लेखन कार्य प्रारंभ-मुझे जरा-जरा स्वास्थ्य लाभ होने लगा था किन्तु मैं उठकर खड़ी नहीं हो सकती थी अतः चलना तो बहुत दूर की बात थी। मुझे पाटे पर बिठाकर मोतीचन्द और रवीन्द्र कुमार आहार के लिए ले जाते थे और कमरे से बाहर धूप में भी पाटे से ही लाते-ले जाते थे।
फिर भी पौष कृ. २, रविवार, २९ दिसम्बर १९८५ के प्रातः काल मैंने लेखन कार्य को हाथ में लिया और आधा घंटे बैठकर लेखन किया। तब मुझे ऐसा लगा कि मानो मुझे आत्मा की ‘खुराक’ मिल गई।
‘लेखन करना’ यह मेरा एक व्यसन सा बन गया था और आज भी यही हाल है कि जिस दिन लेखन न हो, ऐसा लगता है कि आज उपवास हो गया अथवा कुछ खो गया है या आज कुछ काम ही नहीं हुआ है। उस समय सम्यग्ज्ञान के लिए द्रव्यानुयोग के लेख पंचास्तिकाय से बनाये थे और मूलाचार के आधार से छह आवश्यक क्रियाओं के छह लेख बनाये थे।
सम्यग्ज्ञान में बाधा
सम्यग्ज्ञान के चार अनुयोग और नारी जगत् , बाल जगत् को मैं ही लिखती थी। इस वर्ष प्रतिष्ठा के बाद गर्मी के निमित्त से और कुछ कारण विशेष से मैं सम्यग्ज्ञान के पूरे लेख नहीं तैयार कर पायी थी कि बीच में बीमार पड़ गई अतः सितम्बर अंक तो जैसे-तैसे निकल गया किन्तु अक्टूबर और नवम्बर अंक रुक गये।
चारों तरफ से सम्यग्ज्ञान के पाठकों के पत्र आने लगे परन्तु किया क्या जा सकता था? मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार और माधुरी भी मेरी परिचर्या में रात-दिन एक किए हुए थे तथा इन्होंने पहले कभी अनुयोग आदि के लेख बनाये भी नहीं थे। जब एक दिन इन लोगों ने सम्यग्ज्ञान के रुकने की चर्चा की, तब मुझे चिंता हुई और मैंने कहा- ‘‘देखो! किसी फाइल में ‘ऐतिहासिक आर्यिकाओं’ के बारे में बहुत सा मैटर है, उसे निकालो और तीन माह का ‘विशेषांक’ बना दो।
इसके बाद मैं आगे के अनुयोगों के लेख बना दूँगी।’’ इस कथन के अनुसार सम्यग्ज्ञान का ‘अक्टूबर-नवम्बर-दिसम्बर’ इन तीन माह का ‘‘ऐतिहासिक आर्यिकायें’’ नाम से विशेषांक निकाल दिया गया पुनः आगे जनवरी माह १९८६ मेें मैंने चारों अनुयोगों के लेख तैयार किये और नारी जगत् भी तैयार किया तथा कु. माधुरी को पास में बिठाकर ‘धन्यकुमार’ की कथा देकर ‘बालजगत्’ बनवाये। तब से पुनः आज तक सम्यग्ज्ञान अबाधगति से निकल रहा है।
अब मैंने नारी जगत् भी माधुरी से बनवाना शुरू कर दिया है और ऐसा सोचा है कि- ‘‘आगे१ पन्द्रहवें वर्ष से चारों अनुयोग और नारी जगत् , बाल जगत् इन छहों स्थायी स्तंभों को इन्हीं शिष्यों से लिखाया जावे। क्षुल्लक मोतीसागर, ब्र. रवीन्द्र कुमार और ब्र. माधुरी ये तीनों मिलकर लेख तैयार करें चूंकि ये तीनों शिष्य मेरी रीति-नीति, मेरी विचारधारा को पूर्णतया आत्मसात् किये हुए हैं। ‘इस अस्वस्थता में भी मैं लिखती हूँ’ यह सुनकर डाक्टर-वैद्य आश्चर्य करने लगे और मना करने लगे, तब मैंने कहा- ‘‘मेरी दवाई यही है अतः मैं थोड़ा-थोड़ा तो लिखूँगी ही।’’
