(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
मोतीचंद ने माघ शु. १२, २१ फरवरी १९८६ के दिन प्रातः मेरे पास बैठकर हाथ जोड़कर निवेदन किया कि- ‘‘माताजी! अब मैं क्षुल्लक दीक्षा लेना चाहता हूँ, आप मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये।’’ मुझे भी संतोष रहा, चूंँकि सर्वप्रथम आश्विन शुक्ल पूनो, सन् १९८० में मेरे जन्म दिवस पर इन्होंने मुझसे अपने दीक्षा के भाव व्यक्त किये थे। तब मैंने समझाया था- ‘‘देखो, मोतीचंद! तुमने जम्बूद्वीप के कार्य को पूरा करने का संकल्प लिया था अतः इसे पूरा करके दीक्षा लेवो।’’
यद्यपि मेरे जीवन में यह पहला प्रसंग था कि जब मैंने दीक्षा के भाव स्वयं दीक्षार्थी के होने के बाद उन्हें रोका हो प्रत्युत् मेरे पास रहने वालों को मैंने बार-बार प्रेरणा देकर दीक्षा के लिए तैयार किया था अतः मुझे अंतरंग में दुःख भी हुआ था किन्तु इस महान् कार्य के लोभवश मैंने उस समय उन्हें रोका था पुनः वे जब तब दीक्षा के लिए प्रार्थना किया ही करते थे।
अनंतर आश्विन शु. पूर्णिमा, सन् १९८१ के दिन भी इन्होंने भावना व्यक्त की और मेरे नहीं स्वीकृति देने पर सभा में ही दीक्षा न होने तक एक रस का त्याग कर दिया। इससे पूर्व फाल्गुन शु. १५ सन् १९८१ में ही जंबूद्वीप प्रतिष्ठा के होने तक के लिए नमक और मीठे का त्याग कर दिया था तथा फलों में सेव और संतरा का त्याग कर दिया था।
इसके बाद जंबूद्वीप प्रतिष्ठा पर दीक्षा के लिए पहले से ही बार-बार कह रहे थे, तब मैंने शिष्य के मोहवश ऐसा कहा था कि- ‘‘प्रतिष्ठा के छह महीने बाद दीक्षा लेना।’’ क्योंकि जो शिष्य बीस वर्ष तक पास में रहकर अच्छी तरह आज्ञा का पालन करे, समर्पित होकर रहे और जंबूद्वीप निर्माण, ज्ञानज्योति प्रवर्तन और साहित्य प्रकाशन आदि अनेक महान् कार्य कर रहा हो, उसके जाने का निर्णय देने में इष्ट वियोगज आर्तध्यान होना स्वाभाविक ही है।
चूंकि अब तक इनका यही कहना था कि मैं क्षुल्लक दीक्षा लेकर संघ में रहूँगा। मैं चाहती थी कि दीक्षा लेकर ये क्षुल्लक बनकर यहाँ रहकर मेरी सारी जिम्मेवारी संभालें और मेरी यथोचित-पाठ, स्वाध्याय आदि सुनाने रूप वैयावृत्ति करते हुए मेरी समाधि अच्छी करावें, क्योंकि योग्य शिष्य का वियोेग पुत्र वियोग से भी अधिक दुःखद होता है।
अतः इस समय मोतीचंद की उपर्युक्त २१ फरवरी १९८६ की प्रार्थना स्वीकार कर मैंने कहा- ‘‘बहुत अच्छा है, मेरी स्वीकृति अब पूर्णरूपेण है, तुम दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करो।’’ मेरी स्वीकृति पाकर मोतीचंद भी बहुत प्रसन्न हुए पुनः मैंने कुछ सोचकर कहा- ‘‘मोतीचंद! तुम आचार्यसंघ को यहाँ हस्तिनापुर में ही लाकर मेरे सामने क्षुल्लक दीक्षा लेवो और यहीं पर रुको, मेरी समाधि अच्छी करानी है।’’
अस्वस्थता के मध्य मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार और माधुरी इन तीनों ने मेरी जो सेवा की है वह ‘वचनातीत’ है। वास्तव में संयम में बाधा न पहुँचाकर जितनी तन्मयता से सेवा की है, विरले ही पुत्र अपने हाथों अपनी मां की ऐसी सेवा करते होंगे। आजकल तो प्रायः माता-पिता की लम्बी बीमारी में लोग सेवा के लिए नर्स रख देते हैं।
