स्थापना-गीता छंद
तीर्थंकरों के नाम सार्थक गुणगणों से पूर्ण हैं।
इन्द्रादिगण गाते सदा अतएव अतिशय पूर्ण हैं।।
त्रैलोक्य वंदित उन प्रभू की मैं करूँ इत थापना।
पूजूँ अतुल गुरू भक्ति से, चाहूँ सदा हित आपना।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:
ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-नाराच छंद
सिंधु नीर से जिनेन्द्र पाद पद्म पूजिये।
स्वात्म कर्मपंक धोय पूर्ण शुद्ध हूजिये।।
तीर्थनाथ नाम की सदैव अर्चना करूँ।
धर्म शुक्ल ध्यान हेतु नित्य वंदना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदनादि गंध से जिनेश चर्ण चर्चिये।
मोह ताप ध्वंस के अपूर्व शांति अर्जिये।।तीर्थ.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत स्वच्छ श्वेत शालि पुंज को रचाइये।
स्वात्म सौख्य ले अखंड पाप को नशाइये।।तीर्थ.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मोगरा जुही गुलाब वर्ण वर्ण के लिये।
कामदेव के जयी जिनेश चर्ण में दिये।।तीर्थ.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ियाँ इमर्तियाँ बनाय थाल में धरें।
पूर्णतृप्त आपको चढ़ाय व्याधियाँ हरें।।
तीर्थनाथ नाम की सदैव अर्चना करूँ।
धर्म शुक्ल ध्यान हेतु नित्य वंदना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपवर्तिका जले समस्त ध्वांत को हरे।
पूजते तुम्हें प्रभो! अपूर्व ज्योति को करे।।तीर्थ.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप गंधयुक्त अग्निपात्र में जलाय हूँ।
पाप कर्म को जलाय पुण्यराशि पाय हूँ।।तीर्थ.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव संतरा अनार औ बदाम भी लिये।
मोक्ष सौख्य हेतु नाथ! आपको चढ़ा दिये।।तीर्थ.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तोय गंध शालि पुष्प आदि अष्ट द्रव्य ले।
तीन रत्न हेतु आप अर्घ्य से जजूँ भले।।तीर्थ.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
तीर्थंकर जिनदेव के चरणों में त्रय बार।
शांतीधारा मैं करूँ, होवे शांति अपार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मल्लिका केवड़ा, सुरभित हरिंसगार।
पुष्पांजलि चरणों करूँ, करूँ स्वात्मशृंगार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
ज्ञान दर्श सुखवीर्यमय, गुण अनंत विलसंत।
सुमन चढ़ाकर पूजहूँ, हरूँ सकल जगफंद।।१२।।
ॐ ह्रीं मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
विष्णुपद छंद
आप नाम ‘श्रीवृक्षलक्षणा’ इंद्र सदा गावें।
दिव्य अशोक वृक्ष इक योजन मणिमय दर्शावें।।
नाममंत्र को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४०१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंतलक्ष्मी प्रिया साथ में, आलिंगन करते।
सूक्ष्मरूप होने से भगवन् ‘श्लक्ष्ण’ नाम धरते।।नाम.।।४०२।।
ॐ ह्रीं श्लक्ष्णाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट महाव्याकरण कुशल हो, सर्वशास्त्रकर्ता।
प्रभु आप ‘लक्षण्य’ नामधर सब लक्षण भर्ता।।नाम.।।४०३।।
ॐ ह्रीं लक्षण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुभलक्षण’ श्रीवृक्ष शंख पंकज स्वस्तिक आदी।
प्रातिहार्य मंगल सुद्रव्य शुभ लक्षण सौ अठ भी।।नाम.।।४०४।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘निरक्ष’ इंद्रिय से विरहित सौख्य अतींद्रिय हैं।
इंद्रिय निग्रहकर जो ध्याते वे निज सुखमय हैं।।नाम.।।४०५।।
ॐ ह्रीं निरक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहाये नेत्र कमलसम हैं।
नासादृष्टि सौम्य छवि लखते नेत्र प्रफुल्लित हैं।।नाम.।।४०६।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुष्कल’ आत्मगुणों से भगवन्! तुम परिपुष्ट हुये।
भक्तजनों का पोषण करते जो तुम शरण भये।।नाम.।।४०७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘पुष्करेक्षण’ पंकज दल सदुश नेत्र लम्बे।
