स्थापना-नरेन्द्र छंद
भव्यजनों को भववारिधि से, कैसे पार करूँ मैं।
अतिकरुणा से धर्मध्यानमय भाव धरें नित मन में।।
ऐसे धार्मिक मनुज तीर्थंकर प्रकृति बंध करते हैं।
उन तीर्थंकरों को जजते ही शिव लक्ष्मी वरते है।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्र समूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:
ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-भुजंगप्रयात छंद
महापुण्य भंडार हो तीर्थनामी।
जजूँ नीर से मैं तुम्हें मोक्षगामी।।
प्रभू नाम के मंत्र को नित्य वंदूँ।
महापंच परिवर्तनों को विखंडूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
महाशांति सिंधू सभी शील पूरे।
जजूँ आपको गंध से ताप चूरें।।प्रभू.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सुचित्पिंड आनंद कंदा तुम्ही हो।
शालि के पुंज से आप ही हो।।प्रभू.।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
रतीनाथ के आप ही तो विजेता।
जजूँ पुष्प से आप को मुक्ति नेता।।प्रभू.।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी दोष से शून्य हो आप ही हो।
परं तृप्ति हेतू जजूँ मैं तुम्हीं को।।
प्रभू नाम के मंत्र को नित्य वंदूँ।
महापंच परिवर्तनों को विखंडूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परं ज्योतिधारी तुम्हें दीप से मैं।
जजूँ ज्योति अंतर जगे ज्ञान की मैं।।प्रभू.।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगनिपात्र में धूप खेऊँ रुची से।
सदा सौख्य हेतू भजूँ मन शुची से।।प्रभू.।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंनास नींबू फलों से जजूँ मैं।
सुसर्वार्थसिद्धी फलों को भजूँ मैं।।प्रभू.।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसू द्रव्य ले अर्घ्य को नित चढ़ाऊँ।
करो पूर्ण संयम कि मैं मोक्ष पाऊँ।।प्रभू.।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुनिआदिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सरयू नदि को नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में मुझ में सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सब कर्मों के एक ही, मोह कर्म बलवान।
उसके नाशन हेतु मैं, पूजूँ भक्ति प्रधान।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सोरठा
‘महामुनि’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत ही सुखसंपदा।।५०१।।
ॐ ह्रीं महामुनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत प्रभु ‘महामौनी’१ तुम्हीं।
नाम मंत्र पूजंत, रोग शोक संकट टले।।५०२।।
ॐ ह्रीं महामौनिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’ हुये।
नाममंत्र का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।५०३।।
ॐ ह्रीं महाध्यानिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेंद्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत आतम निधि मिले।।५०४।।
ॐ ह्रीं महादमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
नाममंत्र नत शीश, पूजूँ मैं अतिभाव से।।५०५।।
ॐ ह्रीं महाक्षमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
पूरण हो गुण शील, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।५०६।।
ॐ ह्रीं महाशीलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया२।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ायके।।५०७।।
ॐ ह्रीं महायज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
पूजूँ भक्ति समेत, नाममंत्र प्रभु सुख मिले।।५०८।।
ॐ ह्रीं महामखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ नमाकर शीश, नाममंत्र प्रभु आपके।।५०९।।
ॐ ह्रीं महाव्रतपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधू गण नमें।
मिलें स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।५१०।।
ॐ ह्रीं मह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप अतिशय कांतिनिधान हो।
नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।५११।।
ॐ ह्रीं महाकांतिधराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब के स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, नाममंत्र तुम पूजहूँ।।५१२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
नाममंत्र तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।५१३।।
ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।५१४।।
ॐ ह्रीं अमेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
जजत सर्व सुखसाथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।५१५।।
ॐ ह्रीं महोपायाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
नाममंत्र तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।५१६।।
ॐ ह्रीं महोमयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकारुणिक’ आप दया धर्म उपदेशिया।
नाम मंत्र का जाप्य करत जन्म मृत्यु टले।।५१७।।
ॐ ह्रीं महाकारुणिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।५१८।।
ॐ ह्रीं मंत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नाममंत्र मैं भी जजूँ।।५१९।।
ॐ ह्रीं महामंत्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नाममंत्र को पूजहूँ।।५२०।।
