अनन्तर छह महीने बाद भगवान् ऋषभदेव वहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे, ऐसा जानकर इंद्र की आज्ञा से प्रेरित कुबेर ने आकाश से रत्नों की वर्षा करना प्रारंभ कर दिया। वह इंद्रनीलमणि, हरिन्मणि, पद्मरागमणि आदि की वर्षा ऐसी शोभित हो रही थी कि मानो ऋषभदेव की सम्पत्ति उत्सुकता के कारण उनके आने के पहले ही यहाँ आ गई हो। किसी दिन माता मरुदेवी राजमहल मेें कोमल शय्या पर सो रही थीं। उन्होंने रात्रि के पिछले प्रहर में ऐरावत हाथी, श्वेत बैल आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रातःकाल के बाजों की ध्वनि और मंगल गीतों से वे जग ग। हर्षित हुई मरुदेवी मंगल स्नान पर प्रातःकालीन चर्या से निवृत्त होकर महाराज नाभिराज के पास पहुँची और विनय सहित स्वप्नों का निवेदन किया। महाराज नाभिराज ने भी अवधिज्ञान से इन स्वप्नों के फल को जानकर स्पष्टतया फल बताया और कहा कि देवी! तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के नाथ तीर्थंकर का जीव आ गया है। उस समय मरुदेवी हर्षातिरेक से रोमांचित हो गईं थीं। जब अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमा-दुषमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष बाकी रह गया था, तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र मेंवर्ग वज्रनाभि अहमिंद्र सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए और वहाँ सीप के संपुट में मोती के समान सब बाधाओं से निर्मुक्त हो स्थित हो गये।
उसी समय सभी इंद्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान् का गर्भावतार जानकर वहाँ आये। नगरी की प्रदक्षिणा देकर माता-पिता को नमस्कार किया। महाराजा नाभिराज का महल देवों से खचाखच भर गया। गर्भकल्याणक महोत्सव मानकर वे देव स्व-स्व स्थान चले गये। इंद्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ दासी के समान माता की सेवा में तत्पर थीं। श्री, ह्री आदि देवियों ने स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थों के द्वारा माता का गर्भ शोधन किया था। उस समय कोई देवी माता के समक्ष आठ मंगल द्रव्य धारण करतीं, कोई शय्या बिछातीं, कोई पैर दबातीं, कोई मंगल स्तोत्र सुनाती थीं। कितनी ही देवियाँ सायंकाल के समय माता की आरती उतारती थीं। वे देवियाँ नृत्य, गीत आदि महोत्सवों से माता का मनोरंजन किया करती थीं, उनके गीत तीर्थंकर अरहंत, सिद्ध आदि की स्तुति रूप या माता की स्तुति रूप ही रहते थे। जिन बालक के गर्भ में स्थित होने से माता को रंच मात्र भी कष्ट नहीं हुआ था। न तो माता का उदर ही वृद्धिगंत हुआ और न मुख पर पीलापन ही आया था।
नौवाँ महीना निकट आने पर वे देवियाँ अनेक काव्यगोष्ठियों, गूढ़ प्रश्नों द्वारा मरुदेवी को प्रसन्न करने लगीं। एक देवी ने पूछा-हे मातः ! तुम्हारे गर्भ में कौन है? ऐसी कौन-सी वस्तु है जो तुम्हारे पास नहीं है? बहुत खाने वाले को कौन-सी वस्तु मारती है? इन तीनों का उत्तर ऐसा दीजिए कि जिसमें अन्त का व्यंजन एक-सा हो। माता ने कहा, ‘तुक्’, ‘शुक्’, ‘रुक्’ अर्थात् हमारे गर्भ में पुत्र हैं। हमारे समीप शोक नहीं है, अधिक खाने वाले को रोग मार डालता है। वे देवियाँ अनेकों अलंकार भरे स्तोत्रों से माता की स्तुति करती थीं।
मुदेस्तु वसुधारा ते देवताशीस्तातांबरा।
स्तुतादेशे नभाताधा वशीशे स्वस्वनस्तसु१।।२५४।।
अर्थ-जिसकी आज्ञा अत्यन्त प्रशंसनीय है और जो जितेन्द्रिय पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ है, ऐसी हे मातः! देवताओं के आशीर्वाद से आकाश को व्याप्त करने वाली अत्यन्त सुशोभित, जीवों की दरिद्रता को नष्ट करने वाली और नम्र होकर आकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की वर्षा तुम्हारे आनन्द के लिए हो। इत्यादि अनेकों अलंकारों से सहित स्तोत्रों से वे देवियाँ माता की स्तुति करते हुए अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर तत्क्षण प्राप्त कर लेती थीं। इंद्र के द्वारा भेजी गई इंद्राणी भी अपने पापों का नाश करने के लिए अप्सराओं के साथ गुप्त रूप से महासती जिन माता की सेवा किया करती थीं।
अनन्तर प्राची दिशा के समान मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय त्रैलोक्य तेजोपुँज जिन बालक रूपी सूर्य को जन्म दिया। तत्क्षण ही देवों के यहाँ बिना बजाये बाजे उच्च ध्वनि से बजने लगे। तीन लोक में सर्वत्र महामंगलमय वातावरण हो गया। सौधर्म इन्द्र ने असंख्य देवों के साथ ऐरावत हाथी पर चढ़कर अयोध्या नगर में आकर नगरी की तीन प्रदक्षिणा दी। शची ने प्रसूति गृह में प्रवेश कर प्रदक्षिणा आदि विधि से माता और पुत्र की स्तुति, भक्ति करके माता को मायामयी नींद से युक्त कर, पास में अन्य मायामयी बालक सुलाकर वह इंद्राणी जिन शिशु सूर्य को बड़े ही आदर से ले आई और इंद्र के कर कमलों में सौंप दिया। इंद्र ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर तत्काल जन्मे हुए जिन बालक का स्वर्णमय हजारों घड़ों से अभिषेक महोत्सव मनाया।
अनन्तर करोड़ों स्तुतियों से स्तुति करते हुए कहा कि-हे भगवन् ! आप दशावतार-चरम-दस अवतारों में अंतिम परमौदारिक शरीर को धारण करने वाले नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव हुए हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।
इस प्रकार से करोड़ों स्तुतियों से मुखरित इंद्र ने भगवान् को वापस लाकर बड़े ही उत्सव के साथ माता-पिता को सौंप दिया और अयोध्या नगरी में भी तांडव नृत्य आदि पूर्वक महान् महोत्सव करके बहुत से देवों को जिन बालक के साथ क्रीड़ा हेतु छोड़कर स्वयं स्व-स्थान को चले गये।
