मंगल विहार-यहाँ लालमंदिर से मेरा विहार १६ मार्च १९८१ को हुआ। तब लाल मंदिर की विशालसभा में मंगल आशीर्वाद देकर मैं यहाँ से संघ सहित विहार कर मोरीगेट पहुँची। वहाँ से आष्टान्हिका के बाद २४ मार्च को विहार कर ९ अप्रैल को हस्तिनापुर पहुँच गई। यहाँ पर स्थानीय लोगों ने मंगल स्वागत किया। मैं बड़े मंदिर का दर्शन करते हुए जम्बूद्वीप में आकर धर्मशाला में ठहर गई।
सन् १९७९ की प्रतिष्ठा के बाद यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर दो धर्मशालाओं का निर्माण कार्य हो चुका था और जम्बूद्वीप के पूर्व तथा उत्तर में दो खेत भी खरीदे जा चुके थे। १० अप्रैल को संस्थान के अध्यक्ष अमरचन्द जी पहाड़िया कलकत्ता वाले और उम्मेदमल जी पांड्या पधारे।
यहाँ पर विद्यापीठ के विद्यार्थियों ने छोटी सी सभा में अध्यक्ष महोदय का सम्मान किया। इस अवसर पर श्री अमरचन्द पहाडिया ने जम्बूद्वीप के लिए १ लाख रुपये के दान की घोषणा की। आगे चलकर उनके इस द्रव्य से नील पर्वत का निर्माण होकर, उसके चैत्यालय में विशाल ढाई फुट की जिनप्रतिमा भी इन्हीं की तरफ से विराजमान की गई है। यहाँ पर मेरे समक्ष प्रातः, मध्यान्ह-अष्टपाहुड़, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथ के स्वाध्याय प्रारंभ हो गये। समय-समय पर मेरा लेखन कार्य भी चल रहा था।
प्रतिष्ठापना दिवस समारोह एवं शिलान्यास
वैशाख शु. ७ दिगम्बर १० मई १९८१ को प्रातः ८४ फुट ऊँचे सुदर्शन मेरु पर्वत की पाँडुकशिला पर भगवान् शांतिनाथ का १०८ कलशों से अभिषेक समारोह सम्पन्न हुआ। इस प्रकार सुमेरु पर्वत का यह द्वितीय प्रतिष्ठापना दिवस मनाया गया। इसी मंगल अवसर पर भगवान् आदिनाथ अथवा त्रिमूर्ति मंदिर का शिलान्यास किया गया तथा रत्नत्रय निलय (त्यागी भवन) का शिलान्यास भी कराया गया। आज यह त्रिमूर्ति मंदिर तैयार हो चुका है।
इसमें सन् १९८५ की प्रतिष्ठा होकर भगवान् आदिनाथ, भरत एवं बाहुबली की मूर्तियाँ खड्गासन विराजमान हैं। रत्नत्रय निलय का भी १५ मई १९८३ में उद्घाटन होकर मैं ससंघ इस वसतिका में आ गई। वर्तमान में यहीं रहते हुए धर्माराधना करते हुए रह रही हूँ।
विचार बिन्दु
महामस्तकाभिषेक के बाद एक दिन दिल्ली में कम्मोजी की धर्मशाला में कुछ भक्त श्रावक मेरे पास बैठे थे। जम्बूद्वीप रचना के संबंध में चर्चा चल रही थी। मैंने कहा-‘‘जब सन् १९७२ में जम्बूद्वीप का सामान्य मॉडल बना था, तब मेरे मन में सहसा यह भावना जाग्रत हुई कि-इस मॉडल को बढ़िया, सुन्दर, आकर्षक बनाकर सारे भारत में घुमाया जाए तथा इसे भव्य रथ में सजाकर सारे भारत में घुमाकर सर्व जैन-जैनेतर को जम्बूद्वीप से परिचित कराना ही है।’’
