त्रिभुवन में जिनप्रतिमा शाश्वत, असंख्यात हैं वर्णित।
ढाई द्वीप में कृत्रिम प्रतिमा, सुर नर निर्मित अगणित।।
इन सबका आह्वानन कर मैं, भक्ति भाव से ध्याऊँ।
जिनप्रतिमा जिनसदृश पूज्य हैं, वंदन कर सुख पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट् सन्निधीकरणं।
पद्माकर का जल अति शीतल, पद्म पराग सुवास मिला।
राग भाव मल धोवन कारण, धार करूँ मन कंज खिला।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियाँ आन प़ड़ें।
जिनप्रतिमा पूजन से नशते, कर्मशत्रु भी बड़े-बड़े।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय संसारतापविनाशनाय चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र चन्द्रिका सम सित तंदुल, पुँज चढ़ाऊँ भक्ति भरे।
अमृत कण सम निज समकित गुण, पाऊँ अतिशय शुद्ध खरे।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
कामबाण विजयी जिनवल्लभ, चरण जजत नवलब्धि मिले।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलाकंद पयसार लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, जिनपद पंकज पूज किये।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तम नाश करे।
दीपक से आरति करते ही, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में धूप जलाकर, अष्टकर्म को दग्ध करें।
निज आतम के भावकर्म मल, द्रव्यकर्म भी भस्म करें।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरे।
नव क्षायिक लब्धी फल इच्छुक, पूजूँ प्रभु पादाब्ज खरे।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय मोक्षफलप्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
त्रिभुवन पूजित पद के हेतू, तुम पद वारिज अर्घ्य किया।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीजगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
मिले शीघ्र भवतीर, जिनपद में धारा करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल मालती फूल, सुरभित निज कर से चुने।
करूँ स्वात्म अनुकूल, पुष्पांजलि से पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जिनप्रतिमा के अर्घ्य (२४ अर्घ्य)
शाश्वत जिनवर बिंब, सौ इंद्रों से वंद्य हैं।
जजत मिले सुखकंद, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अधोलोक की शाश्वत जिनप्रतिमाओं के अर्घ्य
भवनवासि के जिनभवनों में, जिनप्रतिमाएं रत्नमयी।
आठ अरब तेंतिस करोड़, छियत्तर लाख प्रमाण कहीं।।
हाथ जोड़कर शीश झुकाकर, करूँ वंदना भक्ती से।
क्षायिक सम्यक्रत्न प्राप्त कर, कर्म हनूँ निज शक्ती से।।१।।
ॐ ह्रीं भवनवासि देवानां सप्तकोटिद्वासप्ततिलक्षजिनालयेषु स्थित
अष्टार्बुदत्रयस्त्रिंशत्कोटिषट्सप्ततिलक्षजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भवनवासी के चैत्यवृक्ष प्रतिमा का अर्घ्य
भवनवासि के दश भेदों में, दशविध चैत्यवृक्ष मानें।
सबमें चालीस चालीस प्रतिमा, सब मिल दो सौ सरधाने।।
पद्मासनयुत वीतराग छवि, प्रातिहार्य से शोभित हैं।
रत्नमयी जिनप्रतिमा वंदूँ, वांछित फलदायी शुभ हैं।।२।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवसंबंधि दशचैत्यवृक्षस्थित द्विशतजिनप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मध्यलोक की शाश्वत जिनप्रतिमाओं के अर्घ्य
एक एक जिनप्रतिमा आगे, एक एक मानस्तंभ हैं।
प्रतिदिश में प्रतिमा सात-सात सब इकमें सत्ताइस हैं।।
इन दो सौ मानस्तंभों में, छप्पन सौ जिनप्रतिमाएँ हैं।
इन सबको पूजूँ अर्घ्य चढ़ा, ये समकित रत्न दिलाये हैं।।३।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवसंबंधि-चैत्यवृक्षजिनप्रतिम्सन्मुखद्विशतमानस्तंभ-
