उज्जयिनी नगरी में श्रीवर्मा नाम के प्रसिद्ध राजा थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी। राजा के बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद ऐसे चार मंत्री थे। किसी समय सात सौ मुनियों सहित महामुनि अकंपनाचार्य उज्जयिनी के बाहर उपवन में विराजमान हुए। महामुनि की वंदना के लिए नगर के लोग उमड़ पड़े। महल पर खड़े हुए राजा ने मंत्रियों से पूछा कि ये लोग असमय में कहाँ जा रहे हैं? उत्तर में मंत्रियों ने कहा कि राजन्! ये लोग अज्ञानी दिगम्बरों की वंदना के लिए जा रहे हैं। श्रीधर्मा ने भी जाने की इच्छा प्रकट की, मंत्रियों के द्वारा बहुत रोकने पर भी राजा चल पड़ा, तब मंत्री भी उसके साथ हो लिए। वहाँ मुनियों की वंदना कर कुछ विवाद करने लगे। उस समय गुरु आज्ञा से सब मुनि मौन लेकर बैठे थे इसीलिए ये चारों मंत्री विवश होकर लौट आये। लौटते समय उन्होंने एक मुनि को सामने आते हुए देखकर उन्हें राजा के समक्ष छेड़ा। सब मंत्री मिथ्यामार्ग से मोहित तो थे ही अत: श्रुतसागर नामक उक्त मुनिराज ने उन्हें वाद-विवाद में जीत लिया। उस दिन रात्रि के समय उक्त मुनिराज प्रतिमायोग से उसी वाद की जगह विराजमान थे। ये सब मंत्री संघ को मारने के लिए जाते हुए मार्ग में उन मुनि को मारने के लिए उद्यत हुए परन्तु वनदेव ने उन्हें कीलित कर दिया। यह देख राजा ने उन्हें अपने देश से निकाल दिया। उस समय हस्तिनापुर में महापद्म नामक चक्रवर्ती रहते थे। किसी समय चरमशरीरी महापद्म चक्रवर्ती किसी निमित्त से विरक्त हो गये, इनके दो पुत्र थे। राजा ने बड़े पुत्र ‘पद्म’ को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा धारण कर ली।
तपश्चरण करते हुए मुनि विष्णुकुमार अनेक ऋद्धियों के भण्डार हो गये। इधर उज्जयिनी से निकाले गये बलि आदि चारों मंत्री राजा पद्म को प्रसन्न कर उसके मंत्री हो गये। उस समय राजा पद्म बलि मंत्री की सहायता से किले में स्थित सिंहबल राजा को पकड़ने में सफल हो गये इसलिए उन्होंने बलि से कहा कि ‘वर’ मांग कर इष्ट वस्तु को ग्रहण करो। बलि ने प्रणाम कर कहा कि ‘अभी आवश्यकता नहीं है, जब आवश्यकता होगी तब माँग लूँगा’ यह कहकर अपना वर धरोहर रूप में रख दिया। अनन्तर ये मंत्री सुखपूर्वक रहने लगे। किसी समय धीरे-धीरे विहार करते हुए अकंपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ हस्तिनापुर आये और चार माह के लिए वर्षायोग धारण कर नगर के बाहर विराजमान हो गए। उस समय शंका कोे प्राप्त हुए ये बलि आदि भयभीत हो गये और अहंकार के साथ उन्हें हटाने का उपाय सोचने लगे। बलि ने राजा पद्म के पास आकर कहा कि राजन्! आपने जो वर दिया था उसके फलस्वरूप सात दिन का राज्य मुझे दिया जाये। ‘संभाल, तेरे लिए सात दिन का राज्य दिया’ यह कहकर राजा पद्म अपने अन्त:पुर में रहने लगे। बलि ने राज्य सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन अकंपनाचार्य आदि मुनियों पर उपद्रव करवाया। उसने चारों तरफ से मुनियों को घेरकर उनके समीप पत्तों का धुँआ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिंकवाए। अकंपनाचार्य सहित सब मुनि आदि ‘उपसर्ग दूर हुआ तो आहार, विहार करेंगे, अन्यथा नहीं’ इस प्रकार सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहित हुए कायोत्सर्ग से खड़े हो गये। उस समय विष्णुकुमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु मिथिलानगरी में थे। वे अवधिज्ञान से विचारकर तथा दया से युक्त हो कहने लगे कि हा! आज अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर अभूतपूर्व दारुण उपसर्ग हो रहा है। उस समय उनके पास बैठे हुए क्षुल्लक ने पूछा-हे नाथ! कहाँ हो रहा है?