यह भावना मेरे मन में उठती ही रहती थी पुनः निर्वाणोत्सव के प्रसंग में पाँच जगह से पाँच धर्मचक्र चलाये गये। इसके बाद मैंने सोचा था कि कुछ शक्ति और आ जाए, तब मन की योजना को सक्रिय किया जाये। इन दिनों सुमेरु की प्रतिष्ठा के बाद मैं कुछ सोचने की ओर थी कि आज यह ‘जनमंगलकलश’ का प्रवर्तन हो गया, अब मुझे ‘‘जंबूद्वीप भारत भ्रमण, की योजना बनानी है।’’ एक महानुभाव बोल उठे- ‘‘अच्छा ही होगा, आप तो ऐसा ही कीजिये।
धर्मप्रभावना के साथ-साथ आपकी रचना का कार्य भी तो पूरा करना है ।’’ रवीन्द्र कुमार ने भी रुचि ली और कहा- ‘‘लोगों को तो जो कहना है कहते ही रहेंगे, आप इस महती प्रभावना की योजना को बनाइये।’’ उस चर्चा से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। रवीन्द्र ने भी उत्साहित होकर बाद में बैठकर रूपरेखा बनाना शुरू कर दिया। मैं जब मोतीचन्द के सामने चर्चा करती तब वे कहते- ‘‘माताजी! मैं तो आपकी आज्ञा को सदा पालता रहा हूँ और सदा ही पालन करता रहूँगा।
फिर भी मेरी इच्छा तो अपने जंबूद्वीप के कार्य को पूरा करने की है ।’’ उस समय दिल्ली में कई एक भक्तों से मैंने चर्चा की थी, तब उन्होंने भी इस योजना की सराहना की। यहाँ हस्तिनापुर आने पर कई एक श्रीमान् श्रावक आये, उनसे भी मैंने चर्चा की, वे भी बहुत प्रसन्न हुए और कई लोग बोले कि-‘‘माताजी! हम लोग आपकी इस योजना पर विचार करेंगे।’’ ‘‘मेरा ऐसा स्वभाव है कि बात मन में जंच जाये और जम जाये, तो उसे करना ही करना।
जो लोग अपनी विचारधारा से सहमत हों, उनसे सहयोग लेना और जो असहमत हों उन्हें गौण कर देना। वास्तव में मैंने आगम और गुरु परम्परा के अनुकूल ही कार्य सोचे हैं अतः विशेष ऊहापोह न करके उन्हें करने का साहस किया है।’’ अब मेरे पास बैठकर जब-तब रवीन्द्रकुमार जंबूद्वीप मॉडल के भारत भ्रमण की रूपरेखा बनाते थे।
इधर भोजनशाला (डायनिंग हॉल), धर्मशाला, त्रिमूर्ति मंदिर और रत्नत्रयनिलय के निर्माण कार्यों को मोतीचन्द द्रुतगति से करा रहे थे। वैशाख-ज्येष्ठ की दुपहरी में यहाँ खुले मैदान में घूम-घूम कर निर्माण कार्य कराना, यह सभी के वश की बात नहीं है। इसी के साथ समय निकालकर मेरे पास बैठकर जम्बूद्वीप सम्बंधी अनेक रचनाओं के निर्माण का फुट-इंच से निर्णय करते रहते थे।
जम्बूद्वीप में छह कुलाचल, चार गजदन्त, सोलह वक्षार, चौंतिस विजयार्ध, जम्बूवृक्ष, शाल्मलिवृक्ष, गंगा सिन्धु आदि ९० नदियाँ, ३०० लगभग तोरणद्वार आदि कहाँ और कैसे-कैसे बनें? इसी पर मैंने जो लिख रखा था, उसे समझाकर लिखाया करती थी।
जम्बूद्वीप भ्रमण कराने की रूपरेखा
