स्थापना-शंभु छन्द
अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभू की, जन्मभूमि है चन्द्रपुरी।
गर्भागम से केवलज्ञानी, बनने तक पावन हुई मही।।
उस चन्द्रपुरी तीरथ की पूजन, से पहले आह्वानन है।
स्थापन सन्निधिकरण सहित, जन्मस्थल का आराधन है।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (शंभु छन्द)-
जग में कुछ सुख है कुछ दुख है, मैंने तो अब तक यह जाना।
लेकिन यह भ्रम है गुरु कहते, जग में केवल दुख ही माना।।
निज जन्ममरण के नाश हेतु, पूजन में जल की धार करूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन अरु चंद्रकिरण मोती, गंगाजल यद्यपि शीतल हैं।
लेकिन जिनवर के पुण्यवचन, इस जग में शाश्वत शीतल हैं।।
पूजन में चन्दन चर्चन कर, संसार ताप को शांत करूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय संसारताप-
विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
छहखंडाधिप चक्री का भी, नहिं पद अक्षय रह पाया है।
बस मात्र अमूर्तिक आत्मा का, क्षय कभी न होने पाया है।।
उस आतम सुख की प्राप्ति हेतु, पूजन में अक्षत थाल धरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
यूँ तो पञ्चेन्द्रिय विषयों का, तीर्थंकर भी उपभोग करें।
पर उनको नश्वर समझ शीघ्र ही, उन्हें त्याग कर मोक्ष वरें।।
निज कामबाण विध्वंस हेतु, पूजन में पुष्प की माल धरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हो कल्पवृक्ष का भोजन चाहे, शाश्वत तृप्ति न देता है।
वह तो खाते-खाते भी सबकी, क्षुधा वृद्धि कर देता है।।
शुद्धातम की संतृप्ति हेतु, पूजन में व्यंजन थाल भरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो रत्नदीप या घृतदीपक, सबका प्रकाश क्षणभंगुर है।
केवल आत्मा का ज्ञानदीप, देता प्रकाश अविनश्वर है।।
मोहान्धकार के नाश हेतु, पूजन में दीपक थाल धरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय मोहान्धकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शारीरिक सुख की प्राप्ति हेतु, जलती है धूप सभी घर में।
लेकिन उससे नहिं कर्मनाश, होते वह तो भव वृद्धि करें।।
उन कर्मों के विध्वंस हेतु, अग्नी में धूप प्रजाल करूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमि चन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
तन की संपुष्टी हेतु न जाने, कितने फल खाए जाते।
लेकिन मन की संपुष्टि हेतु, वे फल भी कार्य न कर पाते।।
अब मोक्षमहाफल प्राप्ति हेतु, पूजन में फल का थाल भरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमि चन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर प्रभु ने तप करके, जिस अष्टम वसुधा को पाया।
उसको पाने के लिए ‘‘चन्दनामती’’, अर्घ्य मैं ले आया।।
आत्मा को पूज्य बनाने हेतू, अष्टद्रव्य का थाल भरूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभुजन्मभूमि चन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय की प्राप्ती हेतू, त्रयधारा जल की मैं डालूँ।
निज आत्मा की शांती हेतू, शांतीधारा मैं कर डालँ।।
पुर राज्य राष्ट्र की शांति हेतु, झारी से शांतीधार करूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।१०।।
शान्तये शांतिधारा
जीवन को पुष्पित करने का, शुभ भाव हृदय में आया है।
बस इसीलिए तीरथ पर, पुष्पांजलि करना मन भाया है।।
धरती का अंचल सजा रहे, पुष्पों का रंग अपार करूँ।
श्रीचन्द्रप्रभू की चन्द्रपुरी को वन्दन बारम्बार करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः
(इति मंडलस्योपरि पंचमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत् )
-प्रत्येक अर्घ्य-