भगवान् ऋषभदेव के शरीर का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण सदृश था और इतना सुन्दर था कि इंद्र ने एक हजार नेत्र बना लिए और प्रभु के रूप का अवलोकन किया, फिर भी तृप्त नहीं हुआ। प्रभु के शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष (२००० हाथ प्रमाण) थी, और आयु चौरासी लाख पूर्व१ वर्ष की थी। वे भगवान् सरस्वती के एकमात्र स्वामी थे इसलिए उन्हें सम्पूर्ण वाङ्मय प्रत्यक्ष हो गये थे और इसीलिए वे समस्त लोक के गुरु हो गये थे। देवों द्वारा लाये गये दिव्य भोगोपभोग सामग्री का अनुभव करते हुए भगवान् का शैशव काल व्यतीत हो गया।
किसी समय महाराजा नाभिराज ऋषभदेव के समीप आकर बोले-कि हे देव! यद्यपि मैं यथार्थ में आपका पिता नहीं हूँ। निमित्त मात्र से ही पिता हूँ। फिर भी मैं एक अभ्यर्थना करता हूँ कि आप इस समय संसार की सृष्टि की ओर अपनी बुद्धि लगाइये, क्योंकि आप आदिपुरुष हैं, सारी प्रजा आपका ही अनुसरण करेगी। अतः इष्ट कन्या के साथ विवाह कर लीजिए। जिससे प्रजा की संतति का उच्छेद न होकर धर्म की संतति चलती रहे। ऐसा सुनकर भगवान् ने हँसते हुए ‘ओम्’ कहकर स्वीकार कर लिया।
महाराज नाभिराज ने इंद्र की अनुमति से सुशील और सुन्दर कच्छ महाकच्छ राजा की बहनें यशस्वती और सुनंदा, इन दो कन्याओं के साथ प्रभु का विवाह कर दिया, विवाहोत्सव में इंद्र्रादि देवों ने और प्रजा ने जो आनन्द उत्सव मनाया था उसका यहाँ क्या कहना? सुख पूर्वक बहुत कुछ काल के व्यतीत हो जाने पर रानी यशस्वती ने चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रम से अन्य भी निन्यानवे पुत्रों को जन्म दिया। सुनंदा रानी ने कामदेव बाहुबलि और सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। महाराज नाभिराज इन सब पुत्र, पुत्रवधु, पौत्र, पौत्रियों से घिरे हुए अतिशय प्रसन्न रहते थे। भगवान् ऋषभदेव की वङ्कानाभि पर्याय में जो सुबाहु, महाबाहु, पीठ, महापीठ, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित भाई थे, वे ही भगवान् के क्रमशः भरत, बाहुबलि, वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत , वीर और वरवीर नाम के पुत्र हो गये। ये सभी मोक्षगामी थे।
किसी समय भगवान् सिंहासन पर सुख से बैठे थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में लगाया। उसी समय मांगलिक वेषभूषा से युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों कन्याएं प्रभु के पास आकर नमस्कार करने लगीं। प्रभु ने बड़े प्रेम से उन्हें गोद में बिठा लिया और बार-बार उन पर हाथ पेâरते हुए आशीर्वाद दिया और कहा कि हे पुत्रियों! विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो, क्योंकि विद्या ग्रहण का यही काल है। भगवान् ने सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को स्थापित किया। अनन्तर ‘सिद्धं नमः’ मंगलाचरण पूर्वक ब्राह्मी को दाहिने हाथ से ‘अ आ इ ई’ आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि विद्या का उपदेश दिया और बायें हाथ से इकाई, दहाई आदि अंक लिखकर सुन्दरी को अंक विद्या का उपदेश दिया। उन पुत्रियों ने पिता के मुख से क्रमशः समस्त वाङ्मय का अध्ययन कर लिया।
जगद्गुरु भगवान् ने भरत आदि पुत्रों को भी अनेक शास्त्र पढ़ाये। भरत को अर्थशास्त्र और नृत्य शास्त्र पढ़ाया, वृषभदेव को गंधर्व शास्त्र, अनन्तविजय को चित्रकला शास्त्र, अनन्तवीर्य को सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया। बाहुबलि को कामनीति, स्त्री-पुरुष के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा, हाथी आदि के लक्षण जानने के तंत्र, रत्न परीक्षा आदि अनेकों शास्त्र पढ़ाये। अधिक कहने से क्या? लोक में उपकारी जितने भी शास्त्र हैं, भगवान् ऋषभदेव ने अपने सभी पुत्रों को सभी पढ़ाये थे। यह उपर्युक्त कथन उन-उन विषय की मुख्यता की अपेक्षा है।
इस प्रकार अनेक सुखों का अनुभव करते हुए भगवान् का बीस लाख पूर्व वर्षों का कुमारकाल बीत गया। इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष शक्तिहीन हो गये। बिना बोये उत्पन्न धान्य भी अत्यल्प रह गये। तब व्याकुलचित्त हुई प्रजा महाराज नाभिराज की शरण में आई। नाभिराज ने उन्हें वृषभदेव के समीप भेज दिया। प्रजा आकर प्रभु को नमस्कार कर प्रार्थना करने लगी-भगवन् ! बढ़ती हुई भूख-प्यास की बाधाओं से हम लोग दुःखी हो रहे हैं, हमें अपने जीवित रहने का उपाय बतलाइये, हम लोगों पर प्रसन्न होइये। प्रजा के दीन वचनों को सुनकर दयाद्र्रचेता भगवान् ने विचार किया कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करना योग्य है इत्यादि सोचकर प्रजा को आश्वासन दिया।
भगवान के स्मरण मात्र से ही तत्क्षण देवों सहित इंद्र वहाँ आया और शुभ दिन, शुभ नक्षत्रादि, मुहूर्त में सर्वप्रथम मांगलिक कार्यरूप अयोध्यापुरी के बीच में जिन मंदिर का निर्माण किया। चारों दिशाओं में भी जिन मंदिर का निर्माण किया। अनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, अंग, बंग, कुरुजांगल, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, केरल, कर्णांट, आन्ध्र आदि देशों की रचना की। अच्छे ढंग से मकान आदि बनाकर उन स्थानों में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ इंद्र प्रभु की आज्ञा लेकर स्वर्ग चला गया।
भगवान् ने प्रजा की आजीविका के लिए असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं का उपदेश दिया। उस समय भगवान् सरागी (गृहस्थ) थे, वीतरागी नहीं थे। उसी समय आदि ब्रह्मा भगवान् ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय जितने पाप रहित आजीविका के उपाय थे, वे सब भगवान् की सम्मति से प्रवृत्त हुए थे, सो ठीक है क्योंकि सनातन ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव ही थे। चूँकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव ने इस प्रकार कर्मयुग का प्रारंभ किया था। इसलिए पुराण पुरुष उन्हें कृतयुग नाम से जानते हैं। कृतकृत्य भगवान् ऋषभदेव आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारंभ करके प्रजापति, युगस्रष्टा आदिब्रह्मा, विधाता आदि कहलाने लगे।