पं. फूलचंद शास्त्री द्वारा स्वाध्याय
पंडित फूलचंद जी सिद्धान्तशास्त्री उन दिनों यहाँ बड़े मंदिर पर आये हुए थे। यहीं सपत्नीक रह रहे थे। वे कई बार मुझे देखने आये। देर तक बैठते थे और यह भाव व्यक्त करते कि- ‘‘मैं माताजी की क्या वैयावृत्ति करूँ?’’ कई बार उन्होंने कुछ स्वाध्याय सुनाने के लिए कहा किन्तु मैं अधिक स्वाध्याय सुनने और चर्चा आदि को झेलने में समर्थ नहीं थी अतः टाल देती थी पुनः कई बार कहने के बाद मैंने रवीन्द्र कुमार से कहा- ‘‘तुम स्वाध्याय के मध्य प्रश्नोत्तर चर्चा विशेष न करो, तब तो पंडित जी से स्वाध्याय कराया जावे।’’
रवीन्द्र कुमार ने भी मेरी अस्वस्थता देखकर मंजूर किया और मैंने पंडित जी को स्वीकृति दे दी। पंडित जी २९ जनवरी १९८६ माघ कृ. ४ को आये और ‘‘नियमसार प्राभृत’’ मेरे द्वारा रचित ‘स्याद्वादचंद्रिका’ टीका वाला प्रारंभ किया। इसमें मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार दोनों बैठते थे, मैं तो घास में ही लेटी रहती थी। यद्यपि इस प्रारंभिक दिन मौसम बहुत खराब था, तब भी पंडित जी आ गये थे। वे प्रतिदिन इतनी भयंकर ठंडी में बड़े मंदिर से पैदल ही आते थे।
वृद्ध और कमजोर थे, फिर भी परवाह नहीं करते थे। रवीन्द्र ने कई बार कहा- ‘‘पंडित जी! आपके लिए प्रातः मैं रिक्शा भेज दूूँ’’ किन्तु पंडित जी ने स्वीकार नहीं किया और बराबर पैदल ही आते रहे। वे बहुत ही सरलता से शांतिपूर्वक मेरे द्वारा रचित संस्कृत टीका को पढ़ते और अर्थ करते थे। इनके द्वारा स्वाध्याय सुनते हुए मैंने अनुभव किया कि ‘‘पंडित जी सरल हैं, गुणग्राही हैं, ईर्ष्यालु नहीं हैं।’’ इनकी सद्भावना बहुत अच्छी थी, ये बार-बार माधुरी को समझाया करते थे कि-‘‘ऐसे आहार दो, ऐसे तेल मालिश करो’’ इत्यादि।
हाँ! ये कट्टर तेरहपंथी हैं और आध्यात्मिक विषयों में मेरी गुरु-परम्परा से किंचित् इनके विचारों में मतभेद हैं। वह यह कि-हम लोग चौथे गुणस्थान में शुद्धात्मा का अनुभव न मानकर श्रद्धान ज्ञान मानते हैं।
अनुभव को निर्विकल्प ध्यान में सातवें से मानते हैं और उसे ही ‘शुद्धोपयोग’ कहते हैं और पंडित जी चौथे गुणस्थान से ही निर्विकल्प का अंश और शुद्धात्मा का अनुभव मान लेते हैं। इस पर भी ये हठाग्रही, कदाग्रही नहीं हैं बल्कि कई बार कहा कि-इस टीका में माताजी ने एक परम्परा अपनायी है अर्थात् जयसेनाचार्य कृत समयसार टीका आदि का आधार लिया है, यह विषय गलत नहीं है।
खैर! हम लोग दूसरी परम्परा को अर्थात् चौथे गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान के अंश को आगमसम्मत न कहकर इसे मुमुक्षु परम्परा या वर्तमान के कतिपय विद्वानों की परम्परा या कानजी परम्परा ही कहते हैं। कुछ भी हो, पंडित फूलचंद जी ने मेरी टीका की समय-समय पर बहुत ही प्रशंसा की है।
