फलटण जिला सतारा, महाराष्ट्र में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के सानिध्य में और मुनिश्री सिद्धसेन जी महाराज के सानिध्य में, मुनिश्री सिद्धसेन जी की प्रेरणा विशेष से, २९-१२-१९७६ से ३-१-१९७७ तक एक विशेष भव्य सम्मेलन समारोह रखा गया था। इसमें शास्त्री परिषद का ५४वां अधिवेशन था। दिगम्बर जैन विद्वत् सम्मेलन, दिगम्बर जैन मुनि सम्मेलन, दिगम्बर जैन भट्टारक सम्मेलन और दिगम्बर जैन तीर्थ सम्मेलन के आयोजन रखे गये थे।
पहले से ही यह घोषणा हो चुकी थी कि इस आयोजन में दिगम्बर जैन मुनि मार्ग की रक्षा और आर्ष परम्परा की रक्षा हेतु अनेक प्रस्ताव पास किये जायेंगे। जिसमें कानजी पंथ का दृढ़ता से विरोध रहेगा। इस कार्यक्रम में सफल आयोजक मोहनलाल गुलाबचंद गांधी, मानिकचंद वीरचंद गांधी और आनंद लाल जीवराज दोशी फलटण के थे। पं. बाबूलाल जमादार भी इसमें प्रमुख थे। इस अवसर पर यहाँ से मोतीचन्द और रवीन्द्रकुमार भी गये हुए थे।
वहां पर अनेक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किये गये जो अन्यत्र सम्यग्ज्ञान आदि में छप चुके हैं। वहाँ साधु संघ के साथ भट्टारक समुदाय एवं विद्वत् समूह अधिक रूप में उपस्थित थे। वहीं पर अखिल भारतवर्षीय जैन युवा परिषद का गठन किया था। वर्तमान में उसके अध्यक्ष ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन (हस्तिनापुर) हैं। उधर यह अधिवेशन का कार्यक्रम चल रहा था। मैं इधर हस्तिनापुर के शांतिनाथ मंदिर के बाहर धूप में बैठकर लेखन आदि कार्य किया करती थी। तभी मेरठ आदि के कई एक विशिष्ट महानुभाव मेरे पास आये और बौखलाते हुए बोले- ‘‘माताजी! यह जो ललितपुर में प्रस्ताव पास हुआ और अभी जो फलटण में प्रस्ताव पास होंगे, इन सब काँजीपंथ विरोधी कार्यों के प्रति हम लोगों को बहुत ही क्षोभ है।
यद्यपि हम लोग अभी तक कानजीपंथ सोनगढ़ विरोधी थे, फिर भी अब हम लोग इस इलाके में गांव-गांव में, घर-घर में सोनगढ़ विद्वानों को छा देंगे। उन्हें बुला-बुलाकर सर्वत्र उनका प्रचार करेंगे-करायेंगे। दिन-दूना-रात-चौगुना उनका विस्तार करते हुए आप लोगों की नाक में दम कर देंगे।’’ मुझे यह सब सुनकर बहुत ही आश्चर्य हुआ। मैं कुछ हंसी और बोली- ‘‘भाई! कार्यक्रम तो मेरे से बहुत दूर फलटण में हो रहा है और आप लोग यहाँ मेरे पास क्यों नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं?’’ तभी एक महानुभाव बोले- ‘‘माताजी! यह पं. बाबूलाल जमादार इन सबमें शामिल है और वह आपके संस्थान से जुड़ा हुआ है। दूसरी बात, आपके शिष्य मोतीचन्द, रवीन्द्रकुमार भी तो वहाँ गये हुए हैं।