अनन्तर सुखपूर्वक रहते हुए कुछ दिन बाद नाभिराज आदि को लेकर बड़े-बड़े राजाओं ने और इंद्रादि देवों ने मिलकर अतीव वैभव के साथ भगवान् का ‘सम्राट्’ पद पर अभिषेक किया। भगवान राजाधिराज होकर समस्त प्रजा का पुत्रवत् पालन कर रहे थे। भगवान् ने हरि, अपन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका राज्याभिषेक कर उन्हें महामांडलीक राजा बनाया। ‘सोमप्रभ’ कुरुदेश के राजा कुरुवंश, ‘हरि’ हरिवंश शिरोमणि’, ‘अवंâपन’ नाथवंशी, और ‘काश्यप’ भगवान् से मद्यवा नाम प्राप्त कर उग्रवंश के मुख्य राजा हुए। भगवान् ने इक्षुरस के संग्रह का उपदेश दिया था। इसलिए वे इच्छ्वाकुवंशी कहलाये। इस प्रकार भगवान् स्रष्टा, विधाता, ब्रह्मा आदि अनेक नामों से पुकारे जाने लगे।
अन्य मतावलम्बी ईश्वर को सारे जगत् की सृष्टि-रचना का कर्ता-बनाने वाला मानते हैं। अर्थात् वे कहते हैं कि भगवान् चेतन, अचेतन आदि सभी सृष्टि को पैदा करने वाले हैं किन्तु यह बात सर्वथा अघटित है। जैन सिद्धान्त में तो मात्र वृषभदेव को कर्मभूमि के प्रारंभ में आजीविका के साधन आदि क्रियाओं का उपदेशक और विदेहक्षेत्रवत् वर्ण व्यवस्था का व्यवस्थापक माना गया है किन्तु सृष्टि का कर्ता स्रष्टा नहीं।
किसी एक समय हजारों राजाओं से सेवित भगवान् ऋषभदेव राज्य सिंहासन पर विराजमान थे। उस समय भगवान की सेवा के लिए इंद्र स्वयं ही अप्सराओं और बहुत से देवों के साथ उत्तम-उत्तम पूजन की सामग्री लेकर वहाँ आया। भक्ति में विभोर इंद्र ने भगवान् की आराधना करने की इच्छा से अप्सराओं का नृत्य कराना प्रारंभ किया। भगवान् राज्य से किस प्रकार विरक्त होंगे’ यह विचार कर इंद्र ने एक ऐसे पात्र को नियुक्त किया जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी। वह सुन्दरी नीलांजना नाम की देवनर्तकी रस, भाव और लय सहित नृत्य कर रही थी कि इतने में ही ‘आयुरूपी दीपक के क्षय हो जाने से वह अदृश्य हो गई।’ उसके नष्ट होते ही इंद्र ने रस भंग के भय से उस स्थान पर उसी समान शरीर वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी, जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा यद्यपि दूसरी देवी के खड़ी हो जाने पर वही मनोहर स्थान था और वही नृत्य का परिक्रम था, तथापि भगवान् ने उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर जान लिया।
तदनंतर भोगों से विरक्त तथा अत्यन्त संवेग और वैराग्य भावना को प्राप्त हुए भगवान् मन में सोचने लगे-
बड़े आश्चर्य की बात है कि यह जगत् विनश्वर है, लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है। यौवन, ऐश्वर्य, आरोग्य आदि सभी चलाचल है। इस जीव ने नरकों में महान् दुःख भोगे हैं। यदि उनका स्मरण भी हो जावे तो ऐसा कौन है कि जो इन भोगों की इच्छा करेगा? इत्यादि रूप में चतुर्गति के दुःखों का विचार करते हुए भगवान् ने यह विचार किया कि इंद्र ने जो यह नीलांजना का नृत्य कराया है, उस बुद्धिमान ने सोच-समझकर मेरे बोध के लिए ही ऐसा किया है। क्षणभंगुर रूप और यौवन धोखा देने वाला है। अतः इस रूप को धिक्कार! ऐसा विचार करते हुए भगवान् विशुद्धि को प्राप्त हो गये।
उसी समय इंद्र ने अवधिज्ञान से भगवान् के वैराग्य को जान लिया और उसी समय प्रभु के तप-कल्याण की पूजा के लिए लौकान्तिक ब्रह्मलोक से उतरे। ये लौकान्तिक देव देवों में उत्तमदेवर्षि कहलाते हैं। ये एक भवावतारी होते हैं और अतिशय विरक्तमना होने से भगवान् के दीक्षाकल्याणक में ही आते हैं। उन देवों ने प्रथम ही भगवान् के श्री चरणों में पुष्पांजलि अर्पण करके कल्पवृक्ष के पुष्पों से चरणों की पूजा की और फिर अनेकों स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करते हुए उनके वैराग्य की प्रशंसा करने लगे। हे देव! आप स्वयं प्रबुद्ध हैंं। धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर हम लोगों का शीघ्र ही उद्धार कीजिए और इस युग की आदि में मोक्षमार्ग को प्रगट कीजिए। इस प्रकार सैकड़ों स्तुतियों से अपने लिए महान पुण्य का संचय कर वे लौकांतिक देव स्व-स्थान को चले गये।
इतने में ही आसन के कम्पायमान होने से चारों निकायों के देव अपने-अपने इंद्रों के साथ तपकल्याणक का उत्सव मनाने के लिए आ गये और अयोध्यापुरी के चारों ओर से आकाश को घेर लिया। इंद्रों ने प्रभु का तपकल्याणक के लिए क्षीरसागर के जल से महाभिषेक किया। अनन्तर बड़े आदर से दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालाओं से भगवान् का अलंकार किया। तदनन्तर भगवान् ने साम्राज्य पद पर भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को सनाथ किया और युवराज पद पर बाहुबलि को स्थापित किया। इन दोनों भाइयों से अधिष्ठित पृथ्वी राजवन्ती हो गई थी। मुमुक्षु भगवान् ने अपने शेष पुत्रों के लिए भी यह पृथ्वी विभक्त करके बाँट दी थी।
पश्चात् भगवान् महाराज नाभिराज आदि परिवार के लोगों से पूछ कर इंद्र द्वारा बनाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर बैठे। भगवान् की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैंड तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाश से सात पैंड तक ले चले, अनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने हर्षित होकर वह पालकी अपने कन्धों पर रखी और अयोध्या नगरी से बाहर कुछ दूर ‘‘सिद्धार्थक’’ नामक वन में जा पहुँचे। वहाँ पर इंद्र ने पहले से ही चन्द्रकांत की शिला स्थापित कर दी थी और इंद्राणी ने उस पर रत्नों के चूर्ण से चौक पूरा था। उस शिला के ऊपर सुन्दर मंडल बना हुआ था।