विरले ही शिष्य अपने गुरू की ऐसी लम्बी बीमारी में इतनी अच्छी-उचित परिचर्या करते हैं अतः मेरे मुख से बार-बार यह निकल जाता है कि- ‘‘अब मेरी आयु बहुत नहीं है, शरीर जीर्णशीर्ण हो चुका है, तुम लोग-योग्य शिष्य मेरी समाधि अच्छी करा दो।’’ उपर्युक्त मेरे शब्दों को सुनकर मोतीचन्द ने एक-दो दिन विचार किया पुनः बोले- ‘‘माताजी! मैंने आज तक आपकी आज्ञा पालन की है, अब भी आज्ञा उलंघन करने का साहस नहीं है अतः आप जो कहें, सो मंजूर है।
बस! इच्छा यही है कि दीक्षा आज ही हो जावे ।’’ मैंने दिल्ली से जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार और कैलाशचंद को बुलाया। रवीन्द्र कुमार और ये दोनों श्रावक बैठे। परामर्श करके यह कहा कि- ‘‘तुम (रवीन्द्र कुमार) जिनेन्द्र प्रसाद और कैलाशचंद इंदौर जावो, आचार्य विमलसागर जी महाराज से प्रार्थना करो कि वे ज्येष्ठ मास में यहाँ हस्तिनापुर आ जावें और इनका दीक्षा समारोह संपन्न किया जावे।’’
मेरी आज्ञानुसार रवीन्द्र कुमार आदि ये तीनों फाल्गुन कृ. ३,२७ फरवरी १९८६ को इंदौर के लिए रवाना हुए और वहाँ पहुँचकर आचार्यश्री के दर्शन कर यहाँ आने के लिए और मोतीचंद की दीक्षा के लिए निवेदन कर उनके मुखारविंद से निकले आदेश को लेकर फाल्गुन कृ. ६, २ मार्च रविवार को यहां आ गये और मुझसे बोले- ‘‘आचार्य श्री ने आपको आशीर्वाद कहा है और बोले हैं कि मेरा चातुर्मास फिरोजाबाद होना निश्चित है अतः इतनी गर्मी में मैं पहले हस्तिनापुर नहीं आ सकूंगा।
चातुर्मास के बाद सोनागिरि, जयपुर होते हुए हस्तिनापुर आऊँगा, तभी दीक्षा का कार्यक्रम रखा जावेगा।’’ इतनी लम्बी बात सुनकर मोतीचन्द बहुत चिंतित हुए किन्तु मेरी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए मन मसोस कर रह गये। कई बार कह देते थे- ‘‘माताजी! मुझे अब एक-एक दिन निकालना भारी लगता है। अब इतनी उत्कट इच्छा है कि अभी-अभी दीक्षा ले लूँ ।’’
उनके इन शब्दों को सुनकर मैं अपनी पुरानी बात सन् १९५५ की याद करती कि आचार्यश्री शांतिसागर जी की सल्लेखना देखकर मुझे आर्यिका दीक्षा लेनी थी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री की आज्ञानुसार मुझे राजस्थान में आकर आचार्य श्री वीरसागर जी से दीक्षा लेनी थी। वहाँ म्हसवड़ चातुर्मास में अकलूज के मियाचंद फड़े ने आकर कई बार कहा- ‘‘माताजी! यहाँ से श्रवणबेलगोल नजदीक है।
आर्यिका दीक्षा के बाद पैदल विहार कर उत्तर प्रांत से दक्षिण आकर भगवान के दर्शन करना बहुत कठिन है। मैं आपको मगसिर में दर्शन कराऊँगा तब तक आप जयपुर न जावें किन्तु अत्यधिक आकुलता से मैंने उनकी नहीं मानी थी और भगवान बाहुबलि के दर्शन छोड़कर जयपुर आ गयी थी। आखिर यहाँ भी आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने मेरी उम्र २१ वर्ष की देखकर और बनायी हुई मर्यादा के अनुसार चार महिने लगभग टाल दिया था।