तीसरी बात, आप स्वयं उन विचारों से सहमत हैं ।’’ मैंने कहा-‘‘हाँ! यह कहना तो आपका सर्वथा सत्य है क्योंकि मैं कभी भी गुरु परम्परा, आर्ष परम्परा का ही पक्ष लूँगी। चाहे जो भी हो, कानजी पंथी विचारों का पक्ष तो मेरे द्वारा असंभव ही है।’’ खैर! मैंने उन्हें आर्ष परम्परा के गुण और कानजीपंथ के दोषों को समय-समय पर बताया भी था, पुनः बताने का प्रयास किया, किन्तु ये लोग बोले- ‘‘आपकी विचारधारा के लोग तीर्थ क्षेत्रों का ‘सर्वे’ या संरक्षण कुछ करते तो हैं नहीं और वे लोग करते हैं, खुले हाथ से पैसा देते हैं तो आप उनकी विचारधारा क्यों नहीं अपनाते?’’ मैंने कहा-पैसे के या कार्य करने के लोभ में, धर्म की सत्य परम्परा को छोड़कर गलत और एकांत परम्परा नहीं अपनाना चाहिए।’’ पूज्यपाद स्वामी की सूक्ति है- ‘क्षुद्व्यावृत्त्यै कवलयति कः कालकूटं बुुभुक्षुः’ भूख को दूर करने के लिए कोई भी भूखा मनुष्य कालकूट विष नहीं खाता है। खैर! उन महानुभावों ने बार-बार यही कहा कि- ‘‘आप बाबूलाल जमादार को अपनी संस्था से हटा दें अन्यथा हम आपका, आपके द्वारा स्थापित संस्थान का भी जोरदार विरोध करेेंगे।’’ ऐसे धमकी भरे वचनों से भला मुझ पर क्या असर होने वाला था?
सुदर्शन मेरु निर्माण
इधर सुदर्शन मेरु पर्वत का निर्माण कार्य चल रहा था। नींव की भराई होकर लगभग नन्दन वन तक ऊँची दीवारें उठ चुकी थीं। दिल्ली, रुड़की आदि के इंजीनियर लोग अवैतनिक सेवा दे रहे थे। डा. ओ.पी. जैन विश्व के विख्यात रुड़की विश्वविद्यालय के ख्याति प्राप्त हैड ऑफ द डिपार्टमेंट सिविल इंजीनियर हैं। उन्होंने इसको बनवाया है। फिर भी एक प्रबुद्ध मुनि ने सुमेरु पर्वत के लिए पता नहीं क्यों, लोगों से कहना शुरू किया- ‘‘वहाँ हस्तिनापुर में आर्यिका ज्ञानमती जी एक बहुत बड़ा कुंआ बनवा रही हैं, क्या आपने देखा नहीं? .’’
कई एक लोगों ने मेरे से यह बात बताई। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और विचार करने लगी- ‘‘अहो! आज तक मैंने किसी भी मुनि के द्वारा कराये जाने वाले किसी भी कार्य का विरोध नहीं किया है और वे मुनि तो स्वयं ही ऐसे निर्माण आदि कार्यों के करने-कराने के पक्षधर हैं पुनः ऐसा गलत प्रचार क्यों कर रहे हैं?’’ ऊहापोह करने के बाद भी यही समझ में आया कि वे केवल ईर्ष्यावश ही किन्हींं-किन्हीं से ऐसा बोल देते हैं। प्रायः बाहर में तो मौन ही हैं, न यहाँ का प्रचार करते हैं न अप्रचार।
हस्तिनापुर क्षेत्र पर चातुर्मास