बस तेरहपंथ-बीसपंथ के आम्नाय भेद से ही वे विपक्षी दिखते हैं अन्यथा मेरे प्रति उनकी सद्भावना वात्सल्य तथा वैयावृत्ति की भावना सराहनीय रही है। इस प्रकार पंडित जी ने २१ मई १९८६, वैशाख शु. १२ तक इस ग्रंथ को सुनाकर पूर्ण किया था।
यद्यपि रवीन्द्र कुमार की इच्छा थी कि अब पंडित जी कुछ सैद्धान्तिक ग्रंथ का स्वाध्याय चलावें किन्तु पंडित जी के पास दिल्ली से कु. कुंदलता आदि तीन महिलाएँ पढ़ने के लिए आ गई थीं और ये धवला पुस्तकों का शुद्धिकरण भी कर रहे थे अतः इन्होंने अब आने में असमर्थता व्यक्त कर दी।
इसके बाद भी यदि जरा भी मेरी अस्वस्थता सुनते तो दर्शन के लिए आ जाते थे। फरवरी, मार्च में मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा था, तब मैं स्वाध्याय के समय बैठ भी जाती थी, कभी-कभी चर्चायें भी होती थीं। उसमें कुछ-कुछ बोलती भी थी, तब सभी को अच्छा लगता था और पंडित जी भी प्रसन्न होते थे।
मोतीचन्द ने कहा- ‘‘पंडित जी! स्वाध्याय सुन-सुनकर माताजी स्वस्थ हो गई हैं।’’ कुछ भी हो, विपक्ष दल के विद्वान् इतनी सद्भावना से स्वाध्याय सुनावें, यह उनका बहुत बड़ा गुण ही था। कुछ दिनों बाद पंथ व्यामोह से, शायद कुछ लोगों के कहने में आकर, इन्होंने जम्बूद्वीप का विरोध भी किया, तब मुझे अत्यन्त आश्चर्य प्रतीत हुआ। इधर ‘सती अंजना’ आदि सम्यग्ज्ञान लेखन के साथ-साथ मैंने ‘मूलाचार का सार’ बनाया और छोटी सी प्रस्तावना बनाकर ‘ज्ञानपीठ’ में भेजी, चूँकि ‘मूलाचार उत्तरार्ध’ में उसे छपाना था।
शांति विधान आदि
९ फरवरी से २४ फरवरी १९८६ माघ शु. १ से १५ तक यह शुक्ल पक्ष सोलह दिन का था अतः मेरे स्वास्थ्य की कामना से यहाँ शांति विधान सोलह दिन के अनुष्ठान रूप से कराया गया पुनः २५ फरवरी को पूर्णाहुति हुई। फाल्गुन की अष्टान्हिका में श्रीमती शकुंतला देवी-दिल्ली ने यहाँ त्रिमूर्ति मंदिर में विधान किया।
फाल्गुन शु. १ से १५ तक, दिनाँक ११ मार्च से २६ मार्च तक यह शुक्ल पक्ष १६ दिन का होने से शांति विधान कराया गया। सिद्धचक्र विधान और शांति विधान दोनों का हवन २७ मार्च को कराया गया।
बड़ी शांतिधारा
२६ फरवरी फाल्गुन कृ. २ से २८ मार्च चैत्र कृ. ३ तक भगवान महावीर स्वामी की बड़ी प्रतिमा पर प्रतिदिन मध्यान्ह में दूध से बड़ी शांतिधारा करायी गयी।
इससे पूर्व बार-बार स्वास्थ्य उलट जाता था अतः सभी चिंतित हो जाते थे, तब अनेक लोगों के आग्रह से यहाँ मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार और माधुरी ने यह निर्णय किया था कि- ‘‘माताजी के स्वास्थ्य लाभ के लिए यहाँ एक माह तक मृत्युंजय विधान कराया जावे।’’ तदनुसार पौष शु. २, १२ जनवरी १९८६ से मृत्युंजय विधान शुरू किया गया था। पहले कुछ दिन संस्कृत की पूजा की गई पुनः आर्यिका अभयमती द्वारा रचित हिन्दी पूजा विधान कराया गया।