मैं मन-मन में तड़फती रही थी कि- ‘‘अहो! भगवान बाहुबली के दर्शन भी छोड़ आई और दीक्षा भी नहीं हो रही है ।’’ पुनः वैशाख वदी २ को मेरी आर्यिका दीक्षा हुई थी। अस्तु! मैंने जैसे-तैसे मोतीचन्द को समझाया और कहा कि- ‘‘मोतीचन्द! तुम इस चातुर्मास में जहाँ-जहाँ की यात्रा करनी है, खूब कर लो।’’ यद्यपि मोतीचन्द ने सारी यात्राएँ कर ली थीं।
तीन वर्षों से ज्ञान ज्योति प्रवर्तन कराते हुए अनेक प्रांत, नगर और शहरों में घूम चुके थे फिर भी इनके मन में पुनरपि कुछ यात्राओं की उमंग थी, उसके अनुसार रूपरेखा बनायी गयी। इसके बाद आचार्यश्री के फिरोजाबाद प्रवेश में रवीन्द्र कुमार गये थे। आषाढ़ सुदी ६, १३ जुलाई रविवार को आचार्यश्री विमलसागर जी संघ की वी.डी.ओ. फिल्म बनवायी जो कि मुझे दिखाने के लिए लाये और आकर आचार्यश्री का मंगल आशीर्वाद सुनाया पुनः ११ अगस्त को श्रावण में माधुरी फिरोजाबाद गई और विहार की तारीख निश्चित करने हेतु प्रार्थना की।
आचार्यश्री ने कहा- ‘‘मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार को भेजो!’’ वैसे सन् १९८७ में यहाँ हस्तिनापुर आने को कहा, तब बहुत लम्बा लग रहा था, मैं चाहती थी कि आचार्यश्री फिरोजाबाद से सीधे इधर आ जावें और मगसिर या पौष में दीक्षा हो जावे। खैर! सोचने से क्या होता था? जब दीक्षा का योग होगा, तभी तो होगी, ऐसा सोचकर शांति तो रखनी ही पड़ी।
अभी तक मोतीचंद कहते रहते थे कि मेरी दीक्षा के बारे में प्रचार मत करो, किसी से कुछ चर्चा मत करो जब मुहूर्त निश्चित हो जाये तभी बाहर चर्चा करनी चाहिए। इस बीच में विधान आदि के निमित्त से मोतीचन्द के इधर-उधर जाने आने के प्रोग्राम बनते रहे।
भादों वदी १२, १ सितम्बर को मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार और पं. सुधर्मचंद फिरोजाबाद गये। आचार्यश्री के दर्शन किये। आचार्यश्री ने मोतीचन्द से कहा- ‘‘फाल्गुन में दीक्षा का मुहूर्त है।’’ ‘पंचांग देखकर तिथि घोषित करेंगे।’’ इसके बाद ये लोग २ सितम्बर को मेरे पास आ गये।
दिल्ली के पल्टूमल जैन ‘इंजीनियर’ दिल्ली नगर निगम ने यहाँ दशलक्षण में इन्द्रध्वज विधान कराने का निर्णय लिया। वे चाहते थे कि माधुरी, रवीन्द्र कुमार, मोतीचन्द ये तीनों यहीं मेरे विधान में रहें, किन्तु माधुरी का दशलक्षण में अहमदाबाद जाना पहले से ही निश्चित था तथा इधर सौभाग्यमल कटारिया अहमदाबाद से आये थे।
उनके आग्रह विशेष से मैं मोतीचन्द को भी भेजना चाहती थी। यद्यपि मोतीचन्द कह रहे थे कि- ‘‘मैं अब एक वर्ष के लिए दशलक्षण में क्या जाऊँ? अब मुझे जाना तो है नहीं, दीक्षा लेना है ।’’
किन्तु फिर भी मेरी आज्ञा नहीं टाल सके अतः जाने के लिए प्रोग्राम बना लिया। यहाँ से भादों शु. २, ६ सितम्बर को सुधर्मचंद तिवरीवाले, मोतीचन्द जैन, कु. माधुरी और ब्र. श्यामाबाई ये चारों लोग लगभग ११ बजे निकलकर दिल्ली गये। दिल्ली से अहमदाबाद के लिए रवाना हो गये।
