-स्थापना (सोरठा छंद)-
शक्ति के अनुसार, त्याग भावना भायके।
जिनपूजन सुखकार, करूँ थापना आयके।।१।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (सोरठा)-
गंग नदी जल लाय, जिनवर चरण पखार लूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।१।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन केशर लाय, जिनवर चरण लगाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।२।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत धोकर लाय, जिनवर निकट चढ़ाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।३।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु विध पुष्प मंगाय, जिनवर निकट चढ़ायदूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।४।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन सरस बनाय, जिनवर निकट चढ़ाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।५।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत का दीप जलाय, आरति प्रभु की उतार लूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।६।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित लाय, प्रभु के निकट जलाय लूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।७।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल का थाल मंगाय, प्रभु के निकट चढ़ाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।८।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य ‘चन्दना’ लाय, प्रभु के चरण चढ़ाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।९।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन झारी लाय, जिनपद शांतीधार दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपा पुष्प मंगाय, पुष्पांजलि चढ़ाय दूँ।
त्याग भावना भाय, मन को शुद्ध बनाय लूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(छठे वलय में ४ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
त्याग भावना के लिए, पूजन द्रव्य मंगाय।
पुष्पांजलि कर लूँ प्रभो! मन में अति हरषाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि षष्ठदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तर्ज-ॐ जय महावीर प्रभो…….
ॐ जय जिनवर देवा, स्वामी जय जिनवर देवा।
त्याग भावना भाकर-२, बने परम देवा।। ॐ जय.।।
जो आहारदान दे मुनि को, पुण्य लाभ लेवें। प्रभु पुण्य……..
भोगभूमि एवं स्वर्गों की-२, सुख सम्पत्ति सेवें।। ॐ जय.।।१।।
ॐ ह्रीं आहारदानरूपशक्तितस्त्यागभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जय जिनवर देवा, स्वामी जय जिनवर देवा।
त्याग भावना भाकर-२, बने परम देवा।। ॐ जय.।।
प्रासुक औषधि दान करें जो, पुण्यलाभ पावें। प्रभु पुण्य……..
स्वस्थ शरीरी होकर-२, मुक्तिधाम पावें।। ॐ जय.।।२।।
ॐ ह्रीं औषधिदानरूपशक्तितस्त्यागभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जय जिनवर देवा, स्वामी जय जिनवर देवा।
त्याग भावना भाकर-२, बने परम देवा।। ॐ जय.।।
सच्चे शास्त्र को देना, ज्ञानदान माना। प्रभु पुण्य……..
इसको दे भव्यात्मन्-२, ज्ञानी बन जाना।।ॐ जय.।।३।।
ॐ ह्रीं ज्ञानदानरूपशक्तितस्त्यागभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जय जिनवर देवा, स्वामी जय जिनवर देवा।
त्याग भावना भाकर-२, बने परम देवा।। ॐ जय.।।
त्रस स्थावर जीव की, दया सदा पालूँ। प्रभु पुण्य……..
अभयदान दे उनको-२, आत्मशांति मानूँ।।ॐ जय.।।४।।
ॐ ह्रीं अभयदानरूपशक्तितस्त्यागभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-कुसुमलता छंद-
यथाशक्ति जो चार तरह के, दान सदा देते रहते।
वे ही त्याग भावना भाकर, निज पर का अनुग्रह करते।।
मैं पूर्णार्घ्य समर्पित करके, त्याग भावना भाता हूँ।
सोलहकारण के विधान में, तीर्थंकरगुण ध्याता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतु:भेदसमन्वित शक्तितस्त्यागभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै नम:।
तर्ज-सांची कहूँ तोरे आवन से………….
सांची कहूँ प्रभु पूजन से मन के, भग जाते सारे विकार हो जी। भग जाते…
समता की सूरत, वीतराग मूरत, अपने प्रभू को निहार लो जी।।टेक.।।
दर्शन से मिटता है मिथ्या अंधेरा,
हट जाता है काले कर्मों का डेरा।
भाव बढ़ा लो, पूजा रचा लो, भर लो पुण्य भण्डार हो जी….।।१।।
निशदिन ध्यान धरूँ प्रभु तेरा,
हो जाएगा तब सम्यक् उजेरा।
ध्यान लगा ले, कर्म जला ले, कर लो धर्मसंचार हो जी…..।।२।।
जिसने भी सच्चे मन से है ध्याया,
तूने उसे भव से पार लगाया।
ऐसा सुना है, देखा यही है, आया तभी प्रभु के द्वार हो जी……।।३।।
जो शक्तितस्त्याग की भावना को,
भाता व करता है तपसाधना को।
दान भी कर लो, ध्यान भी कर लो, मिल जावे सुख भण्डार हो जी…..।।४।।
जयमाला का अर्घ्य प्रभु को चढ़ाऊँ,
तब ‘‘चन्दनामति’’ अनघपद को पाऊँ।
ऐसी ही रीती, है धर्मनीती, बतलाती जीवन का सार हो जी……।।५।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।