जहाँ चैत्र वदी पंचमि तिथि को, चन्द्रप्रभ गर्भ पधारे थे।
लक्ष्मणा मात महासेन पिता सह, धन्य सभी जग वाले थे।।
उस गर्भकल्याणक की नगरी, शुभ चन्द्रपुरी अतिप्यारी है।
गंगा तट बसी हुई नगरी को, पूजूँ वह सुखकारी है।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभगर्भकल्याणक पवित्रचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
जिन महलों में चन्द्रप्रभ ने, तीर्थंकर बनकर जन्म लिया।
तिथि पौष कृष्ण एकादशि को भी, अपने जन्म से धन्य किया।।
उस नगरी में अद्यावधि भी, प्राचीन एक जिनमंदिर है।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर चन्द्रपुरी को, पाऊँ पद अतिसुन्दर है।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मकल्याणक पवित्रचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
दर्पण में मुख लखकर जहाँ श्री, चन्द्रप्रभ को वैराग्य हुआ।
वदि पौष इकादशि को जहाँ जिनवर, को दीक्षा से राग हुआ।।
जिस नगरी का सर्वर्तुक वन भी, प्रभु दीक्षा से था पावन।
उस चन्द्रपुरी को अर्घ्य चढ़ा, मेरा खिल जावे मन उपवन।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभदीक्षाकल्याणक पवित्र चन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
उस चन्द्रपुरी के सर्वर्तुक वन, में ही केवलज्ञान हुआ।
फाल्गुन वदि सप्तमि तिथि को जहाँ पर, समवसरण निर्माण हुआ।।
श्रीचन्द्रप्रभ की ज्ञानकल्याणक, भूमि को शत-शत वंदन।
मस्तक पर पावन धूलि चढ़ा, मैं अर्घ्य चढ़ाकर करूँ नमन।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
चन्द्रप्रभ जी के चार कल्याणक, से पवित्र जो नगरी है।
चिरकाल बीत जाने पर वह, वीरान हो गई नगरी है।।
लेकिन उसकी रज लेने को, सब भक्त आज भी आते हैं।
उस तीरथ के पावन चरणों में, हम भी अर्घ्य चढ़ाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभगर्भजन्मदीक्षाज्ञानचतुःकल्याणक पवित्रचन्द्र-
पुरीतीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
तर्ज-मनिहारों का वेष बनाया……
मैंने पूजन का थाल सजाया,
पूजा करने का भाव है आया।।टेक.।।
गंगा यमुना नहाना है तीरथ नहीं,
मन को पावन बनाना है तीरथ सही।
सत्य का पंथ अब अपनाया,
पूजा करने का भाव है आया।।१।।
धूनी भस्म रमाना न तप है सही,
मन को निज वश में लाना ही तप है सही।
वही पथ मैंने अब अपनाया,
पूजा करने का भाव है आया।।२।।
मिथ्या भावों का जप-तप सभी व्यर्थ है,
क्रिया सम्यक्त्वयुत तप में ही अर्थ है।
वही सम्यक्त्व अब मैंने पाया,
पूजा करने का भाव है आया।।३।।
भव जलधि से जो तिरवाते वे तीर्थ हैं,
उनमें ही चन्द्रपुरि की अमर कीर्ति है।
चन्द्रप्रभ ने जनम जहाँ पाया,
पूजा करने का भाव है आया।।४।।
गर्भ जन्म व तप ज्ञान चारों हुए,
जहाँ पर कार्य उत्तम हजारों हुए।
उसका गुणगान अब मैंने गाया,
पूजा करने का भाव है आया।।५।।
पूज्यता उसके कण-कण में है आज भी,
जैन संस्कृति का पावन है इतिहास भी।
वही इतिहास मैंने भी गाया,
पूजा करने का भाव है आया।।६।।
स्वर्णथाली में पूजन की सामग्री है,
अर्घ्य के संग मिली उसमें मणियाँ भी हैं।
आठों द्रव्यों को क्रम से सजाया,
पूजा करने का भाव है आया।।७।।
मोक्ष सम्मेदगिरि से प्रभू ने लहा,
चन्द्रप्रभ टोंक अब भी बना है वहाँ।
उसका भी संस्मरण आज आया,
पूजा करने का भाव है आया।।८।।
अर्चना हो सफल तीर्थ बन पाऊँ मैं,
‘‘चन्दनामति’’ निजातम में रम जाऊँ मैं।
भाव मैंने ये मन में बनाया,
पूजा करने का भाव है आया।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीचन्द्रप्रभजन्मभूमिचन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय जयमाला
पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।