यह विधान माघ शु. ३, दिनाँक ११ फरवरी तक चलाया गया पुनः सवा लाख जाप्य मंत्र की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई।
ज्योतिषाचार्यों के वाक्य
इस बीमारी के मध्य कई एक ज्योतिषी विद्वान् आते रहे और अनेक प्रकार की बातें बताते रहे। मेरा कोई विशेष लक्ष्य नहीं रहा, चूँकि मैं सदैव श्रावकों को भी ज्योतिषियों के चक्कर से बचने के लिए ही कहा करती हूँ, मेरा कहना है कि- ‘‘जो कुछ होनहार है, होगी ही। पहले से पूछकर चिंता करना व्यर्थ है अथवा कई एक ज्योतिषियों की वाणी असत्य निकल जाती है। पुुरुषार्थ के बल पर तो असाता को साता में संक्रमण कराके अशुभ भाग्य को भी पलटा जा सकता है इत्यादि।’’
इसी मध्य एक प्रबुद्ध श्रावक के साथ एक ब्राह्मण ज्योतिषाचार्य आये। इन्होंने मोतीचंद, रवीन्द्र और माधुरी के पास बैठकर बहुत कुछ चर्चायें कीं, ये बोले- ‘‘इन दो माह में माताजी का मृत्यु योग है अतः मैं २०-२५ दिन यहाँ आकर मृत्युंजय महामंत्र का अनुष्ठान करना चाहता हूँ।’’
चूँकि ब्राह्मणों के मंत्र हमारे शिष्यों को इष्ट नहीं थे अतः इन लोगों ने टालने की कोशिशें कीं, तब वे कहने लगे- ‘‘भाई! माताजी को तो अपने शरीर से मोह नहीं है, मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ, फिर भी आज विश्व में इन जैसी विदुषी माता की बहुत बड़ी आवश्यकता है, इनका जीवन अपने लिए-स्वयं के लिए नहीं है बल्कि संसार के तमाम प्राणियों के उपकार के लिए है। इनका जीवित रहना बहुत ही उपयोगी है। इसका मूल्यांकन आप लोग नहीं कर पा रहे हैं।
’’ कुल मिलाकर अनेक श्रेष्ठीवर्ग, विद्वानों और ज्योतिषियों के आग्रह से मोतीचंद, रवीन्द्र और माधुरी ने आपस में यह निर्णय किया कि- ‘‘अपने जैनधर्म में भी तो मृत्युंजय महामंत्र है, मृत्युंजय विधान भी होगा। माताजी ने एक बार खतौली में किसी श्रावक को मृत्युंजय यंत्र, मंत्र दिया था, तब उन्होंने उसे करके आगे २ वर्ष बाद आकर कहा था कि मेरे बेटे का ग्रह टल गया, उसकी शादी भी कर दी, उसके बालक भी हो गया है।
’’ इत्यादि संस्मरण याद कर ये तीनों मेरे पास आये और पूछने लगे- ‘‘माताजी! अपने यहां मृत्युँजय विधान है क्या?’’ मैंने कहा- ‘‘है, लाइब्रेरी में छोटी पुस्तक है, संस्कृत में एक पूजा और कुछ अर्घ्य हैं-।’’ इन लोगों ने निकलवाया और विधिवत् करने का निर्णय लिया।
विधान तो एक-एक दिन का होने से अनेक भक्तों ने किया है किन्तु जाप्य का अनुष्ठान मोतीचंद, रवीन्द्र और माधुरी ने किया। अन्य लोगों ने भी जाप्य की थीं। इन्होंने सवालाख जाप्य कीं पुनः अंत में अमरचंद होमब्रेड ने तीन दिन मृत्युंजय विधान करके, ११ फरवरी, माघ शु. ३ को हवन करके पूर्ण किया था।
इसी प्रकार मुझे शांति विधान के विधिवत् १६ दिन के अनुष्ठान पर अधिक श्रद्धा थी, अतः माघ सुदी में और फाल्गुन सुदी में १६-१६ दिन का पक्ष होने से दो बार शांति विधान १६-१६ दिन का कराया गया। मध्य के दिनों में भी सिद्धचक्र आदि विधान होते ही रहे हैं। मेरठ के हकीमों से परामर्श करके इलाज चल रहा था।
