तर्ज-ए री छोरी बांगड़ वाली…………..
उत्तम तपो धर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।टेक.।।
अंतरंग बहिरंग तपों से युक्त मुनीजन रहते हैं-२।
श्रावक भी आंशिक तप करते, जो उनको हितकारी है।।उत्तम तपो.।।१।।
उस तपधर्म की पूजन हेतू स्थापन यहाँ करना है-२।
आह्वानन स्थापन सन्निधि-करण विधी हितकारी है।।उत्तम तपो.।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम तपोधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम तपोधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम तपोधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
क्षीरोदधि के जल से प्रभु पद, में जलधारा करना है-२।
जन्म जरा मृत्यू नाशन हित, तपो धर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
केशर में कर्पूर मिलाकर, जिनपद चर्चन करना है-२।
भव आतप के नाशन हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
वासमती तंदुल लेकर के, अक्षत पुंज चढ़ाना है-२।
अक्षय पद की प्राप्ती हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
जुही चमेली आदि पुष्प की, माल प्रभू को चढ़ाना है-२।
कामबाण विध्वंसन हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
खुरमा गुझिया और समोसे, का नैवेद्य चढ़ाना है-२।
क्षुधारोग विध्वंसन हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
जगमग जगमग घृत दीपक ले, आरति प्रभु की करना है-२।
मोह तिमिर विध्वंसन हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
अष्टगंध की शुद्ध धूप, अग्नी में ज्वालन करना है-२।
अष्टकर्म विध्वंसन हेतू, तपोधर्म हितकारी है।। उत्तम तपो.।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
एला केला आदि फलों का, थाल प्रभू को चढ़ाना है-२।
मोक्षमहाफल प्राप्ती हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
अष्टद्रव्य का अर्घ्य चन्दना-मती प्रभू को चढ़ाना है-२।
पद अनर्घ्य की प्राप्ती हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
जल की झारी के द्वारा, अब शांतीधारा करना है-२।
आत्म शांति अरु विश्वशांति हित, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
उत्तम तपोधर्म की पूजा, भव्यों को सुखकारी है-२।।
अंजलि में पुष्पों को भरकर, पुष्पांजलि अब करना है-२।
जग को सुरभित करने हेतू, तपोधर्म हितकारी है।।उत्तम तपो.।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
दशधर्मों के मध्य ही, है उत्तम तप धर्म।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, जानूँ तप का मर्म।।
इति मण्डलस्योपरि सप्तमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-अडिल्ल छंद-
द्वादश विध तप कहा जैन सिद्धांत में।
मुनि-श्रावक दोनों कर हरते पाप हैं।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं द्वादशविध उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रेसठ गुणयुत जिनगुणसम्पति व्रत कहा।
भिन्न-भिन्न तिथि में करते जो तप यहाँ।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं जिनगुणसंपत्तिव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मों के इक सौ अड़तालिस भेद हैं।
कर्मदहन व्रत से हो कर्मन छेद है।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं कर्मदहनव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महासिंहनिष्क्रीडित इक व्रत है कहा।
इक सौ पैंतालिस उपवास सहित महा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं महासिंहनिष्क्रीडितव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघू सिंहनिष्क्रीडित भी इक व्रत कहा।
साठ उपास सहित यह तप उत्तम महा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं लघुसिंहनिष्क्रीडितव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महा सर्वतोभद्र नाम का व्रत कहा।
इक सौ छियानवे उपवासों से युत रहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं महासर्वतोभद्र व्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघू सर्वतोभद्र नाम का व्रत कहा।
पचहत्तर उपवास व अनशनयुत रहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं लघुसर्वतोभद्रव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तावलि व्रत में पच्चिस उपवास हैं।
चौंतिस दिन में नौ पारणा विख्यात हैं।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं मुक्तावलीव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकावलि व्रत की विधि आगम में कही।
