इस प्रकार महाराज भरत के द्वारा प्रार्थना किये गये आदिनाथ भगवान् सातिशय गंभीर वाणी से पुराण का अर्थ कहने लगे। उस समय भगवान के मुख से जो वाणी निकल रही थी, वह बड़ा ही आश्चर्य करने वाली थी, क्योंकि उसके निकलते समय न तो तालु, कण्ठ, ओंठ आदि अवयव ही हिलते थे और न दाँतों की किरण ही प्रकट हो रही थी। अथवा सचमुच में भगवान् का मुखकमल ही इस सरस्वती का उत्पत्ति स्थान था। उसने वहाँ उत्पन्न होकर ही जगत् को वश में किया। भगवान् के मुख से जो दिव्यध्वनि प्रगट हो रही थी, वह बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी, सो ठीक है, क्योंकि जगत् का उद्धार चाहने वाले महापुरुषों की चेष्टाएँ आश्चर्य करने वाली ही होती हैं। जिस प्रकार नहरों के जल का प्रवाह एकरूप होने पर भी अनेक प्रकार के वृक्षों को पाकर अनेकरूप हो जाता है, उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की वाणी एकरूप होने पर भी पृथक्-पृथक् श्रोताओं को प्राप्त कर अनेकरूप हो जाती है।
भावार्थ-भगवान् की दिव्यध्वनि उद्गमस्थान से एकरूप ही प्रकट होती है परन्तु उसमें सर्वभाषारूप परिणमन होने का अतिशय होता है, जिससे सब श्रोता लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं। वे जगद्गुरु भगवान् स्वयं कृतकृत्य होकर भी धर्मोेपदेश के द्वारा दूसरों की भलाई के लिए उद्योग करते थे। इससे निश्चय होता है कि महापुरुषों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही परोपकार के लिए होती हैं। उनके मुख से प्रकट हुई दिव्यवाणी ने उस विशाल सभा को अमृत की धारा के समान सन्तुष्ट किया था क्योंकि अमृतधारा के समान ही उनकी वाणी भव्यजीवों का सन्ताप दूर करने वाली थी, जन्म-मरण के दु:ख से छुड़ाने वाली थी। महाराज भरत ने पहले जो कुछ पूछा था, उस सबको भगवान् वृषभदेव बिना किसी कष्ट के क्रमपूर्वक कहने लगे। जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उत्सर्पिणीकालसंबंधी तिरेसठ शलाकापुरुषों का चरित्र निरूपण करने वाले अत्यन्त गंभीर पुराण का निरूपण किया, फिर अवसर्पिणीकाल का आश्रय कर तत्संबंधी तिरेसठ शलाकापुरुषों की कथा कहने की इच्छा से पीठिकासहित उनके पुराण का वर्णन किया। प्रथम तीर्थंकर भगवान के ऋषभदेव, वृषभदेव, आदिनाथ, पुरुदेव और आदिब्रह्मा ऐसे अनेक नाम प्रसिद्ध हैं। इनके प्रथम गणधर के भी वृषभसेन और ऋषभसेन ये दो नाम प्रसिद्ध हैं। भगवान् वृषभनाथ ने तृतीय काल के अन्त में जो पूर्वकालीन इतिहास कहा था, वृषभसेन गणधर ने उसे अर्थरूप से अध्ययन किया। तदनन्तर गणधरों में प्रधान वृषभसेन गणधर ने भगवान् की वाणी को अर्थरूप से हृदय में धारणकर जगत् के हित के लिए उसकी पुराणरूप से रचना की।
वही पुराण अजितनाथ आदि शेष तीर्थंकरों, गणधरों तथा बड़े-बड़े ऋषियों द्वारा प्रकाशित किया गया। तदनन्तर चतुर्थकाल के अंत में एक समय सिद्धार्थ राजा के पुत्र सर्वज्ञ महावीर स्वामी विहार करते हुए राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आकर विराजमान हुए। इसके बाद पता चलने पर राजगृही के अधिपति विनयवान् श्रेणिक महाराज ने जाकर उन अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर से उस