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के पदाधिकारियों की प्रेरणा से मेरा यह १९७६ का चातुर्मास यहीं हस्तिनापुर क्षेत्र पर करने का निर्णय रहा। इस चातुर्मास में प्रातः समयसार, मूलाचार आदि ग्रंथों के स्वाध्याय के साथ-साथ ही मध्यान्ह में मैं, कु. माधुरी आदि को अध्ययन भी कराती थी। यहाँ पर ‘दिगम्बर मुनि’ , ‘आराधना’, ‘वर्षायोग’, ‘धरती के देवता’ और ‘पंचमेरु विधान’ ऐसे पाँच ग्रंथ रचे। इसमें आराधना पुस्तक संस्कृत के ४४४ श्लोकों में रची। यह मूलाचार, आचारसार, अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों के आधार से मुनि और आर्यिका चर्या को समझने के लिए एक लघु पुस्तिका है।
‘वर्षायोग’ पुस्तिका को सम्यग्ज्ञान के जुलाई सन् १९७७ में खास अंक बनाकर ‘वर्षायोग अंक’ नाम से निकाला गया। इस अंक को अनेक साधुओं, भट्टारकों एवं विद्वानों ने बहुत पसंद किया था। इस जुलाई १९७७ में सुमेरु पर्वत का निर्माण ७२ फुट ऊँचाई तक हो रहा था पुनः २५ दिसम्बर को ८१ फुट तक ऊँचा पूरा बन चुका। इसमें जब-जब लेंटर पड़ने का कार्य शुरू हुआ, इस वर्ष प्रायः उस समय ऐसा लगता कि अभी मूसलाधार बारिश आयेगी किन्तु मैं सामने ही भगवान् महावीर के मंदिर के चबूतरे पर बैठ जाती और जाप्य करती रहती।
पूरा लेंटर पड़ जाने के बाद प्रायः रात्रि में वर्षा होती, तब इन कार्यकर्ताओं को इतनी प्रसन्नता होती कि फूले नहीं समाते और बोलते- ‘‘माताजी! इस रात्रि में जलवृष्टि ने तो अमृत वर्षा का काम कर दिया, हमारा सुमेरु का लेंटर खूब मजबूत हो गया। खूब अच्छी तराई हो गई है।’’ यह था चमत्कार भगवान महावीर स्वामी का और सुमेरु पर्वत का! मेरे संघ का यह चातुर्मास यहीं हस्तिनापुर बड़े मंदिर पर सम्पन्न हुआ। यहाँ श्रावण में मुझे मलेरिया ज्वर आने लगा। हर तीसरे दिन सर्दी लगकर ज्वर चढ़ता था। इससे मेरे स्वास्थ्य में बहुत कमजोरी आ गई थी, फिर भी यथाशक्य मैं इस शरीर से लेखन कार्य ले रही थी।
प्रशिक्षण शिविर
१४ मई से १८ मई १९७८ तक भिंडर में आचार्यश्री धर्मसागर जी के सानिध्य में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। इस अवसर पर यहाँ संघ से मोतीचन्द और रवीन्द्रकुमार भी गये हुए थे। वहाँ पर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा का रजत जयंती अधिवेशन हुआ। वहाँ पर सभी श्रेष्ठीवर्ग और विद्वत्वर्ग में यह चर्चा हो रही थी कि ‘‘हम लोग विद्वानों के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाना चाहते हैं। हमें पूज्य माताजी जी के मार्गदर्शन की आवश्यकता है।’’
मोतीचन्द, रवीन्द्र ने कहा-‘‘ठीक है, आप हस्तिनापुर पधारें, माताजी से परामर्श करें, पुनः जैसा होगा, वैसा हम लोग भी सहयोग देंगे।’’ ग्रीष्मावकाश में यहाँ हस्तिनापुर में त्रिलोकचंद जी कोठारी और गणेशी लाल जी रानी-वाला आये। उन दोनों ने निवेदन किया- ‘‘माताजी! हम आपके सानिध्य में विद्वानों का प्रशिक्षण शिविर करना चाहते हैं, आप स्वीकृति प्रदान कीजिये।’’ मेरी स्वीकृति प्राप्त कर ये लोग बोले- ‘‘माताजी! कुछ खास-खास विषयों का संकलन कर आप विद्वानों को दिशाबोध देने के लिए एक पुस्तक तैयार कर दीजिये, जिससे विद्वानों को उसी माध्यम से प्रशिक्षण दिया जा सके।’’ मैंने इसे भी स्वीकृत कर लिया। इधर उस वर्ष भी मेरा चातुर्मास यहीं हस्तिनापुर में हुआ।
