श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में त्याग धर्म के विषय में कहा है
चाउ वि धम्मंगउ तं जि अभंगउ णियसत्तिए भत्तिए जणहु।
पत्तहं सुपवित्तहं तव—गुण—जुतहं परगइ—संबलु तुं मुणहु।।
चाए अवगुण—गुण जि उहट्टइ, चाए णिम्मल—कित्ति पवट्टइ।
चाए वयरिय पणमइ पाए, चाए भोगभूमि सुह जाए।।
चाए विहिज्जइ णिच्च जि विणए, सुहवयणइं भासेप्पिणु पणए।
अभयदाणु दिज्जइ पहिलारउ, जिमि णासइ परभव दुहयारउ।।
सत्थदाणु बीजउ पुण किज्जइ, णिम्मल, णाणु जेण पाविज्जइ।
ओसहु दिज्जइ रोय—विणासणु, कह वि ण पेच्छइ वाहि—पयासणु।।
आहारे धन—रिद्धि पवट्टइं, चउविहु चाउ जि एहु पवट्टइ।
अहवा दुट्ठ—वयप्पहुं चाएं, चाउ जि एहु मुणहु समवाएं।।
घत्ता—
दुहियहं दिज्जइ दाणु किज्जइ माणु जि गुणियणहं।
दय भावियइ अभंग दंसणु चतिज्जइ मणहं।।
अर्थ — त्याग भी धर्म का अंग है, वह भंग रहित है, तप गुण से युक्त, अत्यन्त पवित्र पात्र के लिए अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक त्यागदान देना चाहिए, क्योंकि वह पात्र अन्य गति के लिये पाथेय के समान है ऐसा समझो। त्याग—दान से अवगुणों का समूह दूर हो जाता है, त्याग से निर्मल र्कीित फैलती है, त्याग से बैरी भी चरणों में प्रणाम करता है और त्याग से भोगभूमि के सुख मिलते हैं। विनयपूर्वक बड़े प्रेम से शुभवचन बोलकर नित्य ही त्याग—दान देना चाहिए। सर्वप्रथम अभय दान देना चाहिए जिससे परभव के दु:खों का नाश हो जाता है। पुन: दूसरा शास्त्र दान करना चाहिए, जिससे निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। रोग को नष्ट करने वाला औषधि दान देना चाहिए, जिससे कभी भी व्याधियों की प्रगटता नहीं होती है। आहार दान से धन और ऋद्धियों की प्राप्ति होती है, यह चार प्रकार का त्याग—दान सनातन परम्परा से चला आ रहा है अथवा दुष्ट विकल्पों के त्याग करने से त्याग धर्म होता है। समुच्चयरूप से इसे त्याग धर्म मानो। दु:खी जनों का दान देना चाहिए, गुणी जनों का मान—सम्मान करना चाहिए, भंगरहित एकमात्र दया की भावना करनी चाहिए और मन में सतत सम्यग्दर्शन का चितवन करना चाहिए।
रत्नत्रय दानं स प्रासुक त्याग उच्यते।
चतुर्धा दानमप्यार्षात् त्रिधा पात्राय दीयते।।१।।
वङ्काजंघो नृपो राज्ञया श्रीमत्या सह कानने।
भुक्तिं ददौ मुनिभ्यां स तीर्थेशो वृषभोऽभवत्।।२।।
भूत्वा श्रीमत्यपि श्रेयान् दानतीर्थ प्रवर्तक:।
श्रीकृष्ण औषधेर्दानात् पुण्यभाक् भावितीर्थकृत्।।३।।
सच्छास्त्रदानतो गोप: कौंडेश: श्रुतपारग:।
वसते र्दानमाहात्म्यात् घृष्टि: स्वर्गतिमाप्तवान्।।४।।
रत्नत्रयमहं दत्वा स्वस्मै सर्वगुणात्मवं।
स्वात्मतत्त्वं लभेयाशु स्वस्मिन्नेव लयं पुन:।।५।।
‘संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग:।’ संयत के योग्य आदि को देना त्याग है। ‘रत्नत्रय का दान देना वह प्रासुक त्याग कहलाता है और तीन प्रकार के पात्रों के लिये चार प्रकार दान देना भी त्याग है’ ऐसा आर्ष में कहा है। राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ वन में युगल मुनि का आहार दान दिया था जिसके फलस्वरूप वे वृषभ तीर्थंकर हुये हैं तथा उनकी रानी श्रीमती भी उसीर के प्रभाव से आगे राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ के प्रवर्तक हुये हैं। श्री कृष्ण ने एक मुनि को औषधिदान दिया था जिससे वे भविष्य में पुण्य के स्थान ऐसे तीर्थंकर होवेंगे। सच्चे शास्त्र के दान से एक ग्वाला अगले भव में कौंडेश मुनि होकर महान् श्रुतज्ञानी हुआ। वसतिका के दान के प्रभाव से सूकर ने स्वर्ग को प्राप्त कर लिया। मैं भी रत्नत्रय का दान अपने को देकर सर्वगुणों से परिपूर्ण स्वात्म तत्त्व को शीघ्र ही प्राप्त कर लेऊँ और उसी में लीन हो जाऊँ।।