गुरु ने कहा– हस्तिनापुर में। क्षुल्लक ने कहा-हे नाथ! यह उपसर्ग किसके द्वारा दूर हो सकता है? गुरु ने कहा-जिन्हें विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे विष्णुकुमार मुनि से यह उपसर्ग दूर हो सकता है। क्षुल्लक पुष्पदंत ने उसी समय जाकर मुनि विष्णुकुमार से सब समाचार कहा। तब मुझे विक्रिया ऋद्धि है या नहीं? इसकी परीक्षा के लिए मुनि ने अपनी भुजा फैलाई सो वह भुजा बिना रुकावट के आगे बढ़ती ही चली गई। जिससे उन्हें ऋद्धि प्राप्ति का निश्चय हो गया। ऐसे जिनशासन के स्नेही वे विष्णुकुमार मुनि राजा पद्म के पास जाकर बोले- हे पद्मराज! राज्य पाते ही तुमने यह क्या कर रखा है ऐसा कार्य कुरुवंशियों में तो कभी नहीं हुआ है। राजा पद्म ने नम्रीभूत होकर कहा-हे नाथ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य दे रखा है इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है। हे भगवन्! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं। विष्णुकुमार ने वहाँ जाकर मुनियों के उपसर्ग को दूर करने के लिए बलि को समझाया। उसने कहा कि यदि ये सब मुनि मेरे राज्य से चले जाते हैं तो उपसर्ग दूर हो सकता है। अन्यथा ज्यों का त्यों बना रहेगा। उत्तर में मुनि विष्णुकुमार ने कहा कि ये आत्मध्यान में लीन हैं। इस उपसर्ग में एक कदम भी नहीं जा सकते हैं। उस समय मुनियों के ठहरने के लिए तीन डग भूमि बलि से मांगी, तब बलि ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकरण में उत्तरपुराण में ऐसा लिखा है कि महामुनि विष्णुकुमार वामन (ब्राह्मण) का रूप लेकर बलि के पास आशीर्वाद देते हुए पहुँचे और बोले- महाभाग! तू दातारों में श्रेष्ठ है इसलिए आज मुझे भी कुछ दे। उत्तर में बलि ने इच्छित वस्तु माँगने को कहा, तब ब्राह्मण वेषधारी विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि हे राजन्! मैं अपने पैर से तीन डग धरती चाहता हूँ तू यही मुझे दे दे। तब बलि ने कहा ‘यह तो बहुत थोड़ा क्षेत्र है इतना ही क्यों माँगा? ले लो’ इतना कहकर उसने ब्राह्मण के हाथ में जलधार छोड़कर तीन पैर धरती दे दी।’’ अनन्तर वामन मुनि विष्णुकुमार ने विक्रिया ऋद्धि से अपने शरीर को इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिष्पटल को छूने लगा। उन्होंने एक पैर मेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे डग के लिए अवकाश न मिलने से वह डग आकाश में घूमता रहा। उस समय विष्णु मुनि के प्रभाव से तीनों लोकों में क्षोभ मच गया। किम्पुरुष आदिदेव ‘क्या है’? यह शब्द करने लगे। वीणा बांसुरी बजाने वाले गन्धर्व देव अपनी-अपनी देवियों के साथ उन मुनिराज के समीप मधुर गीत गाने लगे। लाल-लाल तलुवे से सहित एवं आकाश में स्वच्छन्दता से घूमता हुआ उनका पैर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। ‘हे विष्णो! हे प्रभो! मन के क्षोभ को दूर करो, दूर करो, आप के तप के प्रभाव से आज तीनों लोक चल-विचल हो उठे हैं।’
इस प्रकार मधुर गीतों के साथ वीणा बजाने वाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धान्त की गाथाओं को गाने वाले एवं बहुत ऊँचे आकाश में विचरण करने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने जब उन्हें शांत किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रिया को संकोचकर स्वभावस्थ हो गये। उस समय देवों ने शीघ्र ही मुनियों का उपसर्ग दूर कर दुष्ट बलि को बाँध लिया और उसे दण्डित कर देश से निकाल दिया। उस समय किन्नर देव तीन वीणाएँ लाये थे। उसमें घोषा नाम की वीणा तो उत्तर श्रेणी में रहने वाले विद्याधरों को दी, महाघोषा वीणा सिद्धकूटवासियों को और सुघोषा नाम की वीणा दक्षिण तटवासी विद्याधरों को दी। इस प्रकार उपसर्ग दूर करने से जिनशासन के प्रति वत्सलता प्रगट करते हुए विष्णुकुमार मुनि ने सीधे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रिया की शल्य छोड़ी। स्वामी विष्णुकुमार घोर तपश्चरण कर घातिया कर्मों का क्षयकर केवली हुए और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए। यह कथा हरिवंशपुराण के आधार पर है। अन्यत्र बतलाया है कि उस समय उपसर्ग से पीड़ित मुनियों के गले धुएँ और अग्नि की भयंकर लपटों से पीड़ित हैं ऐसा समझकर श्रावकों ने विवेकगुणों से उन मुनियों को खीर का आहार दिया था। उसी स्मृति में रक्षाबंधन पर्व के दिन आज भी सर्वत्र घर-घर में लोग खीर बनाते हैं और पात्र की प्रतीक्षा करते हैं। मुनियों के अभाव में श्रावक आदि पात्रों को भोजन कराकर भोजन करते हैं। धर्म तथा धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य करने वाले मुनि श्री विष्णुकुमार की तथा उपसर्ग विजेता अकंपनाचार्य आदि मुनियों की कथा सुनते हैं और उनकी पूजा करते हैं। धर्म की रक्षा करने के लिए आपस में रक्षासूत्र बाँधते हैं। वह दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का था अत: आज तक उस दिन की स्मृति में ‘रक्षाबंधन’ पर्व मनाते हैं। श्री विष्णुकुमार मुनि के पिता ‘महापद्म’ चक्रवर्ती श्री मल्लिनाथ भगवान के तीर्थ में हुए हैं। इनको इस पृथ्वी पर हुए आज लगभग पैंसठ लाख छियासी हजार पाँच सौ वर्ष हो गये किन्तु आज भी यह हस्तिनापुर क्षेत्र उन मुनियों की स्मृति को जीवन्त कर रहा है और भव्यजीवों को उपसर्ग सहन करने का तथा विष्णुकुमार मुनि सदृश धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य भाव रखने का उपदेश दे रहा है।