-अथ स्थापना (गीता छंद )-
वर पूर्व पुष्कर अर्ध में, जो पूर्व अपर विदेह हैं।
उनमें सदा तीर्थेश विहरें, भव्यजन सुखदेय हैं।।
श्री चंद्रबाहू भुजंगम, ईश्वर व नेमिप्रभ जिना।
पूजूँ इन्हें आह्वान कर, पाऊँ अतुल सुख आपना।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुभुजंगम-
ईश्वर-नेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुभुजंगम-
ईश्वरनेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुभुजंगम-
ईश्वरनेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्नधीकरणं स्थापनं ।
-अथ अष्टक (नरेंद्र छंद )-
पद्म सरोवर का जल लेकर, कंचन झारी भरिये।
तीर्थंकर पद धारा देकर, जन्म मरण को हरिये।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
मलयागिरि चंदन काश्मीरी, केशर संग घिसायो।
जिनवर चरण सरोरुह चर्चत, अतिशय पुण्य कमायो।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनंं निर्वपामीति स्वाहा ।
मोती सम तंदुल उज्ज्वल ले, धोकर थाल भराऊँ।
तीर्थंकर पद पुञ्ज चढ़ाकर, अक्षय सुख को पाऊँ।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतंं निर्वपामीति स्वाहा ।
चंपा हरसिंगार चमेली, माला गूंथ बनाई।
तीर्थंकर पद कमल चढ़ाकर, कामव्यथा विनशाई।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: कामबाणविनाशनाय पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा ।
फेनी गुझिया पूरणपोली, बरफी और समोसे।
प्रभु के सन्मुख अर्पण करते, क्षुधा डाकिनी नाशें।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यंं निर्वपामीति स्वाहा ।
रत्नदीप की ज्योती जगमग,करती तिमिर विनाशे।
प्रभु तुम आरति करते करते, ज्ञान ज्योति परकाशे।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपंं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप दशांगी धूप घटों में,खेवत उठे सुगंधी।
पाप पुञ्ज जलते इक क्षण में, पैले सुयश सुगंधी।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
सेव अनार आम सीताफल, ताजे सरस फलों से।
पूजूँ चरण कमल जिनवर के, मिले मोक्षफल सुख से।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलंंं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल फल अर्घ्य सजाकर उसमें, चांदी पुष्प मिलाऊँ।
वाद्य गीत संगीत नृत्य कर, प्रभु को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
विहरमाण चारों तीर्थंकर, त्रिभुवन मंगलकारी।
मैं पूजूँ नित सत्त्व हितंकर, आतम गुण भण्डारी।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थितश्रीचंद्रबाहुआदि-
चतुस्तीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा ।
—सोरठा—
नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पाञ्जलि अर्पण करूँ।
मिले आत्मसुख लाभ, जिनपदपंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—अथ प्रत्येक अर्घ्य (दोहा)—
पूरब पुष्कर द्वीप में, विहरमाण तीर्थेश।
पुष्पाञ्जलि कर पूजते, मिले चिदानंद वेश।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
—रोला छंद—
छह महिने ही पूर्व, धनद रतन बरसाये।
गर्भ बसे प्रभु आप, सब जन मन हर्षाये।।
इंद्र सुरासुर संघ, उत्सव करते भारी।
हम पूजें धर प्रीति, जिनवर पद सुखकारी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरब पुष्कर द्वीप, सीता नदि उत्तर में।
देवनंदि पितु मात-सती रेणुका गृह में।।
चंद्रबाहु जिन जन्म, त्रिभुवन मंगलकारी।
इंद्र किया अभिषेक, मैं पूजूँ सुखकारी।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्म चिन्ह धर नाथ, विरतमना सब जग से।
लौकान्तिक सुर आय, बहु स्तवन उचरते।।
इंद्र सपरिकर आय, तपकल्याणक करते।
हम पूजें नत माथ, सब दुख संकट हरते।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान विकास, प्राप्त किया प्रभु तप से।
समवसरण में नाथ, राजें अधर कमल पे।।
इंद्र करें बहु भक्ति, बारह सभा बनी हैं।
सभी भव्य जन आय, सुनते दिव्यध्वनी हैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पायेंगे निर्वाण, कर्म अघाति नशाके।
आत्यन्तिक सुख शांति, काल अनंतानंते।।
विहरमाण हैं आज, फिर भी शिव पायेंगे।
जजें मोक्षकल्याण, हम भी शिव जायेंगे।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
चंद्रबाहु तीर्थेश के, पंचकल्याणक वंद्य।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ायके, पाऊँ सुख अभिनंद्य।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रबाहुतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—चौपाई—
पूरब पुष्कर पूर्व विदेह, सीता नदि दक्षीण दिशेह।
विजया नगरी जिनमति मात, पूजूँ गर्भकल्याणक नाथ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पिता महाबल हर्षित धन्य, श्री भुजंगम प्रभु का जन्म।
मैं पूजूँ चरणाब्ज जिनेंद्र, जन्म कल्याण जजें शत इंद्र।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र चिन्ह जनवत्सल नाथ, हुये विरक्त महा बड़भाग।
लौकान्तिक सुर भक्ति विशाल, दीक्षा धरी नमूँ नत भाल।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्लध्यानधारी भगवान, घात घाति ले केवलज्ञान।
समवसरण में प्रभु राजन्त, भक्ति भाव शत इंद्र जजंत।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिराज्य पायेंगे नाथ, मुझ अनाथ को करें सनाथ।
भक्ति धार मन पूजूँ आज, पाऊँ त्रिभुवन का साम्राज।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
लोकोत्तर फलप्रद प्रभो! कल्पवृक्ष जिनदेव।
