जिनदेव के मुख से खिरी, दिव्यध्वनी अनअक्षरी।
गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी, ग्रंथमय रचना करी।।
उन अंग पूरब शास्त्र के ही, अंश ये सब शास्त्र हैं।
उस जैनवाणी को जजूँ, जो ज्ञान अमृत सार है।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागम-
समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागम-
समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागम-
समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
जैन साधु चित्त सम पवित्र नीर ले लिया।
स्वर्ण भृंग में भरा पवित्र भाव मैं किया।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशरादि को घिसाय स्वर्ण पात्र में भरी।
पाप ताप शांति हेतु पूजहूँ इसी घरी।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्ररश्मि के समान धौत स्वच्छ शालि हैं।
पुंज को चढ़ावते भरा सुवर्ण थाल है।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मोगरा गुलाब चंप केतकी चुनाय के।
स्वात्म सौख्य प्राप्त होय पुष्प को चढ़ावते।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डुकादि व्यंजनों से थाल को भराय के।
ज्ञानदेवता समीप भक्ति से चढ़ाय के।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप में कपूर ज्वाल आरती उतारहूं।
ज्ञान पूर जैन भारती हृदय में धारहूं।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप ले दशांग अग्नि पात्र में हि खेवते।
कर्म भस्म हो उड़े सुगंधि को बिखेरते।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब संतरा अनार द्राक्ष थाल में भरे।
मोक्ष फल के हेतु शास्त्र के समीप ले धरे।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वारि गंध शालि पुष्प चरू सुदीप धूप ले।
सत्फलों समेत अर्घ से जजें सुयश मिले।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण भृंग नाल से सुशांति धार देय के।
विश्व शांति हो तुरन्त इष्ट सौख्य देय के।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
गंध से समस्त दिक् सुगंध कर रहे सदा।
पुष्प को समर्पिते न दुख व्याधि हो कदा।।
द्वादशांग जैनवाणी पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञानज्योति हो।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (३८ अर्घ्य)
जिनवाणी है पूज्य, अंग तथा अंग बाह्य जो।
जिनवच जिनसम पूज्य, अत: पूजहूँ भक्ति से।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
मुनियों के आचार प्रधान, उनका पूरण करे बखान।
करो यत्नपूर्वक सब क्रिया, जिससे मिले शीघ्र शिवप्रिया।।
पद हैं आचारांग में, अठरह सहस प्रमाण।
जो पूजें नित अर्घ ले, मिले सौख्य निर्वाण।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतआचारांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
स्व समय पर समयों को कहे, स्त्री के लक्षण वरणये।
सूत्रकृतांग दूसरा अंग, इसको नमत मिले सुख संग।।
दोहा-इसी दूसरे अंग में, पद छत्तीस हजार।
पूजत ही भ्रम नाश के, मिले समय का सार।।२।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतसूत्रकृतांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चौपाई-जीव और पुद्गल के भेद, एक दोय त्रय आदि अनेक।
वर्णे स्थानांग सदैव, पूजत मिले ज्ञान स्वयमेव।।
दोहा-तीजे स्थानांग में, पद ब्यालीस हजार।
जो पूजें वे शीघ्र ही, लहें स्वात्म निधिसार।।३।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतस्थानांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चौपाई-द्रव्य अपेक्षा रहें समान, उसे कहें समवाय सुमान।
क्षेत्र, काल, अरू भाव समान, इनका भी यह करे बखान।।
दोहा- एक लाख चौंसठ सहस, पद इसके हैं जान।
