्नत्रय हेतु आवष्यकों से माता जी की वैयावृत्ति ओेर सेवा की। स्वयं भी अपने जीवन को नारी जाति के सर्वोच्च आदर्ष रूप में प्रकट किया तथा माता जी के समस्त सारस्वत कार्य को सहयोग दिया। वह व्यक्तित्व है पू० आर्यिका चन्दनामती माता जी। वे पूर्व में ब्र० माधुरी “शास्त्री के नाम से विख्यात थीं। वे स्वंय कुषल वक्ता, लेखिका, कवयित्री एवं आगम ज्ञाता हैं। पू० ज्ञानमती माता जी ने उन्हे षिक्षित एवं दीक्षित कर अपनी प्रतिमूत्र्ति के रूप में अवस्थित किया है। प्रज्ञाश्रमणी माता जी रत्नत्रय मार्ग में निरन्तर गतिषील हैं।