इन दिनों यह निर्णय हुआ कि- ‘‘संस्थान की एक बैठक बुला ली जाएँ और उसी में सारे विषय निश्चित किएँ जायें। इधर ८ जुलाई से १८ जुलाई तक यहाँ पर आषाढ़ की अष्टाह्निका में श्री निर्मल कुमार सेठी लखनऊ और श्री पन्नालाल सेठी डीमापुर वालों ने इन्द्रध्वज विधान के भाव व्यक्त किये। इसी विधान के अंतर्गत अनेक बैठके सम्पन्न हुई और १६ जुलाई (आषाढ़ शु. १४) की रात्रि में सभी के निवेदन पर मैंने संघ सहित यहीं जंबूद्वीप स्थल पर यह पहला चातुर्मास स्थापित किया।
इसके पहले यहाँ हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप पर जगह न होने से मैंने बड़े मंदिर पर ही चातुर्मास किये थे। १७ जुलाई को मध्यान्ह में यहाँ महत्वपूर्ण बैठक हुई। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की इस बैठक में जम्बूद्वीप के मॉडल को बनवाकर सारे भारत में भ्रमण कराया जावे, यह बहुत ही हर्ष के साथ निश्चित किया गया।
इस समय अनेक श्रीमान और विद्वान् उपस्थित थे। सभी ने एक स्वर से इसे स्वीकृत किया पुनः इसके नामकरण पर खूब ऊहापोह हुआ, अनेक लोगों ने अपने-अपने सुझाव दिये। उन सबमें ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ नाम मुझे बहुत ही प्रिय लगा और सभी ने करतल ध्वनि से जयकार के साथ इस नाम का समर्थन किया।
इसके पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि- इस महत्वपूर्ण कार्य के सहयोग हेतु और प्रचार प्रसार हेतु एक ‘जम्बूद्वीप सेमिनार’ अक्टूबर में यहीं पर आयोजित किया जाए तथा उसमें अनेक विद्वान् आमंत्रित किये जायें। इसके बाद वीरशासन जयंती समारोह और रथयात्रापूर्वक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
अब यह चर्चा चलती रहती थी कि ‘सुन्दर आकर्षक जम्बूद्वीप का मॉडल बनवाया जावे।’ इस मीटिंग के पूर्व एक दिन कई एक श्रीमानों ने मेरे पास बैठकर यह निवेदन किया कि- ‘‘माताजी! यह जम्बूद्वीप मॉडल के भ्रमण की योजना शक्य नहीं है। सारे भारत में इसका भ्रमण कराना बहुत ही कठिन है।
आपको तो जम्बूद्वीप बनवाना है। हम ३०-४० श्रीमन्तों के नाम लिखकर देते हैं, उनसे संपर्क करके उन सबसे एक-एक लाख रुपये मिल जायेंगे और यह निर्माण कार्य पूरा किया जायेगा अतः आप इस वृहत् योजना को न उठावें, इसे स्थगित कर दें ।’’
मैंने सब कुछ सुनकर उत्तर दिया- ‘‘मात्र इस जम्बूद्वीप मॉडल भ्रमण से धन एकत्रित कराके जम्बूद्वीप बनवाना ही मेरा उद्देश्य नहीं है, प्रत्युत् सारी भारत के जैन-जैनेतर लोग जम्बूद्वीप को जानें, समझें और भगवान महावीर के अहिंसामयी धर्म को समझें, ग्रहण करें ।