पूजत ही जिनके सदृश, मिलता स्वात्म निधान।।४।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतसमवायांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चौपाई-जीव अस्ति या नास्ति आदि, साठ हजार प्रश्न इत्यादि।
इनका उत्तर देवे नित्य, व्याख्या प्रज्ञप्ती वह सिद्ध।।
दोहा-पद माने दो लाख अरू, अट्ठाईस हजार।
वसुविध अर्घ चढ़ाय हूँ, ाfमले सुगुण भंडार।।५।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतव्याख्याप्रज्ञप्तिअंगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-तीर्थंकर की धर्म कथादि, दिव्यध्वनि से वर्णे सादी।
त्रय संध्या में खिरती ध्वनी, संशय आदि दोष को हनी।।
दोहा-पांच लाख छप्पन सहस, पद हैं इसमें जान।
नाथ धर्म कथांग यह, जजूँ इसे गुणखान।।६।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतनाथधर्मकथांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-पाक्षिक नैष्ठिक साधक भेद, श्रावक के प्रतिमादि अनेक।
इनका वर्णन करे अमंद, सो उपासकाध्ययन सुअंग।।
दोहा-ग्यारह लाख सत्तर सहस, पद हैं इसमें सिद्ध।
जो पूजें नित भाव से, वे पद लहें अनिंद्य।।७।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतउपासकाध्ययनांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-प्रति तीर्थंकर तीरथकाल, दश दश मुिन निज आत्म संभाल।
घोर घोर उपसर्ग सहंत, केवलि हो निर्वाण लहंत।।
दोहा-अन्त:कृत दश नाम यह, अंग जजूँ धर नेह।
तेइस लख अठवीस सहस, पद से यह वर्णेय।।८।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतअंत:कृतदशांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-चौबिस तीर्थंकर का तीर्थ, उनमें हो दश दश मुनि ईश।
घोरोपसर्ग सहनकर मरे, अनुत्तर में इन्द्र अवतरे।।
दोहा-अनुत्तरोपपादिक दश, अंग जजूँ सुखकार।
पद हैं बानवे लाख अरु, चव्वालीस हजार।।९।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतअनुत्तरोपपादिकदशांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-आक्षेपिणि विक्षेपिणि तथा, संवेदनि निर्वेदनि कथा।
नष्ट मुष्टि चिंतादिक प्रश्न, वर्णन करता है यह अंग।।
दोहा-इसमें पद तिरानवे लाख व सोल हजार।
प्रश्नव्याकरण अंग को, जजूँ मिले सुखसार।।१०।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतप्रश्नव्याकरणांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-शुभ वर अशुभ कर्मफल पाक, वर्णन करता अंग विपाक।
द्रव्य क्षेत्र काल अरु भाव, इनके आश्रय कहे स्वभाव।।
दोहा-इस विपाकसूत्रांग में पद हैं एक करोड़।
लाख चुरासी भी कहें, जजूँ सदा कर जोड़।।११।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतविपाकसूत्रांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौपाई-तीन शतक त्रेसठ मत भिन्न, उनका वर्णन करे अखिन्न।
नाना भेद सहित यह अंग, दृष्टिवाद नाम यह अंत।।
दोहा-इक सौ आठ करोड़ अरु पद हैं अड़सठ लाख।
छप्पन हजार पाँच भी, जजूँ नमाकर माथ।।१२।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादांगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
इस दृष्टिवाद के पाँच भेद, परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग।
पूरबगत अरु चूलिका कहीं, इनमें भी कहे प्रभेद योग।।
पहले परिकर्म के पाँच भेद, उनमें शशि प्रज्ञप्ती पहला।
उसमें पद छत्तिस लाख पाँच, हजार जजूँ ले अर्घ भला।।१३।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतचन्द्रप्रज्ञप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दूजा सूरज प्रज्ञप्ति कहा, परिकर्म सूर्य से संबंधी।
आयू मंडल परिवार ऋद्धि, अरु गमन अयन दिन-रात विधी।।
इन सबका वर्णन करता यह, इसको भक्ती से पूजूँ मैं।
