३१ अक्टूबर को जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति शिलाँग (मेघालय) में थी। यद्यपि शोभायात्रा आदि कार्यक्रम संभव नहीं थे, फिर भी मंदिरों में सभायें होती रहीं, वी.डी.ओ. फिल्म बनती रही और भक्त लोग बोलियाँ लेकर ज्योति प्रवर्तन में सहयोग प्रदान करते रहे। इस प्रकार आसाम, नागालैंड, मणिपुर और मेघालय में ९ नवम्बर तक ज्ञानज्योति भ्रमण के कार्यक्रम होते रहे। सिलीगुड़ी (दार्जिलिंग) पं. बंगाल में समापन कर १० नवम्बर से २३ नवम्बर तक अवकाश रहा।
पुनः उत्तर प्रदेश में मेरी जन्मभूमि टिकैतनगर (जि. बाराबंकी) से ज्ञानज्योति के शुभारंभ का निर्णय लिया गया। इस प्रसंग में रवीन्द्र कुमार को मैंने कई दिनों पहले से तैयारी के लिए भेज दिया था। रवीन्द्र कुमार ने अथक परिश्रम करके अच्छा प्रोग्राम बनाया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी को उ.प्र. ज्ञानज्योति प्रवर्तन के शुभांरभ के लिए आमंत्रित किया था। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर पोस्टर आदि छपवाकर अच्छा समारोह मनाने की व्यवस्था कर चुके थे।
अकस्मात् मुख्यमंत्री के नहीं आ सकने की सूचना सुनकर रातों रात रवीन्द्र कुमार लखनऊ आये और पुनः पुरुषार्थ कर उनके आने का निर्णय ले गये। टिकैतनगर में २४ नवम्बर १९८४ को विशाल सभा-मंडप में कार्यक्रम चलाया गया। ठीक ११ बजे श्री नारायणदत्त तिवारी मुख्यमंत्री, उ.प्र. अपने वरिष्ठतम सहयोगी प्रो. वासुदेव सिंह, आबकारी मंत्री के साथ हेलीकाप्टर द्वारा विशेष रूप से बनाये गये हेलीपैड पर उतरे। वहाँ पर अनेक प्रतिष्ठित महानुभावों ने उनका स्वागत किया।
ये दोनों मंत्री वहाँ से सीधे समारोह स्थल पर पधारे। वहाँ पर स्वागत, ज्ञानज्योति परिचय आदि के अनन्तर श्री नारायणदत्त तिवारी ने भाषण दिया। उसमें उन्होंने हस्तिनापुर में होने वाले प्रतिष्ठापना समारोह में पूरा सहयोग देने को कहा, तब करतलध्वनि से सभा ने उनके प्रति हर्ष व्यक्त किया। उन्होंने मेरी जन्मभूमि के नाते उस छोटे से ग्राम की बहुत प्रशंसा की और उसे पवित्र भूमि मानकर उसका वंदन किया पुनः श्रीफल चढ़ाकर, आरती करके ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभारंभ किया।
इसके बाद मुख्यमंत्री जी ने कहा- ‘‘मुझे पूज्य ज्ञानमती माताजी के जन्म-स्थान का दर्शन कराइये।’’ कैलाशचंद१ आदि महानुभाव उन्हें उस पुराने घर में ले गये। वहाँ पहुँचकर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ अल्पाहार आदि के बाद ये अतिथिगण हेलीकॉप्टर से वापस लखनऊ आ गये। उधर ज्ञानज्योति की शोभायात्रा में अपार जनसमूह ने भाग लिया।
इस अवसर पर इस इलाके भर के जैन-जैनेतर लोगों ने ‘पूज्य ज्ञानमती माताजी की जय’ के नारे से आकाश को गूंजा दिया। वास्तव में एक घर से दो पुत्री और माता जहाँ से निकलकर स्वयं दीक्षित हो, साध्वी के रूप में समाज से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रही हों, जहाँ उन्हीं के भाई-बहनें पुत्र-पुत्रियाँ इस ज्ञानज्योति प्रवर्तन जैसे महान् कार्य में समर्पित रूप से लगे हुए हों,