१ से ५।। ऐसी भावना प्रत्येक व्यक्ति को भाते रहना चाहिये। धवला में कहा है कि ‘दया बुद्धि से जो साधु रत्नत्रय का दान देते हैं वही प्रासुकपरित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है चूँकि वे रत्नत्रय के उपदेश के अधिकारी नहीं हैं१।’ अन्यत्र ग्रन्थों में इस त्याग के चार भेद किये हैं। आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान। वज्रजंघ राजा ने वन में आहार दिया। देखने वाले मंत्री आदि चार जन एवं व्याघ्र, नेवला, बंदर तथा सूकर इन आठों ने मात्र अनुमादेना से वैâसा पुण्य प्राप्त किया है। देखिये— जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेकर छह महीने का योग धारण कर लिया था। जब छह महीने पूर्ण हो गये, तब वे प्रभु मुनियों की चर्याविधि बतलाने के लिए आहारार्थ निकले। यद्यपि भगवान् को आहार की आवश्यकता नहीं थी, फिर ही भी वे मोक्षमार्ग को प्रगट करने के लिए पृथ्वी तल पर विचरण करने लगे। उस समय लोग दिगम्बर मुनियों के आहार की विधि को नहीं जानते थे, अत: कोई—कोई भगवान् के पास आकर उन्हें प्रणाम करते और उनके पीछे—पीछे चलने लगते, कोई बहुमल्य रत्न लाकर भगवान् के सामने रखते और ग्रहण करने की प्रार्थना करते कि हे देव! प्रसन्न होइये और स्नान करके भोजन कीजिए, कोई हाथी, घोड़ा, पालकी आदि वाहन लेकर आते और भेंट करते, कितने कितने ही लोग रूप—यौवन सम्पन्न कन्याओं को लाते और कहते कि प्रभो ! आप इन्हें स्वीकार कीजिए। आचार्य कहते हैं कि लोगों की मूर्ख चेष्टा को धिक्कार हो! जो ऐसी—ऐसी चेष्टा कर रहे थे।
इस प्रकार जगत् में आवश्चर्यकारी, गूढ़चर्या से भ्रमण करते हुए भगवान् के छह मास और व्यतीत हो गये। अनन्तर भगवान् वृषभदेव हस्तिनापुर पधारे। उस समय वहाँ के राजा सोमप्रभ कुरूवंश के शिखामणि थे और उनके भाई श्रेयांस कुमार थे। श्रेयांस कुमार ने उसी रात्रि के पिछले प्रहर में सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह—बैल, सूर्य, चन्द्र, समुद्र और व्यन्तर देवों की र्मूित, ऐसे सात स्वप्न देखे थे। प्रात: पुरोहित ने इन स्वप्नों का फल यही बतलाया था कि जिनका सुमेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है, ऐसे कोई देव का आज आपके घर पर आएंगे। उसी समय नगर में भगवान् के दर्शनों के लिए दौड़ते हुए जनों से बहुत बड़ा कोलाहल व्याप्त हो गया। इधर सिद्धार्थ नाम के द्वारपाल ने प्रभु के आगमन की सूचना दी। दोनों भाई उठ खड़े हुए और बाहर आये। भगवान् को देखते ही गद्गद हो उन्हें नमस्कार किया और उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। तत्क्षण ही राजा श्रेयांस को अपने पूर्वभवों का स्मरण हो आया, तब आहार दान देने की सारी विधि याद आ गई। जब वङ्कासंघ और श्रीमती ने वन में चारण मुनि को आहार दान दिया था उस समय का दृश्य ज्यों का त्यों उपस्थित हो गया। राजा वङ्काजंघ का जीव ही भगवान् वृषभदेव हुए हैं और रानी श्रीमती का जीव ही राजा श्रेयांस हुए हैं। उस समय राजा श्रेयांस कुमार ने अपने बड़े भाई सोमप्रभ और भाभी लक्ष्मीमती के साथ बड़ी ही भक्ति से प्रभु का पड़गाहन करके अन्दर लाकर नवधा भक्तिपूर्वक उनके हाथों की अँगुली में शुद्ध प्रासुक इक्षु रस का आहार दिया। उसी समय आकाश में देवों का समुदाय उमड़ पड़ा। रत्नों की वर्षा, पुष्पों की वर्षा, मन्द सुगन्धित वायु, दुन्दुभी बाजे और