स्थितषट्पंचाशत्सहस्रजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जंबूद्वीप के ७८ मंदिर की प्रतिमाओं का अर्घ्य
जम्बूद्वीप के अठतर जिनगृह, वहाँ जिनप्रतिमाएं शोभ रहीं।
ये आठ हजार चार सौ चौबिस जिनमूर्ती मन मोह रहीं।
गणधर मुनिगण सुरगण नरपति, खगपति भी वंदन करते।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, वे यम का बंधन हरते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं भवनवासिदेवसंबंधि-चैत्यवृक्षजिनप्रतिमासन्मुखद्विशतमानस्तंभ-
स्थितषट्पंचाशत्सहस्रजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्व धातकीखण्ड में ७८ जिनमंदिर की प्रतिमाओं का अर्घ्य
पूर्व धातकी में जिनगृह में, जिनप्रतिमा मणिमय राजे हैं।
आठ हजार चार सौ चौबिस, संख्या है शाश्वतकी हैं।।
गणधर मुनिगण चक्रवर्ति नर, इनकी स्तुति करते हैं।
मैं भी पूजूँ भक्ति भाव से, इनसे मनरथ फलते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखण्डद्वीपसंबंधि-अष्टसप्ततिजिनालयमध्यविराजमान-
अष्टसहस्रचतु:शतचतुर्विंशति जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम धातकीखण्ड में ७८ जिनमंदिर की जिनप्रतिमा का अर्घ्य
अपर धातकी अठत्तर जिनगृह, जिनप्रतिमाएँ शाश्वतकी।
ये पाँच शतक धनु तुंग कहीं, पद्मासन मुद्रा सौम्य छवी।।
निज स्वात्म सुधारस आस्वादी, चारण ऋषि वंदन करते हैं।
इन आठ हजार चार सौ चौबिस का हम अर्चन करते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपसंबंधि-अष्टसप्ततिजिनालयमध्य-विराजमान-
अष्टसहस्रचतु:शतचतुर्विंशति जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्व पुष्करार्ध द्वीप में ७८ जिनमंदिरों की जिनप्रतिमा का अर्घ्य
पूरब पुष्कर में जिनप्रतिमा, चौरासी सौ चौबिस सोहें।
सुरपति जाकर वंदन करते, ऋषि गणधर का भी मन मोहें।।
इनकी भक्ती भवदधितरणी, निज आत्म सुधारस निर्झरणी।
जो इसमें अवगाहन करते, वे पा लेते मुक्ती सरणी।।७।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपसंबंधि-अष्टसप्ततिजिनालयमध्यविराजमान-
अष्टसहस्रचतु:शतचतुर्विंशति जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के ७८ जिनमंदिरों की जिनप्रतिमा के अर्घ्य
इस अपर पुष्कर में अकृत्रिम, जैनमंदिर सोहते।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ-आठ मुनिमन मोहते।।
चौरासि सौ चौबिस जिनेश्वर, को यहाँ मैं नित जजूँ।
निज सौख्य परमानंद हेतू, आपको अतिशय भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप संबंधि-अष्टसप्ततिजिनालयमध्यविराजमान-
अष्टसहस्रचतु:शतचतुर्विंशति जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धातकी पुष्करार्ध द्वीप के ४ इष्वाकारपर्वत के मंदिरों की प्रतिमा के अर्घ्य
रोला छंद- इष्वाकृति चउ अद्रि, चउ जिनगृह में प्रतिमा।
चार शतक बत्तीस, नमूँ नमूँ गुण महिमा।।
मुनिवर गण शिर नाय, वंदें नित सुखकारी।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, शीघ्र वरूँ शिवनारी।।९।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्ड-पुष्करार्धद्वीपसंबंधि-चतुरिष्वाकारपर्वतोपरिचतु-
र्जिनालयमध्यविराजमान-चतु:शतद्वात्रिंशद् जिनप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानुषोत्तर पर्वत की जिनप्रतिमा का अर्घ्य
गीता छंद- मनुजाद्रि पर जिनधाम में, जिनमूर्तियाँ वररत्न की।
ये चार सौ बत्तीस हैं, पद्मासनों से राजतीं।।
इन वीतरागी नग्न जिनवर, मूर्तियों की वंदना।
जो भव्य भक्ती से करें, वे करें यम की तर्जना।।१०।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्थितचतुर्दिक्-चतु:सिद्धकूटजिनालयमध्य-