उनकी जन्मभूमि को पावन मानकर श्रद्धा से भला कौन नत नहीं होगा? इस महान् उत्तर-प्रदेशीय ज्ञानज्योति भ्रमण के शुभारंभ के बाद यहाँ मोतीचन्द आ गये। चूंकि उनके मन में इधर प्रतिष्ठा की तैयारियाँ और निर्माण कार्य को पूरा कराने की चिंता बढ़ती जा रही थी। दु्रतगति से निर्माण कार्य चलाये जा रहे थे।
एक महान् उपलब्धि-स्याद्वाद चन्द्रिका टीका
मैंने वैशाख कृष्णा द्वितीया, १७ अप्रैल १९८४ को अपनी सन् १९७८ में प्रारंभ की हुई नियमसार की संस्कृत टीका को स्वाध्याय में रखा। यह अपूर्ण छूट गई थी। चतुर्थ अध्याय की टीका चल रही थी।
इसी का हिन्दी अनुवाद प्रारंभ कर दिया पुनः स्वस्थ चित्त और वातावरण के स्वस्थ होने से मैंने ज्येष्ठ शुक्ला १, २१ मई १९८४ के दिन संस्कृत टीका भी लिखना प्रारंभ कर दी। चतुर्थ अध्याय पूर्णकर श्रुतपंचमी, ४ जून १९८४ को ज्ञानज्योति प्रवर्तन दिवस का छोटा-मोटा समारोह करके श्रुत-शास्त्र की पूजा करके नियमसार के पाँचवे अध्याय की संस्कृत टीका प्रारंभ कर दी।
जहाँ छोड़ा था, उसके आगे प्रारंभ किया-उसके अंश यह हैं- ‘‘अथ च-अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः’’ से प्रारंभ कर मंगल बेला में रत्नत्रय- निलय में बैठकर सामने स्थित सुदर्शनमेरु पर्वत को नमस्कार कर लिखना प्रारंभ किया। उस समय ये पंक्तियाँ आ गई-
‘‘अधुनाऽकृत्रिममनादिनिधनं सुदर्शनमेरुं महाशैलेन्द्रं हृदि स्मृत्वा तं परोक्षरूपेण पुनः पुनः नमस्कृत्य, इमं च नयनपथगोचरं कृत्रिमं तस्यैव प्रतिकृतिरूपं सुमेरुपर्वतं तत्रस्थान् त्रिभुवनतिल-कजिनालयान् जिनप्रतिमाश्चापि त्रियोगशुद्ध्या मुहुर्मुहुर्वंदित्वा दीर्घकालव्यवधानानंतरं स्याद्वाद-चंद्रिकाटीकाया लेखनकार्यं पुनः प्रारभ्यते मया, एतन्निर्विघ्नतया पूर्णतां लभेत ईदृग्भावनया पंचगुरुचरणशरणं गृहीत्वा एवमेव प्राथ्र्यते।’’
अब अकृत्रिम और अनादिनिधन ऐसे सुदर्शनमेरु महागिरिराज को हृदय में स्मरण करके उसको परोक्ष रूप से पुनः पुनः नमस्कार करके, सामने नेत्र से दिख रहे कृत्रिम, जो कि उस अकृत्रिम की प्रतिकृति रूप है, इस सुमेरुपर्वत की , उसमें स्थित त्रिभुवनतिलक नाम के सोलह जिनालयों की और उसमें विराजमान सर्वजिनप्रतिमाओं की मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक बार-बार वंदना करके बहुत काल के व्यवधान के अनन्तर इस ‘स्याद्वादचंद्रिका’ टीका का लेखन कार्य मेरे द्वारा पुनः प्रारंभ किया जा रहा है,
यह निर्विघ्नतया पूर्ण हो, इस भावना से पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण लेकर मेरे द्वारा यही प्रार्थना की जा रही है।’’ तात्पर्य यह है कि-वैशाख शु.३, वीर नि.सं. २५०४, ई. सन् १९७८ में मैंने नियमसार की स्याद्वादचंद्रिका टीका संस्कृत में लिखना प्रारंभ की थी। वह सन् १९७९ में फरवरी में छूट गई थी। तब मात्र ७४ गाथा की टीका बन चुकी थी।