नाथ भुजंगम प्रभु तुम्हें,नमूँ करूँ नित सेव।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री भुजंगमतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य:पूर्णार्र्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि:।
—सखी छंद—
पुष्कर में अपर विदेहा, सीतोदा नदि तट गेहा।
सुर वंदित नगरि सुसीमा, ‘गलसेन’पिता की महिमा।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ ‘ज्वालामति’सुत जन्में, सुर जन्ममहोत्सव कीने।
‘ईश्वरप्रभु’ नाम तुम्हारा, है सूर्य चिन्ह सुखकारा।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैराग्य समाया मन में, दीक्षा धारी प्रभु वन में।
इंद्रों से पूजा पाई, हम पूजें मन हर्षायी।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ध्यान धरा तरु तल में, केवलरवि प्रगटा निज में।
बारह गण को उपदेशा, हम पूजें भक्ति समेता।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमानन्द पद पायेंगे, शिवपुरी प्रभू जायेंगे।
शत इंद्र करेंगे अर्चा, पूजन से निज सुख मिलता।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
ईश्वर नाथ जिनेंद्र के, पंचकल्याणक धन्य।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ायके, पाऊँ निज पद रम्य।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ईश्वरतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—शंभु छंद—
पूरब पुष्कर पश्चिमविदेह, सीतोदा नदि के उत्तर में।
हैं नगरि अयोध्या के स्वामी, उनकी रानी देखें सपने।।
धनपति ने माता आंगन में, रत्नों की वर्षा अतिशय की।
हम गर्भ कल्याणक को पूजें, नहिं गर्भवास हो पुन: कभी।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जन्में इंद्रासन कंपे, सुरतरु से स्वयं पुष्प बरसे।
सुरगिरि पर सुरपति ले करके, जन्मोत्सव करके अति हरषे।।
प्रभु नाम ‘नेमिप्रभ’घोषित कर, माता के आंगन में लाये।
उन वृषभ चिन्ह को मैं पूजूँ , मेरी मन कलियाँ खिल जायें।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु वैरागी बन वन पहुँचे, कर केशलोंच जिनदीक्षा ली।
इंद्रों ने अतिशय पूजा की, प्रभु जिनवर मुनिचर्या पाली।।
इस घड़ी प्रभू को हम पूजें, निज दीक्षा का फल मिल जावे।
समकित संयम सुसमाधि मिले, भव भव का भ्रमण विनश जावे।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट ध्यान के बल से प्रभु , घाती कर्मों का घात किया।
वैâवल्यश्री को प्राप्त किया , क्षण में त्रिभुवन साक्षात् किया।।
इंदों ने संख्यातीत देव, देवी सह आकर पूजा की।
प्रभु केवलज्ञान कल्याण जजूँ , सज्ज्ञानज्योति प्रगटे निज की।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण कर्म को हन करके, प्रभु मुक्तिपुरी को जावेंगे।
उन मोक्ष कल्याणक का उत्सव, सुर नर मुनि सभी मनावेंगे।।
मैं मोक्ष कल्याणक पूजा कर, अतिशायी पुण्य प्राप्त कर लूँ।
फिर स्वयं अतींद्रिय पद पाकर, निज गुण अनंत निज में भर लूँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरमोक्षवल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर।
प्रभु मुझ कलिमल धोयके, भर दीजे सुखपूर।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिप्रभतीर्थंकरपंचकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
—पूर्णार्घ्य-दोहा—
नित्य निरंजन ज्योतिमय, परम पिता परमेश।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ायके, जिनवर चरण हमेश।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीचंद्रबाहु-
भुजंगमईश्वरनेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य:पूर्णार्घ्यंंं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पाञ्जलि: ।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
—नरेन्द्र छंद—
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदें।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
जय जय चंद्रबाहु तीर्थंकर, जय तीर्थेश भुजंगम।
जय जय ईश्वर तीर्थंकर प्रभु , जय नेमिप्रभ अनुपम।।१।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।२।।
इनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आस-पास के कुण्ड नीर में, पग धोती जनता है।।
प्रथम चैत्य प्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लता भूमि उपवन में, पुष्प खिले अति नीके।।३।।
वन भूमी के चारों दिश में, चैत्य वृक्ष में प्रतिमा।
कल्प भूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अति महिमा।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजायें, लहर लहर लहरायें।
भवन भूमि के जिनबिंबों को, हम नित शीश झुकायें।।४।।
श्रीमण्डप में बारह कोठे, मुनिगण सुर नर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।
गणधर गुरु के पावन चरणों, झुक झुक शीश नमाऊँ।
सर्व रिद्धि के स्वामी गुरु को, वंदत विघ्न नशाऊँ।।५।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इंद्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़ कर, मेरे भव दुख हाने।।६।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, चिंतित फल दातार।
‘‘ज्ञानमती’’ सुख संपदा, दीजे निज गुण सार।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वापरविदेहक्षेत्रस्थविहरमाणश्रीचंद्रबाहु-
भुजंगमईश्वरनेमिप्रभनामचतुस्तीर्थंकरेभ्य:जयमाला पूर्णार्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो विहरमाण जिनेंद्र बीसों का सदा अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवर्द्धन करें।।
इस लोक के सुख भोगकर फिर सर्व कल्याणक धरें।
स्वयमेव केवल ‘‘ ज्ञानमति ’’ हो मुक्ति लक्ष्मी वश करें।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।