भगवान् ने पालकी से उतर कर शिला पर बैठकर मनुष्यों, देवों की सभा को यथायोग्य उपदेश दिया। सब लोग कुछ देर बाद वापस चले गये। भगवान् ने अपने देवों की और सिद्धों की साक्षी पूर्वक बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह, वस्त्रालंकार आदि का त्याग कर दिया। पूर्व दिशा की ओर मुँह करके पद्मासन से विराजमान भगवान् ने ‘सिद्धं नमः’ कहते हुए पंचमुष्टि से केशलोंच किया और समस्त पापारंभ से विरक्त होकर सामायिक चारित्र धारण कर लिया। वह दिन चैत्र कृष्ण नवमी का था। देवों ने भगवान् के पवित्र केशों को रत्न पिटारे में लेकर बड़े उत्सव से ले जाकर क्षीरसागर में विसर्जित किया था।
उसी समय चार हजार अन्य राजाओं ने भी दीक्षा धारण कर ली। वे भगवान् के अभिप्राय को न जानते हुए केवल भक्ति से प्रेरित हुए दीक्षित हो गये। ‘जो हमारे स्वामी को रुचे, वही हमें करना चाहिए’ बस, इतना मात्र सोचकर वे सभी राजा द्रव्यलिंगी मुनि बन गए थे अर्थात् बाह्य से दिगम्बर वेश में थे और अन्तरंग से भावलिंगी नहीं थे। उस समय राजा भरत ने भी तमाम राजाओें के साथ आम, जामुन आदि उत्तम फलों से प्रभु के चरणों की पूजा की थी। भगवान् ऋषभदेव छह महीने का योग लेकर ध्यान में लीन हो गये थे।
इसी बीच में कच्छ, महाकच्छ के पुत्र नमि, विनमि नाम के दोनों ही राजा भक्तिपूर्वक भगवान् के चरणों में आ गये और कहने लगे कि-हे देव! आपने साम्राज्य त्याग करते समय यह साम्राज्य अपने पुत्र-पौत्रों के लिए बाँट दिया और हमें भुला ही दिया, अतः अब हमें भी कुछ भोग सामग्री दीजिए। ऐसा कहते हुए भगवान् के ध्यान में विघ्न करने लगे। उस समय उन दोनों की जो भगवान् के प्रति विशेष भक्ति थी, उसके निमित्त से धरणेंद्र का आसन वंâपित होने से वह धरणेंद्र वहाँ आया और उसने इन दोनों को बहुत कुछ समझाया कि ये भगवान् अब सब कुछ छोड़ चुके हैं। तुम दोनों राजा भरत की उपासना करो किन्तु वे लोग धरणेन्द्र की एक भी नहीं माने। वे बोले कि हम लोग भगवान् के सिवाय अन्य किसी से कुछ नहीं चाहते हैं।
तब धरणेन्द्र भगवान् के ध्यान के विघ्न निवारण हेतु उन दोनों की भक्ति से प्रसन्न होता हुआ बोला कि मैं भगवान् का विंâकर हूँ, भगवान् ने मुझे बुलाकर तुम्हें इच्छित भोग सामग्री देने की आज्ञा दी है। अतः तुम दोनों मेरे साथ चलो। प्रभु की आज्ञानुसार ही मैं तुम्हें ले चलता हूँ। ऐसा कहकर वह धरणेन्द्र उन दोनों को विजयार्ध पर्वत पर ले गया, और वहाँ के ‘रथनूपुर चक्रवाल’ नगर में प्रवेश कर धरणेन्द्र ने उन दोनों को सिंहासन पर बैठाकर विद्याधरों से कहा कि ‘ये तुम्हारे स्वामी हैं,’ ऐसा कहकर उनका राज्याभिषेक कर दिया। अनन्तर ‘नमि’ को दक्षिण श्रेणी और ‘विनमि’ को उत्तर श्रेणी का अधिपति प्रसिद्ध कर दिया। धरणेन्द्र ने बतलाया कि भगवान् ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहाँ भेजा है। ऐसा सुनकर सभी विद्याधर मस्तक झुकाकर उनकी आज्ञा धारण करने लगे। वह धरणेन्द्र उन दोनों को गांधारपदा और पत्रगपदा नाम की विद्यायें देकर स्व-स्थान में चला गया। यद्यपि ये लोग विद्याधर नहीं थे तो भी वहाँ पर अनेकों विद्याओं को सिद्ध कर लिया था। आचार्य कहते हैं कि देखो! कहाँ ये नमि-विनमि भूमिगोचरी थे, और कहाँ तो विद्याधरों के इंद्र बन गये? अतः जिनेन्द्र भक्ति का प्रभाव अचिंत्य है।
विजयार्ध पर्वत पर चतुर्थ काल की आदि से अंत तक ही परिवर्तन होता है, पुनः अंत से आदि तक हुआ करता है। मनुष्यों की आयु उत्कृष्ट एक कोटि पूर्व और जघन्य आयु सौ वर्ष की होती है तथा शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ की रहती है। यहाँ पर षट् ऋतुओं का परिवर्तन और असि, मषि आदि क्रियायें रहती हैं। सभी लोग अनेकों विद्याओं के प्रभाव से आकाश में गमन करते हुए अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की पूजा किया करते हैं। ये लोग तमाम विद्यायें-उपवास आदि विधि से सिद्ध करते हैं और तमाम विद्यायें स्वयं सिद्ध जाति और कुल से मिला करती हैं। सचमुच में भगवान् ़ऋषभदेव की भक्ति के प्रसाद से इन्हें यह वैभव मिला था।
भावमिथ्यात्व तो अनादिकाल से इस पृथ्वी पर सर्वत्र चला ही आ रहा है। हाँ, द्रव्यमिथ्यात्व विदेह क्षेत्र में या विजयार्ध पर्वतों की श्रेणी में या भोगभूमियों में नहीं है। यहाँ यह कब से हुआ सो कहते हैं-देखकर वनदेवताओं ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और कहा कि ऐसा मत करो। ‘हे मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ है। तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है, महान् है, तुम लोग इसे कायरता का स्थान मत बनाओ।’ वनदेवता के वचन सुनकर वे लोग उस वेष में वैसा करने से डर गये इसलिए उन दीन, भ्रष्ट तपस्वियों ने नीचे लिखे अनेकों वेष बना लिए।
कितने ही लोग वृक्षों की छाल पहनकर फल खाने लगे, कितने ही जीर्ण-शीर्ण लंगोटी पहनकर स्वेच्छाचारी बन गये, कितने ही भस्म लपेटकर जटाधारी बन गये। ये सभी भ्रष्ट साधु वृक्षों की छालरूप वस्त्र, स्वच्छ जल और वंâदमूल से बहुत समय तक अपना निर्वाह करते रहे। यद्यपि इनका घर संबंधी मोह नहीं छूटा था, फिर भी वे भरत के डर से अपने-अपने घरों में नहीं गये थे और वहीं पर झोंपड़ी बनाकर रहने लगे थे। उनमें से कितने ही साधु परिव्राजक बन गये थे। उनमे ऋषभदेव का पोता, भरत का पुत्र मरीचि कुमार भी परिव्राजक होकर योगशास्त्र और सांख्य शास्त्र का प्रवर्तक बन गया। ये लोग जल और पूâलों से भगवान् के चरणों की पूजा करते थे, स्वयंभू ऋषभदेव को छोड़कर इनका अन्य कोई देवता नहीं था।
अनन्तर जगदगुरु भगवान् के ध्यान के छह महीने पूर्ण हो गये, तब वे मुनियों की चर्या की विधि बतलाने के लिए आहारार्थ निकले। वे सोचने लगे कि बड़े दुःख की बात है कि ये उत्तम वंशों में उत्पन्न हुए राजा लोग भूख-प्यास की बाधा से भ्रष्ट हो गये। प्रभु विचार करते हैं कि न तो इस शरीर का अति पोषण ही करना चाहिए और न इसे अत्यर्थ सुखाना चाहिए किन्तु मध्यम प्रवृत्ति का आश्रय लेकर इस शरीर से मोक्ष की सिद्धि करना चाहिए। यद्यपि भगवान् को आहार की आवश्यकता नहीं थी फिर भी मोक्षमार्ग को प्रगट करने के लिए पृथ्वी तल पर विहार किया।