पद पाँच लाख अरु तीन सहस, इन वंदत भव से छूटूूँ मैं।।१४।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतसूर्यप्रज्ञप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रज्ञप्ती जंबूद्वीप नाम, यह मेरु कुलाचल क्षेत्रादिक।
वेदिका सरोवर नदी भोग भू जिनमंदिर सुरभवनादिक।।
इस जंबूद्वीप के मध्य विविध, रचना का वर्णन करता है।
पद तीन लाख पच्चीस सहस, इनका अर्चन भव हरता है।।१५।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतजंबूद्वीपप्रज्ञप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
इस मध्य लोक में द्वीप और, सागर हैं संख्यातीत कहे।
किसमें क्या है? यह सब वर्णे, व्यंतर आदिक आवास कहे।।
इसमें पद बावन लाख तथा, छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम भक्ती से पूजें इसको, जिससे भव भव दुख हाने हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतद्वीपसागरप्रज्ञप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
व्याख्या प्रज्ञप्ती परीकर्म, जीवाजीवादिक द्रव्यों को।
भव्यों व अभव्यों सिद्धों को, वर्णे बहु वस्तू भेदों को।।
इसमें पद लाख चुरासी अरु, छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम इसकी पूजा करके ही, निज आत्मा को पहचाने हैं।।१७।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतव्याख्याप्रज्ञप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उस दृष्टिवाद का भेद दूसरा, सूत्र नाम का माना है।
है जीव अबंधक अवलेपक, इत्यादिक करे बखाना है।।
यह क्रिया अक्रिया वादों को, अरु विविध गणित को वर्णे है।
पद हैं अट्ठासी लाख कहे, इसको पूजूँ भवतरणी ये।।१८।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादभेदसूत्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर चक्री हलधर अरु, नारायण प्रतिनारायण हैं।।
त्रेसठ ये शलाकापुरुष कहे, इनके चरित्र को वर्णें ये।।
जिनवर विद्याधर ऋद्धीधर, मुनियों राजादिक पुरुषों को।
वर्णे पद इसमें पाँच सहस, प्रथमानुयोग पूजूँ इसको।।१९।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतदृष्टिवादभेदप्रथमानुयोगाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
चौथा है भेदपूर्व गत जो, इसके भी चौदह भेद कहे।
उत्पाद पूर्व पहला यह भी, उत्पत्ति नाश स्थिति कहे।।
सब द्रव्यों की पर्यायों को, यह वर्णे इसको पूजूँ मैं।
इसमें पद एक करोड़ कहे, वंदत भव दुख से छूटूँ मैं।।२०।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतउत्पादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अग्रायणीय पूरब दूजा, यह सुनय सात सौ अरु दुर्नय।
छह द्रव्य पदार्थों को वर्णे, इसमें पद छ्यानवे लाख अभय।।
इस द्वितिय पूर्व को पूजूँ मैं, इसका कुछ अंश आज भी है।
षट्खण्डागम जो सूत्रग्रंथ, उन भक्ती भव भय हरती है।।२१।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतअग्रायणीयपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
वीर्यानुवाद है तृतिय पूर्व, यह आत्भ वीर्य परवीर्यों को।
तप वीर्यादिक को कहता है, पद सत्तर लाख इसी में हों।।
इसकी भक्ती से शक्ति बढ़े फिर, युक्ति मिले शिवमारग की।
फिर ज्ञान पूर्ण हो मुक्ति मिले, मैं पूजा करूँ सतत इसकी।।२२।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतवीर्यानुप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जो अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, स्वद्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
सब वस्तू का अस्तित्व कहे, नास्तित्व अन्य द्रव्यादिक से।।
यह दुर्नय का खंडन करके, नय द्वारा विधि प्रतिषेध कहे।