फिर भी ४-५ दिन बाद वापस वमन और अतिसार शुरू हो जाने से पुनः-पुनः स्वास्थ्य उलट जाता था। इसके बाद २८ जनवरी को हकीम सेफुद्दीन को लाया गया। ये राष्ट्रपति का इलाज करने वाले बहुत अच्छे हकीम हैं। इनके परामर्श से यद्यपि दवाई पुरानी ही चलायी गई थी, फिर भी हर सप्ताह परामर्श से कुछ न कुछ छोटा-मोटा परिवर्तन किया जाता था, जैसे कि एक ‘आलू बुखारा’ बढ़ा देना इत्यादि।
यह परिवर्तन स्वास्थ्य के लिए हितकर था। ८ फरवरी को पुनः वमन हुआ। उसके बाद नहीं हुआ, तब से प्रकृति सुधार पर आ गई। सभी को संतोष हुआ और सबने मेरा पुनर्जन्म माना। फाल्गुन में मैं धीरे-धीरे माधुरी आदि के हाथ का सहारा लेकर चलने लगी थी पुनः धीरे-धीरे अपने आप चलना-फिरना शुरू हुआ।
उन दिनों सभी शिष्याएँ हंसी करती रहती थीं कि ‘‘पहले माताजी ने हम लोगों को चलना-मोक्ष मार्ग में चलना सिखाया है और अब हम लोग माताजी को चलना सिखा रहे हैं।
इंद्रध्वज विधान
इसी मध्य फरवरी में छोटीशाह के विशेष आग्रह से माधुरी को टिकैतनगर भेजना पड़ा। वहाँ इन्द्रध्वज विधान बहुत ही प्रभावना से सम्पन्न हुआ, लगभग १५० लोग हवन में बैठे थे। उनका विधान सम्पन्न कराकर ७ मार्च को माधुरी यहाँ आ गई।
क्षेत्रपाल की स्थापना
एक बार आचार्यश्री विमलसागर जी ने कहा कि- ‘‘वहाँ मंदिर में क्षेत्रपाल विराजमान करना चाहिए।’’ महाराजश्री ने स्वयं क्षेत्रपाल प्रतिष्ठित करके दे दिये। यहाँ पर उन्हें लाकर रत्नत्रयनिलय में, जहाँ जंबूद्वीप की सिद्ध प्रतिमाएँ थीं, वहीं विराजमान कर दिया पुनः मुहूर्त के अनुसार त्रिमूर्ति मंदिर में एक छोटी सी वेदी बनवाकर, मगसिर सुदी ५, दिनाँक १६ दिसम्बर १९८५ को प्रातः मोतीचन्द, रवीन्द्रकुमार और माधुरी ने मिलकर वेदी में क्षेत्रपाल को विराजमान किया।
उसी दिन मध्यान्ह में बम्बई के यात्री आए हुए थे, उन्होंने सामान्य मात्र प्रेरणा से मूलवेदी के बनवाने की स्वीकृति दे दी पुनः १७ दिसम्बर को कैलाशचंद जैन (टिकैतनगर) ने क्षेत्रपाल की वेदी के लिए न्यौछावर प्रदान किया। इसके बाद २२ दिसम्बर को दिल्ली के पल्टूमल जैन आये और उन्होंने त्रिमूर्ति मंदिर के हॉल में पत्थर लगाने के लिए स्वयं प्रेरणापूर्वक कहा।
आज वहाँ उन्हीं की ओर से फर्श में पत्थर लग चुका है। जिनेन्द्र देव के प्रसाद से आज तक मंदिर का उत्थान होता ही जा रहा है। अभी१ मार्च १९८७ में आजू-बाजू की वेदियों में सुन्दर कमल बनाकर, उन पर भगवान् पार्श्वनाथ और नेमिनाथ की विशाल प्रतिमा विराजमान की जा चुकी हैं।
मृत्युंजय विधान
पुनः१४ अप्रैल से १६ मई तक यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर मृत्युंजय विधान कराया गया। १६ मई को हवन विधि सम्पन्न हुई।