तर्ज-झुमका गिरा रे………..
पूजन करो जी,
जयमित्र ऋषी के तप व त्याग की पूजन करो जी।।टेक.।।
तप करके जिनने अपनी काया कुन्दन सम कर ली थी।
नाना ऋद्धि समन्वित होकर आतम सिद्धी वर ली थी।।
अपने भी भाइयों के संग गगन गमन वे करते थे।
वर्षायोग के बीच में भी वे विचरण कभी भी करते थे,
विचरण कभी भी करते थे।।
पूजन करो जी,
जयमित्र ऋषी के तप व त्याग की पूजन करो जी।।१।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षे! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षे! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षे! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं
स्थापनं।
-अष्टक-
तर्ज-ए री छोरी बांगड़ वाली……..
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
जन्म मृत्यु के नाशन हेतू, गुरूपद का प्रक्षालन है।
शीतल जल से पूजन कर लें, श्रीजयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।१।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
भव आतप विध्वंसन हेतू, गुरुपद चंदन चर्चन है।
चंदन लेकर पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।२।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
अक्षयपद की प्राप्ती हेतू, अक्षत पुंज समर्पित हैं।
तंदुल लेकर पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।३।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
कामबाण विध्वंसन हेतू, पुष्पमाल गुरुपद धरना।
विविध पुष्प से पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।४।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
क्षुधारोग विध्वंसन हेतू, पकवानों का थाल भरा।
नैवेद्यों से पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।५।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
मोहतिमिर विध्वंसन हेतू, गुरुवर की आरति कर लें।
दीप जलाकर पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।६।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
अष्टकर्म विध्वंसन हेतू, ताजी धूप चढ़ाना है।
धूप जलाकर पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।७।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
मोक्ष महाफल प्राप्ती हेतू, गुरुपद में फल थाल धरा।
विविध फलों से पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।८।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
पद अनर्घ्य की प्राप्ति ‘‘चन्दनामती’’ हमें अब करना है।
अर्घ्य थाल ले पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।९।।
ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
आत्मशांति अरु विश्वशांति के, लिए प्रार्थना करना है।
शांतिधार कर पूजन कर लें, श्रीजयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
आओ सब मिल पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की-२।।टेक.।।
गुण पुष्पों की प्राप्ति हेतु, गुरुवर से प्रार्थना करना है।
पुष्पांजलि कर पूजन कर लें, श्री जयमित्र मुनीश्वर की।।आओ.।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी मण्डल रचा, पूजा हेतु महान।
पुष्पांजलि करके वहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
अंतिम थे श्रीजयमित्र महर्षी, मित्रभावना से संयुत।
उग्रोग्र तपस्या करने से, हो गये सर्वऋद्धीसंयुत।।
उन सर्वौषधि आदिक ऋद्धीयुत, मुनि की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीजयमित्रमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
श्रीसुरमन्यू श्रीमन्यू अरु, श्रीनिचय सर्वसुन्दर मुनिवर।
जयवान विनयलालस एवं, जयमित्र ऋद्धिसंयुत ऋषिवर।।
ये सातों भाई सप्तऋषी, कहलाए हैं जिनशासन में।
इनके चरणों में अर्घ्य चढ़ाकर, पा जाऊँ शिवसाधन मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्री सुरमन्यु-श्रीमन्यु-श्रीनिचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस-
जयमित्र नाम सप्तर्षिभ्यो पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
मथुरा नगरी की पावन भू को, अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।टेक.।।
राजा मधुसुन्दर मथुरा में, सुखपूर्वक राज्य चलाते थे।
वे लंकापति रावण के, जामाता प्रसिद्ध कहलाते थे।।
रामायण जैन के सत्य कथानक को बतलाने आए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।१।।
अपने भाई शत्रुघ्न से इक दिन, रामचन्द्र ने पूछ लिया।
किस नगरी का तुुम राज्य, चाहते हो बोलो मेरे भैय्या।।
मथुरा नगरी का राज्य सुनो, शत्रुघ्न माँग हर्षाए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।२।।
समझाया राम व लक्ष्मण ने, हे भ्रात! वहाँ तुुम मत जाओ।
हम सबके शत्रू मधुसुन्दर, राजा को तुम मत भड़काओ।।
फिर भी शत्रुघ्न जबर्दस्ती, मथुरा नगरी में आए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।३।।
सेना सह कर आक्रमण उन्होंने, मधुसुन्दर को घेर लिया।
मधुसुन्दर ने रणभूमि में ही, वैराग्य भाव को धार लिया।।
यह दृश्य देख देवों ने नभ से, पुष्प रतन बरसाए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।४।।
मधुसुन्दर नृप का शूलरत्न, शत्रुघ्न नृपति ने प्राप्त किया।
चमरेन्द्र ने क्रोधित हो मथुरा को, महामारियुत बना दिया।।
ऐसे संकट में सप्तऋषी, मथुरानगरी में आए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।५।।
उनकी सर्वौषधि ऋद्धी से, मथुरा का संकट भाग गया।
मथुरा की सारी जनता ने, गुरु का प्रभाव स्वीकार किया।।
गुरुआज्ञा से शत्रुघ्न वहाँ, जिनमंदिर खूब बनाए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।६।।
इस घटना के पश्चात् वहाँ, जम्बूस्वामी को मोक्ष हुआ।
‘‘चन्दनामती’’ मथुरा चौरासी, नाम से तीर्थ प्रसिद्ध हुआ।।
उस पावन तीर्थ धरा को हम, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
चारणऋद्धीयुत सप्तऋषी को, शीश झुकाने आए हैं।।७।।
ॐ ह्रीं महामारीरोगनिवारणस्थलमथुरापुर तीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्री जयमित्रमहर्षये नम:।
तर्ज-चांदनपुर के गाँव में……….
अष्ट दरब का थाल ले, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषी के पद में।
जयमित्र ऋषी के पद में, सातों ऋषियों के सुमिरन में।।अष्ट दरब.।।टेक.।।
भव भोगों को तजने का, जब भाव हृदय में आता है।
तब संसारी प्राणी गुरु को, अपने भाव बताता है।
शुभ भावों का थाल ले, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषी के पद में।।१।।
दीक्षा धारण करके प्राणी, घोर तपस्या करता है।
भव भव में संचित कर्मों का, नाश स्वयं वह करता है।।
उन्हीं तपस्वी के पद में, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषी के पद में।।२।।
तप के द्वारा ही मुनियों में, ऋद्धि प्रगट हो जाती हैं।
उनके द्वारा ही कितनों को, शांति प्राप्त हो जाती है।।
ऋद्धि सहित मुनि के पद में, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषी के पद में।।३।।
मथुरा नगरी में सातों ऋषि, एक साथ ही आए थे।
नृप शत्रुघ्न सहित मथुरा के, नर नारी हर्षाए थे।।
उन सप्त ऋषि के पद में, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषि के पद में।।४।।
उनकी ही ‘‘चन्दनामती’’, जयमाल का थाल सजाया है।
ऋद्धि सहित गुरुओं के गुण, गाने का भाव बनाया है।।
स्वर्णिम अर्घ्य बनाय के, पूर्णार्घ्य समर्पण है-श्री जयमित्र ऋषी के पद में।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजयमित्रमहर्षये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
सप्तऋषी की अर्चना, देवे सौख्य महान।
इनके पद की वंदना, करे कष्ट की हान।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।