इसमें पद साठ लाख मानें, इसको पूजत सम्यक्त्व लहे।।२३।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतअस्तिनास्तिप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो ज्ञानप्रवाद नाम पूरब, प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों का।
मति श्रुत अवधि मनपर्यय अरु, केवल इन पाँचों ज्ञानों का।।
बहुभेद प्रभेद सहित वर्णे, इसको पद पूजत ज्ञान पूर्ण।
इसमें पद इक कम एक कोटि, इस वंदत हो अज्ञान चूर्ण।।२४।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतज्ञानप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह सत्यप्रवाद पूर्व दशविध, सत्यों का वर्णन करता है।
यह सप्तभंग से सब पदार्थ का, सुन्दर चित्रण करता है।।
इसके पूजन से झूठ कपट, दुर्भाषायें नश जाती हैं।
पद एक कोटि छह हैं पूजूँ, दिव्यध्वनि वश हो जाती है।।२५।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतसत्यप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निश्चय से शुद्ध कहा, फिर भी अशुद्ध संसारी है।
व्यवहार नयाश्रित ही कर्मों का, कर्ता है भवकारी है।।
यह आत्मप्रवाद पूर्व कहता, इसमें पद छब्बिस कोटि कहे।
इसको पूजत ही आत्मनिधी, मिलती है जो भवदु:ख दहे।।२६।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतआत्मप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह कर्मप्रवाद पूर्व नाना विध, कर्मों का वर्णन करता।
ईर्यापथ कर्म कृतीकर्मों को, अध: कर्म को भी कहता।।
इसमें पद एक करोड़ लाख, अस्सी हैं इसको पूजूँ मैं।
निज पर का भेद ज्ञान करके, इन आठ करम से छूटूँ मैं।।२७।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतकर्मप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व, वह द्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
नियमित व अनियमित कालों तक, बहुत्याग विधि को बतलाके।।
वस्तू सदोष का त्याग करो, निर्दोष वस्तु भी तप रूचि से।
पद हैं चौरासी लाख कहे, पूजूँ इसको मैं बहु रुचि से।।२८।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतप्रत्याख्यानप्रवादपूर्वाद अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह विद्यानुप्रवाद रोहिणी, आदिक महविद्या पांच शतक।
अंगुष्ठ प्रसेनादिक विद्या, मानी हैं लघु ये सात शतक।।
इनके सब साधन विधि आदि को, वर्णे इसको जजूँ यहाँ।
पद एककोटि दशलाख कहे, इस पढ़ च्युत हों कुछ साधु यहाँ।।२९।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतविद्यानुप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कल्याणप्रवाद पूर्व वर्णे शशि सूर्य ग्रहादिक गमन क्षेत्र।
अष्टांगमहान निमित्तादिक पद इसमें छब्बिस कोटि मात्र।।
तीर्थंकर के कल्याणक को, चक्री आदिक के वैभव को।
यह कहता इसको पूजें हम, इससे कल्याण हमारा हो।।३०।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतकल्याणप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह प्राणावाय प्रवाद पूर्व, इंद्रिय बल आयु उच्छवासों का।
अपघात मरण अरू आयुबंध, आयू अपकर्षण आदी का।।
यह आयुर्वेद के अष्ट अंग का, विस्तृत वर्णन है करता।
इसमें पद तेरह कोटि इसे, पूजत ही स्वास्थ्य लाभ मिलता।।३१।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतप्राणावायप्रवादपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो नृत्यशास्त्र संगीतशास्त्र, व्याकरण छंद अरू अलंकार।
पुरुषादि के लक्षण कहता, जिसमें नवकोटी पद विचार।।
सो है किरिया विशाल पूरब, इसको जो रुचि से भजते हैं।
वे सब शास्त्रों में हों प्रवीण, फिर स्वपर भेद को भजते हैं।।३२।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतक्रियाविशालपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
