अट्ठाइस मूलगुणों से युत रोगादि परीषह के विजयी।
उन मुनि के औषधि ऋद्धि प्रगट होती वे ही कर्मारिजयी।।
सब रोग शोक दारिद्र नशें इन गुरु की पूजा करने से।
ये औषधि ऋद्धी आठ भेद आह्वानन कर पूजूँ रुचि से।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविध औषधिऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अष्टविध औषधिऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टविध औषधिऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गुरुदेव! आप पाद में त्रयधार मैं करूँ।
निज चित्त ताप शांति हेतु आश मैं धरूँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! आप चर्ण में चंदन विलेपते।
संपूर्ण ताप नष्ट हों निज तत्त्व लोकते।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! आप अग्र शालि पुंज चढ़ाऊँ।
अक्षय अखंड सौख्य हेतु आश लगाऊँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! आप चर्ण पुष्पमाल चढ़ाऊँ।
संपूर्ण सौख्य पाय देह कांति बढ़ाऊँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! आप सामने नैवेद्य चढ़ाऊँ।
उदराग्नि को प्रशमित करूँ निज शक्ति बढ़ाऊँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! दीप लेय आप आरती करूँ।
अज्ञान तिमिर नाश ज्ञान भारती भरूँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टविध औषधिऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूपघट में धूप खेय कर्म जलाऊँ।
गुरुदेव! आप भक्ति से सम्यक्त्व को पाऊँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! श्रेष्ठ फल चढ़ाय अर्चना करूँ।
चारित्र लब्धि पाय दुख रंच ना भरूँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुदेव! अर्घ लेय रजत पुष्प मिलाऊँ।
निजात्म सौख्य प्राप्त हेतु अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
औषधि महान आठ ऋद्धि चित्त में धरुँ।
सब रोग शोक आधि व्याधि वेदना हरूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूँ।
अतिशय शांती हेतु, शांती धारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, गुरुपद पंकज सेवते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
भव्यजनों को सुख करें, गणधर गुरु भगवान।
पुष्पांजलि कर पूजते, नशें सर्व दुर्ध्यान।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, आमर्शौषधि यह ऋद्धि एक।
जिन तनुस्पर्श से हो निरोग, यह ऋद्धि जजूँ सब हरे शोक।।१।।
ॐ ह्रीं आमर्शौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके कफ थूक व लार आदि, तप बल औषधि हों हरें व्याधि।
खेलौषधि ऋद्धि जजूँ महान, जिससे तनु होता सुख निधान।।२।।
ॐ ह्रीं क्ष्वेलौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु स्वेद जल्ल तनुमल कहाय, तपबल से औषध रूप थाय।
सब रोग हरें भक्ती करंत, हम पूजें हो तनुरोग अंत।।३।।
ॐ ह्रीं जल्लौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके जिह्वा कर्णादि मैल, सब रोग हरें हो सौख्य मेल।
यह ऋद्धि मलौषधि जो धरंत, उन पूजत हम भवदधि तरंत।।४।।
ॐ ह्रीं मलौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से मलमूत्र आदि, भक्तों की हरते सकल व्याधि।
उस ऋद्धी को जो नित यजंत, वे सर्व ऋद्धि के बने कंत।।५।।
ॐ ह्रीं विप्रुषौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरें करते चिरायु।
यह सर्वौषधि ऋद्धि महान, मैं जजूँ यही है सौख्य खान।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वौषधिऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुनि वच सुनते नर व्याधि मुक्त, मुखनिर्विष ऋद्धी जजूँ शुद्ध।।७।।
ॐ ह्रीं मुखनिर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
दृष्टी निर्विष ऋद्धी महात्म्य, मैं जजूँ मिले निज सौख्य साम्य।।८।।
ॐ ह्रीं दृष्टिनिर्विषऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना विध तप तपते मुनि का, तन भी औषधि रूप बने।
तनु संस्पर्शित हवा लगत ही, नश जाते सब रोग घने।।
ऐसे गणधर ऋषिवर गुरु को, वँदूँ शीश झुका करके।
अर्घ चढ़ाकर रुचि से पूजूँ, मन की भ्रांति दूर करके।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं औषधिऋद्धिभ्यो नम:।
मुनिगण वैयावृत्ति से, मिलती औषधि ऋद्धि।
उन औषधि ऋद्धीश को, नमत सौख्य अभिवृद्धि।।१।।
जय जय गुरुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अतिशीतल है।।
चंदन औ मोतीहार चन्द्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी जिन दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।२।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हो विर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।३।।
प्रत्येक वस्तु में अस्तिरूप, औ नास्तिरूप भी है वो ही।
वो ही उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।।
वो अस्तिरूप औ अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे।
फिर अस्ति नास्ति औ अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।४।।
स्व द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव, इन चारों से वह अस्तिमयी।
पर द्रव्य क्षेत्र कालादिक से, वो ही वस्तू नास्तित्व कही।।
दोनों को क्रम से कहना हो, तब अस्ति नास्ति यह भंग कहा।
दोनों को युगपत् कहने से, हो अवक्तव्य यह तुर्य कहा।।५।।
अस्ती औ अवक्तव्य क्रम से, यह पंचम भंग कहा जाता।
नास्ती औ अवक्तव्य छट्ठा, यह भी है क्रम से बन जाता।।
क्रम से कहने से अस्ति नास्ति, औ युगपत अवक्तव्य मिलके।
यह सप्तम भंग कहा जाता, बस कम या अधिक न हो सकते।।६।।
इस स्प्तभंगमय गंगा में, जो नित अवगाहन करते हैं।
मानस शारीरिक सर्व व्याधि, को क्षण में ही परिहरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
जिनवच औषधि से परम स्वास्थ्य, पाकर शाश्वत सुख लभते हैं।।७।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर से अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।८।।
भगवन! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुतदृग से निज को अवलोवूँ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तजके, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।
फिर केवल ‘‘ज्ञानमती’’ से ही, निज को अवलोवूँ सुख पाऊँ।।९।।
औषधि ऋद्धी पूजते, रोग शोक दुख दूर।
मन वच तन भी स्वस्थ हो, मिले स्वात्मसुख पूर।।१०।।
ॐ ह्रीं अष्टविधऔषधिऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।