जिनधर्म की प्रभावना विशेष के लिए तथा जन-जन का धन इस रचना में लगकर, जन-जन की आत्मीयता इस जम्बूद्वीप से जुड़े, यह मेरा उद्देश्य है।’’ वास्तव में यह भारत भ्रमण द्वारा धर्म प्रभावना की मेरी योजना कई वर्षों से थी लेकिन मैं समय और जनशक्ति की प्रतीक्षा में थी अतः इन श्रीमन्तों के निवेदन को मैंने अस्वीकृत कर दिया। इस योजना में पं. बाबूलाल जी जमादार भी सदा ही उत्साह दिखाते रहते थे, जिससे मुझे बहुत प्रसन्नता होती थी।
अब जम्बूद्वीप मॉडल बनवाने के लिए मोतीचन्द और रवीन्द्र पुरुषार्थ कर रहे थे। दिल्ली के एक कारीगर को यहाँ बुलाकर मुझसे आशीर्वाद दिलाकर, भादों सुदी १४-अनंत चतुर्दशी के मंगलदिवस में इस मॉडल के लिए आदेश दिया गया।
जम्बूद्वीप सेमिनार
अनेक धार्मिक विद्वान् एवं आधुनिक प्रोफैसर विद्वानों को सेमिनार के लिए शोधपूर्ण लेख तैयार कराने हेतु पत्राचार शुरू किये गये। लेख आना शुरू हो गये और ११ अक्टूबर से १५ अक्टूबर तक ‘जम्बूद्वीप सेमिनार’ नाम से गोष्ठी का आयोजन किया गया। ११ अक्टूबर रविवार को विशेष सभा का आयोजन किया गया। उस दिन सेमिनार का उद्घाटन हुआ। इस गोष्ठी में पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य को कुलपति के रूप में मनोनीत किया गया।
अभिनंदन ग्रंथ समर्पण
इस अवसर पर शास्त्री परिषद से प्रकाशित ‘पं. बाबूलाल जमादार अभिनन्दन ग्रंथ’ का विमोचन हुआ और उन्हें समर्पित किया गया। पं. बाबूलाल के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में कई एक विद्वान् अपने-अपने अभिमत व्यक्त कर रहे थे। उस समय मोतीचन्द को २-३ दिन से ज्वर आ रहा था।
ज्वर के प्रकोप से अपने कमरे में लेटे हुए थे किन्तु उनका जी नहीं माना, उतरकर आये और सभा में खड़े होकर पं. बाबूलाल की जम्बूद्वीप के प्रति समर्पित भावना, उनका इस उम्र में युवक के सदृश उत्साह आदि की प्रशंसा करने लगे। मैंने भी पं. बाबूलाल को बहुत-बहुत आशीर्वाद देते हुए धर्म में स्थिर रहने की प्रेरणा दी।
जन्म दिवस सभा
१३ अक्टूबर शरदपूर्णिमा को मेरे जन्म दिवस के निमित्त विद्वानों की सभा हुई। पं. पन्नालाल जी आदि विद्वानों ने और श्रीमानों ने अपने-अपने भक्ति सुमन अर्पित किये। उस दिन अनेक विद्वान् और श्रीमान तथा नवयुवक वर्ग गुरुभक्ति में विभोर हो नृत्य करने लगे। सभी विद्वानों ने एक स्वर से कहा- ‘एक मंच पर श्रीमान्, धीमान् और नवयुवकों को एकत्रित करने का यह उत्तम कार्य जो आज पूज्य माताजी ने किया है, वह इतिहास में अमर रहेगा।’’
सेमिनार में शंका समाधान
इस सेमिनार के अंतर्गत अनेक शंका समाधान हुए। जैन भूगोल से संबंधित समाधान प्रायः मुझे ही देने होते थे। एक जैन विद्वान् ने कहा- ‘‘ये जम्बूद्वीप आदि द्वीप, समुद्र अप्रयोजनीभूत तत्त्व हैं, इनके जानने से सम्यग्दर्शन हो और न जानने से सम्यग्दर्शन न हो, ऐसी कोई बात नहीं है, प्रत्युत् आत्मा आदि जीव-अजीव तत्त्व ही सम्यग्दर्शन के विषय हैं ।’’
