-स्थापना (सोरठा)-
मुनियों को सुखकार, साधु समाधी भावना।
पूजन हेतू आज, करूँ उसी की थापना।।१।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-नंदीश्वर पूजा……
ले स्वर्ण भृंग में नीर, जिनपद धार करूँ।
हो जाऊँ भवदधि तीर, मन संताप हरूँ।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कर्पूर सुगंध, घिस प्रभु पद चर्चूं।
मिल जावे आत्म सुगंध, भव आताप नशूँ।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम तंदुल लाय, जिनपद में अर्पूं।
मुझे अक्षय पद मिल जाय, इस हेतु अर्चूं।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना विध पुष्प मंगाय, जिनवर पद अर्पूं।
मम कामव्यथा नश जाय, जिनवर गुण चर्चूं।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नानाविध व्यंजन लाय, जिनवर को पूजूँ।
मम क्षुधारोग नश जाय, भवदुख से छूटूँ।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन का दीप जलाय, प्रभु आरति कर लूँ।
मम मोहतिमिर नश जाय, गुणभारति भर लूँ।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नी में धूप जलाय, कर्म दहन कर लूँ।
निज आतम गुण को पाय, पाप शमन कर लूँ।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर व आम्र अनार, फल का थाल लिया।
मिले मोक्ष महल का द्वार, ऐसा भाव किया।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ आठों द्रव्य मंगाय, अर्घ्य बनाय लिया।
‘चन्दनामती’ प्रभु पाद, उसे चढ़ाय दिया।।
व्रतशील समन्वित साधु, का मैं यजन करूँ।
मिल जावे साधु समाधि, निजगुण सृजन करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- शांतीधारा के लिए, जल का पात्र मंगाय।
विश्वशांति का भाव ले, जिनपद देउं चढ़ाय।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि के हेतु मैं, पुष्प सुगंधित लाय।
आतम गुण के हेतु मैं, जिनपद देउं चढ़ाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(आठवें वलय में ५ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
दोहा-साधु समाधी भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि अष्टमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
पाँच भेद निर्ग्रन्थ दिगम्बर, मुनियों के माने जाते।
प्रथम पुलाक मुनि के कुछ, अतिचार गुणों में लग जाते।।
ऐसे गुरु में साधु समाधी, का शुभ भाव हृदय लाया।
अष्टद्रव्य की थाली लेकर, अर्घ्य चढ़ाने मैं आया।।१।।
ॐ ह्रीं पुलाकमुनि साधुसमाधिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच भेद निर्गं दिगम्बर, मुनियों के माने जाते।
दुतिय वकुश मुनि के अहार में, कुछ रति भाव भी आ जाते।।
ऐसे गुरु में साधु समाधी, का शुभ भाव हृदय लाया।
अष्टद्रव्य की थाली लेकर, अर्घ्य चढ़ाने मैं आया।।२।।
ॐ ह्रीं वकुशमुनि साधुसमाधिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच भेद निर्र्गं दिगम्बर, मुनियों के माने जाते।
प्रतिसेवना१-कषाय२ द्विविध के, मुनि कुशील हैं कहलाते।।
ऐसे गुरु में साधु समाधी, का शुभ भाव हृदय लाया।
अष्टद्रव्य की थाली लेकर, अर्घ्य चढ़ाने मैं आया।।३।।
ॐ ह्रीं कुशीलमुनि साधुसमाधिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच भेद निर्र्गं दिगम्बर, मुनियों के माने जाते।
हैं निर्ग्रन्थ चतुर्थ उन्हीं के, मोहकर्म सब नश जाते।।
ऐसे गुरु में साधु समाधी, का शुभ भाव हृदय लाया।
अष्टद्रव्य की थाली लेकर, अर्घ्य चढ़ाने मैं आया।।४।।
ॐ ह्रीं निर्ग्रन्थमुनि साधुसमाधिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच भेद निर्र्गं दिगम्बर, मुनियों के माने जाते।
हैं स्नातक पंचम वे तो, केवलज्ञानी कहलाते।।
ऐसे गुरु में साधु समाधी, का शुभ भाव हृदय लाया।
अष्टद्रव्य की थाली लेकर, अर्घ्य चढ़ाने मैं आया।।५।।
ॐ ह्रीं स्नातकमुनि साधुसमाधिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
पाँच प्रकार दिगम्बर मुनि ही, शिवपथ साधक कहलाते।
ये व्यवहार चरित पालन कर निश्चयनय को अपनाते।।
इन सबको पूर्णार्घ्य चढ़ाकर, पद अनर्घ्य मैं पा जाऊँ।
साधु समाधि भावना भाकर, निज स्थिरता पा जाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं पंचभेदयुतमुनि साधुसमाधिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा , दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै नम:।
दिगम्बर प्राकृतिक मुद्रा, विरागी की निशानी है।
कमण्डलु पिच्छि धारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।टेक.।।
दिशाएँ ही बनीं अम्बर, न तन पर वस्त्र ये डालें।
महाव्रत पाँच समिति और, गुप्ती तीन ये पालें।।
त्रयोदश विध चरित पालन, करें जिनवर की वाणी है।
कमण्डलु पिच्छिधारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।१।।
बिना बोले ही इनकी शान्त, छवि ऐसी बताती है।
मुक्तिकन्या वरण में यह ही, मुद्रा काम आती है।।
मोक्षपथ के पथिक जन को, यही वाणी सुनानी है।
कमण्डलु पिच्छिधारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।२।।
यदि मुनिव्रत न पल सकता, तो श्रावक धर्म मत भूलो।
देवगुरु शास्त्र की श्रद्धा, परम कर्तव्य मत भूलो।।
रहे मति सर्वदा अच्छी, यही ऋषियों की वाणी है।
कमण्डलु पिच्छिधारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।३।।
इन्हीं संतों के आतमसुख में, हम भी बन लें सहयोगी।
इसी साधु समाधी भावना, को भाते हैं योगी।।
शरण इन साधुओं की लें, यही शिवपथ निशानी है।
कमण्डलु पिच्छिधारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।४।।
लिया पूर्णार्घ्य मैंने ‘चन्दना-मति’’ भाव यह करके।
मुझे भी शक्ति मिल जावे, बसूँ मुक्ती में जा करके।।
तीन रत्नों को धारण कर, शुद्ध काया बनानी है।
कमण्डलु पिच्छिधारी मुनि की, अब जयमाल गानी है।।५।।
ॐ ह्रीं साधुसमाधिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।