विराजमान चतु:शतद्वात्रिंशज्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीश्वर द्वीप की जिनप्रतिमाओं का अर्घ्य
दोहा- नंदीश्वर बावन भवन, जिनप्रतिमा अभिराम।
छप्पन सौ सोलह जजूँ, शत शत करूँ प्रणाम।।११।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपस्थ-द्वापंचाशज्जिनालयमध्यविराजमान पंचसहस्र-
षट्शतषोडशजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुण्डलवर पर्वत की जिनप्रतिमा का अर्घ्य
दोहा- कुण्डलगिरि चउ जिनभवन, जिनप्रतिमाएं सिद्ध।
चार शतक बत्तीस हैं, जजत कर्म सब सिद्ध।।१२।।
ॐ ह्रीं कुण्डलवरपर्वतस्थितचतुर्जिनालयमध्यविराजमान चतु:शत-
द्वात्रिंशज्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रुचकवरगिरि के चार मंदिर की मूर्तियों का अर्घ्य
नग रुचकवर जिनधाम में, जिनमूर्तियाँ मणिरत्न की।
सब चार सौ बत्तीस हैं, सुर अप्सराएं वन्दतीं।।
जल गंध आदिक अर्घ्य लेकर, पूजते निधियाँ मिलें।
मनकामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।१३।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्जिनालयमध्यविराजमानचतु:शत-
द्वात्रिंशज्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ये मध्यलोक के चार शतक, अट्ठावन जिनमंदिर शाश्वत।
इनमें उनचास हजार चार सौ चौंसठ जिनप्रतिमा भास्वत्।।
जलगंध आदि में चांदी के, सोने के पुष्प मिलाऊँ मैं।
पूर्णार्घ्य चढ़ाऊँ भक्ती से, रत्नत्रय निधिवर पाऊँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोक जिनालयमध्यविराजमान-एकोनपंचाशत्सहस्रचतु:-
शतचतुष्षष्टिजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
व्यन्तर देवगृहों में असंख्यात जिनमंदिरों की जिनप्रतिमा के अर्घ्य
अठविध व्यन्तरसुर भवनों में, जिनगृह में जिनप्रतिमा सुन्दर।
सब रत्नमयी हैं असंख्यात, उन भक्ती भविजन क्षेमंकर।।
मैं बहिरातमता को तजकर, अंतर आत्मा का ध्यान करूँ।
इन पूजा संस्तुति कर-करके, परमात्म अवस्था प्राप्त करूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यन्तरनिलयस्थित-असंख्यातजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंतर अष्टेन्द्र चैत्यतरु१ में, इक सौ अट्ठाइस जिनप्रतिमा।
ये रत्नमयी शाश्वत अनुपम अठ प्रातिहार्य संयुत प्रतिमा।।
इनकी भक्ती पूजा करते, भव भव के पाप अनंत टलें।
दुख रोग शोक दारिद्र्य नशें, संपूर्ण मनोरथ फलें भले।।१५।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यन्तरदेवनिलयसंबंधि अष्टचैत्यवृक्षस्थित अष्टाविंशत्यु-
त्तरशतजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक जिनेन्द्रबिंब सन्मुख, मानस्तंभ एक-एक सुंदर।
ये त्रयकटनी ऊपर स्थित, परकोटे तीन सहित मनहर।।
घंटा किंकिणि मोती माला, ध्वज चंवर छत्र से संयुत हैं।
प्रतिदिश में जिनप्रतिमाएं हैं, मैं उन्हें जजूँ वे सुखप्रद हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं अष्टविधव्यन्तरदेवगृह चैत्यवृक्षस्थितजिनबिंब सन्मुखएकशतअष्टा-
विंशतिमानस्तंभविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ढाईद्वीप के ज्योतिष विमान जिनगृह की जिनप्रतिमा का अर्घ्य
ढाईद्वीप में एक सौ, बत्तीस चंद्र विमान।
सबके परिकर देवगृह, सबमें जिनवर धाम।।
नमूँ नमूँ कर जोड़ के, शीश नमाकर आज।
प्रतिगृह इक सौ आठ जिन-बिंब नमूँ सुखकाज।।१७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्वयसमुद्रसंबंधि-एकशतद्वात्रिंशत् चंद्रविमानसूर्य-नक्षत्र-ग्रह-
तारागणविमानस्थितजिनालयमध्यविराजमानसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ढाई द्वीप से बाहर ज्योतिष के असंख्यात जिनप्रतिमा का अर्घ्य