तब मैंने कहा- ‘‘तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र के भाष्य ग्रन्थ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में लिखा है-‘द्वीप, समुद्र, नदी, हृद आदि विशेषों का प्ररूपण अप्रयोजनीभूत हैं, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे मनुष्योेंं के आधारभूत स्थलों का निर्णय हो जाता है। सम्पूर्ण संसारी में मनुष्यों और उनके आधारभूत ढाई द्वीप, दो समुद्रों का निरूपण करना स्वयं व्यर्थ नहीं है। यथा- ‘इति तदाधारविशेषाः सर्वे निरूपणीया एव१।’
आचार्यदेव का यह कहना है कि ‘जीवतत्त्व के निरूपण करने में ही तीनलोक, मध्यलोक आदि का वर्णन करना आवश्यक है। जीवतत्त्व का पूर्णतया वर्णन किये बिना शेष अजीव तत्त्वों का भी विशेष रूप से कथन करना नहीं बन सकता है। जैसे कि-
तदप्ररूपेण जीव-तत्त्वं न स्यात् प्ररूपितं।
विशेषेणेति तज्ज्ञान-श्रद्धाने न प्रसिद्ध्यतः।।६।।
तन्निबंधनमक्षुण्णं चारित्रं च तथा क्व नु।
मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्त्वविशेषवाक्२।।७।।
‘‘यदि तत्त्वार्थसूत्र में उन द्वीप आदि का वर्णन न किया जाये तो जीव तत्त्व का निरूपण करना नहीं समझा जायेगा। ऐसी दशा में उस जीव तत्त्व का ज्ञान और श्रद्धान ये दोनों रत्न कभी भी सिद्ध नहीं हो सकेगे पुनः इन दोनों की सिद्धि न होने से उन दो के निमित्त से होने वाला ऐसा चारित्र भी कहाँ रह सकेगा?
इस प्रकार रत्नत्रय के न संभवने पर मोक्षमार्ग का उपदेश भला वैâसे बन सकेगा?’’ इत्यादि प्रकार से समाधान देने पर विद्वानों ने इन श्लोकवार्तिक आदि ग्रंथ के प्रमाण नोट कर लिये। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने तो बहुत ही आदर व्यक्त किया। पं. नरेन्द्र प्रकाश जी जैन फिरोजाबाद, डॉ. प्रेम सुमन जैन आदि विद्वानों ने जम्बूद्वीप के विषय में विस्तार से समझा और सम्यग्दर्शन का विषय माना।
आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ
कई एक विद्वानों ने यह रूपरेखा बनायी, जिसमें पं. बाबूलाल जी प्रमुख थे कि- ‘‘पूज्य ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ तैयार किया जाये।’’ मेरे कान में बात पड़ते ही मैंने विद्वानों को कहा- ‘‘इस जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति को सारे भारत में घुमाना और यहाँ जम्बूद्वीप रचना के निर्माण को पूरा करके प्रतिष्ठा कराना, इससे बड़ा और मेरा अभिनंदन क्या होगा?.’’