बरसात में मुझे इस बार भी मलेरिया ज्वर आने लगा, फिर भी मैंने परिश्रम करके लगभग एक माह में ‘प्रवचन निर्देशिका’ नाम से एक पुस्तक तैयार कर दी। रवीन्द्रकुमार ने इसे मेरठ से छपाया, पू्रफ रीडिंग आदि में और जल्दी छपाने में काफी मेहनत की। इस प्रशिक्षण शिविर का आयोजन ७ अक्टूबर से १६ अक्टूबर १९७८ तक १० दिन के लिए रखा गया। इसमें पं. मोतीलाल जी कोठारी फलटण वालों को कुलपति का भार सौंपने का निर्णय रहा।
इस शिविर के लिए क्षेत्र कमेटी वालों से धर्मशाला मांगी गई। क्षेत्र वालों ने स्वीकृति दे दी। ठीक समय पर एकदम मना कर दिया। इधर हम लोग सोच भी नहीं पा रहे थे कि- ‘‘अब क्या करें? शिविर कहाँ सम्पन्न किया जावे?’’ मैंने कहा-‘‘जंबूद्वीप स्थल पर शामियाना एवं छोलदारियाँ लगवाकर यह शिविर कर लो।’’ किन्तु किसी ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि यहाँ अक्टूबर में ठंड पड़ने लगती है। श्वेतांबर धर्मशाला के बालाश्रम के महानुभाव आकर निवेदन करने लगे- ‘‘हम आपको जगह और सारी सुविधा देंगे, आप चलिये मेरे स्थान पर शिविर संपन्न कीजिये।’’ इधर ३०-४० विद्वान् पधार चुके थे, उनके ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं थी।
यहाँ मंदिर की छह धर्मशालाओं के लगभग ढाई सौ कमरों में ताले डाल दिये गये थे। इधर के ही कुछ महानुभावों ने कहा- ‘‘हम लोग ताला तोड़कर विद्वानों को ठहरायेंगे। क्षेत्र पर पूरे भारतवर्ष के जैन समाज का पैसा लगता है ।’’ इत्यादि। मैंने सर्वथा मना कर दिया कि- ‘‘किसी भी प्रकार से अशांति नहीं होनी चाहिए।’’ सायंकाल में त्रिलोकचंद जी कोठारी, गणेशीलाल जी रानीवाला पधारे। ऐसी स्थिति देखकर दंग रह गये। मेरे पास आये कुछ विचार-विमर्श के बाद बोले- ‘‘माताजी! अब आप शीघ्र ही बालाश्रम में (श्वेतांबरी धर्मशाला) विद्वानों को ठहराने की स्वीकृति दे दीजिये।
अब कुछ भी सोचने का समय नहीं है।’’ मैंने कहा-‘‘हम दिगम्बर-दिगम्बर आपस में मतभेद रखकर श्वेतांबर के स्थान पर जावें, यह उचित नहीं प्रतीत होता ।’’ फिर भी लोगों के अतीव आग्रह से और अत्यन्त लाचारीवश हमें स्वीकृति देनी पड़ी। इन लोगों ने उधर ही शिविरार्थियों को ठहराया। अगले दिन प्रातः प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन होकर प्रो. मोतीलाल कोठारी ने मेरे द्वारा लिखित ‘‘प्रवचन निर्देशिका’’ का विमोचन किया। उस पुस्तक से वे बहुत ही प्रभावित हुए और यह निर्णय रहा कि ‘‘यह प्रशिक्षण शिविर केवल इस निर्देशिका के माध्यम से ही चलेगा।’’ इस शिविर में भारत के कोने-कोने से लगभग १५० प्रशिक्षणार्थी आये थे। इसमें कुछ श्रीमंत वर्ग और सभी विद्वान् ही थे। मैंने शिविर के प्रारंभ में ही सभी को नियम में बांध दिया, वे ये थे-