चन्द्र सूर्य गृह नखत तारका, ये सब संख्यातीत प्रमाण।
सबके मध्य जिनालय सुंदर, शाश्वत शोभें महिमावान।।
प्रति जिनगृह में प्रतिमा हैं इक सौ आठ-आठ पद्मासन जान।
सब जिनप्रतिमाओं को पूजूँ मैं, नित नवमंगल सुखदान।।१८।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतबाह्यसर्वद्वीपसमुद्रसंबंधि-असंख्यातचन्द्रसूर्यग्रहन-
क्षत्रतारागण विमानस्थित सर्वासंख्यातजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऊर्ध्वलोक के अर्घ्य
वैमानिक देवों की जिनप्रतिमाओं का अर्घ्य
वैमानिक के चौरासि लाख, सत्यानवे सहस तेइस जिनगृह।
इन सबमें इक सौ आठ-आठ प्रतिमाएं रत्नमयी अतिशय।।
ये कोटि इक्यानवे लाख छियत्तर, सहस अठत्तर चार शतक।
चौरासी जिनवर प्रतिमाएं, मैं मन वच तन से नमूँ सतत।।१९।।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके वैमानिकदेवविमानस्थित-एकनवतिकोटि-षट्सप्ततिलक्ष-
अष्टसप्ततिसहस्रचतु:शतचतुरशीतिजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्यवृक्षों की प्रतिमाओं का अर्घ्य
सब इन्द्रों के गृह के आगे, न्यग्रोध वृक्ष अतिशय ऊँचे।
पृथ्वीकायिक हैं रत्नमयी, ये चैत्यवृक्ष अतिशय शोभें।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक, जिनप्रतिमा रत्नमयी राजें।
इन चैत्यवृक्ष को नित पूजें, पूजत ही भवपातक भाजें।।२०।।
ॐ ह्रीं प्रत्येक इन्द्रभवन सन्मुख स्थित न्यग्रोधचैत्यवृक्ष चतुर्दिक् चतुश्चतु-
र्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के सर्व अकृत्रिम जिनमंदिरों की प्रतिमाओं का पूर्णार्घ्य
त्रिभुवन के जिनमंदिर शाश्वत, आठ कोटि सुखराशी।
छप्पन लाख हजार सत्यानवे, चार शतक इक्यासी।।
प्रति जिनगृह में मणिमय प्रतिमा, इक सौ आठ विराजें।
भक्तिभाव से जजूँ यहाँ मैं, जन्म-मरण दुख भाजें।।१।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सत्ताइस सहस प्रमाण।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, शिवसुख हेतू करूँ प्रणाम।।
जल गंधादिक अर्घ्य सजाकर, भक्तिभाव से अर्चूं आज।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, पाऊँ अनुपम सुख साम्राज।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि-सप्तत्यधिकशतविजयार्धपर्वतेषु विद्याधर-
मनुजनिर्मितत्रैकालिकसर्वकृत्रिमजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
ढाईद्वीप की कृत्रिम जिनप्रतिमाओं के अर्घ्य
जंबूद्वीप के दक्षिण दिश में, भरत क्षेत्र सुखकारी।
छह खण्डों में आर्यखण्ड इक, कर्मभूमि अति प्यारी।।
इन्द्र चक्रवर्ती मानवगण, जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को पूजत, कर्मशत्रु भग जाते।।२१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रार्यखण्डस्थितत्रैकालिकसर्वकृत्रिम-जिनप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- जंबूद्वीप में भरतैरावत, बत्तिस क्षेत्र विदेहा।
चौंतिस कर्मभूमि के कृत्रिम, बिंब जजूँ धर नेहा।।२२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपसंंबंधि-चतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वकृत्रिमजिनप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
इक सौ सत्तर कर्मभूमि में, पर्वत वनखण्ड सरोवर में।
नदियों में कुआ, तालाबों में, गिरि गुफा कंदरा लेनी में।।
मणिरत्न स्वर्ण चांदी पत्थर, बालू आदिक की जिनप्रतिमा।
सुर नर निर्मित उत्कीर्ण आदि उन सबको जजूँ अतुल महिमा।।२३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्वयसमुद्रसंबंधि-सप्तत्युत्तरशतकर्मभूमिषु जिनालय-