इसको करने वाले लें सुख की मही।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं कनकावलीव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर द्वारा कथित एक आचाम्ल तप।
इक सौ उन्निस दिन का माना है यह व्रत।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं आचाम्लतपसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक सुदर्शन व्रत अड़तालिस दिवस का।
चौबिस हैं उपवास पारणा चौबिस का।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।११।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनव्रतसहित उत्तमतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाह्य तपों में अनशन पहला तप कहा।
उपवासादिक करने वाला व्रत कहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अनशनतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवमौदर्य नाम का दूजा तप कहा।
भूख से कम खाने वाला यह व्रत रहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं अवमौदर्यतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तृतिय बाह्य तप वृत्तपरीसंख्यान है।
लेय प्रतिज्ञा करें जो भोजन पान है।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं वृत्तपरिसंख्यानतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रस परित्याग नाम का चौथा तप कहा।
इक दो रस का त्याग करें भोजन सदा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विविक्त शय्यासन पंचम तप ख्यात है।
मुनिगण भूपर शयन करें विख्यात हैं।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायक्लेश है छठा भेद तप का कहा।
मुनिगण आतमशुद्धि हेतु इसको लहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं कायक्लेशतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्तरंग तप के छह भेदों में प्रथम।
प्रायश्चित्त नाम से आगम में कथन।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं प्रायश्चित्ततपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विनय नाम का दूजा तप विख्यात है।
पूज्यजनों की विनय में हो विश्वास है।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं विनयतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैय्यावृत्य नाम का तीजा तप कहा।
भीम ने अतिशयशक्ति इसी तप से लहा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं वैय्यावृत्त्यतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप चतुर्थ स्वाध्याय नाम से है कहा।
सत् शास्त्रों का अध्यन मनन सुखद महा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं स्वाध्यायतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचम तप व्युत्सर्ग नाम से मान्य है।
काय ममत्व रहित यतियों को प्रणाम है।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।२२।।
ॐ ह्रीं व्युत्सर्गतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्यान नाम का छठा अंतरंग तप कहा।
धर्म शुक्लमय ध्यान करें मुनिजन महा।।
उत्तम तप को अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ।
इस तप के धारक मुनियों को मैं भजूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं ध्यानतपोधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
उत्तम तप बारह भेदों से युक्त है।
अधिकाधिक व्रत कर होते जो मुक्त हैं।।
उस तप धर्म को महा अर्घ्य अर्पण करूँं।
निज आतम को तप करके कुन्दन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय नम:।
तर्ज-हम लाए हैं तूफान से………
हे वीतराग प्रभु! मुझे तपशक्ति दीजिए।
जब तक तपस्या न कर सकूं भक्ति दीजिए।।टेक.।।
विपरीत अर्थ करके तप का पतित हो गया।
मैं क्षणिक सुख को भोगकर उसमें ही खो गया।।
हे नाथ! इन दुखों से मुझको मुक्ति दीजिए।
जब तक तपस्या कर न सकूं भक्ति दीजिए।।१।।
कन्या अनंगशरा ने तप किया था वनों में।
बन करके विशल्या दिखाई शक्ति क्षणों में।।
हे नाथ! मुझे भी वही तपशक्ति दीजिए।
जब तक तपस्या कर न सकूं भक्ति दीजिए।।२।।
उत्तम तपो धरम से मुनी मोक्ष जाते हैं।
श्रावक भी करें तप यदी तो स्वर्ग पाते हैं।।
प्रभु! ‘चन्दनामती’ मुझे भी युक्ति दीजिए।
जब तक तपस्या कर न सकूं भक्ति दीजिए।।३।।
पूर्णार्घ्य थाल सजा हम चढ़ाने आए हैं।
जयमाल में तप के गुणों को गाने आए हैं।।
पूजा तपो धरम की करूँ, शक्ति दीजिए।
जब तक तपस्या कर न सकूं, भक्ति दीजिए।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजिल:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।