ॐ ह्रीं महायतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नाममंत्र भी मैं जजूँ।।५२१।।
ॐ ह्रीं महानादाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भवतीन, ‘महाघोष’ तुम नामको।।५२२।।
ॐ ह्रीं महाघोषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।५२३।।
ॐ ह्रीं महेज्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महासांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।५२४।।
ॐ ह्रीं महासांपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभू।
मिले सर्व सुखसार, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।५२५।।
ॐ ह्रीं महाध्वरधराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कर्म-भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५२६।।
ॐ ह्रीं धुर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रंथ भी इष्ट दातार हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५२७।।
ॐ ह्रीं महौदार्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आप.५२८।।
ॐ ह्रीं महिष्ठवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आप.५२९।।
ॐ ह्रीं महात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महासांधाम’ हो।
आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।आप.५३०।।
ॐ ह्रीं महासांधाम्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महिर्षि’ तुम्हीं।
ऋद्धी सिद्धी धरो आप सुख की मही।।आप.५३१।।
ॐ ह्रीं महर्षये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धारके आप ‘महितोदया’।
तीर्थंकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आप.५३२।।
ॐ ह्रीं महितोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आप.५३३।।
ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनन्द हो।।आप.५३४।।
ॐ ह्रीं शूराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.५३५।।
ॐ ह्रीं महाभूतपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश हो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.५३६।।
ॐ ह्रीं गुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।आप.५३७।।
ॐ ह्रीं महापराक्रमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
नाथ! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आप.५३८।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रु हना।
सर्व दोषारिनाशा सुमृत्यु हना।।आप.५३९।।
ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.५४०।।
ॐ ह्रीं वशिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।
आप संसार सागर तरा तारते।।आप.५४१।।
ॐ ह्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।
मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बनें।।आप.५४२।।
ॐ ह्रीं महोमोहाद्रिसूदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।
रत्नत्रय की खनी भव्य पूजूँ तुम्हें।।आप.५४३।।
ॐ ह्रीं महागुणाकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्त’ हो सर्वपरिषह उपद्रव सहा।
आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आप.५४४।।
ॐ ह्रीं क्षान्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादी पती।
योगियों में धुरंधर जगत के पती।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५४५।।
ॐ ह्रीं महायोगीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शमी’ शांतपरिणाम से विश्व में।
पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।आप.५४६।।
ॐ ह्रीं शमिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।
शुक्ल परिणाम हों नाथ! वरदान दो।।आप.५४७।।
ॐ ह्रीं महाध्यानपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्यातमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करो।
शुभ अिंहसामयी धर्म के हो धुरी।।आप.५४८।।
ॐ ह्रीं ध्यातमहाधर्माय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।
पूर्ण होवें महाव्रत बनूँ मुक्तिवर।।आप.५४९।।
ॐ ह्रीं महाव्रताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाकर्मअरिहा’ महावीर हो।
कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आप.५५०।।
ॐ ह्रीं महाकर्मारिघ्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दरी-छंद
जिन स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।
सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५१।।
ॐ ह्रीं आत्मज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।
सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ.।।५५२।।
ॐ ह्रीं महादेवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महत समरथवान ‘महेशिता’।
सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ.।।५५३।।
ॐ ह्रीं महेशित्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।
सकल ज्ञान सुधामय साजिये।।जजतहूँ.।।५५४।।
ॐ ह्रीं सर्वक्लेशापहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।
स्वपर हित साधन बतलावते।।जजतहूँ.।।५५५।।
ॐ ह्रीं साधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरबदोषहरा’ जिन आप हो।
सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५६।।