फिर भी विद्वानों के अतीव आग्रह को देखकर मैंने कहा- ‘‘अच्छा, मेरी जन्मदात्री माँ आर्यिका श्रीरत्नमती माताजी यहाँ इस समय मेरे संघ में मौजूद हैं। मेरे कार्यकलापों का, मेरी योग्यता का सारा श्रेय तो इन्हें ही है अतः इनका अभिनंदन कीजिये।’’
पं. बाबूलाल जी को यह सुझाव बहुत पसन्द आया, वे झूम उठे, आर्यिका रत्नमती माताजी की भक्ति में पुनः उन्होंने उसी क्षण घोषणा कर दी कि आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ निकाला जायेगा। उसी प्रसंग में इस ग्रंथ की रूपरेखा बनाई गयी और सम्पादक मण्डल के नाम चयन किये गये।
सम्पादक मण्डल-
१. डा. पन्नालाल साहित्याचार्य २. पं. कुञ्जीलाल जैन गिरडीह ३. डा. कस्तूरचंद कासलीवाल ४. पं.बाबूलाल जमादार
५. ब्र. सुमतिबेन जी शाह ६. ब्र. विद्युल्लता शाह ७. ब्र. कु.माधुरी शास्त्री ८. अनुपम जैन।
इस ग्रंथ की रूपरेखा आर्यिका रत्नमती माताजी से छिपाकर ही रखी गयी क्योंकि वे अपने सम्मान और प्रशंसा की बातों को रोक दिया करती थीं। यह अभिनन्दन ग्रंथ सन् १९८३ नवम्बर में इन रत्नमती माताजी को समर्पित किया गया है।
सेमिनार में सम्मान
इस सेमिनार में पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य पं. बाबूलाल जमादार, निर्मल कुमार सेठी, पन्नालाल सेठी, श्री एस.एस. गोयल (दिल्ली), कैलाश चंद जैन इंजीनियर (दिल्ली) आदि कई एक विद्वानों और श्रीमानों को अभिनन्दन पत्र समर्पित किये गये। नए-नए प्रोफैसरों ने, विद्वानों ने एक दिन रात्रि की सभा में ‘ज्ञानज्योति’ प्रवर्तन के विषय में अपने-अपने अनेक सुझाव प्रस्तुत किये।
सभी विद्वानों ने अपने-अपने वक्तव्य में यह कहा कि- ‘‘जब-जब मुझसे जो समय लिया जायेगा, मैं समय दूँगा और ज्ञानज्योति भ्रमण में पूरा सहयोग करूँगा।’’ उसी मध्य किन्हीं महानुभाव ने यह प्रश्न रखा कि- ‘‘ज्ञानज्योति भ्रमण में आने वाले द्रव्य का क्या उपयोग होगा?’’ तत्क्षण ही प्रा. नरेन्द्रप्रकाश जी ने खड़े होकर समाधान दिया कि- ‘‘जो यह जम्बूद्वीप रचना बन रही है, इसे पूरा किया जायेगा तथा और भी यहाँ स्थल पर जो कार्यविधियाँ हैं उनमें सदुपयोग होगा, फिर भी अधिक राशि बचने पर उससे जन-कल्याण के लिए रूपरेखा बना ली जायेगी।’’
यह समाधान सभी को अच्छा लगा और अच्छे वातावरण में यह सेमिनार तथा जन्मदिवस कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ। इस मध्य दिल्ली से आये हुए श्री राजेन्द्रप्रसाद (कम्मोजी) आदि कई महानुभावों ने दिल्ली की ओर विहार करने के लिए आग्रहपूर्ण शब्दों में प्रार्थना की।
मुझे उस समय तो हंसी आ गई और मैंने कथमपि स्वीकार न करके यही उत्तर दिया-‘‘अब मेरा दिल्ली आना कम संभव है।’’ फिर भी इन लोगों का यही कहना रहा कि- ‘‘माताजी! आप दिल्ली आइये, आपके सानिध्य में भारत की प्रधानमंत्री इंदिराजी के करकमलों से इस ज्ञानज्योति का प्रवर्तन कराया जावेगा।’’
इन्द्रध्वज विधान
पुनः २ नवम्बर से १६ नवम्बर १९८१ तक आर्यिका रत्नमती माताजी की जन्मभूमि महमूदाबाद में अच्छे स्तर से इन्द्रध्वज महामण्डल विधान का आयोजन हुआ। इसमें एक-दो दिन के लिए कु. माधुरी को भेजा गया। वहाँ का आबाल-गोपाल, जैनेतर समाज उनके दर्शनों को उमड़ पड़ा।
लोग कहने लगे-‘‘मोहिनीदेवी की बिटिया आई है, चलो देख आवें चलो, चलो ।’ वास्तव में उन लोगों को मोहिनी देवी के दीक्षित जीवन में-आर्यिका रत्नमती जी के रूप में दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। कतिपय जैन लोग तो आकर दर्शन कर भी गये थे।