१. प्रशिक्षण शिविर के १० दिनों में धार्मिक चर्चा को छोड़कर और कोई चर्चा न की जाये। विकथा का त्याग किया जाये। ‘प्रवचन निर्देशिका’ के अध्ययन में ही तत्पर रहा जाये। किसी भी व्यक्तिगत पंथवाद की चर्चा न की जाये।
२. प्रवचन एवं प्रशिक्षण के समय कोई शंका नहीं उठाई जायेगी। शंका को नोट करके रात्रि में शंका-समाधान के समय ही उसका समाधन किया जाये।
३. शिविरपर्यंत पंचाणुव्रत का पालन एवं अष्टमूल गुण का धारण सबके लिए आवश्यक है। आगे भी धारण करें तो श्रेष्ठ है।
४. प्रत्येक कार्यक्रम में समय से ५ मिनट पूर्व सभी प्रशिक्षणार्थियों का उपस्थित होना आवश्यक है।
५. प्रशिक्षण के बाद आर्ष मार्ग का यथोचित आगमोक्त प्रचार करेंगे।
६. कुलपति की आज्ञा के बिना विषय से विषयान्तर में कोई चर्चा नहीं करेगा।
७. तेरहपंथ, बीसपंथ की चर्चा न की जावे।
८. कानजी पंथ, श्वेताम्बर आदि के विषय में भी कोई प्रश्नोत्तर न किये जावें।
इस प्रशिक्षण शिविर में प्रतिदिन प्रातः ५ बजे से महावीराष्टक स्तोत्र की प्रार्थना होती थी जिसमें स्वयं कुलपति जी भी पंक्ति में खड़े होते थे। इस शिविर में प्रायः हर कक्षाएँ मेरे सानिध्य में चलती थीं। मैं भी समय-समय पर प्रशिक्षण देती रहती थी। र्आियका रत्नमती माताजी भी बड़े उत्साह से इस वृद्धावस्था में भी दोनों टाइम मंदिर से बालाश्रम जाती-आती रहतीं थी। उन्हें भी यह विद्वानों का सम्मेलन बहुत अच्छा लगा था। एक दिन मैंने सामायिक विधि का भी प्रशिक्षण दिया था।
पं. बाबूलाल जी जमादार द्वारा मंच-संचालन एवं अनुशासन व्यवस्था बहुत अच्छी रही थी। अंतिम दिन जब प्रमाण-पत्र वितरित किये जाने वाले थे, तब प्रो. मोतीचन्द जी कोठारी स्वयं उठकर खड़े हुए और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा- ‘‘मैं भी माताजी का विद्यार्थी हूूँ। मुझे भी प्रमाण-पत्र चाहिए।’’ जब इन्होंने प्रमाण-पत्र ग्रहण किया, तब इनकी सरलता और निरभिमानता का स्वागत करते हुए सबने तालियाँ बजाकर हर्ष व्यक्त किया। समापन समारोह में कुलपति महोदय ने सबको खड़े करके निम्न प्रतिज्ञा दिलायी- ‘‘हम देवशास्त्र गुरु की मन, वचन, काय से वंदना करते हुए, मन वचन काय से प्रतिज्ञा करते हैं कि जो हमारी आर्ष परम्परा देवशास्त्र गुरु की चली आ रही है, उसकी तन से, मन से, धन से रक्षा करते हुए देश-समाज-जाति और मानव की सेवा यथाशक्य करते रहेंगे। करते रहेंगे!