उसी दिन इधर लगभग ५ बजे दिल्ली से एक आदमी आया। उसने बताया कि डा. कैलाशचंद जैन राजाटॉयज वालों के यहाँ फोन आया है कि- ‘‘मोतीचन्द के पिता और बहनोई दोनों का स्वर्गवास हो गया है।’’ यह दुःखद समाचार सुनते ही रवीन्द्र कुमार ने आकर मुझे बताया और आदमी दिल्ली भेजकर अहमदाबाद टेलीफोन कराया पुनः यहाँ कार्यालय से एक श्रावक अनिल कुमार जैन को भादों सुदी ६, ९ सितम्बर को सनावद भेजा गया।
मेरे द्वारा वी.डी.ओ. कैसेट भी दी गयी और सारा सही समाचार मंगाया गया। उधर अहमदाबाद में मोतीचन्द को दिल्ली से टेलीफोन द्वारा पिता के स्वर्गवास का समाचार मिला तो पं. सुधर्मचंद जी उन्हें साथ लेकर सनावद चले आये। पंडित जी तो अहमदाबाद अपने दशलक्षणधर्म के कार्यक्रम में वापस आ गये और मोतीचन्द सनावद रुक गये।
वहाँ इंदौर में पहले ४ सितम्बर को रात्रि १० बजे मोतीचन्द जी के बहनोई महेन्द्र कुमार जैन का स्वर्गवास हो गया था। यह समाचार मोतीचन्द के पिता को दिया भी नहीं गया पुनः ५ सितम्बर १९८६ को पिता अमोलकचंद सर्राफ का स्वर्गवास हो गया।
इसके पूर्व ७-८ दिन पहले यहाँ से पं. नरेशचंद सनावद गये हुए थे उन्होंने देखा था कि अमोलकचंद जी स्वयं पूजन की थाली लेकर मंदिर गये थे और पूजन करके धीरे-धीरे वापस आ रहे थे।
दिल्ली के पल्टूमल जैन ने अपने परिवार सहित अनेक धर्मप्रेमी श्रावकों के साथ यहाँ हस्तिनापुर में त्रिमूर्ति मंदिर में इन्द्रध्वज विधान किया। झंडारोहण ५ सितम्बर, भादों सु. १ को हुआ पुनः विधान का हवन होकर १६ सितम्बर १९८६, भादों शु. १३ को रथयात्रा हुई। १०८ कलशों से जिनेन्द्रदेव का अभिषेक हुआ।
इसी दिन राजकुमार जैन दिल्ली, जो कि पल्टूमल के दामाद हैं, इन्होंने बिना प्रेरणा के-स्वरुचि से कमलमंदिर के लिए ५१ हजार रुपये का दान बोला। ये पल्टूमल जैन और राजकुमार दोनों ही इस संस्थान के प्रति आत्मसात् हो गये थे। यहाँ १३ दिनों में बहुत ही अच्छी भावनाएँ व्यक्त कीं और बहुत ही प्रभावित रहे थे।
यहाँ से सनावद जाने के लिए रवीन्द्र कुमार और मनोज कुमार (अनंतवीर्य के पुत्र) १९ सितम्बर, आश्विन कृ. १ को चले गये। ये २० सितम्बर को तेरहवीं के दिन वहाँ पहुँच गये। श्रद्धांजलि सभा में रवीन्द्र ने अपना भाषण देते हुए मेरा संदेश सुनाया और संवेदना प्रगट की। इसके बाद सनावद के लोगों ने बुंदेलखंड यात्रा का प्रोग्राम बना लिया, जिसमें लगभग १७५ यात्री थे।
२० सितम्बर को ही ये लोग अतीव आग्रह पूर्वक मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार को यात्रा में साथ ले गये। यह यात्रा मात्र ८ दिन की थी। इसमें इन्होंने चंदेरी, देवगढ़, ललितपुर, पपौराजी, अहारजी, खजुराहो, कुण्डलगिरि, नैनागिरि आदि के दर्शन किये। इसके बाद मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार दोनों हस्तिनापुर आ गये।
मोतीचन्द को इस बात का बहुत दुःख रहा कि- ‘‘मेरे पिताजी मेरी दीक्षा नहीं देख सके, चले गये’’ किन्तु भला काल के आगे किसी की क्या चली है?’’