निजमन कमल खिलाने हेतू भवि तुम अवलंबे।।नाम.।।४०८।।
ॐ ह्रीं पुष्परेक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘सिद्धिया’ स्वात्मलब्धि मुक्ती के दायक हो।
भक्तों की सब कार्यसिद्धि हित तुम ही लायक हो।।
नाममंत्र को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४०९।।
ॐ ह्रीं सिद्धिदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धसंकल्प’ सर्व संकल्प सिद्ध कीना।
भक्तों के भी सकल मनोरथ पूरे कर दीना।।नाम.।।४१०।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ प्रभु तुम आत्मा ने सिद्ध अवस्था ली।
सिद्ध शिला पर आप विराजे अनवधि गुणशाली।।नाम.।।४११।।
ॐ ह्रीं सिद्धात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम! ‘सिद्धसाधन’ शिवसाधन रत्नत्रय धारा।
जिनने आप चरण को पूजा उन्हें शीघ्र तारा।।नाम.।।४१२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञेयवस्तु सब जान लिया है नहीं शेष कुछ भी।
‘बुद्धबोध्य’ अतएव कहाये, लिया सर्वसुख भी।।नाम.।।४१३।।
ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय गुण विभव प्रशंसित सब जग में प्रभु का।
‘महाबोधि’ अतएव आप ही हरो सर्व विपदा।।नाम.।।४१४।।
ॐ ह्रीं महाबोधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम श्रेष्ठ अतिशायी पूजा ज्ञान लहा तुमने।
सदा गुणों से बढ़ते रहते ‘वर्द्धमान’ जग में।।नाम.।।४१५।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारक आप ‘महर्द्धिक’ हो।
गणधर मुनिगण वंदित चरणा आप सौख्यप्रद हो।।नाम.।।४१६।।
ॐ ह्रीं महर्द्धिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-चार अनुयोग ज्ञान के अंग-उपाय तुम्हीं।
अत: आप ‘वेदांग’ ज्ञानप्राप्ती के हेतु तुम्हीं।।नाम.।।४१७।।
ॐ ह्रीं वेदांगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-आत्मविद्या शरीर से भिन्न आतमा है।
इसके ज्ञाता भिन्न किया तनु अत: ‘वेदविद्’ हैं।।नाम.।।४१८।।
ॐ ह्रीं वेदविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेद्य’ आप ऋषिगण के द्वारा ज्ञान योग्य माने।
स्वसंवेद्य ज्ञान वो पाते जो पूजन ठाने।।नाम.।।४१९।।
ॐ ह्रीं वेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जातरूप’ तुम जनमे जैसे रूप दिगंबर है।
प्रकृतरूप निर्दोष आपका भविजन सुखप्रद है।।नाम.।।४२०।।
ॐ ह्रीं जातरूपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्वानों में श्रेष्ठ ‘विदांवर’ आप पूर्णज्ञानी।
तुमपद पंकज भक्त शीघ्र ही वरते शिवरानी।।नाम.।।४२१।।
ॐ ह्रीं विदांवराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आगम से तुम जानन योग्य कहे।
केवलज्ञान से हि या प्रभु जानन योग्य रहे।।नाम.।।४२२।।
ॐ ह्रीं वेदवेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंवेद्य’ प्रभु स्वयं सुअनुभव गम्य आप ही हैं।
स्वयं स्वयं का अनुभव करके हुये केवली हैं।।नाम.।।४२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंवेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘विवेद’ वेदत्रय विरहित स्त्री पुरुषादी।
हो विशिष्ट विज्ञानी भगवन्! आतम सुखस्वादी।।नाम.।।४२४।।
ॐ ह्रीं विवेदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वदताम्बर’ प्रभु वक्तागण में सर्वश्रेष्ठ तुम ही।
सब भाषामय दिव्यध्वनी से उपदेशा तुम ही।।नाम.।।४२५।।
ॐ ह्रीं वदताम्बराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
नाथ! ‘अनादिनिधन’ तुम्हीं, आदि अंत से हीन।
अतिशय लक्ष्मीयुत तुम्हीं, पूजूँ भक्ति अधीन।।४२६।।
ॐ ह्रीं अनादिनिधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्त’ आप सुज्ञान से, प्रगट सर्वथा मान्य।
सर्व अर्थ प्रकटित किया, जजत मिले धन धान्य।।४२७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्तवाक्’ प्रभु तुम वचन, सर्व प्राणि को गम्य।