उस समय लोग दिगम्बर मुनियों के आहार की विधि को नहीं जानते थे, अतः कोई-कोई भगवान् के सम्मुख आकर उन्हेें प्रणाम करते और उनके पीछे-पीछे चलने लगते, कोई बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान् के सामने रखते और ग्रहण करने की प्रार्थना करते, कोई स्नान सामग्री और भोजन लेकर आकर प्रार्थना करते कि हे देव! प्रसन्न होइये और स्नान करके भोजन कीजिए, कोई हाथी-घोड़ा पालकी आदि वाहन लेकर आते और भेंट करते, कोई सपरिवार आकर प्रभु के चरणों से लिपट जाते और प्रार्थना करते। भगवान् की चर्या में उस समय क्षणभर को विघ्न आ जाता और जब वे हटते तब प्रभु पुनः आगे विहार कर जाते। कितने ही लोग रूप यौवन सम्पन्न कन्याओं को लाते और कहते कि प्रभो! आप इन्हें ग्रहण कीजिए। आचार्य कहते हैं कि इन लोगों की मूर्खता को धिक्कार हो, जो ऐसी-ऐसी चेष्टा कर रहे थे। इस प्रकार जगत् में आश्चर्यकारी गूढ़चर्या से भ्रमण करते हुए भगवान् के छह मास और व्यतीत हो गये।
अनंतर भगवान् ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे, उस समय वहाँ के राजा सोमप्रभ कुरुवंश के शिखामणि थे और उनका भाई श्रेयांस कुमार था। श्रेयांस कुमार ने उसी रात्रि में सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य चंद्र, समुद्र और व्यंतर देवों की मूर्तियाँ ऐसे सात स्वप्न देखे थे। पुरोहित ने भी बताया था कि आज आपके घर में जिनका मेरु पर अभिषेक हुआ है, ऐसे कोई देव आयेंगे। उसी समय नगर में भगवान् के दर्शनों से बहुत ही बड़ा कोलाहल हुआ।
सिद्धार्थ द्वारपाल से प्रभु का आगमन सुनते ही दोनों भाई उठ खड़े हुए और बाहर आये। भगवान् को देखते ही गद्गद् हो उन्हेेंं नमस्कार करके प्रदक्षिणा दी। तत्क्षण ही राजा श्रेयांस को पूर्व भव का स्मरण आते ही आहार दान की विधि याद आ गई। जब वङ्काजंघ और श्रीमती ने वन में चारण मुनि को आहार दान दिया था, उस समय का दृश्य ज्यों का त्यों उपस्थित हो गया। राजा वङ्काजंघ ही भगवान् आदिनाथ हुए और श्रीमती का जीव श्रेयांस कुमार हुआ। बस श्रेयांस कुमार ने सोमप्रभ और उनकी रानी लक्ष्मीमती के साथ बड़ी ही भक्ति से प्रभु को पड़गाहन करके नवधा भक्तिपूर्वक उनके हाथों की अंजुली में शुद्ध प्रासुक इक्षुरस का आहार दिया। उसी समय आकाश में देवों का समुदाय उमड़ पड़ा। रत्नों की वर्षा, पुष्पों की वर्षा, मंद सुगंधित वायु, दुंदुभि बाजे और जय-जयकार के नाद से आकाश तथा भूमंडल व्याप्त हो गया। उस समय दोनों भाइयों ने अपने आपको कृतकृत्य माना। जहाँ स्वयं तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान् आहार लेने वाले हैं और श्रेयांस कुमार जैसे पुण्यशाली देने वाले हैं देवों के पंचाश्चर्य हो रहे हैं, उस समय के आहार दान के महत्व का क्या वर्णन किया जा सकता है?
भगवान् आहार के अनन्तर वन को विहार कर गये, कुछ दूर राजा सोमप्रभ, श्रेयांस कुमार भी उनके पीछे-पीछे गये पुनः वापस आ गये। उस दिन राजा के यहाँ भोजन अक्षय हो गया था, चाहे चक्रवर्ती का कटक भी जीम ले तो भी उसका क्षय नहीं हो सकता था और वह दिन वैशाख सुदी तृतीया का था इसलिए ‘अक्षय तृतीया’ उसका यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हो गया जो कि आज तक भी सर्वत्र प्रसिद्ध है। उस समय राजा श्रेयांस दानतीर्थ के प्रवर्तक कहलाये थे।
देवों ने भी आश्चर्य के साथ श्रेयांस कुमार की बड़ी भारी पूजा की तथा भरतचक्री ने आकर पूछा की हे कुरुवंश शिरोमणि! तुमने यह विधि वैâसे जानी? तब श्रेयांस कुमार ने ऋषभदेव के आठवें भव पूर्व के वङ्काजंघ और श्रीमती द्वारा दिये गये दान की सारी कथा कह सुनाई। सुनकर चक्रवर्ती भरत ने भी परमप्रीति को प्राप्त होकर राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार का खूब सम्मान किया तथा ऋषभदेव के गुणों का चिंतवन करते हुए अपने घर वापस आ गये।
आदिनाथ भगवान् के समय से ही और उनके पौत्र मरीचि से ही मुख्य होकर ये पाखंड मत चलाये। पीछे वह मरीचि कुमार तीर्थंकर महावीर होकर मुक्ति को प्राप्त हो गये किन्तु मरीचि कुमार द्वारा प्रतिपादित मत का प्रभाव अब भी बढ़ता ही जा रहा है यही आश्चर्य की बात है।
जो परंपरा एक बार चल जाती है वह जड़-मूल से नष्ट नहीं हो पाती है। फिर तो आज कलिकाल के प्रभाव से यह मिथ्यामत वृद्धिंगत ही हो रहा है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का है कि जो आज ऐसे निकृष्ट काल में भी मुनिमार्ग का अवलंबन लेने वाले दिगम्बर जैन साधु और सच्चे सम्यग्दृष्टि श्रावक दिख रहे हैं इसलिए वस्तुस्थिति में आश्चर्य न करके अपनी आत्मा का जल्दी से जल्दी कल्याण कर लेना चाहिए। अपने सम्यक्त्व को बाह्य चकाचौंध से मलिन नहीं करना चाहिए।
तीर्थंकर भगवान् दीक्षा लेने के बाद केवलज्ञान प्रगट होने तक मौन पूर्वक ही विहार करते हैं। अनंतर केवलज्ञान के बाद उनका समवसरण बनता है। उसमें गोलसभा होती है और बिना इच्छा के ही भगवान् का दिव्य उपदेश होता है।
भगवान् ऋषभदेव दीक्षा के अनंतर एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहे, अनंतर एक दिन पुरिमताल नाम के नगर के बाहर ‘शकट’ नाम के उद्यान में पहुँचे, वहाँ ध्यान की सिद्धि के लिए वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर विराजमान हो गये। फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान् ने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया, उसी समय प्रभु को केवलज्ञान प्रकट हो गया, स्वर्गों में होने वाले चिन्हों से देवेन्द्रों ने प्रभु के ज्ञान की सिद्धि को जानकर तत्क्षण आकर केवलज्ञान महोत्सव मनाया और समवसरण की रचना कर दी।