परिकर्म और व्यवहार रज्जुराशि गुणकार वर्ग घन को।
बहु बीजगणित को भी वर्णे, कहता है मुक्ती स्वरूप को।।
पद बारह कोटि पचास लाख, इसको पूजूँ ले अर्घ भले।
यह लोक बिंदुसार पूरब, इसको वंदत लोकाग्र मिले।।३३।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतलोकबिंदुसारपूर्वाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्टिवाद का भेद चूलिका, पाँच भेद भी उसके हैं।
जलगता पहला जल में स्थलवत् चलना इत्यादिक वर्णे हैं।।
जलस्तंभन के मंत्र तंत्र तप आदि, अग्नि भक्षण आदिक।
पद दो करोड़ नवलाख नवासी सहस द्विशत पूजूँ नितप्रति।।३४।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतजलगताचूलिकायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो स्थलगता चूलिका है, मेरू कुलपर्वत क्षेत्रों को।
उन पर गमनादिक मंत्र तंत्र, तप आदिक बहुविधि कहती वो।।
पद दो करोड़ नव लाख, नवासी हजार दो सौ इसमें हैं।
इसको पूजूँ मैं अर्घ लिये, यह साधन भवदधि तरने में।।३५।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतस्थलगताचूलिकायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो मायागता चूलिका वह, माया का खेल सिखाती है।
बहु इन्द्रजाल क्रीड़ाओं की, मंत्रादि विधी बतलाती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ इसमें हैं।
मैं जजूँ इसे यह कुशल सदा, सब जग की माया हरने में।।३६।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतमायागताचूलिकायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यह रूपगता चूलिका सिंह गज, घोड़ा मनुजादिक बहुविध।
रूपों को धरने के मंत्रों, तप आदिक को वर्णे नितप्रति।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ माने हैं।
मैं जजूँ मिले मुझ आत्मरूप, मुझको पररूप हटाने हैं।।३७।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतरूपगताचूलिकायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
आकाशगता चूलिका सदा, नभ में गमनादि सिखाती है।
बहुविध के मंत्र तंत्र तप के, साधन की विधी बताती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ से वर्णे।
मैं इस आशा से जजूँ मिले, मुझे, लोकाकाश अग्र क्षण में।।३८।।
ॐ ह्रीं जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गतआकाशगताचूलिकायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(१४ अर्घ्य के अंग बाह्य का पूर्णार्घ्य)
अंगबाह्य के भेद हैं, चौदह शास्त्र प्रसिद्ध।
नाम प्रकीर्णक से यही, सामायिक आदीक।।
सामायिक चतुर्विंशतिस्तवन, वंदना प्रतिक्रमण चार मानों।
वैनयिक तथा कृतिकर्म व दश-वैकालिक उत्तराध्ययन जानों।।
नवमां है कल्प्यव्यवहार व कल्प्या-कल्प्य महाकल्प्य संज्ञक हैं।
पुण्डरीक महापुण्डरीक चौदवें निषिद्धिका को प्रणमन हैं।।१।।
ॐ ह्रीं सामायिक-चतुर्विंशतिस्तव-वंदना-प्रतिक्रमण-वैनयिक-कृतिकर्म-दशवैकालिक-
उत्तराध्ययन-कल्प्यव्यवहार-कल्प्याकल्प्य-महाकल्प्य-पुण्डरीक-महापुण्डरीक-
निषिद्धिकानामचतुर्दशांगबाह्यप्रकीर्णक-श्रुतज्ञानेभ्य: पूर्णार्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा।
यह द्वादश अंग व अंग बाह्य, इन रूप दिव्यध्वनि जिनवर की।
हैं जितने जैन शास्त्र अब भी, सब साररूप ध्वनि जिनवर की।।
गंगा का जल घट में भर लें, वैसे हि ग्रंथ जिनवर वाणी।
मैं पूजूँ पूरण अर्घ लिये, इस युग में यह ही कल्याणी।।१।।
ॐ ह्रीं द्वादशांगअंगबाह्यसर्वश्रुतज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व वाङ्मय में कहे, चारनुयोग प्रसिद्ध।
प्रथम करण अरु चरण अरु द्रव्य नाम से सिद्ध।।२।।
ॐ ह्रीं द्वादशांगान्तर्गतचतुरनुयोगेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जितने जिनश्रुत उपलब्ध आज, जिनमंदिर मठ ग्रंथालय में।