सभी अर्थ स्पष्ट हो, नमत जन्म हो धन्य।।४२८।।
ॐ ह्रीं व्यक्तवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘व्यक्तशासन’ तुम्हीं, त्रिभुवन में स्पष्ट।
सब विरोधविरहित सुमत, नमूँ नमूँ अति इष्ट।।४२९।।
ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत्’ कर्मभू, युग के कर्ता आप।
जीवन कला सिखाय दी, नमूँ हरो मुझ पाप।।४३०।।
ॐ ह्रीं युगादिकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगाधार’ युग की सभी किया व्यवस्था आप।
राजनीति अरु धर्मद्वय, किया नमूँ नित आप।।४३१।।
ॐ ह्रीं युगाधाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादि’ तुम कर्मभू युग का कर प्रारंभ।
असि मषि आदि क्रिया कहीं, नमूँ तुम्हें तज दंभ।।४३२।।
ॐ ह्रीं युगादये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगदादिज’ युग के प्रथम, आप हुये उत्पन्न।
तीर्थंकर युग के प्रथम, पूजूँ चित्त प्रसन्न।।४३३।।
ॐ ह्रीं जगदादिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज प्रभाव से इंद्रगण को भी कर अतिक्रांत।
प्रभु ‘अतींद्र’ तुमको जजूँ, मिले सौख्य निर्भांत।।४३४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अतींद्रिय’ ज्ञानसुख, आप अतीन्द्रिय मान्य।
इंद्रिय के गोचर नहीं, नमूँ मिले सुख साम्य।।४३५।।
ॐ ह्रीं अतींद्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीन्द्र’ पूर्ण कैवल्यमय, बुद्धी के हो ईश।
शुद्ध बुद्धि मेरी करो जजूँ नमाकर शीश।।४३६।।
ॐ ह्रीं धीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम मोक्ष ऐश्वर्य का, अनुभव करते आप।
प्रभु ‘महेन्द्र’ तुमको नमूँ, हरो सकल संताप।।४३७।।
ॐ ह्रीं महेन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूरके, अतींद्रिय सुपदार्थ।
एक समय में देखते, ‘अतींद्रियार्थदृक्’ नाथ।।४३८।।
ॐ ह्रीं अतींद्रियार्थदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय विरहित आप हैं, आत्म सौख्य परिपूर्ण।
अत: ‘अनिंद्रिय’ मुनि कहे, नमत सर्व दुखचूर्ण।।४३९।।
ॐ ह्रीं अतिंद्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिंद्रों से पूज्य प्रभु, ‘अहमिन्द्रार्च्य’ महान।
अहं अहं कह संपदा, मिले जजत ही आन।।४४०।।
ॐ ह्रीं अहमिन्द्रार्च्याय नम: अर्घ्यं निर्वपातीति स्वाहा।
बड़े-बड़े सब इन्द्र से, पूजित आप जिनेश।
सभी ‘महेंद्रमहित’ कहें नमूँ हरो भवक्लेश।।४४१।।
ॐ ह्रीं महेंद्रमहिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविध पूजा से महित, त्रिभुवन पूज्य ‘महान्’।
नमूँ सदा मैं भाव से, करो स्वात्म धनवान्।।४४२।।
ॐ ह्रीं महते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबसे ऊँचे उठ चुके, ‘उद्भव’ जगत्प्रसिद्ध।
जन्म श्रेष्ठ जग में धरा, पूजत करो समृद्ध।।४४३।।
ॐ ह्रीं उद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसृष्टि के बीजप्रभु, ‘कारण’ आप प्रसिद्ध।
भविजन मुक्ती हेतु हो, नमत कार्य सब सिद्ध।।४४४।।
ॐ ह्रीं कारणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युग कि आदि में सृष्टि के ‘कर्ता’ आप जिनेश।
असि मषि आदिक षट् क्रिया उपदेशी परमेश।।४४५।।
ॐ ह्रीं कर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवसमुद्र के पार को, पहुँचे ‘पारग’ नाथ।
मुझको पार उतारिये, नमूँ नमूँ नत माथ।।४४६।।
ॐ ह्रीं पारगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-सागर सुपांचविध, इससे तारणहार।
‘भवतारग’ तुमको जजूँ भरो सौख्य भण्डार।।४४७।।
ॐ ह्रीं भवतारगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगह्य’ न्ह अन्य के अवगाहन के योग्य।
तुम गुणपार न पा सकें, पूजत सौख्य मनोज्ञ।।४४८।।
ॐ ह्रीं अगाह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगिगम्य प्रभु अति गहन आप अलक्ष्य स्वरूप।
जजूँ ‘गहन’ अतिशय कठिन आप रूप चिद्रूप।।४४९।।
