(४०)
सीमा से दूर अयोध्या के वहाँ अपनी कुटी बनायेंगे।
व्याकुलचित अपनी माओं को, हम वहीं बुलाकर लायेंगे।।
इक दिन दंडकवन में नभ से, आये सुगुप्ति और गुप्तिमुनि।
सीता के संग आहार दिया, तब हुई गगन से पुष्पवृष्टि।।
(४१)
सामने वृक्ष पर था बैठा, इक गीध पक्षी भी देख रहा।
आहार देखने से उसको, उस क्षण ही जातिस्मरण हुआ।।
आकुल—व्याकुल हो गया तभी, चरणोदक पीकर शांति मिली।
पर कैसा चमत्कार देखो, बन गया तभी वह रत्नमयी।।
(४२)
बन गयी चोंच मूँगे सदृश, अरु नीलमणी के बने पैर ।
अपना यह बदला रूप देख, नाचता रहा वह बहुत देर।।
आहार अनंतर मुनिश्री के ,चरणों में गिरकर रुदन किया।
तब रामचंद्र ने कौतुक से, भरकर मुनिवर से प्रश्न किया।।
(४३)
हे मुनिवर! इस विचित्र पक्षी का, बतलाएँ क्या किस्सा है ?
पहले ये दंडक राजा था, ये उसी देश का हिस्सा हैं।।
था जैनधर्म का विद्वेषी, मुनियों को भारी दुख दिया।
तब सातशतक मुनिराजों को, घानी में इसने पेल दिया।।
(४४)
इतना भारी अनर्थ देख इक, मुनि की ज्वाला भड़क उठी।
सम्पूर्ण देश को भस्म किया, निर्मम धरती भी धधक उठी।।
हे राम! तुम्हारे आने से, यह शुष्क धरा पल्लवित हुई।
इस पक्षिराज के पुण्य उदय से, कर्मगति कुछ मंद हुई।।
(४५)
इसलिए समागम मिला इसे, निग्र्रंथ दिगंबर मुनियों का।
सिर हिलाहिला झुककर उसने, संकेत दिया व्रत पालन का।।
सीता भी मंद हास्य करती, निज हाथों से स्पर्श करे।
पैरों में घुंघरू पहनाए, वह तरह तरह के नृत्य करे।।
(४६)
आहारदान के फलस्वरूप, उनको सम्पदा मिली भारी ।
ऐसा सुंदर रथ मिला उन्हें, जिसमें जुत रहे चार हाथी।।
श्रीराम लखन सीता के संग, रथ पर सवार होकर घूमें।
लेकर जटायु को साथ—साथ, वे चारों मिल क्रीड़ा करते।।