यहाँ खतौली में १२ अप्रैल से १६ अप्रैल तक महावीर जयंती के उपलक्ष्य में विशेष आयोजन हुआ। प्रतिदिन हजारों नर-नारियों ने मेरे प्रवचन का लाभ लिया। अनन्तर वहाँ के लाला शीतलचंद जी आढ़ती, लाला धनप्रकाश, नरेन्द्र कुमार सर्राफ आदि ने आग्रह किया कि- ‘‘माताजी! आप गर्मी-गर्मी यहीं विराजें, हम लोग उपदेश आदि का लाभ उठायेंगे। पुनः ग्रीष्मावकाश के दिनों में मेरी प्रेरणा से मोतीचंद, रवीन्द्रकुमार ने यहाँ शिक्षण शिविर का आयोजन कराया। २ जून १९७६ से १६ जून १९७६ तक यहाँ सम्यग्ज्ञान शिक्षण शिविर लगाया गया।
इसमें बालकों से लेकर वृद्धों ने, बालिकाओं से लेकर महिलाओं ने फार्म भरे और अध्ययन किया। इसके संयोजक अमरचंद जैन सर्राफ थे। जब श्री शीतलप्रसाद जैन आढ़ती, प्रमाण-पत्र लेने के लिए उठे और उनके सुपुत्र अमरचन्द जैन संयोजक ने उन्हें प्रमाण-पत्र दिया, तब सभी लोगों ने तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया। इस शिविर में बालविकास, छहढाला, द्रव्यसंग्रह पद्य, समाधितन्त्र पद्य, तत्त्वार्थसूत्र विषय पढ़ाये गये थे। यहाँ से मैंने शाहपुर, सोरम आदि गांवों में विहार किया पुनः खतौली समाज की अत्यधिक प्रेरणा से यहाँ वापस आ गई और यहीं वर्षायोग स्थापित किया।
इन्द्रध्वज विधान रचना
यहाँ मैंने श्रावण कृष्णा सप्तमी से ‘इन्द्रध्वज विधान’ बनाना शुरू किया। आहार के बाद से सायं ६ बजे तक मैं मौन रहती थी और विधान की पूजाएँ बनाती रहती थी। कदाचित् बाहर से आये यात्रियों के लिए कुछ समय मौन छोड़कर वार्तालाप कर लेती थी। यहाँ मेरी दैनिक चर्या इस प्रकार थी- प्रातः चार बजे से उठकर अपररात्रिकस्वाध्याय, रात्रिकप्रतिक्रमण और सामायिक करके शौचादि से निवृत्त होकर मैं रवीन्द्र, मालती, माधुरी, त्रिशला, मंजू इन सबको ६ से ७ बजे तक कातन्त्र व्याकरण पढ़ाती, ७ से ८ तक समयसार का स्वाध्याय चलाती, अनन्तर ९ से १० बजे तक प्रवचन करती, उसके बाद आहार के लिए जाती, वहाँ से आकर मौन धारण कर सामायिक आदि करके इन्द्रध्वज विधान की रचना में लग जाती।
सायंकाल पुनः ६ बजे मौन छोड़कर प्रतिक्रमण करती, अनन्तर सामायिक के बाद पुनः कभी लिखती, कभी जल्दी विश्राम करती।’’ यह इन्द्रध्वज विधान दीपावली की मंगल बेला में मैंने पूर्ण कर लिया। एक कपड़े में मेरे सारे के सारे पेज लपेटे हुए थे। बंधन से गाँठ न लगाकर यूँ ही बस्ता बांध दिया। यहाँ बंदर बहुत थे। एक दिन एक मोटा बंदर आया और वह कमरे से बस्ता लेकर छत पर भाग गया। मैं देखती रह गई। मेरे तो होश-हवाश गुम हो गये- ‘‘अरे भगवन् । यह क्या हुआ? मै पुनः इस जीवन में ऐसी लिखी पूजाओं में से वापस एक पंक्ति भी नहीं लिख सकती हूँ।’’