गुरुपरम्परा से प्राप्त लिखा, भवभीरु महाव्रति मुनिजन ने।।
सर्व अंग पूर्व के अंश-अंश, जिनवर की वाणी मानी है।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर के, ये स्वात्म सुधारस दानी है।।३।।
ॐ ह्रीं गुरुपरम्परागतजिनमंदिरमठग्रन्थालयस्थितसर्वजिनशास्त्रेभ्य:
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-
चैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:।
दोहा- द्वादशांग हे वाङ्मय! श्रुतज्ञानामृतसिंधु।
गाऊँ तुम जयमालिका, तरूं शीघ्र भवसिंधु।।१।।
-शंभु छंद-
जय-जय जिनवर की दिव्यध्वनी, जो अनक्षरी ही खिरती है।
जय-जय जिनवाणी श्रोताओं को, सब भाषा में मिलती है।।
जय जय अठरह महाभाषाएं, लघु सात शतक भाषाएं हैं।
फिर भी संख्यातों भाषा में, सब समझें जिन महिमा ये है।।२।।
जिनदिव्यध्वनी को सुनकर के, गणधर गूंथे द्वादश अंग में।
बारहवें अंग के पाँच भेद, चौथे में चौदह पूर्ण भणें।।
पद इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस पाँच।
मैं इनका वंदन करता हूँ, मेरा श्रुत में हो पूरणांक।।३।।
इक पद सोलह सौ चौंतीस कोटी, और तिरासी लाख तथा।
है सात हजार आठ सौ अट्ठासी, अक्षर जिन शास्त्र कथा।।
इतने अक्षर का इक पद तब, सब अक्षर के जितने पद हैं।
उनमें से शेष बचें अक्षर, वह अंगबाह्य श्रुत नाम लहे।।४।।
जो आठ कोटि इक लाख आठ, हजार एक सौ पचहत्तर।
चौदह प्रकीर्णमय अंग बाह्य, के इतने ही माने अक्षर।।
यह शब्दरूप अरू ग्रंथरूप, सब द्रव्यश्रुत कहलाता है।
जो ज्ञानरूप है आत्मा में, वह कहा भावश्रुत जाता है।।५।।
जिनको केवलज्ञानी जानें, पर वच से नहिं कह सकते हैं।
ऐसे पदार्थ हैं अनंतानंत, जो तीन भुवन में रहते हैं।।
उनसे भि अनन्तवें भाग प्रमित, वचनों से वर्णित हों पदार्थ।
इन प्रज्ञापनीय से भि अनन्तवें, भाग कथित श्रुत में पदार्थ।।६।।
फिर भी यह श्रुत सब द्वादशांग, सरसों सम इसका आज अंश।
इनमें से भी लवमात्र ज्ञान, हो जावे तो भी जन्म धन्य।।
यह जिन आगम की भक्ती ही, निज पर का भान कराती है।
यह भक्ती ही श्रुतज्ञान पूर्ण कर, श्रुतकेवली बनाती है।।७।।
श्रुतज्ञान व केवलज्ञान उभय, ज्ञानापेक्षा हैं सदृश कहे।
श्रुतज्ञान परोक्ष लखे सब कुछ, बस केवलज्ञान प्रत्यक्ष लहे।।
अंतर इतना ही तुम जानो, इसलिए जिनागम आराधो।
स्वाध्याय मनन चिंतन करके, निजआत्म सुधारस को चाखो।।८।।
इन ढाईद्वीप में कर्मभूमि में, जितने जिनवर होते हैं।
उन सबकी ध्वनि जिनआगम है, इससे अघमल को धोते हैं।।
जिनवचपूजा जिनपूजा सम, यह केवल ज्ञान प्रदाता है।
नित पूजूँ ध्याऊँ गुण गाऊँ, यह भव्यों को सुखदाता है।।९।।
है नाम भारती सरस्वती, शारदा हंसवाहिनी तथा।
विदुषी वागीश्वरी और कुमारी, ब्रह्मचारिणी सर्वमता।।
विद्वान जगन्माता कहते, ब्राह्मणी व ब्रह्माणी वरदा।
वाणी भाषा श्रुतदेवी गौ, ये सोलह नाम सर्व सुखदा।।१०।।
हे श्रुतमात:! अमृतझरिणी, मेरा मन निर्मल शांत करो।
स्याद्वाद सुधारस वर्षाकर, सब दाह हरो मन तृप्त करो।।
हे जिनवाणी माता मुझ, अज्ञानी की नित रक्षा करिये।
दे केवल ‘ज्ञानमती’ मुझको, फिर भले उपेक्षा ही करिये।।११।।
दोहा- भूत भविष्यत् संप्रति, त्रैकालिक जिनशास्त्र।
त्रिकरण शुद्धी मैं नमूँ, मिले सिद्धि सर्वार्थ।।१२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि-सप्तत्यधिकशतकर्मभूमिषुश्रीजिनेन्द्रदेवमुख-
कमलविनिर्गतद्वादशांगअंगबाह्यसर्वजिनागमेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शेरछंद- जो भक्ति से नवदेवता विधान करेंगे।
वे भव्य नवोनिधि से भंडार भरेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ से नवलब्धि वरेंगे।
फिर मोक्षमहल में अनंत सौख्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।