भगवान् ऋषभदेव का समवसरण बारह योजन विस्तृत इंद्रनीलमणि से निर्मित था। उसके बाहरी भाग में रत्नों की धूली से बना हुआ ‘धूलीसालकोट’ था। वह इंद्रधनुष के सदृश वर्णवाला, चारों ओर से परकोटे के समान सुन्दर था। इसके बाहर चारों दिशाओं में सुवर्णमय खंभों वाले, चार दिशा में चार तोरण द्वार थे। उस धूलीसाल के भीतर चारों दिशाओं में ऊँचे-ऊँचे चार मानस्तंभ थे, जो कि मिथ्यादृष्टियों का मान शीघ्र ही नष्ट कर देते थे। मानस्तंभ के समीपवर्ती भूभाग को अलंकृत करती हुई मानस्तंभ के चारों तरफ चार-चार बावड़ियाँ थीं, वे मणिमयी सीढ़ियों से युक्त, स्वच्छ जल से भरी हुई थीं। उनके किनारों पर पाँव धोने के लिए कुँड बने हुए थे। उन बावड़ियों से आगे कमलों से व्याप्त, जल से भरी और चारों तरफ से घेरे हुए एक ‘परिखा’ थी। उस परिखा के भीतर भाग को एक ‘लतावन’ घेरे हुए था, जो कि पूâले हुए पूâलों से उज्जवल हास्य बिखेर रहा था। उस लतावन के अनंतर सुवर्णमय को चारों ओर से घेरे हुए था। उसमें चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार थे। प्रत्येक द्वार पर मंगल द्रव्य एक सौ आठ और सौ-सौ तोरण थे। दरवाजे के बाहर नवनिधियाँ रखी हुई थीं। दरवाजे के दोनों बाजू में दो नाट्यशाला थीं। बहुत से धूपधट में रखे हुए थे। कुछ दूर आगे बढ़कर अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के चार वन थे। अशोकवन में अशोक नाम का चैत्य वृक्ष था जिसमें जिनप्रतिमाएं विराजमान थीं, ऐसी ही सप्तच्छद्, चंपक और आम्र के भी चैत्य वृक्ष थे, ये चैत्य वृक्ष जिनप्रतिमा सहित थे और बहुत ही ऊँचे थे। उन वनों के चारों ओर एक वनवेदी थीं, जो सुवर्णमयी थी।
सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, कोट वनवेदिका, स्तूप, तोरण सहित मानस्तंभ और ध्वजस्तंभ ये सब तीर्थंकरों की ऊँचाई से बारह गुने होते हैं। उपर्युक्त वनवेदिका से आगे सुवर्णमय खंभों के अग्र भाग पर लटकती हुई अनेक प्रकार की ध्वजों की पंक्तियाँ शोभित हो रही थीं। इनमें माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र ये चिन्ह थे। एक-एक दिशा में वे सब ध्वजाएं एक हजार अस्सी थीं और चारों दिशाओं में चार हजार तीन सौ बीस थीं।
उन ध्वजाओं के भीतर के भाग में चाँदी से निर्मित एक कोट था जो द्वितीय होकर भी अद्वितीय था। प्रथम कोट के सदृश इसके गोपुर द्वारों में नव निधियाँ, धूपपट, नाट्यशालाएं थीं। धूपघटों के बाद गलियों के बीच के अंतराल में कल्पवृक्षों का वन था। इसमें दश प्रकार के कल्पवृक्ष तीन लोक के जनों के लिए इच्छित फलदायी वैभव स्वरूप थे। उन कल्पवृक्षों की व वन वीथी को भीतर की ओर चारों तरफ से स्वर्णमय वनवेदिका घेरे हुए थी। इनके गोपुर द्वारों में तोरण, मंगलद्रव्य आदि सम्पदायें इकट्ठी थीं। इनके आगे भीतर की ओर देव कारीगरों से निर्मित मकानों की पंक्तियाँ थीं। इनमें चतुर्निकाय देवगण संगीत, नृत्य आदि से भगवान् की आराधना कर रहे थे।
महावीथियों के मध्य भाग में नौ-नौ स्तूप खड़े थे, जो कि पद्मरागमणि से निर्मित थे। उन स्तूपों पर छत्रादि सहित जिनप्रतिमाएं विराजमान थीं, भव्य लोग उनका अभिषेक, पूजा स्तुति आदि करते रहते थे। उन स्तूपों और मकानों की पंक्तियों से घिरी हुई भूमि से आगे आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि का बना कोट था, जो कि तृतीय कोट कहलाता था। इसके गोपुर द्वारों पर मंगल द्रव्य, नवनिधियाँ आदि विद्यमान थीं। स्फटिक कोट से पीठ पर्यंत लम्बी दीवारें थीं। ये दीवारें बारह सभाओं का विभाग करती थीं। उन दीवारों पर रत्नमय खंभों से खड़ा हुआ, आकाश स्फटिक मणि से निर्मित, बहुत बड़ा ‘श्रीमंडप’ था, इस मंडप में तीनों लोकों की लक्ष्मी शोभित थी। तीनों लोकों के समस्त जीवों को स्थान देने में समर्थ होने से आकाश के सदृश था। यह एक योजन विस्तृत था। फिर भी भगवान् के अतिशय के प्रभाव से इसमें असंख्यात् सुर-असुर और संख्यात् मनुष्य तथा तिर्यंच बिना बाधा के बैठे हुए थे।
उस श्रीमंडप को घेरे हुए मध्य भाग में पीठिका है उसमें तीन कटनी है। पहली कटनी पर आठ मंगल द्रव्य और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकों पर रखे हुए हजारों आरों वाले धर्मचक्र सुशोभित हो रहे थे। दूसरी कटनी पर ध्वजाएं थीं, उसके ऊपर तीसरी कटनी रत्नों से निर्मित सुशोभित हो रही थी। उन तीन कटनी सहित पीठ पर जिनेन्द्रदेव विराजमान थे।
समवसरण का प्रमाण-स्फटिक निर्मित तृतीय कोट के भीतर का विस्तार एक योजन था, लतावन, अशोकादिवन, कल्पवृक्षवन और ध्वजाभूमि, इनका विस्तार भी एक योजन प्रमाण था और परिखा भी धूलि से एक योजन चलकर थी। आकाश स्फटिक मणियों से बने हुए कोट से कल्पवृक्षों के वन की वेदिका आधा योजन दूर थी और उसी साल से प्रथम पीठ चौथाई योजन दूर था। गोपुर द्वारों के सामने के बड़े-बड़े रास्ते एक-एक कोस चौड़े थे। भगवान् के सिंहासन और धर्म-चक्र की उँâचाई एक धनुष प्रमाण थी।
गंधकुटी-तीन कटनियों से चिन्हित पीठ पर सुन्दर गन्धकुटी बनी हुई थी। वह गंधकुटी छह सौ धनुष चौड़ी, उतनी ही लम्बी और उससे कुछ अधिक ऊँची थी। उसके मध्य में एक सिंहासन था, जो कि कुबेर द्वारा निर्मित रत्नजटित था। उस सिंहासन पर चार अँगुल ऊँचे अधर श्री ऋषभदेव भगवान् विराजमान थे। भगवान् के समीप एक सुन्दर अशोक वृक्ष था, जो कि मरकत मणियों से बना हुआ था। प्रभु के ऊपर तीन छत्र ढुर रहे थे, दोनों तरफ यक्षगण चौंसठ चमर ढोर रहे थे। आकाश में देव दुंंदुभि बाजे बजा रहे थे, भगवान् के शरीर की प्रभा करोड़ों सूर्यों की प्रभा को तिरस्कृत कर पैâल रही थी और उस प्रभामंडल में भव्य जीव अपने-अपने सात-सात भव स्पष्ट देख लेते थे, भगवान् के मुखरूपी कमल से सर्वभाषामय दिव्य ध्वनि प्रगट हो रही थी और आकाश से पुष्प वृष्टि हो रही थी जिसकी सुगंधि चारों ओर पैâल रही थी। इस प्रकार भगवान् के ये आठ प्रातिहार्य भगवान् की आर्हत्य विभूति को प्रगट करते हुए सर्वोत्तम थे।