मुझे तो ऐसा लगा कि मेरे प्राण ही निकल रहे हैं। मोतीचंद अपने कमरे से दौड़े और बोले- ‘‘माताजी! शांति रखो, शांति रखो।’’ मैं णमोकार मंत्र जपने लग गई। मोतीचन्द ऊपर छत पर जाकर बंदर को कुछ खाने का लोभ देने लगे, जैसे-तैसे उसने वह बस्ता छोड़ दिया जो कि एक छत पर जा गिरा। पुण्ययोग से न तो बंदर ने उसे फाड़ा, न कागज फाड़े और गिरने पर भी वह बस्ता नहीं खुला, जबकि वेष्टन में गाँठ नहीं लगी हुई थी, फिर भी जैसे का तैसा सुरक्षित मिल गया। मैंने उसे हाथ में लेकर माथे पर चढ़ाया, सिर पर रखा और अपने भाग्य को सराहा।
इसके बाद मोतीचन्द ने उस विधान की चार टाइप कापियाँ करवा लीं। यहाँ इस विधान को प्रथम बार कराने के लिए कई महानुभाव तैयार थे। मोतीचन्द ने मिट्टी के चार सौ अट्ठावन मंदिर बनवाये, उन्हें अवे में पकवाकर रंग कराया, चार सौ अट्ठावन ध्वजाएं बनवायीं एवं उनमें दस प्रकार के चिन्ह लगाने के लिए दस प्रकार के लकड़ी के ठप्पे बनवाये। सारी व्यवस्था विधान की बन चुकी थी। इसी मध्य यहाँ एक ब्र. आनन्दस्वरूप जी थे। उन्होंने एक प्रपंच खड़ा कर दिया कि- ‘‘माताजी ने इन ध्वजाओं के लिए जो बैल आदि के चिन्ह बनवाए हैं, यदि ये ध्वजाएँ मंदिर पर लगेंगी तो पूजा में पशुबलि का दोष लगेगा।’’ मैंने यह चर्चा सुनी तो उन्हें बुलाकर धवला, जयधवला, तिलोयपण्णत्ति आदि के प्रमाण दिखाने चाहे कि इन महाग्रंथों में वर्णन है कि समवसरण में और अकृत्रिम मंदिरों की ध्वजाओं में ये दशविध के चिन्ह रहते हैं। वर्तमान में भी तेरहपंथी के सिरमौर विद्वान् पंडित नाथूलाल जी ने स्वयं इस चिन्ह के श्लोक का अर्थ करके भेजा था और लिखा था-
‘‘आजकल कुछ विद्वान् अंशुक की जगह शुक पाठ लेकर तोते का चिन्ह बनवाते हैं इत्यादि। उनका पत्र आज भी रवीन्द्र कुमार के पास फाइल में लगा हआ है किन्तु खेद की बात यह रही कि ब्रह्मचारी जी मेरे पास आये ही नहीं, बाहर ही बाहर प्रपंच उठकर विधान का आयोजन स्थगित हो गया। मुझे कोई विशेष दुख नहीं हुआ। वहाँ से विहार कर मैं हस्तिनापुर आ गई। यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान् महावीर स्वामी के सामने पांडाल बनाकर यह विधान टाइप कापियों से ही कराया। सर्वप्रथम विधान कराने का श्रेय श्री विपिन चंद जैन पहाड़ी धीरज दिल्ली और लाला उग्रसेन जैन पहाड़गंज दिल्ली वालों ने प्राप्त किया। इस विधान को बनाने के लिए प्रार्थना करने वाले श्री मदनलाल चांदवड़ रामगंजमंडी ने भी इसमें भाग लिया।
यह विधान २६ फरवरी से ७ मार्च १९७७ तक सम्पन्न हुआ। यह मंडल विधान सर्वप्रथम तीर्थक्षेत्र पर कल्पवृक्षस्वरूप भगवान् महावीर की प्रतिमा के सानिध्य में सम्पन्न हुआ, इसकी मुझे अत्यन्त प्रसन्नता रही। आज कुछ लोग कोई कार्य प्रारंभ करते हैं यदि उसमें प्रारंभ में विघ्न-बाधाएँ आ जाती हैं तो प्रायः हताश हो जाते हैं और कहते हैं-‘प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः किन्तु मैंने देखा है कि प्रायः मेरे हर कार्य में विघ्न-बाधाओं की