ॐ ह्रीं गहनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुह्य’ योगि गोचर तुम्हीं, सर्वजनों से गुप्त।
नमूँ नमूँ मुझ मन वसो, करो मोह अरि सुप्त।।४५०।।
ॐ ह्रीं गुह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपजाति-छंद
‘परार्ध्य’ स्वामी सबमें प्रधाना।
उत्कृष्ट ऋद्धी सुख के निधाना।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४५१।।
ॐ ह्रीं परार्ध्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘परमेश्वर’ आप ही हैं।
उत्कृष्ट मुक्ती श्रीनाथ ही हैं।।पूजूँ.।।४५२।।
ॐ ह्रीं परमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्त ऋद्धी प्रभु आप में हैं।
अत: ‘अनंतर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५३।।
ॐ ह्रीं अनन्तर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमेय ऋद्धी मर्याद हीना।
अत: ‘अमेयर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५४।।
ॐ ह्रीं अमेयर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचिन्त्य ऋद्धी निंह सोच सकते।
अत: ‘अचिन्त्यर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५५।।
ॐ ह्रीं अचित्ययर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘समग्रधी’ ज्ञेयप्रमाण बुद्धी।
कैवल्यज्ञानी प्रभु आप ही हो।।पूजूँ.।।४५६।।
ॐ ह्रीं समग्रधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! तुम मुख्य सभी जनों में।
हो ‘प्राग्र्य’ इससे मैं नित्य वंदूँ।।पूजूँ.।।४५७।।
ॐ ह्रीं प्राग्र्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक मंगल शुभ कार्य में ही।
तुम्हें स्मरते प्रभु ‘प्राग्रहर’ हो।।पूजूँ.।।४५८।।
ॐ ह्रीं प्राग्रहराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकाग्र के सम्मुख हो रहे हो।
‘अभ्यग्र’ इससे मुनिनाथ कहते।।पूजूँ.।।४५९।।
ॐ ह्रीं अभ्यग्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रत्यग्र्’ नूतन संपूर्ण जन में।
प्रभो! विलक्षण तुम ही कहाते।।पूजूँ.।।४६०।।
ॐ ह्रीं प्रत्यग्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सभी के तुम ‘अग्र्य’ मानें।
मैंने शरण ली अतएव आके।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४६१।।
ॐ ह्रीं अग्र्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण जन में प्रभु अग्रसर हो।
अतएव ‘अग्रिम’ कहते सुरेंद्रा।।पूजूँ.।।४६२।।
ॐ ह्रीं अग्रिमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ज्येष्ठ सबमें ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलाक्य में नाथ तुम्हीं बड़े हो।।पूजूँ.।।४६३।।
ॐ ह्रीं अग्रजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।४६४।।
ॐ ह्रीं महातपसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज फैला ।।पूजूँ.।।४६५।।
ॐ ह्रीं महातेजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महोदर्क’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।४६६।।
ॐ ह्रीं महोदर्काय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जग में तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४६७।।
ॐ ह्रीं महोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कीर्ती चहूँदिश प्रभु की सुपैली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।पूजूँ.।।४६८।।
ॐ ह्रीं महायशसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! महाधाम तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारी।।पूजूँ.।।४६९।।
ॐ ह्रीं महाधाम्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवो।।पूजूँ.।।४७०।।
ॐ ह्रीं महासत्त्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।पूजूँ.।।४७१।।
ॐ ह्रीं महाधृत्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
क्षोभादि भय से निंह आकुली थे।।पूजूँ.।।४७२।।