७५वीं गाथा की आधी बनी थी। अब ५ वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद मैंने ज्येष्ठ शु. १ से पुनः उपर्युक्त पंक्तियों से मंगल भावना करते हुए टीका लिखना शुरू किया। उन दिनों मैं प्रायः प्रातः काल संस्कृत टीका लिखती थी और मध्यान्ह में उसका हिन्दी अर्थ करती थी। धारावाही लिखते हुए मगसिर कृष्णा सप्तमी, गुरुवार पुष्यनक्षत्र, वीर नि. सं. २५११, दिनाँक १५ नवम्बर १९८४ के दिन प्रातः ७ बजकर ४१ मिनट पर मैंने यह टीका पूर्ण की है। उस पूर्ति के समय निम्न श्लोक बनाये हैं-
इस टीकापूर्ति के समय र्आियका रत्नमती जी मेरे पास ही बैठी हुई थीं। मुझे उस समय इतनी प्रसन्नता हुई कि शब्दों में प्रकट नहीं की जा सकती है क्योंकि जब मैंने ३१ मई को शुरू किया था, तब यही सोचा था कि प्रतिष्ठा के बाद तक पूरी हो सकेगी किन्तु सुदर्शनमेरु की भक्ति के प्रसाद से यह प्रतिष्ठा के पूर्व इतनी जल्दी लगभग ५।।
माह में ही पूरी हो गई, अतः आर्यिका रत्नमती जी को भी बहुत ही हर्ष हुआ। उस दिन मोतीचन्द यहाँ थे, इन्होंंने ‘सरस्वती वंदना’ नाम से कार्यक्रम रखा। मेरे लिखे हुए ग्रंथ को पालकी में विराजमान कर जुलूस निकाला।
मवाना सूचना भेज देने से कुछ लोग आ गये थे। जुलूस के बाद शास्त्र की पूजा-आरती करके सभा हुई, जिसमें श्रीकुन्दकुन्ददेव और उनके लिखे गये ग्रंथ नियमसार आदि पर प्रकाश डाला गया। मेरे द्वारा लिखित टीका तथा मेरे प्रति भी भक्ति-अंजलि समर्पित की। पुनः मैंने इसकी प्रशस्ति लिखना शुरू किया। इसमें मैंने आचार्य शांतिसागर जी की परम्परा-अपनी गुर्वावली देकर वर्तमान के शासन को भी लिया है। यथा-
अद्यत्वे भारते देशे, गणतंत्राख्यशासनम्।
जैनधर्मस्य वृद्धिस्तु धर्मनिरपेक्षताविधौ।।१७।।
अद्य राष्ट्रपतिज्र्ञानीजैलसिंहोऽत्र शासकः।
राजीवगांधीनामास्ति प्रधानमंत्री कीर्तिमान् ।।१८।।
पुनः जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का किंचित् इतिहास लिखा है चूँकि उस दिन इस ज्ञानज्योति का टिकैतनगर में मुख्यमंत्री द्वारा उ.प्र. का शुभारंभ हो रहा था। उसी समय मैं यहाँ प्रशस्ति पूर्ण कर रही थी। उसके श्लोक ये हैं-
भारतस्येन्दिरागांधी प्रधानमंत्रिनामभाक्।
सार्धद्वयाब्दपूर्वं यत् प्रावर्तत कराब्जतः।।२९।।
जम्बूद्वीपाकृतेः रूपं ज्ञानज्योतिर्यदाऽभ्रमत्।
सर्वत्र भारते देशे उत्तरप्रांतमाश्रयत् ।।३०।।
टिकैतनगर तस्य मज्जन्मभुवि स्वागतम्।
महोत्सवैश्चलन्नास्ते प्रसन्नाहं तदा त्विह।।३१।।
मत्पाश्र्वेचोपविष्टेयं रत्नमत्यार्यिका प्रसूः।
मार्गे शुक्ले द्वितीयायां प्रशस्तिः रचिता मया।।३२।।