सबसे पहली धूली साल, उसके बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर, फिर निर्मल जल से भरी हुई परिखा, फिर पुष्पवाटिका, उसके आगे पहला कोट, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएं, उसके आगे अशोकादि के वन, उसके बाद वेदिका, फिर ध्वजाओं की पंक्तियाँ, फिर दूसरा कोट, फिर वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन, उसके बाद स्तूप, फिर मकानों की पंक्तियाँ, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट, उसके भीतर बारह सभायें हैं। अनंतर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू जिनेन्द्र देव विराजमान हैं। अर्हंत देव स्वभाव से पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुुँह करके समवसरण में रहते हैं।
उनके चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से ऋद्धियों के ईश्वर गणधर और मुनिगण, कल्पवासिनी देवियाँ, आर्यिकायें और श्राविकाएं, भवनवासिनी देवियाँ, व्यन्तरिणी देवियाँ, ज्योतिषी देवियाँ, भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिष देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु इन बारह गणों के बैठने योग्य बारह सभायें हैं।
जिनेन्द्र भगवान् अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य इन अनंत चतुष्टय रूप अंतरंग लक्ष्मी और बाह्य समवसरण लक्ष्मी के स्वामी हैं। यद्यपि भगवान् का एक तरफ मुख है और फिर भी अतिशय विशेष से चारों तरफ मुख दिखने से सभी बारह सभा वाले अपनी-अपनी तरफ मुख देखते रहते हैं। इसलिए भगवान् की सभा गोल है।
किसी समय भरत राजर्षि को एक साथ तीन समाचार प्राप्त हुए। पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। अन्तःपुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न-प्रगट हुआ है। समाचार सुनते ही राजा भरत ने एक क्षण के लिए सोचा कि पहले किसका उत्सव मनायें? अनंतर उन्होंने सोचा कि धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों के फल ये तीन समाचार हैं। अर्थ और काम की सिद्धि में धर्म ही मूल है, अतः सबसे प्रथम भगवान् ऋषभदेव का दर्शन करना चाहिए।
अनंतर भरत अपने छोटे भाई, अन्तःपुर की स्त्रियाँ और नगर के मुख्य-मुख्य लोगों के साथ समवसरण में पहुँचें। भगवान् की प्रदक्षिणा देकर उत्कृष्ट सामग्री से पूजा की, दोनों घुटने पृथ्वी पर टेककर बार-बार नमस्कार किया। अनेकों स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति की। पुनः श्रीमण्डप में प्रवेश करके यथायोग्य स्थान पर बैठ गये। उस समय वह सभा देवों, मनुष्यों से खचाखच भरी हुई थी। भरत ने अत्यन्त विनय से हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना की हे भगवन्! तत्वों का विस्तार केसा है? मार्ग केसा है? और उसका फल भी केसा है? हे देव! मैं आपसे यह सब सुनना चाहता हूँ। भरत का प्रश्न समाप्त होने पर भगवान् ऋषभदेव की दिव्यध्वनि खिरी, उस समय भगवान् के मुख पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ओष्ठ, तालु आदि स्थान नहीं हिले, जिसमें सब अक्षर स्पष्ट हैं ऐसी वाणी बिना इच्छा के भव्यों के पुण्य से प्रकट हो रही थी। वह दिव्य ध्वनि अठारह मुख्य भाषाओं में और सात सौ लघु भाषाओं में ऐसे सात सौ अठारह भाषाओं में अथवा संख्यात भाषाओं में होती थी भगवान् कहने लगे कि जीव-अजीवादि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप ही तत्व है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्षमार्ग है और इस मार्ग का फल मोक्ष है। इत्यादि रूप से विस्तार से धर्म के स्वरूप का विवेचन हुआ।
प्रथम गणधर- उसी समय उसी पुरिमताल नगर के स्वामी भरत के छोटे भाई ‘वृषभसेन’ वहाँ पूज्य पिता के दर्शनार्थ आये और प्रभु से संबोध को प्राप्त कर दीक्षा लेकर भगवान् के प्रथम गणधर हो गये और तत्काल ही मनःपयर्यज्ञान तथा सप्त ऋद्धियों से विभूषित हो गये। उसी समय कुरुवंश शिरोमणि हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार तथा अन्य राजा भी भगवान् से दीक्षा लेकर गणधर हो गये तथा अन्य अनेकों राजाओं ने मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर आर्यिकाओं के बीच गणिनी हो गई। बाहुबलि की छोटी बहन सुन्दरी ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा अनेक राजकन्याओं ने भी आर्यिका दीक्षा लेकर स्त्रीपर्याय से मुक्त होकर मोक्ष जाने का उद्यम किया था। श्रुतकीर्ति नामक किसी बुद्धिमान ने श्रावक व्रत ग्रहण कर लिए और वह देशव्रतियों में श्रेष्ठ हो गया। प्रियव्रता नामक एक सती श्राविका ने श्राविका के व्रत धारण कर श्राविकाओं में उत्तम स्थान ग्रहण किया। ऐसे ही अनेकों भव्य जीवों ने व्रतों से अपनी आत्मा को अलंकृत किया था।
भरत के छोटे भाई अनंतवीर्य ने भी प्रभु से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, ये सबसे पहले मोक्ष गये हैं। जो चार हजार राजा ऋषभदेव की दीक्षा के समय दीक्षित होकर भ्रष्ट हो गये थे, उनमें से मरीचि को छोड़कर बाकी सभी तपस्वी भगवान् के समीप संबोध पाकर फिर से दीक्षित होकर तपस्या करने लगे।
भरत चक्रवर्ती अपने भाई बाहुबलि आदि के साथ समवसरण से वापस अयोध्या आ गये। चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाकर उन्होंने षट्खंड को जीतने के लिए प्रस्थान कर दिया।