जय—जयकार के नाद से आकाश तथा भूमण्डल व्याप्त हो गया। उस समय दोनों भाइयों ने अपने आपको कृतकृत्य माना। जहाँ स्वयं तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव आहार लेने वाले हैं और श्रेयांस कुमार जैसे पुण्यशाली दाता देने वाले हैं, देवों के द्वारा पंचााश्चर्य वृष्टि की जा रही हो, उस समय के विहार कर गये। राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी कुछ दूर तक प्रभु के पीछे—पीछे गये पुन: नमस्कार करके वापस आ गये। उस दिन राजा के यहाँ भोजन अक्षय हो गया था, चाहे चक्रवर्ती का कटक भी जीम ले तो भी उसका क्षय नहीं हो सकता था। वह दिन वैशाख सुदी तृतीया का दिन था। इसलिए तक से लेकर आज तक भी वह दिन पवित्र ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से पृथ्वी तल पर सर्वत्र विख्यात है और महान् पर्व के रूप में मनाया जाता है।
उस समय राजा श्रेयांस ‘‘दान तीर्थ के प्रवर्तक’’ कहलाये थे। देवों ने भी आश्चर्य के साथ श्रेयांस कुमार की बड़ी भारी पूजा की थी तथा भरत चक्रवर्ती ने आकर हर्ष से गद्गद हो पूछा था कि हे कुरूवंश शिखामणे। तुमने यह आहार दान की विधि वैâसे जानी ? तब राजा श्रेयांस ने अपनी जातिस्मरण की बात कहना शुरू की। हे भरत सम्राट! इस भव से आठवें भव पूर्व की बात है। जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में एक उत्पलखेट नाम का नगर है, उसके राजा वङ्काजंघ अपनी श्रीमती रानी के साथ ससुराल जाते समय मार्ग मे ंवन में पड़ाव डालकर ठहर गये। उस समय अकस्मात् चारण ऋद्धि के धारक दो मुनिराज वहाँ आहार हेतु आ गये। उनका वन में ही आहार ग्रहण करने का वृत्तपरिसंख्यान व्रत था। राजा ने उन्हें देखते ही अत्यर्थ आदर के साथ रानी श्रीमती सहित खड़े होकर उनका पड़गाहन किया, पुन: उन्हें ऊँचे आसन पर बिठाया, उनके चरण कमलों का प्रक्षालन किया, पूजा की, नमस्कार किया और मन—वचन—काय तथा आहार को शुद्ध निवेदन करके श्रद्धा आदि गुणों से समन्वित राजा ने रानी सहित उन दोनों मुनियों को विधि पूर्वक आहार दिया। उस समय देवों ने विभोर होकर रत्नों को वर्षाया और पुष्पों की वर्षा करने लगे। सुगन्धित मन्द पवन चलाई, दुंदुभि बाजे बजाये और ‘बहो दानं, अहो दानं’’ ऐसी प्रशंसात्मक ध्वनि करने लगे। अनन्तर आहार के पश्चात् राजा ने पुन: उनकी पूजा और वन्दना की। अनन्तर कंचुकी के द्वारा राजा के पता चला कि ये दोनों महामुनि आपके ही अन्तिम युगलिया पुत्र हैं, इनके दमधर और सागरसेन ये नाम हैं, मतलब रानी श्रीमती के अठानवें पुत्र हुए थे। उन सभी ने अपने बाबा के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले ली थी। उन्हीं में से ये अन्तिम हैं। इतना सुनते ही राजा को अतिशय प्रेम उमड़ पड़ा। भक्ति में विभोर हो राजा ने उसके चरण सान्निध्य में बैठकर अपने व श्रीमती के पूर्वभव पूछे। पुन: पूछने लगे कि—हे भगवन् ये हमारे मन्त्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ जी अतिशय भक्ति से आपका आहार देख रहे थे, इन पर मुझे अत्यधिक स्नेह है एवं ये जो सिंह, सूकर, नकुल और बन्दर बड़ी ही उत्कण्ठा से शांत चित्त हो आपका आहार देख रहे थे, ये भी कोई भव्य जीव हैं। कृपया इन सबके पूर्वभवों को भी बतलाकर सभी को कृतार्थ कीजिए। तब गुरुदेव ने क्रम—क्रम से सभी के भव—भावान्तर सुना दिये।