भरमार रही है फिर भी वे सफल हुए, आशातीत सफल हुए हैं। आप इस विधान को ही ले लीजिये, इसके प्रारंभिक आयोजन में कतिपय लोगों ने विघ्न डाल दिया लेकिन आज आप देखें-सन् १९७६ से लेकर १९८७१ तक सारे भारतवर्ष में हर प्रांत में और हर संघों में यह विधान कितनी बार हो चुका है और कितना जनप्रिय बन चुका है? शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि जिसमें यह विधान कहीं न हो रहा हो।
आज तो कई जगह धातुओं के चार सौ अट्ठावन जिन मंदिर बनाये जा चुके हैं और चार सौ जिन प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित कराकर लोग विधान करा रहे हैं। अस्तु! इस विषय में यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त है। इसी सन् १९७६ में मैंने हस्तिनापुर में नियमसार का हिन्दी अनुवाद पूर्ण किया। दशलक्षण धर्म के पद्य संस्कृत और हिन्दी में बनाया। ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास और ‘रोहिणी’ नाटक लिखा तथा यहाँ खतौली में ‘दीपावली पूजन विधि’ एवं ‘व्रत विधि एवं पूजा’ नाम से पुस्तके लिखी हैं।
खतौली में दशलक्षण पर्व
यहाँ दशलक्षण पर्व में बड़ा बाजार स्थित ठाकुरद्वारे के प्रांगण में पांडाल बनाया गया था। उसमें प्रतिदिन ८ से ९ बजे तक मेरा एक-एक धर्म पर प्रवचन होता था। मध्यान्ह में तत्त्वार्थसूत्र की एक-एक अध्याय का अर्थ सहित विवेचन होता था। प्रातःकाल के प्रवचन में जैन और जैनेतर बड़ी संख्या में आकर धर्मलाभ लेते थे। यहाँ चातुर्मास स्थापना के दिन नगरपालिका टंकी मैदान में मेरा केशलोंच सम्पन्न हुआ था, जिसे भी अनेकों जैन-जैनेतरों ने देखा।
खासकर आर्यिका की चर्या और केशलोंच की कठोर वीरचर्या देखने का जैनेतर लोगों के लिए प्रथम अवसर था। ललितपुर में १३ जून १९७६ से २० जून १९७६ तक अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद का नैमित्तिक अधिवेशन बहुत बड़े समारोह से सम्पन्न हुआ था। उस अवसर पर यहाँ से मोतीचन्द और रवीन्द्रकुमार गये हुए थे। वहाँ अनेक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास हुए थे और मदनलाल चांदवड़ ने कहा था कि- ‘‘पूज्य माताजी से मेरी ओर से प्रार्थना कर दीजिये कि वे ‘इन्द्रध्वज विधान’ बना दें….इत्यादि।’’ वहाँ से आकर इन दोनों ने मुझसे प्रार्थना की।
मैं उस समय हस्तिनापुर से तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार आदि इस उद्देश्य से साथ में लेकर खतौली गई थी कि मुझे तीन लोक मंडल विधान बनाना है पुनः मदनलाल की प्रार्थना से मैंने इन्हीं ग्रंथों के आधार से वहां पर इन्द्रध्वज विधान बनाया था पुनः तीन लोक मंडल विधान बनाने का अवसर सन् १९८६ में आया। यह विधान ‘सर्वतोभद्र’ नाम से बनाया है और इसे ७ फरवरी १९८७ के दिन पूर्ण किया है। खतौली चातुर्मास के बाद मैं हस्तिनापुर वापस आ गई।