२५ सितम्बर १९८६, आश्विन कृ. ७ को आचार्यश्री विमलसागर जी की जन्मजयंती फिरोजाबाद में अच्छे समारोह से मनाई गई। उस अवसर पर यहाँ से मैंने पं. सुधर्मचंद और नरेश कुमार को यहां आने की प्रार्थना के लिए भेज दिया।
चूँकि मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार यात्रा में थे और माधुरी यहाँ आकर अस्वस्थ हो गई थीं। वहाँ संघ में सभी साधुओं को भी जंबूद्वीप के दर्शन की बहुत ही ‘उत्कंठा’ हो रही थी।
आश्विन शु. ५, ८ अक्टूबर को मोतीचंद ने यहॉँ मेरे समक्ष श्रीफल चढ़ाकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए विधिवत् प्रार्थना की। मैंने भी प्रसन्न मन से स्वीकृति देते हुए कहा- ‘‘मोतीचंद! तुमने इतने महान् जंबूद्वीप निर्माण कार्य को पूरा किया है, अब आत्मकल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण करना चाहते हो, मुझे बहुत खुशी है। आचार्य संघ को यहॉँ लाकर दीक्षा ग्रहण करो और मनुष्य पर्याय के फलस्वरूप संयमसाधना में कदम बढ़ाओ, यही मेरी शुभकामना है और मंगल आशीर्वाद है।’’
इसके बाद आशीर्वाद ग्रहण कर मोतीचन्द दिल्ली गये। वहां से संस्थान के अनेक सदस्यों को लेकर फिरोजाबाद गये। वहाँ १२ अक्टूबर १९८६, आश्विन शु. १०, विजया-दशमी को आचार्यश्री विमलसागर जी के समक्ष श्रीफल चढ़ाकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की। आचार्यश्री ने भी स्वीकृति देकर, मुहूर्त निकालकर, फाल्गुन शु. ९, रविवार, ८ मार्च १९८७ का मंगल दिवस क्षुल्लक दीक्षा के लिए बतलाया।
इस प्रतिनिधि मंडल में मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार, जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार, राजेन्द्र प्रसाद (कम्मोजी), सुरेशचंद गोटे वाले आदि अनेक महानुभाव थे। इस दिन आचार्यश्री ने यह भी कहा कि- ‘‘अब आज से मोतीचन्द की बिनौरियाँ (शोभायात्राएँ) शुरू करा दो।’’ उपाध्याय मुनि भरतसागर जी ने कहा-‘‘मोतीचंद की दीक्षा एक आदर्श दीक्षा होगी क्योंकि इन्होंने जंबूद्वीप निर्माण, ज्ञानज्योति प्रवर्तन आदि महान् कार्य किये हैं।’’
इसके बाद यहाँ हस्तिनापुर में १९ अक्टूबर को मेरे जन्मदिवस के उपलक्ष्य में संस्थान के कार्यकर्ताओं ने मेले का आयोजन किया।
श्रीचंद जैन सनावद वाले, उनकी धर्मपत्नी सरला, मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार और मनोज कुमार ये लोग कार्तिकवदी ३, २० अक्टूबर को यहाँ से प्रस्थान कर हरिद्वार पहुँचे। वहाँ जौहरीलाल जी के यहाँ ठहरे पुनः टैक्सी से श्रीनगर, जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ पहुँचे। वहाँ के तप्तकुंड के जल में स्नान किया पश्चात् मंदिर गये।
यद्यपि यह मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है, फिर भी आज उन्हें बद्रीनाथ कहते हैं और दर्शन दूर से ही कराते हैं। वहाँ बद्रीनाथ में इंदौर के श्रेष्ठी महानुभावों ने कुछ जगह लेकर भगवान ऋषभदेव के चरण स्थापित किए हैं, वहाँ गये किन्तु वहाँ के दरवाजे बंद हो जाने से इन्हें दर्शन नहीं हो सके।