अनन्तर राजा ने पुन: निवदेन किया कि आगे हम लोगों के अभी संसार में कितने भव और शेष हैं ? मुनिराज ने कहा— राजन् ! आप सभी निकट भव्य हैं, आप तो इससे आठवें भव में युग के आदि विधाता तीर्थंकर वृषभदेव होवेंगे। धर्मतीर्थ की पृवत्ति चलाएंगे। माता श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस कुमार दानतीर्थ का प्रवर्तक होगा। आपके ये मतिवर मन्त्री उस भव में आपके प्रथम पुत्र सम्राट् भरत चक्रवर्ती होवेंगे कि जिसके नाम से यह देश ‘भारत’ इस सार्थक नाम से सनाथ होगा। ये आनन्द पुरोहित बाहुबली नाम के कामदेव पदवीधारी महापराक्रमी पुत्र होवेंगे। सेनापति का जीव वृषभसेन होगा जो आपका प्रथम गणधर होवेगा। ये धनमित्र सेठ अनन्त विजय नाम के पुत्र होंगे तथा ये सिंह, सूकर, बन्दर और नकुल के जीव भी अभी दान की अनुमोदना के प्रभाव से अतिशय पुण्य संचित कर चुके हैं। ये मरकर उत्तम भोगभूमि में मनुष्य होकर पुन: कालान्तर में आपकी वृषभदेव पर्याय में आपके ही अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर और सुवीर नाम के पुत्र होंगे। अर्थात् ये आठों जीव आपके ही साथ उत्तम देव व मनुष्य के सुखों को भोग कर पुन: तीर्थंकर पर्याय में आपके ही पुत्र होकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। इस प्रकार से राजा श्रेयांस के मुख से सर्व अतीत वृतांत सुनकर भरत चक्रवर्ती अत्यर्थ प्रमोद को प्राप्त हुए और बहुत से रत्नों—आभूषणों द्वारा उनका आदर सम्मान करके तथा उन्हें दानतीर्थ प्रवर्तक उपाधि से विभूषित करके वे अपनी अयोध्या में वापस आ गये। एक बार के आहार दान के प्रभाव से उन युगल दम्पत्ति राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती ने कितना उत्कृष्ट फल प्राप्त किया तथा उस दान को देखकर मात्र अनुमोदना करने वाले उन मन्त्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ ने तथा चारों पशुओं ने उन्हीं के सदृश कैसा महान् आचिन्त्य फल प्राप्त कर लिया। अहो ! दान की महिमा अचिन्त्य ही है। आज के युग में भी जो अपने को महामुनि, र्आियका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि साधुवर्ग दिखते हैं उनके प्रति असीम भक्ति रखकर पूजा, दान, भक्ति आदि देकर अपने मनुष्य जीवन को सफल कर लेना चाहिए। कहा भी है—
भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनां१।
ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति।।
अर्थ—भोजन मात्र प्रदान करने के लिए तपस्वियों की क्या परीक्षा करना! वे सद्गुणों से युक्त सज्जन हों या न हों किन्तु गृहस्थ तो दान से शुद्ध हो ही जावेगा। गुरुओं की भक्ति दानादि का क्या फल है सो देखिये—
उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादुपासनात्पूजा।
भत्ते: सुन्दररूपं स्तवनात्र्कीितस्तपोनिधिषु।।१
अर्थ—साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र प्राप्त होता है उनको दान देने से भोग मिलते हैं। उनकी उपासना से पूजा प्राप्त होती है, सम्मान होता है, उनकी भक्ति से सुन्दर रूप और उनकी स्तुति करने से र्कीित होती है। ऐसे ही अनेकों उदाहरण हैं— विश्वभूति ब्राह्मण ने मुनिराज को सत्तू के लड्डू का आहार दिया जिसके फल से उसने देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि को प्राप्त कर लिया। किसी समय श्रीकृष्ण ने एक मुनि के शरीर में कुछ रोग देखा, वैद्य को दिखाकर उसके औषधि का निर्णय करके औषधि मिश्रित लड्डू बनवाए और अन्यत्र सूचना करा दी कि राजमहल के सिवाय उन्हें कोई न पड़गाहे। मुनि को औषधि मिल जाने से उनका रोग ठीक हो गया। उस समय उन्होंने महान् पुण्य का संचय कर लिया। कुरमरी गाँव में एक गोविन्द नाम का ग्वाला रहता था। उसे वृक्ष की कोठर से एक ग्रंथ मिल गया। उसने उस ग्रंथ को लाकर बहुत दिनों तक उसकी पूजा की, पुन: पद्मनंदि नामक मुनि को वह ग्रंथ दे दिया। उस दान के प्रभाव से मर कर वह चौधरी का पुत्र हुआ। जिन मुनिराज को उसके पुस्तक दान दी थी उनके दर्शन करते ही उसे जाति स्मरण हो गया। उसने दीक्षा लेकर अन्त में शांति से मृत्यु लाभ कर कौंडेश नाम का राजा हो गया। किसी समय दीक्षित होकर सम्पूर्ण द्वादशांग का ज्ञान प्राप्त कर श्रुतकेवली हो गया। सच है ज्ञानदान का फल तो केवलज्ञान ही है।