ॐ ह्रीं महार्धर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्य शाली।।पूजूँ.।।४७३।।
ॐ ह्रीं महावीर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।पूजूँ.।।४७४।।
ॐ ह्रीं महासंपदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में निंह अन्य के हो।।पूजूँ.।।४७५।।
ॐ ह्रीं महाबलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखरणी-छंद
‘महाशक्ती’ धारो त्रिभुवन गुरू आप सच में।
महा उत्साही थे बहुविध तपा आप तप भी।।
प्रभू की नामावलि नित प्रति जपूँ भाव मन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक् कर लूँ आत्म तन से।।४७६।।
ॐ ह्रीं महाशक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाज्योती’ स्वामी, अद्भुत परंज्ञानमय हो।
मुझे ज्ञानज्योती झटिति प्रभु दो पूर्ण सुख हो।।प्रभू.४७७।।
ॐ ह्रीं महाज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाभूती’ स्वामी, विभव अतिशायी जगत में।
प्रभो राजें सिंहासन मणिमय पे अधर ही।।४७८।।
ॐ ह्रीं महाभूतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू की जो शोभा ‘महाद्युति’ नामा धरत है।
नहीं ऐसी कांती रतनमणि में भी दिखत है।।प्रभू.।।४७९।।
ॐ ह्रीं महाद्युतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाबुद्धी पूर्णा ’महामति’ का नाम धरती।
हमें भी दे दीजे सुमति भगवन्! होय सुगती।।प्रभू.।।४८०।।
ॐ ह्रीं महामतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानीती’ धारो सकल जन का न्याय करते।
महा दुष्कर्मों से अलग करके सौख्य भरते।।प्रभू.।।४८१।।
ॐ ह्रीं महानीतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाक्षान्ती’ स्वामी परम करुणा भव्य जन पे।
निकालो दु:खों से करम अरि को माफ करते।।प्रभू.।।४८२।।
ॐ ह्रीं महाक्षान्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महादय’ हो स्वामी, सकल भवि प्राणी पर दया।
किया शिष्यों से भी सतत पलवायी अिंहसा।।प्रभू.।।४८३।।
ॐ ह्रीं महादयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाविद्वान् भगवान शिवप्रद ‘महाप्राज्ञ’ तुम हो।
मुझे दीजे बुद्धी भवदधि तरूँ युक्ति करके।।प्रभू.।।४८४।।
ॐ ह्रीं महाप्राज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाभागी स्वामी सुखकर ‘महाभाग’ तुम हो।
महा पूजा पायी सुरपति किया भक्ति रुचि से।।प्रभू.।।४८५।।
ॐ ह्रीं महाभागाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजानंदात्मा हो सुखमय ‘महानंद’ प्रभु हो।
मुझे दीजे स्वामी सकल सुखकर मोक्षपदवी।।प्रभू.।।४८६।।
ॐ ह्रीं महानंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकवि’ हे स्वामिन्! सकल सुखदायी वचन हैं।
प्रभो दीजे शक्ती मुझ वचन सिद्धी प्रगट हो।।प्रभू.।।४८७।।
ॐ ह्रीं महाकवये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामह’ हे स्वामिन्! सुरपति करें आप अर्चा।
महा तेजस्वी हो अखिल जनता सौख्य भरता।।प्रभू.।।४८८।।
ॐ ह्रीं महामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकीर्ती’ स्वामी सुयश तुम व्यापा भुवन में।
प्रभू पादाम्बुज को सतत प्रणमूँ स्वात्मनिधि दो।।प्रभू.।।४८९।।
ॐ ह्रीं महाकीर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्ती’ धारो अतुल छवि है आप तनु की।
सभी आधी व्याधी हरण करके स्वस्थ कर दो।।प्रभू.।।४९०।।
ॐ ह्रीं महाकान्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ऊँचे देही, ‘महावपु’ तुम ही चरम हो।
मिटा दो बाधायें विघ्न हरता आप जग में।।प्रभू.।।४९१।।
ॐ ह्रीं महावपुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अिंहसा जीवों की अभयद ‘महादान’ करते।
हमारी रक्षा भी झटिति प्रभु कीजे जगत् से।।प्रभू.।।४९२।।
ॐ ह्रीं महादानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! केवलज्ञानी युगपत् ‘महाज्ञान’ गुण से।
सभी लोकालोकं विशद त्रयकालिक लखत हो।।प्रभू.।।४९३।।