ॐ ह्रीं सर्वदोषहराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।
प्रभु अनंतसुखाकर आप ही।।जजतहूँ.।।५५७।।
ॐ ह्रीं हराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।
गिन नहीं सकते गुण साधु भी।।जजतहूँ.।।५५८।।
ॐ ह्रीं असंख्येयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।
अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५९।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।
सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ.।।५६०।।
ॐ ह्रीं शमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हो।
जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ.।।५६१।।
ॐ ह्रीं प्रशमाकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरबयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।
गणधरादि नमावत शीश हो।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५६२।।
ॐ ह्रीं सर्वयोगीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन में तुम ईश ‘अचिन्त्य’ हो।
निंह किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ.।।५६३।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुत रूप हो।
सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ.।।५६४।।
ॐ ह्रीं श्रुतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।
धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ.।।५६५।।
ॐ ह्रीं विष्टरश्रवसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।
सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६६।।
ॐ ह्रीं दान्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।
सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ.।।५६७।।
ॐ ह्रीं दमतीर्थेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ध्यात सु ‘योगात्मा’ तुम्हीं।
शुकल योगधरा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६८।।
ॐ ह्रीं योगात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।
जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ.।।५६९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानसर्वगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।
प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।जजतहूँ.।।५७०।।
ॐ ह्रीं प्रधानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।
सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ.।।५७१।।
ॐ ह्रीं आत्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।
प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ.।।५७२।।
ॐ ह्रीं प्रकृतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।
परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ.।।५७३।।
ॐ ह्रीं परमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।
परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ.।।५७४।।
ॐ ह्रीं परमोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रक्षीणाबंध’ जिनेश हो।
सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।जजतहूँ.।।५७५।।
ॐ ह्रीं प्रक्षीणबंधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीदाम-छंद
प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।
किया तुम काम महाअरि विद्ध।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५७६।।
ॐ ह्रीं कामारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।
जगत् कल्याण किया सुखधाम।।जजूँ.।।५७७।।
ॐ ह्रीं क्षेमकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।
किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ.।।५७८।।
ॐ ह्रीं क्षेमशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।
सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५७९।।
ॐ ह्रीं प्रणवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणय’ सबका तुमही में प्रेम।
नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ.।।५८०।।
ॐ ह्रीं प्रणयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत् के त्राण।
दिया सब ही को जीवन दान।।जजूँ.।।५८१।।
ॐ ह्रीं प्राणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘प्राणद’ बलदातार।
सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ.।।५८२।।
ॐ ह्रीं प्राणदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।
नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ.।।५८३।।
ॐ ह्रीं प्रणतेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रमाण’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।
तुम्हें भवि पा होते भगवंत।।जजूँ.।।५८४।।
ॐ ह्रीं प्रमाणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।
अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।जजूँ.।।५८५।।
ॐ ह्रीं प्रणिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।
करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ.।।५८६।।
ॐ ह्रीं दक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।
सरल अतिशायि महागुणलीन।।जजूँ.।।५८७।।
ॐ ह्रीं दक्षिणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।
महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।जजूँ.।।५८८।।
ॐ ह्रीं अध्वर्यवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।
सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ.।।५८९।।
ॐ ह्रीं अध्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमही ‘आनंद’ अनूप।
मुझे सुखदेव सदा सुखरूप।।जजूँ.।।५९०।।
ॐ ह्रीं आनन्दाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा सबको आनंद करंत।
तुम्हीं प्रभु ‘नन्दन’ नाम धरंत।।जजूँ.।।५९१।।
ॐ ह्रीं नन्दनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘नन्द’ समृद्ध निधान।
सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ.।।५९२।।
ॐ ह्रीं नंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।
सभी वंदन करते अनुकूल्य।।जजूँ.।।५९३।।
ॐ ह्रीं वंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।
अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ.।।५९४।।
ॐ ह्रीं अनिंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।
प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।जजूँ.।।५९५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।
विषयविषमूर्च्छित को सुखकंद।।जजूँ.।।५९६।।
ॐ ह्रीं कामघ्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।
सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५९७।।
ॐ ह्रीं कामदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।
तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ.।।५९८।।
ॐ ह्रीं काम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।
करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेंद्र।।जजूँ.।।५९९।।
ॐ ह्रीं कामधेनवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अरिंजय’ आप करम अरि जीत।
हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ.।।६००।।
ॐ ह्रीं अरिंजयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
प्रभु महामुनी से ले करके सौ नाम तुम्हारे जग पूजें।
जो भक्ति वंदना नित्य करें वो भव भव के दुख से छूटें।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके मेरी भव भव की व्याधि हरो।
प्रभु सात परम स्थान देय, जिनगुण संपत्ती पूर्ण करो।।६।।
ॐ ह्रीं महामुनिआदिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रनामधारकचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-दोहा-
परम चिदंबर चित्पुरुष, चििंच्चतामणि देव।
गाऊँ तुम गुणमालिका, करूँ सतत तुम सेव।।१।।
-रोला छंद-
जय जय श्री जिनदेव, विषय कषाय विजेता।
जय जय तुम पद सेव करते श्रुत के वेत्ता।।
प्रभु तुमने छह द्रव्य, गुणपर्याय समेता।
दिव्यज्ञान से देख, बतलाते शिवनेता।।२।।
जीव तत्त्व हैं तीन, भेद कहे शुभ कामा।
बहिरातम अंतर आतम औ परमात्मा।।
प्रभु मैं दीन अनाथ, मैं दुखिया संसारी।
जन्म मरण के दु:ख, मैं भरता अतिभारी।।३।।
मेरा होवे जन्म, मेरा ही मरणा हो।
मुझ में इष्ट वियोग, आदिक दुख भरना हो।।
मेरे धन जन मित्र, ये परिवार घनेरे।
मैं इनका प्रतिपाल, ये सब हैं नित मेरे।।४।।
यह बहिरात्म स्वरूप, दर्शन मोह जनित है।
इसके वश हे नाथ! मैं दुख सहा अधिक है।।
निश्चय से मैं एक चिच्चैतन्य स्वरूपी।
परमानंद स्वरूप अविचल अमल अरूपी।।५।।
शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सिद्ध स्वरूप हमारा।
कर्मकलंक विहीन, सकल जगत् से न्यारा।।
ये वर्णादिक रूप, पुद्गल के गुण मानें।
रागादिक भी भाव, औपाधिक ही मानें।।६।।
क्षायोपशमिक सुज्ञान, वे भी कर्म जनित हैं।
परम शुद्ध चिद्भाव, मेरा ज्ञान अमित है।।
मैं भगवान स्वरूप, जनम मरण विरहित हूँ।
चिन्मय ज्योति स्वरूप, केवलज्ञान सहित हूँ।।७।।
टंकोत्कीर्ण सुएक, ज्ञायक भाव हमारा।
सब प्रदेश में व्याप्त, सब कुछ जानन हारा।।
यद्यपि मैं व्यवहार, नय से कर्म सहित हूँ।
जनम मरण दुख पूर्ण, नाना व्याधि सहित हूँ।।८।।
फिर भी निश्चय नीति, तत्त्व स्वरूप प्रकाशे।
नय व्यवहार सदैव, धर्म तीर्थ को भाषे।।
दोनों नय सापेक्ष, वस्तु स्वरूप बतावें।
सम्यग्दृष्टी जीव, द्वय नय आश्रय पावें।।९।।
अवरित सम्यग्दृष्टि, जघन्य अंतर आत्मा।
पंचम से ग्यारंत, मध्यम अंतर आत्मा।।
बारहवें गुणस्थान, मुनिवर क्षीणकषायी।
उत्तम अंतर आत्म, जड़ से मोह नशायी।।१०।।
श्री अर्हंत जिनेन्द्र, कहें सकल परमात्मा।
नित्य निरंजन सिद्ध, रहें निकल परमात्मा।।
इस विध जीव सुतत्त्व, बाकी पाँच अजीवा।
पुद्गल धर्म अधर्म, नभ औ काल सदीवा।।११।।
करिए कृपा जिनेन्द्र! बहिरात्मत्व तजूँ मैं।
अंतर आतम होय, पद परमात्म भजूँ मैं।।
जब तक निज पद नािंह, तब तक भक्ति तुम्हारी।
अचल रहे हे नाथ! कभी न होऊँ दुखारी।।१२।।
-घत्ता-
श्री जिनपद प्रीती, अविचलरीती, जो जन मन वच तन करहीं।
सो ‘ज्ञानमती’ से, स्वगुणरती से, निजगुण संपत्ती वरहीं।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकराणां महामुन्यादिशतनाममंत्रेभ्य जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रेष्ठ सहस्रनाम विधान भक्ती से करें।
वे पापकर्म सहस्र नाशें सहस मंगल विस्तरें।।
‘सज्ज्ञानमति’ भास्कर उदित हो हृदय की कलिका खिले।
बस भक्त के मन की सहस्रों कामनायें भी फलें।।१।।
-इत्याशीर्वाद:-