घटगाँव नाम के शहर में एक देविल नाम का कुंभार और एक र्धिमल नाम का नाई रहता था। दोनों ने मिलकर एक धर्मशाला बनावाई। देविल ने मुन को ठहरा दिया तब र्धिमल ने उन्हें निकाल कर एक सन्यासी को ठहरा दिया। देविल को ऐसा मालूम होने से वे दोनों आपस में लड़ मरे और क्रम से सूकर और व्याघ्र हो गये। एक दिन कर्मयोग से गुप्त और त्रिगुप्तिगुप्त ऐसे दो मुनिराज वन की गुफा में ठहर गये। सूकर को जाति स्मरण हो जाने से वह उनके पास आया और शांत भाव से उपदेश सुनकर कुछ व्रत ग्रहण कर लिये। इसी समय वह व्याघ्र वहाँ आया और मुनियों को खाने के लिये गुफा में घुसने लगा। सूकर ने उसका सामना किया अन्त में दोनों लहूलुहान होकर मर गये। सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे और व्याघ्र के भाव भक्षण के थे। अत: सूकर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों सहित देव हो गया और व्याघ्र मरकर नरक चला गया। इस प्रकार से अभयदान का फल सूकर ने प्राप्त कर लिया। दान से ही संसार में गौरव प्राप्त होता है। देखो ! देने वाले मेघ ऊपर रहते हैं और संग्रह करने वाले समुद्र नीचे रहते हैं। बड़े कष्ट से कमाई गई सम्पत्ति को यदि आप अपने साथ ले जाना चाहते हैं तो खूब दान दीजिये। यह असंख्य गुणा होकर फलेगी किन्तु खाई गई अथवा गाड़कर रखी गई सम्पत्ति व्यर्थ ही हैं परोपकार में खर्चा गया धन ही परलोक में नवनिधि ऋद्धि के रूप में फलता है। उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा से पात्र के तीन भेद हैं। उत्तम पात्र मुनि हैं, मध्यम पात्र देशव्रती श्रावक हैं और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं। उत्तम पात्र में दिया गया दान उत्तम भोगभूमि को, मध्यम पात्र में दिया गया दान मध्यम भोगभूमि को और जघन्य पात्र में दिया गया दान जघन्य भोगभूमि को प्राप्त कराता है। कुपात्र (मिथ्यादृष्टि) को दिया गया दान कुभोगभूमि को देता है और अपात्र में दिया दान व्यर्थ चला जाता है। जो सम्यग्दृष्टि उपर्युक्त तीन प्रकार के पात्रों को दान देते हैं वे नियम से स्वर्ग को अथवा मोक्ष को प्राप्त करते हैं। दीन, दु:खी, अंधे, लंगड़े आदि को भोजन, वस्त्र आदि देना करुणादान है। यह भी करुणा बुद्धि से करना ही चाहिये। इस प्रकार से त्यागधर्म के महत्व को समझ कर यथाशक्ति दान देना चाहिये।
देयात् स्तोकमपि स्तोकमपि स्तोकं न व्यपेक्षा महोदये।
इच्छानुसारिणी शक्ति: कदा कस्य भविष्यति।।
थोड़े में थोड़ा तथा उसमें भी थोड़ा—थोड़ा देते ही रहना चाहिये। बहुत धन होगा जब दान देंगे, ऐसी अपेक्षा नहीं रखना चाहिये। क्योंकि इच्छानुसार शक्ति कब किसको हुई ? लखपती करोड़पति बनना चाहता है, करोड़पति अरबों—खरबों को पाकर भी तृप्त नहीं हो सकता है, क्या कभी र्इंधन से अग्नि की तृप्ति हुई है ? नहीं। अत: यदि संपत्ति को वृद्धिगंत करने की इच्छा है तो दान देते ही रहना चाहिये। कुएँ से जल निकालने से बढ़ता है वैसे ही धन दान देने से बढ़ता है।
जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय नम:।