पुराण को पूछा। महाराज श्रेणिक के प्रति महावीर स्वामी के अनुग्रह का विचार कर गौतम गणधर ने उस समस्त पुराण का वर्णन किया। गौतम स्वामी चिरकाल तक उसका स्मरण-चिन्तवन करते रहे, बाद में उन्होंने उसे सुधर्माचार्य से कहा और सुधर्माचार्य ने जम्बूस्वामी से कहा। उसी समय से लेकर आज तक यह पुराण बीच में नष्ट नहीं होने वाली गुरुपरम्परा के क्रम से चला आ रहा है। इसी पुराण का मैं भी इस समय शक्ति के अनुसार प्रकाश करूँगा। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि इस पुराण के मूलकर्ता अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं और निकट क्रम की अपेक्षा उत्तर ग्रंथकर्ता गौतम गणधर हैं। महाराज श्रेणिक के प्रश्न को उद्देश्य करके गौतम स्वामी ने जो उत्तर दिया था, उसी का अनुसंधान-विचार कर मैं इस पुराण ग्रंथ की रचना करता हूँ। यह प्रतिमुख नाम का प्रकरण कथा के संबंध को सूचित करने वाला है तथा कथा की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उपयोगी है अत: मैंने यहाँ उसका वर्णन किया है। यह पुराण ऋषियों के द्वारा कहा गया है इसलिए निश्चय से प्रमाणभूत है। अतएव आत्मकल्याण चाहने वालों को इसका श्रद्धान, अध्ययन और ध्यान करना चाहिए। यह पुराण पुण्य बढ़ाने वाला है, पवित्र है, उत्तम मङ्गलरूप है, आयु बढ़ाने वाला है, श्रेष्ठ है, यश बढ़ाने वाला है और स्वर्ग प्रदान करने वाला है। जो मनुष्य इस पुराण की पूजा करते हैं, उन्हें शान्ति की प्राप्ति होती है, उनके सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं, जो इसके विषय में जो कुछ पूछते हैं उन्हें सन्तोष और पुष्टि की प्राप्ति होती है, जो इसे पढ़ते हैं, उन्हें आरोग्य तथा अनेक मङ्गलों की प्राप्ति होती है और जो सुनते हैं, उनके कर्मों की निर्जरा हो जाती है। इस पुराण के अध्ययन से दु:ख देने वाले खोटे स्वप्न नष्ट हो जाते हैं तथा सुख देने वाले अच्छे स्वप्नों की प्राप्ति होती है, इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है तथा विचार करने वालों को शुभ-अशुभ आदि निमित्तों-शकुनों की उपलब्धि भी होती है।
अब मैं देवाधिदेव स्वयंभू भगवान् वृषभदेव को नमस्कार कर उनके इस महापुराणसंबंधी उपोद्धात-प्रारंभ का विस्तार के साथ कथन करता हूँ। अथानन्तर धर्म का स्वरूप जानने में जिसकी बुद्धि लग रही है, ऐसे बुद्धिमान श्रेणिक महाराज ने गणनायक गौतम स्वामी से पूछा-हे भगवन्! श्री वद्र्धमान स्वामी के मुख से यह सम्पूर्ण पुराण अर्थरूप से मैंने सुना है अब आपके अनुग्रह से उसे ग्रंथरूप से सुनना चाहता हूँ। इस प्रकार प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में ही भगवान महावीर स्वामी की वाणी के अनुसार एवं श्री गौतम स्वामी के उत्तम के अनुसार ही इन ग्रंथों का अवतार हुआ है। ऐसा महापुराण के कर्ता श्री जिनसेनाचार्य का कथन है। इस महापुराण अन्तर्गत आदिपुराण का कथन है तथा उत्तरपुराण एवं अन्य भी पद्मपुराण आदि ग्रंथों के आधार से इस ‘महापुराण सार’ ग्रंथ में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलभद्र, नव नारायण एवं नव प्रतिनारायण इन त्रेसठ शलाका पुरुषों का जीवन वृत्त वर्णित है।