-अथ स्थापना-
पद्म प्रभू जिन मुक्तिरमा के नाथ हैं।
श्री आनन्त्य चतुष्टय सुगुण सनाथ हैं।।
गणधर मुनिगण हृदय कमल में धारते।
आह्वानन कर जजत कर्म संहारते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चौपाई छंद-
कर्म पंक प्रक्षालन काज, जल से पूजूँ जिन चरणाब्ज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घिसूँ कपूर मिलाय, पूजूँ आप चरण सुखदाय।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र किरण सम तंदुल श्वेत, पुंज चढ़ाऊँ निज पद हेत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुल कमल सुम हरसिंगार, चरण चढ़ाऊँ हर्ष अपार।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कलाकंद गुझिया पकवान, तुम्हें चढ़ाऊँ भवदु:ख हान।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति करे उद्योत, पूजत ही हो निज प्रद्योत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांग अग्नि में ज्वाल, दुरित कर्म जलते तत्काल।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला द्राक्ष बदाम, पूजत हो निज में विश्राम।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य चढ़ाय जजूँ जिनराज, प्रभु तुम तारण तरण जिहाज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत ‘ज्ञानमती’ सुख सद्म।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-पद्मप्रभू पदपद्म में, शांतीधार करंत।
चउसंघ में भी शांति हो, मिले भवोदधि अंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल कमल नीले कमल, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(मण्डल पर पाँच अर्घ्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
कौशाम्बी नगरी के राजा, धरण राज के आंगन ही।
वर्षे रतन सुसीमा माता, हर्षी गर्भ बसे प्रभुजी।।
माघकृष्ण छठ तिथि उत्तम थी, इन्द्रों ने इत आ करके।
गर्भ महोत्सव किया मुदित हो, हम भी पूजें रुचि धरके।।१।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां श्रीपद्मप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक कृष्णा तेरस तिथि में, पद्मप्रभू ने जन्म लिया।
इन्द्राणी माँ के प्रसूतिगृह, जाकर शिशु का दर्श किया।।
सुरपति जिन शिशु गोद में लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
नेत्र हजार बना करके प्रभु, दर्शन कर अति मुदित हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मृति से विरक्त होकर, कार्तिक कृष्णा तेरस में।
निवृति करि पालकी सजाकर, इन्द्र सभी आये क्षण में।।
सुभग मनोहर वन में पहुँचे, प्रभु ने दीक्षा स्वयं लिया।
बेला कर ध्यानस्थ हो गये, जजत मिले वैराग्य प्रिया।।३।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी पूनम तिथि शुभ थी, नाम मनोहर वन उत्तम।
शुक्लध्यान से घात घातिया, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियाँ जिनगुण गायें।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापूर्णिमायां श्रीपद्मप्रभजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि चौथ तिथी सायं, प्रभु सम्मेद शिखर गिरि से।
एक हजार मुनी के संग में, मुक्ति राज्य पाया सुख से।।
इन्द्र असंख्यों देव देवियों, सहित जहाँ आये तत्क्षण।
प्रभु निर्वाण कल्याणक पूजेंं, जजूँ भक्ति से मैं इस क्षण।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपद्मप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य (दोहा)- श्री पद्मप्रभ पदकमल, शिवलक्ष्मी के धाम।
पूजूँ पूरण अर्घ्य ले, मिले निजातम धाम।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभ पंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय नम:।
दोहा- श्रीपद्मप्रभु गुणजलधि, परमानंद निधान।
गाऊँ गुणमणि मालिका, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
-चामरछंद-
देवदेव आपके पदारिंवद में नमूँ।
मोह शत्रु नाशके समस्त दोष को वमूँ।।
नाथ! आप भक्ति ही अपूर्व कामधेनु है।
दु:खवार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य देन है।।२।।
जीव तत्त्व तीन भेद रूप जग प्रसिद्ध है।
बाह्य अंतरातमा व परम आत्म सिद्ध हैं।।
मैं सुखी दु:खी अनाथ नाथ निर्धनी धनी।
इष्ट मित्र हीन दीन आधि व्याधियाँ घनी।।३।।
जन्म मरण रोग शोक आदि कष्ट देह में।
देह आत्म एक है अतेव दु:ख हैं घने।।
आतमा अनादि से स्वयं अशुद्ध कर्म से।
पुत्र पुत्रियाँ कुटुंब हैं समस्त आत्म के।।४।।
मोह बुद्धि से स्वयं बहीरात्मा कहा।
अंतरातमा बने जिन्ोन्द्र भक्ति से अहा।।
मैं सदैव शुद्ध सिद्ध एक चित्स्वरूप हूँ।
शुद्ध नय से मैं अनंत ज्ञान दर्श रूप हूँ।।५।।
आप भक्ति के प्रसाद शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो।
आप भक्ति के प्रसाद दर्श मोह नाश हो।।
आप भक्ति के प्रसाद से चरित्र धारके।
जन्मवार्धि से तिरूँ प्रभो! सुभक्तिनाव से।।६।।
दो शतक पचास धनुष तुंग आप देह है।
तीस लाख वर्ष पूर्व आयु थी जिनेश हे।।
पद्मरागमणि समान देह दीप्तमान है।
लालकमल चिन्ह से हि आपकी पिछान है।।७।।
वङ्का चामरादि एक सौ दशे गणाधिपा।
तीन लाख तीस सहस साधु भक्ति में सदा।।
चार लाख बीस सहस आयिकाएँ शोभतीं।
तीन रत्न धारके अनंत दु:ख धोवतीं।।८।।
तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका कहे।
जैन धर्म प्रीति से असंख्य कर्म को दहें।।
एकदेश संयमी हो देव आयु बांधते।
सम्यक्त्व रत्न से हि वो अनंत भव निवारते।।९।।
धन्य आज की घड़ी जिनेन्द्र अर्चना करूँ।
पद्मप्रभ की भक्ति से यमारि खंडना करूँ।।
राग द्वेष शत्रु की स्वयंहि वंचना करूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ ज्योति से अपूर्व संपदा भरूँ।।१०।।
दोहा- धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर।
मेरे कलिमल धोय के, भर दीजे सुखपूर।।११
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
सोरठा-छठे तीर्थकर आप, सौ इन्द्रों से वंद्य हो।
जजत बनें निष्पाप, दुख दरिद्र संकट टलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।