कहते हैं वहाँ इतनी बर्फ पड़ती है कि एक-दो तपस्वी वैष्णव साधु, मंदिर के प्रबंधक एवं सरकारी कर्मचारियों के सिवाय वहाँ शीतकाल में कोई नहीं रहते हैं। १६ नवम्बर को दरवाजे बंद हो जाते हैं जो पुनः शीतकाल के बाद खुलते हैं। वापस में इन लोगों ने श्रीनगर के मंदिर में पूजन किया, वहीं भोजन कर हरिद्वार आये।
जौहरीलाल जैन ने इन लोगों का माल्यार्पण आदि से अच्छा सत्कार किया पुनः२५ अक्टूबर को ये लोग हस्तिनापुर आ गये।
कार्तिक वदी ८, २६ अक्टूबर १९८६ का स्वर्णिम दिवस है। यहाँ जंबूद्वीप के लिए जो जगह सन् १९७४ में खरीदी गयी थी, वहां सर्वप्रथम भगवान महावीर की सवा नव फुट ऊची खड्गासन जिनप्रतिमा विराजमान करने के लिए सन् १९७५ में छोटा सा गर्भागार (कमरा) बनवाया गया था।
भगवान महावीर की प्रतिमा साक्षात् कल्पवृक्ष ही हैं, इन्हीं के प्रभाव से आज यहाँ जंगल में मंगल दिख रहा हैै। इनके लिए ‘कमलमंदिर’ का मॉडल सन् १९८५ में ही मैंने बनवाया था किन्तु उस मंदिर के शिलान्यास का महान् श्रेय राजकुमार जैन, दिल्ली वालों ने प्राप्त किया। २६ अक्टूबर, रविवार को प्रातः पूजन होने के बाद ९ बजकर ४१ मिनट पर ५ फुट गहरे गड्ढे में अचल यंत्र विराजमान करके विधिवत् शिला रखायी गई। राजकुमार और पल्टूमल ने बहुत बड़े उत्साह के साथ शिलान्यास किया था।
आज ३१ दिसम्बर को देखिये-इस कमल मंदिर का काम जोरों से चल रहा है। गोलाकार मंदिर बन चुका है अब आसाम से आया कारीगर वासुदेव पाल कमल की पंखुड़ियाँ बना रहा है। इस मंगल अवसर पर मैं, आर्यिका अभयमती जी, आाqर्यका शिवमती जी, क्षुल्लिका शांतिमती जी भी उपस्थित थीं। अमरचंद जैन होमब्रेड, मेरठ वालों ने इस अवसर पर शांति विधान किया।
मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार, कु. माधुरी, कुमुदनी, कु. बीना आदि सभी लोग प्रातः १० बजे, कार्तिक वदी १०, २८ अक्टूबर १९८६ को मेरा आशीर्वाद लेकर सम्मेद शिखर की यात्रा के लिए निकले। यहाँ के विद्यार्थी और अध्यापक आदि ने इनको पुष्पहार पहनाकर यात्रा के लिए मंगल कामनाएँ व्यक्त कीं।
ये लोग यहाँ से अयोध्या, बनारस आदि होते हुए पावापुरी में भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस पर निर्वाण लाडू चढ़ाकर, राजगृही, चंपापुरी, सम्मेदशिखर की वंदना करके कार्तिक शु. ११, १२ नवम्बर कोे रात्रि में हस्तिनापुर आ गये। यहाँ १३ नवम्बर को प्रातः यात्रा से आये इन लोगों का सम्मान किया गया।
मोतीचन्द जी कई बार कहा करते थे कि मैंने अभी आर्यिका रत्नमती माताजी की जन्मभूमि नहीं देखी। जब इनकी दीक्षा का मुहूर्त निश्चित हो गया, तब वहाँ के श्रावकों ने आग्रहपूर्वक कार्यक्रम का आयोजन किया।
मगसिर शु. १४, दिनाँक १५-१२-८६ को सभा में मोतीचन्द का परिचय देते हुए वहाँ के लोगों ने सम्मान किया पुनः अगले दिन मगसिर शु. पूर्णिमा, दिनाँक १६-१२-८६ को रथयात्रा के साथ ही मोतीचन्द को खुली जीप में बिठाकर अच्छे समारोह से शोभायात्रा निकाली। बहुत ही प्रभावना के साथ वहाँ मोतीचन्द का सम्मान किया गया।
आस-पास के श्रावकों ने भी आकर भाग लिया। इसके पूर्व दीक्षा की तिथि का एक पोस्टर छपा कर दीक्षा के मंगल अवसर का प्रचार सर्वत्र किया जा रहा था।