-अथ स्थापना-नरेन्द्रछंद-
श्री सुपार्श्व के चरण कमल में, गणधर गुरु शिर नाते।
मुनिगण स्वात्म रसास्वादी भी, मन मंदिर में ध्याते।।
सप्तम तीर्थंकर मरकतमणि, आभा से अतिसुंदर।
आह्वानन कर जजूँ आपको, नमते तुम्हें पुरंदर।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चाल-नंदीश्वर पूजा-
सीतानदि शीतल नीर, प्रभुपद धार करूँ।
मिट जाये भव भव पीर, आतम शुद्ध करूँ।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि गंध सुगंध, प्रभु चरणों चर्चूं।
मिल जावे आत्म सुगंध, स्वारथवश अर्चूं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
कौमुदी शालि के पुंज, नाथ चढ़ाऊँ मैं।
निज आतम सौख्य अखंड, अर्चत पाऊँ मैं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा वकुलादि गुलाब, पुष्प चढ़ाऊँ मैं।
प्रभु मिले आत्म गुण लाभ, आप रिझाऊँ मैं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू पेड़ा पकवान, नाथ! चढ़ाऊँ मैं।
कर क्षुधावेदनी हान, निज सुख पाऊँ मैं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति अखंड, आरति करते ही।
मिल जाये ज्योति अमंद, निजगुण चमके ही।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वरधूप अग्नि में खेय, सुरभि उड़ाऊँ मैं।
प्रभु पद पंकज को सेय, समसुख पाऊँ मैं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला एला बादाम, फल से पूजूँ मैं।
पाऊँ निज में विश्राम, भव से छूटूँ मैं।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु अर्घ्य रजत के पुष्प, थाल भराय लिया।
परिपूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु, आप चढ़ाय दिया।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रयधारा करूँ।
अतिशय शांतीहेत, शांतीधारा विश्व में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
मिले आत्म सुखलाभ, जिनपद पंकज पूजते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(मण्डल पर पाँच अर्घ्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
-नरेन्द्र छंद-
प्रभु मध्यम ग्रैवेयक तजकर, वाराणसि में आये।
सुप्रतिष्ठ पितु माता पृथ्वी-षेणा गर्भ में आये।।
भादों सुदि छठ तिथी श्रेष्ठ में, इन्द्र महोत्सव कीना।
गर्भकल्याणक पूजा करते, हमने समकित लीना।।१।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठ्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्येष्ठ सुदी बारस में जन्मे, सुरपति आसन कंपे।
देवगृहों में सबविध बाजे, स्वयं स्वयं बज उठते।।
जन्म न्हवन उत्सव विधिपूर्वक, किया इन्द्र सुरगण ने।
जन्मकल्याणक पूजा करते, परमानंद हो क्षण में।।२।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋतु परिवर्तन देख विरक्ती, ज्येष्ठ सुदी बारस में।
मनोगती पालकि सुर लाये, प्रभु बैठे उस क्षण में।।
इन्द्र सहेतुक वन में पहुँचे, प्रभु ने केश उखाड़े।
नमः सिद्ध कह दीक्षा धारी, पूजत कर्म पछाड़े।।३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि छठ सायं प्रभु ने, घाति विनाश किया था।
बाग सहेतुक तरु शिरीष तल, केवलज्ञान हुआ था।।
इन्द्र सातविध सुरसेना सह, आये समवसरण में।
ज्ञान कल्याणक पूजा करते, ज्ञान ज्योति हो क्षण में।।४।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाषष्ठ्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि सप्तमी प्रभाते, गिरि सम्मेद शिखर से।
मुक्तिनगर में वास किया था, एक हजार मुनी ले।।
काल अनंतानंत वहीं पे, सुस्थिर हो तिष्ठेंगे।
जिनसुपार्श्व की पूजा करते, कर्ममेघ विघटेंगे।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीसुपार्श्वनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
श्री सुपार्श्व तीर्थेश के, चरण कमल जगवंद्य।
पूर्ण अर्घ्य से नित जजूँ, सुख हो परमानंद।।६।।
ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय नम:।
-शेरछंद-
देवाधिदेव श्रीजिनेंंद्र देव हो तुम्हीं।
श्रीसुपार्श्व तीर्थनाथ सिद्ध हो तुम्हीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१।।
रस गंध स्पर्श वर्ण से मैं शून्य ही रहा।
इस मोह कर्म से मेरा संबंध ना रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।२।।
ये द्रव्य कर्म आत्मा से बद्ध नहीं हैं।
ये भावकर्म तो मुझे छूते भी नहीं हैं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।३।।
मैं एक हूँ विशुद्ध ज्ञान दर्श स्वरूपी।
चैतन्य चमत्कार ज्योति पुंज अरूपी।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।४।।
परमार्थनय से मैं तो सदा शुद्ध कहाता।
ये भावना ही एक सर्वसिद्धि प्रदाता।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।५।।
व्यवहारनय से यद्यपी अशुद्ध हो रहा।
संसार पारावार में ही डूबता रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।६।।
फिर भी तो मुझे आज मिले आप खिवैया।
निज हाथ का अवलंब दे भवपार करैया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।७।।
प्रभु आठ वर्ष में ही स्वयं देशव्रती थे।
नहिं आपका कोई गुरू हो सकता सत्य ये।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।८।।
स्वयमेव सिद्धसाक्षि से दीक्षा प्रभू लिया।
तप करके घाति घात के कैवल्य प्रगट किया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।९।।
पंचानवे बलदेव आदि गणधरा कहे।
त्रय लाख मुनी समवसरण में सदा रहे।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१०।।
मीनार्या गणिनी प्रधान आर्यिका कहीं।
त्रय लाख तीस सहस आर्यिकाएँ भी रहीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।११।।
थे तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका।
ये जैन धर्म तत्पर अणुव्रत के धारका।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१२।।
तनु तुंग आठ शतक हाथ हरित वर्ण की।
आयू प्रभू की बीस लाख पूर्व वर्ष थी।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१३।।
हे नाथ! आप तीन लोक के गुरू कहे।
भक्तों को इच्छा के बिना सब सौख्य दे रहे।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान् हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१४।।
मैं आप कीर्ति सुनके आप पास में आया।
अब शीघ्र हरो जन्म व्याधि इससे सताया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान् हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१५।।
हे दीनबंधु शीघ्र ही निज पास लीजिए।
इस ‘‘ज्ञानमती’’ को प्रभू कैवल्य कीजिए।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान् हो गया।
सम्यक्त्व निधी पाय मैं धनवान हो गया।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
स्वस्तिक चिन्ह सुपार्श्व, चरण कमल में जो नमें।
दुःख दारिद्र विनाश, पावे जिनगुण संपदा।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।