-स्थापना-दोहा-
सोलहकारण भावना, भाते जो चित लाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति का, करते वही उपाय।।१।।
उसमें सप्तम भावना, तप संज्ञा से प्रसिद्ध।
जिसको भाकर योगिजन, पाते हैं पद सिद्ध।।२।।
उसकी पूजन हेतु मैं, करूँ यहाँ आह्वान।
संस्थापन सन्निधिकरण, कर मैं बनूँ महान।।३।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपो भावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपो भावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपो भावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-हमरी गुलाबी चुनरिया……..
भक्ति की भरली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
क्षीर समुद्र से जल भर लाए-२ प्रभु पद में डारें गगरिया….कि भव पार….।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।१।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
मलयागिरि चंदन से प्रभु जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।२।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
अक्षत के पुंजों से प्रभू जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।३।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
चंपा चमेली पुष्पों से प्रभु जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।४।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
क्षुध नाश हेतू नैवेद्य से प्रभु, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।५।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
दीपक से आरति करके प्रभू जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।६।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
धूप चढ़ाकर अग्नि में प्रभु जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।७।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
मीठे सरस फल लेकर प्रभू जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया….कि भव पार…..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।८।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
भक्ति की भर ली गगरिया।
तू भव पार कर दे संवरिया।।टेक.।।
जल फल सहित अर्घ्य लेकर के प्रभु जी, पूजूँ मैं सारी उमरिया..कि भव पार..।
तप भावना की पूजा रचाई-२, चलना है मुक्ति डगरिया….कि भव पार….।।९।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतीधारा मैं करूँ, जल का कलश मंगाय।
निज मन को पावन करूँ, तपो भावना भाय।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि के हेतु मैं, पुष्प सुगंधित लाय।
निज मन को पावन करूँ, तपो भावना भाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(सातवें वलय में १२ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-सोरठा-
सोलहकारण में, शक्तीतस्तप भावना।
उसके पालन हेत, कर लूँ आतम साधना।।१।।
इति मण्डलस्योपरि सप्तमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-कुसुमलता छंद-
बाह्य तपों में अनशन तप, पहला है जिनशासन में।
व्रत उपवासादिक करके जो, भरे शक्ति आतम में।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।१।।
ॐ ह्रीं अनशनतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अवमौदर्य दूसरे तप में, भूख से कम खाते हैं।
इस तप को करने वाले, भी तपसी कहलाते हैं।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।२।।
ॐ ह्रीं अवमौदर्यतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ अटपटा नियम लेकर, मुनि आहार को जाते।
वृत्तपरीसंख्यान तपस्या, युक्त वही कहलाते।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।३।।
ॐ ह्रीं वृत्तपरिसंख्यानतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घी-शक्कर-दधि-दूध-नमक अरु, तेल नाम षट्रस हैं।
कुछ या सबका त्याग करें जो, वही धरें यह तप हैं।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।४।।
ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विविक्तशय्यासन नामक तप, मुनिजन पालन करते।
गुरूसंघ में रहकर वे, विधिवत् शयनासन करते।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।५।।
ॐ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आतापन योगादिक करके, तन को क्लेशित करना।
कायक्लेश तप कहलाता है, इसे शक्तिसम करना।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।६।।
ॐ ह्रीं कायक्लेशतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्तरंग छह तप भेदों में, प्रायश्चित्त प्रथम है।
दोष शुद्धि हित गुरु से प्रायश्चित, ले करते पालन हैं।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।७।।
ॐ ह्रीं प्रायश्चित्ततपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव शास्त्र गुरुओं की विनय, करना भी तप कहलाता।
इसका पालन करने वाला, सदा ऊर्ध्वगति पाता।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।८।।
ॐ ह्रीं विनयतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुओं की सेवा करना है, वैय्यावृत्ति तप माना।
जिनशास्त्रों में इस वैयावृत्ति, का गुण बहुत बखाना।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।९।।
ॐ ह्रीं वैय्यावृत्तितपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनआगम को पढ़ना और, पढ़ाना ही स्वाध्याय कहा।
पंचभेद युत इसको करके, ज्ञानमयी उपयोग रहा।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।१०।।
ॐ ह्रीं स्वाध्यायतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्तरंग बहिरंग परिग्रह, त्याग निजात्मा शुद्ध करो।
मुनि बनकर व्युत्सर्ग तपो-धारक बन स्वयंप्रबुद्ध बनो।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।११।।
ॐ ह्रीं व्युत्सर्गतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आर्तरौद्र दुर्ध्यान को तजकर, धर्मशुक्ल ध्यानी बनना।
ध्यान तपस्या कर भव्यात्मन्! शुद्धातमज्ञानी बनना।।
यहाँ शक्तितस्तपो भावना-हेतू अर्घ्य चढ़ाना।
जिनने इसको प्राप्त किया है, उनको शीश झुकाना।।१२।।
ॐ ह्रीं ध्यानतपरूपशक्तितस्तपोभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तर्ज-आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ…….
पूर्ण अर्घ्य ले करें अर्चना, सोलहकारण धाम की।
इसके माध्यम से कर लें हम, यात्रा सिद्धस्थान की।।
जय जय जैन धरम, बोलो जय जय जैन धरम-२।।टेक.।।
शक्ति के अनुसार तपस्या, करते हैं जो नर नारी।
फिर क्रमश: अभ्यास बढ़ाकर, वर सकते वे शिवनारी।।
इसी भावना हेतु जपें हम, माला तप के नाम की।
इसके माध्यम से कर लें हम, यात्रा सिद्धस्थान की।।
जय जय जैन धरम, बोलो जय जय जैनधरम।।१।।
ॐ ह्रीं द्वादशविधतपरूप शक्तितस्तपोभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शक्तितस्तपो भावनायै नम:।
तर्ज-तीरथ करने चली सती………
दीक्षा लेकर करूँ महातप, कब ऐसा दिन आएगा।
मेरा मन सोलह कारण की, तपो भावना भाएगा।।टेक.।।
ऋषभदेव ने सहस वर्ष तप, कर वैवल्यज्ञान पाया।
युग की आदि में इस धरती पर, धर्मतीर्थ को प्रगटाया।।
उनके पद चिन्हों पर चलकर, मन पावन बन जाएगा।
मन पावन बन जाएगा।।दीक्षा…..।।१।।
वीर प्रभू ने बारह वर्ष का, तप कर आत्मज्ञान पाया।
बाल ब्रह्मचारी बन जग को, अपना गौरव बतलाया।।
उनके पदचिन्हों पर चलकर, मन पावन बन जाएगा।
मन पावन बन जाएगा।।दीक्षा……।।२।।
वीर प्रभू की परम्परा में, शांतिसागराचार्य हुए।
प्रथमाचार्य बीसवीं सदि के, तपोमूर्ति साकार हुए।।
उनके पदचिन्हों पर चलकर, मन पावन बन जाएगा,
मन पावन बन जाएगा।।३।।
वर्तमान के मुनि-आर्यिका, भी तपसाधन करते हैं।
मूलगुणों का पालन, रत्नत्रय आराधन करते हैं।।
उनके पदचिन्हों पर चलकर, मन पावन बन जाएगा।
मन पावन बन जाएगा।।४।।
इसी शक्तितस्तपोभावना, की जयमाला गाते हैं।
पूर्ण अर्घ्य ‘चन्दनामती’, हम तपस्वियों को चढ़ाते हैं।।
उनके पदचिन्हों पर चलकर, मन पावन बन जाएगा।
मन पावन बन जाएगा।।५।।
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपोभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।