करते रहेंगे ’’ उसी समय अखिल भारतीय दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन युवा परिषद, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद और दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने मुझे अभिनन्दन पत्र समर्पित कर ‘सिद्धान्तवाचस्पति’ उपाधि से विभूषित किया। तब मैंने सोचा कि-‘‘वास्तव में विचार करके देखा जाये तो साधु-साध्वियों का ज्ञानाराधना और चारित्राराधना ही एक व्यवसाय है, धर्म है, कर्तव्य है। ये उपाधियाँ भला उन्हें क्या महान बनायेंगी? वे तो अपनी चर्या से ही महान बनते हैं।’’
इस शिविर में पधारे पं. मक्खनलाल जी शास्त्री मोरेना, जो कि ‘गुरूणां गुरु’ थे। पं. बाबूलाल जी आदि ने कहा- ‘‘माताजी! इन पर कंट्रोल कोई भी नहीं कर सकता।’’ मैंने कहा-‘‘पंडित जी! आप चिंता न करें।’’ पुनः मैंने पंडित मक्खनलाल जी को बुलाकर कहा- ‘‘पंडित जी! मैंने शिविर के प्रारंभ में ही अमुक-अमुक नियम दे दिये हैं अतः मर्यादा की रक्षा करना आपका कर्तव्य है अर्थात् किसी का नाम लेकर खुले शब्दों में कानजी पंथ का विरोध नहीं करना।’’ पंडित जी ने कहा-‘‘ जो आज्ञा आपकी.।’’ इस शिविर के समापन के समय श्री जयचंद जी लोहाड़े (हैदराबाद), श्री निर्मल कुमार जी सेठी (सीतापुर), श्री नीरज जैन (सतना) आदि महानुभाव आये थे। दिगम्बर की छह धर्मशालाएं खाली बंद पड़ी हैं और श्वेताम्बरों के बालाश्रम में शिविर शांतिपूर्ण वातावरण में चल रहा है, सभी को आश्चर्यकारी लगा। खैर! इसकी प्रतिक्रिया सारे भारत में और सारे जैन समाज में हुई।
जगह-जगह क्षेत्र कमेटी के पदाधिकारियों की भर्त्सना ना हुई और दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की प्रशंसा हुई। चूूंकि सहनशीलता ही सबसे बड़ा गुण है। इस शिविर के बाद कार्तिक शु. १५ को यहाँ क्षेत्र पर मेला होता है। हुकुमचंद भारिल्ल आदि विद्वान आये, मेरे कमरे में बैठकर अनेक चर्चायें करते रहे। यद्यपि मेरा स्वास्थ्य कमजोर हो रहा था। आर्यिका रत्नमती जी को भी ज्वर से काफी कमजोरी हो चुकी थी, फिर भी मन मजबूत करके मैंने संघ सहित चातुर्मास के बाद दिल्ली की ओर विहार कर दिया।
दिल्ली आगमन
इस शिविर के बाद एक दिन एक महानुभाव ने आकर मुझसे कहा कि- ‘‘माताजी! आपने सिद्धान्त संरक्षिणी सभा नाम से यह कौन सी सौत लाकर यहाँ खड़ी कर दी ।’’ उस समय मुझे यह बात कुछ समझ में नहीं आई, बाद में दिल्ली में श्री विजेन्द्र कुमार सर्राफ ने एक दिन यह बतलाया कि- ‘‘दिगम्बर जैन महासभा और अखिल भारतीय दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा में विधवा विवाह, विजातीय विवाह, अन्तर्जातीय विवाह के विरोध में नियम बने हुए हैं।
यह दोनों संस्थाएं जाति-पांति, वर्ण-व्यवस्था को मानने वाली संस्थाएं हैं। इनके विरुद्ध यहां पर गठित दिगम्बर जैन परिषद ऐसी संस्था है जिसमें ये विधवा विवाह आदि विषय मान्य है यह संस्था इनका समर्थन करने के लिए और इनका प्रचार करने के लिए ही बनी है अतः इन लोगों ने इस सिद्धान्त संरक्षिणी सभा को अपनी सौत मानकर, उसके माध्यम से होने वाले शिविर में अपने क्षेत्र की धर्मशालाओं में जगह नहीं दी थी!’’ आगे चलकर धीरे – धीरे यह विषय ऊपर उभरता चला आया और आज तो निर्मल कुमार सेठी महासभा के अध्यक्ष हैं इनका और महासमिति आदि के अध्यक्षों का कई वर्षों तक खुलकर विरोध चला है।