इन श्लोकों का अर्थ यह है- आजकल इस भारत देश में गणतंत्र शासन चल रहा है। इस समय धर्म निरपेक्ष विधान होने से अर्थात् शासन के संविधान में धर्मनिरपेक्षता होने से जैनधर्म वृद्धिंगत हो रहा है। आज राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह भारत के शासक हैं और कीर्तिशाली राजीव गांधी प्रधानमंत्री हैं। पुनः- भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ढाई वर्ष पूर्व जिसका अपने कर-कमलों से प्रवर्तन किया था,
वह ‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’ सर्वत्र भारत देश में भ्रमण करते हुए आज उत्तर प्रांत में पहुँची है। आज मेरी जन्मभूमि टिकैतनगरमें उसका स्वागत बहुत बड़े महोत्सव के साथ हो रहा है। इस समय मैं यहाँ प्रसन्न भाव से मगसिर शुक्ला २ को प्रशस्ति पूर्ण कर रही हूँ। इस समय मेरे पास में मेरी जन्मदात्री आर्यिका रत्नमती माताजी बैठी हुई हैं
अर्थात्- मगसिर शुक्ला २, दिगम्बर २४ नवम्बर १९८४ को टिकैतनगर में उ.प्र. के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के करकमलों से उ.प्र. ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभारंभ हो रहा था। उधर प्रसन्नचित्त हुई मैं आहार करके आकर बैठी थी। आर्यिका रत्नमती जी मेरे पास बैठी हुई थीं। उसी समय ११ बजकर १५ मिनट पर मैंने यह प्रशस्ति पूर्ण की है।
टीका की विशेषताएँ
इस संस्कृत टीका में निश्चय-व्यवहार का समन्वय करते हुए मैंने प्रायः सर्वत्र गुणस्थान व्यवस्था पर जो प्रकाश डाला है, वह मेरा मन्तव्य नहीं है, प्रत्युत् समयसार प्रवचनसार की टीका में जो श्री जयसेनाचार्य ने विषय रखा है, मैंने उसी का अनुसरण किया है। जैसे कि निश्चयसम्यक्त्व को वीतराग चारित्र से अविनाभावी निश्चयरत्नत्रय अवस्था में ही घटित किया है, वहीं विचारसरणि पं. आशाधर जी की अनगारधर्मामृत की टीका में भी है।
सन् १९८६ में पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री ने मेरी अस्वस्थ अवस्था में इस ग्रंथ को पढ़कर मुझे सुनाया। तब उन्होंने भी इस टीका की बहुत ही प्रशंसा की और कई बार कहा कि-‘‘माताजी! आपने इसमें समयोचित उद्धरण बहुत अच्छे-अच्छे लिए हैं।’’ बस उनकी विचारधारा थी निर्विकल्प ध्यान को चतुर्थ गुणस्थान में अंशात्मक मानने की, जो कि अपनी गुरु-परम्परा में मान्य नहीं है।
आचार्यश्री शांतिसागर जी ने अपने अंतिम उपदेश (२६ उपवास) में भी यही कहा है कि- ‘‘निर्विकल्प समाधि-ध्यान सातवें गुणस्थान में ही होता है।’’ पं. फूलचंद जी ने कई बार यह भी कहा कि- ‘‘आपकी विचारधारा एक पक्ष के शास्त्रों से सम्मत है.।’’ इस टीका को हमारी गुरु-परम्परा में, आर्ष परम्परा में मुनियों ने, आचार्यों ने, विद्वानों ने, आर्यिकाओं ने बहुत ही अच्छा कहा हैै।
लखनऊ में ज्ञानज्योति
लखनऊ शहर में ज्ञानज्योति के स्वागत के लिए पुनः मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी पधारे, बहुत अच्छा वक्तव्य दिया पुनः इन्होंने ज्ञानज्योति मंच से उ.प्र. तीर्थ क्षेत्रों के विकास के लिए २५ लाख रुपये अनुदान की घोषणा की। अपने दिगम्बर नेताओं में मतैक्य न होने से आज तक वह राशि नहीं ली जा सकी है।