श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण पाठ में धर्मध्यान के दश भेद कहे हैं—
‘दसण्णं धम्मज्झाणाणं। दससु धम्मज्झाणेसु।
दससु धम्मज्झाणेसु दसविह धम्मज्झाणाणं।
मुनिचर्या पृ. २४, १३५, १७०, २३१।टीकाकार
श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने उनके नाम व लक्षण दिये हैं— अपायविचय उपायविचय विपाकविचय विरागविचय लोकविचय भवविचय जीवविचय आज्ञाविचय संस्थानविचय संसारविचय ये १० धर्मध्यान है। चारित्रसार में भी धर्मध्यान के दश भेद कहे हैं—प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी पृ. १४७-१४८। वह शुभ ध्यान दो प्रकार का है—एक धम्र्यध्यान और दूसरा शुक्लध्यान। उनमें भी बाह्य और अभ्यंतर के भेद से धम्र्यध्यान भी दो प्रकार का है। जिसे अन्य लोग भी अनुमान से जान सक़ उसे बाह्य धम्र्यध्यान कहते हैं। सूत्रों के अर्थ की गवेषणा (विचार या मनन करना), व्रतों को दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ, पैर, मुंह आदि शरीर का परिस्पंदन और वाग् व्यापार को बन्द करना, जम्भाई लेना, जम्भाई के उद्गार प्रकट करना, छींकना तथा प्राण अपान का उद्रेक आदि सब क्रियाओं का त्याग करना बाह्य धम्र्यध्यान है। जिसे केवल अपनी ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आध्यात्मिक धम्र्यध्यान, अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय के भेद से दस प्रकार का है।चारित्रसार पृ. १५८। जिसने देखे, सुने और अनुभव किये हुये सब दोष छोड़ दिये हैं, जिसके कषायों का उदय अत्यन्त मंद है और जो अत्यन्त श्रेष्ठ भव्य है उसी के यह दसों प्रकार का धम्र्यध्यान होता है। मूलाचार में धम्र्यध्यान के चार भेद माने हैं—
गाथार्थ — एकाग्रतापूर्वक मन को रोककर उस धर्म का ध्यान करो जिसके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं।।३९८।। ज्ञानार्णव ग्रन्थ में भी चार भेद हैं-आज्ञापायविपाकानां क्रमश: संस्थितेस्तथा।
विचयो य: पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चर्तुिवधम्।।५।।
ज्ञानार्णव—सर्ग—२३, पृ. २६२।
अर्थ — आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान इनका भिन्न—भिन्न विषय (विचार) अनुक्रम से करना ही धर्मध्यान के चार प्रकार हैं। ऐसे ही श्री उमास्वामी आचार्य ने भी चार भेद कहे हैं—
आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धम्र्यं।।३६।। तत्त्वार्थसूत्र अ. ९ सूत्र ३६,
आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय
ये धर्मध्यान के चार भेद हैं। षट्खंडागम ग्रन्थ धवला पु. १३ में धर्मध्यान को दशवें गुणस्थान तक एवं मूलाचार में भी दशवें तक माना है। यथा—
‘‘असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अपमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद-सुहुमसांपरायखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदित्ति जिणोवएसादो।।षटखंडागम, धवला पु. १३ पृ. ७४।’’असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय इन चौथे से दशवें गुणस्थानों तक धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है। मूलाचार में कहा है—उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं।।४०४।।
मूलाचार पृ. ३१८ गाथा ४०४।
गाथार्थ — उपशान्तकषाय मुनि पृथक्त्ववितर्ववीचार नामक शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं। क्षीणकषाय मुनि एकत्ववितर्व अवीचार नामक ध्यान करते हैं।।४०४।। उपशांतकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्व वीचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान है इससे स्पष्ट है कि इससे पूर्व दशवें तक धर्मध्यान है। भगवती आराधना में भी ग्यारहवें गुणस्थान में प्रथम शुक्लध्यान, बारहवें में द्वितीय, तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली के तृतीय शुक्लध्यान एवं चौदहवें गुणस्थान में चतुर्थ शुक्लध्यान होता है। अत: इससे पूर्व दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान है।
गाथार्थ — दूसरे शुक्लध्यान का नाम एकत्ववितर्व है क्योंकि इसमें एक ही योग का अवलम्बन लेकर एक ही द्रव्य का ध्यान किया जाता है। अतः एक द्रव्य का अवलम्बन लेने से इसे एकत्व कहते हैं। यह ध्यान किसी एक योग में स्थित आत्मा के ही होता है। इसका स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि होता है।।
गाथार्थ — काययोग का निरोध करके अयोगकेवली औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों का नाश करता हुआ अन्तिम शुक्लध्यान को ध्याता है। सूक्ष्म काययोगरूप आत्मपरिणाम वाला सयोगकेवली तीसरे शुक्लध्यान को ध्याता है और अयोगरूप आत्मपरिणाम वाला अयोगकेवली चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता है। यह तीसरे और चतुर्थ शुक्लध्यान में भेद है।।१८८३।। तत्त्वार्थसूत्र की टीका में श्रेणी में प्रथम शुक्लध्यान माना है एवं श्रेणी चढ़ने से पूर्व तक ही धर्मध्यान माना है देखिये—
अर्थात् श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में आदि के दो-दो शुक्लध्यान होते हैं ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। हमारे लिये ये सभी आचार्य प्रमाण हैं अतः उन-उन ग्रन्थों के अनुसार मान्यता रखनी चाहिये। एक ग्रन्थ में दूसरे ग्रन्थ से परिवर्तन नहीं करना चाहिये।