ॐ ह्रीं महाज्ञानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! एकाग्री हो शिवप्रद ‘महायोग’ गुण से।
स्वयं में ही साधा निजसुख महाध्यान बल से।।प्रभू.।।४९४।।
ॐ ह्रीं महायोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों की खानी हो अतिशय ‘महागुण’ मुनि कहें।
गुणों को दे दीजे सकल मुझ दोषादि हन के।।४९५।।
ॐ ह्रीं महागुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमेरू पे तेरा न्हवन करते इंद्रगण भी।
महापूजा पायी ‘महामहपति’ आज जग में।।प्रभू.।।४९६।।
ॐ ह्रीं महामहपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरेंद्रों के द्वारा प्रभु ‘प्राप्तमहाकल्याणपंचक’।
गरभ जन्मादी में उत्सव देवगण ने।।प्रभू.।।४९७।।
ॐ ह्रीं प्राप्तमहाकल्याणपंचकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी के स्वामी हो अतिशय ‘महाप्रभु’ भुवन में।
निवारो मोहारी बहुत दुख देता जु मुझको।।प्रभू.।।४९८।।
ॐ ह्रीं महाप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रातीहार्याधिश’ चमर छत्रादिक लहा।
शतेंद्रों से पूजित त्रिभुवन विभव आप चरणों।।प्रभू.।।४९९।।
ॐ ह्रीं महाप्रातिहार्याधीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेश्वर’ हो स्वामी सुरपति अधीश्वर तुमहि हो।
सुभक्ती से वंदूँ झटिति शिवलक्ष्मी वरद हो।।प्रभू.।।५००।।
ॐ ह्रीं महेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंभु-छंद
श्री वृक्षलक्षणादिक सौ ये तुम नाममंत्र अतिशयकारी।
मैं पूजूँ ध्याऊँ भक्ति करूँ, पा जाऊँ निज संपति सारी।।
बहिरात्म अवस्था छोड़ नाथ! अंतर आतम शुद्धात्म बनूँ।
तुम भक्ति युक्ति से शक्ति पाय मुक्तिपद पा जिनराज बनूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम धुनि सुन भविवृन्द नित, हरें सकल संताप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय त्रिभुवन पति का वैभव, अन्तर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्श ज्ञान सुख वीर्य रूप, आनन्त्य चतुष्टय निधिमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानीं।
जब गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
द्वादश योजन उत्कृष्ट कही, इक योजन हो घटते क्रम से।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, जो अनुपम शोभा धारे है।।
सब बीस हजार हाथ ऊँचा, यह समवसरण अति शोभा है।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभे।।४।।
पंगू अन्धे रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महावीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तम्भ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
इक योजन से कुछ अधिक तुँग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएँ राजें।
मनस्तम्भों की सीढ़ी पर लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये अस्सी कोशों तक सचमुच, अपना प्रकाश पैâलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तम्भों के चारों दिश, जल पूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अति सुन्दर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
ये प्रभु का सन्निध पा करके, ही मान गलित कर पाते हैं।
अतएव सभी अतिशय भगवन्! तेरा ही गुरूजन गाते हैं।।
मैं भी प्रभु तुम सन्निध पाकर, संपूर्ण कषायों को नाशूँ।
प्रभु ऐसा वह दिन कब आवे, जब निज में निज को परकाशूँ।।८।।
जिननाथ! कामना पूर्ण करो, जिन चरणों में आश्रय देवो।
जब तक निंह मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित स्थिर हो जावें।
जब तक निंह केवल ‘ज्ञानमती’, तब तक मम मन तुम पद ध्यावें।।९।।
-दोहा-
तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत के पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां श्रीवृक्षलक्षणादिशतनाममंत्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-