मध्यविराजमान-पर्वतवनखण्ड सरोवरनदीकूपतडागगिरिगुफाकंदरालेनी आदि
स्थानस्थितमणि-रत्नस्वर्णरजतपाषणादिनिर्मितभित्ति-उत्कीर्णादि-सर्वकृत्रिम-
त्रैकालिकजिनप्रतिमाभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक सौ सत्तर विजयार्ध उपरि, विद्याधर मानव रहते हैं।
उनके बनवाये जिनमंदिर, जिनप्रतिमा सब दुख दहते हैं।।
उन सब त्रयकालिक को पूजूँ, वे अतिशय पुण्य प्रदाता हैं।
जो जिनभक्ती में लीन रहें, उनको वे मुक्ति विधाता हैं।।२४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधि-सप्तत्यधिकशतविजयार्धपर्वतेषु विद्याधर-
मनुजनिर्मितत्रैकालिकसर्वकृत्रिमजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य-दोहा- त्रयकालिक कृत्रिम सभी, जिनवर बिंब महान्।
असंख्यात हैं मैं जजूँ, नित प्रति करूँ प्रणाम।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्वयसमुद्रसंबंधि-त्रयकालिकअसंख्यातप्रमाणकृत्रिम-
जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन- चैत्य-
चैत्यालयेभ्यो नम:।
दोहा- त्रिभुवन में जिनबिंब हैं, असंख्यात संख्यात।
अकृत्रिम कृत्रिम सभी, नमूँ नमूँ नत माथ।।१।।
जय जय अकृत्रिम जिनप्रतिमा, नव सौ पचीस कोटी संख्या।
जय त्रेपन लाख सताइस सहस, नव सौ अड़तालिस जगवंद्या।।
व्यंतर ज्योतिष के भवनों में, ये संख्यातीत कहाती हैं।
ये अकृत्रिम अनादि अनिधन, प्रतिमा मुनिगण मन भाती है।।२।।
ये बिंब पाँच सौ धनुष तुंग, पद्मासन मणिमय राजें हैं।
बत्तीस युगल यक्ष दोनों, बाजू में चँवर ढुराते हैं।।
जिनप्रतिमा निकट श्रीदेवी, श्रुतदेवी की मूर्ती शोभें।
सानत्कुमार सर्वाण्ह यक्ष की, मूर्ती भविजन मन लोभे।।३।।
प्रत्येक बिंब के पास सुमंगल, द्रव्य एक सौ आठ-आठ।
भृंगार कलश, दर्पण चामर, ध्वज छत्र, व्यजन अरु सुप्रतिष्ठ।।
मानस्तंभों में चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष में जिनप्रतिमा।
अन्यत्र जहाँ भी जिनप्रतिमा, मैं नमूँ नमूँ अगणित महिमा।।४।।
जय जय अर्हंतों की प्रतिमा, जय जय सिद्धों की प्रतिमाएं।
जय जय आचार्य उपाध्यायों, की सर्वसाधु की प्रतिमाएं।।
जय जय तीर्थंकर की प्रतिमा, जय तीस चौबीसी की प्रतिमा।
जय बीस तीर्थंकर की प्रतिमा, जिनकी उपमाविरहित महिमा।।५।।
सुरगण भी कभी-कभी जिनगृह, जिनप्रतिमा की रचना करते।
नरपति खगपति साधारण नर, जिनप्रतिमा निर्मापित करते।।
माणिक्य नीलमणि गरुत्मणी, रत्नों की प्रतिमा बनवाते।
सोना चाँदी पीतल ताँबा, पाषाण आदि की बनवाते।।६।।
फिर पंचकल्याण प्रतिष्ठा कर, प्रतिमा को पूज्य बनाते हैं।
जिनवर के गुण आरोपण कर, वर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं।।
ये मूर्ति अचेतन होकर भी, चेतन भगवान बने तब ही।
जिन भक्तों को वांछित देकर, चेतन भगवान करें तब ही।।७।।
कृत्रिम जिनमंदिर में भी हैं, माँ सरस्वती की प्रतिमाएँ।
जिनशासन यक्ष यक्षिणी की, अरु क्षेत्रपाल की प्रतिमाएँ।।
जय इक सौ सत्तर कर्मभूमि की, कृत्रिम जिनवर प्रतिमायें।
जिनसदृश कहीं जिनप्रतिमायें, इनको वंदत शिवसुख पायें।।८।।
दोहा-जितनी जिनप्रतिमा यहाँ, मुनिगण सुर नर वंद्य।
जजत स्वात्मसुख प्राप्त हो, ज्ञानमती आनंद।।९।।
ॐ ह्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिम्बसमूहाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:
शेरछंद- जो भक्ति से नवदेवता विधान करेंगे।
वे भव्य नवोनिधि से भंडार भरेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ से नवलब्धि वरेंगे।
फिर मोक्षमहल में अनंत सौख्य भरेंंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।