भगवान् का श्रीविहार-अनन्तर इंद्र ने भगवान् की एक हजार आठ नामों से स्तुति करते हुए प्रार्थना की कि हे भगवन् ! चिरकाल से भव्य जीवरूपी धान्य पापरूपी अनावृष्टि से सूख रहे हैं, सो हे विभो! उन्हें धर्मरूपी अमृत से सींचकर उनके लिए आप ही शरण होइये। अब आपका यह समीचीन मोक्षमार्ग के उपदेश देने का समय प्राप्त हुआ है। उस समय भगवान् का स्वभाव से ही विहार होने वाला था, अतः इंद्र की प्रार्थना सफल हो गई। प्रभु के श्रीविहार का वर्णन बड़ा ही रोमांचकारी है। उस समय करोड़ों देव इधर-उधर चलने लगे। जय-जयकार के शब्द से और दुन्दुभि बाजों के गंभीर नाद से आकाश व्याप्त हो गया, पृथ्वी दर्पणवत् स्वच्छ हो गई, मंद सुंगन्ध वायु बहने लगी, पवन कुमार जाति के देवों ने भूमि को वंâकड़-पत्थर धूलि से रहित कर दिया, मेघकुमार ने सुगन्धित जलवृष्टि करके मार्ग को सुन्दर बना दिया, शालि आदि खेती सर्वत्र हरी-भरी हो गई। श्रीविहार में धर्मचक्र आगे-आगे चल रहा था, मंगल द्रव्य तथा फहराती हुई ध्वजाओं से आकाश मंडल व्याप्त था, सभी षट्ऋतु के फल-पूâल फलित हो रहे थे, भगवान् के महात्म्य से चार सौ कोश तक पृथ्वी पर सुभिक्ष था, विहार के समय देवगण प्रभु के चरणों के नीचे स्वर्णमय कमलों की रचना करते रहते थे, वे कमल आगे-पीछे के सभी मिलकर २२५ हो जाते हैं, सुवर्ण कमल पर पैर रखने वाले प्रभु ने जहाँ-जहाँ विहार किया, वहाँ-वहाँ के भव्यों ने धर्मामृतरूपी जल की वर्षा से परम संतोष धारण किया था। भगवान् ने काशी, अवन्ति, कुरु, कौशल, सुह्म, पुण्ड्र, चेदि, अंग, वग, मगध, आंध्र, कलिंग, मंद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण और विदर्भ आदि देशों में विहार किया था। अनन्तर वैâलाश पर्वत पर पहुँच गये। वहाँ समवसरण में सभा मण्डप में विराजमान हैं।
चक्रवर्ती भरत जब दिग्विजय करके वापस आये तब उनका चक्ररत्न अयोध्या नगरी के बाहर ही रुक गया। अभी विजय बाकी है ऐसा समझकर चक्रवर्ती ने अपने निन्यानवे भाइयों के पास दूत भेजा। वे भाई भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में जाकर दीक्षित हो मुनि बन गए। अनन्तर बाहुबलि के पास दूत भेजने से बाहुबलि नमस्कार के लिए तैयार नही हुए, प्रत्युत युद्ध के लिए सत्रद्ध हो गये। मंत्रियों की प्रार्थना से दोनों भाइयों में दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध हुआ, इन तीनों में बाहुबली की विजय देख भरत ने चक्ररत्न उन पर चला दिया, किन्तु चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर निस्तेज हो गया। इस घटना से बाहुबली विरक्त हो दीक्षित होकर एक वर्ष का उपवास और योग लेकर वन में निश्चल खड़े हो गये। उनके उâपर लतायें चढ़ गर्इं, सर्पों ने वामियाँ बना ली थीं। एक वर्ष बाद भरत ने आकर पूजा की और बाहुबलि को केवलज्ञान प्रगट हो गया।
वंदनमाला-भरत चक्रवर्ती भगवान् के समवसरण में जाकर निरन्तर शलाका पुरुषों का चरित सुनते रहते थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों की वंदना के लिए रत्न निर्मित घंटियों से सहित चौबीस वंदनमालाएं बँधवाई थीं। जिनका निकलते समय सिर से स्पर्श होता था, तब उन घंटियों की आवाज से वे चक्रवर्ती तीर्थंकरों का स्मरण कर उन्हें परोक्ष नमस्कार किया करते थे।
चक्रवर्ती के पुत्रों का मोक्ष गमन-किसी समय चक्रवर्ती के विवर्धन आदि नौ सौ तेइस राजकुमार भगवान् के समवसरण में प्रविष्ट हुए। उन्होंने पहले कभी तीर्थंकर के दर्शन नहीं किए थे, वे अनादि मिथ्यादृष्टि थे और अनादिकाल से ही स्थावरकायों में जन्म-मरण पर क्लेश को प्राप्त हुए थे। भगवान् की लक्ष्मी को देखकर वे परम आश्चर्य को प्राप्त हुए और अन्तर्मुहूर्त में ही उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया। वे सब उसी भव से मोक्ष चले गये हैं। अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि जिन्होंने मनुष्य भव क्या त्रस पर्याय ही पहली बार पाई थी, वे भगवान् के निमित्त से उसी भव से मोक्ष चले गये। यह है समवसरण में जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन का माहात्म्य।
स्वयंवर प्रथा-भरत महाराज के साम्राज्य में ही सर्वप्रथम स्वयंवर प्रथा का प्रारंभ हुआ। बनारस के राजा अवंâपन की पुत्री सुलोचना ने स्वयंवर में हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के पुत्र मेघेश्वर जयकुमार को वरा था। महाराजा अवंâपन ने भी एक हजार पुत्रों के साथ भगवान् से दीक्षा ले ली थी। जयकुमार ने भी राज्य सुखों को भोगने के बाद दीक्षा ले ली और भगवान् के इकहत्तरवें गणधर हो गये। सुलोचना भी आर्यिका दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों की पाठिका बन गई थी। इस प्रकार अनेकों भूमिगोचरी तथा विद्याधरों ने भगवान् के समवसरण में दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का कल्याण किया था।१
भरत सम्राट सम्पूर्ण भारतवर्ष को जीतकर अयोध्या को अपनी राजधानी बनाकर सुखपूर्वक प्रजा का पालन कर रहे थे कि एक दिन सम्पत्ति का दान देने के लिए मन मे विचार किया और अणुव्रती गृहस्थों की परीक्षा के लिए एक उपाय सोचा। राजराजेश्वर भरत ने अपने यहाँ समस्त राजाओं को बुलाया, इधर-उधर के आँगन में सब तरफ हरे-हरे अँकुर फल और पूâल खूब भरवा दिये। उन लोगों में अव्रती लोग तो बिना सोचे-विचारे अन्दर घुस आये, परन्तु बड़े-बड़े कुलों में उत्पन्न अपने व्रतों की रक्षा की इच्छा रखने वाले नहीं आये। तब राजा ने उन्हें दूसरे प्रासुक मार्ग से बुलाया। राजा भरत ने व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन लोगों का दान, मान आदि से सत्कार किया। भरत ने उन्हें उपासकाध्ययन से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया था। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रिया से इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसे द्विजन्मा-द्विज या ब्राह्मण कहते हैं। ऐसे चक्रवर्ती ने इस ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति की। राजा ने इन ब्राह्मणों को तीन प्रकार की क्रियाओं के करने का उपदेश दिया। गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कत्र्रन्वय क्रिया। इनमें गर्भान्वय क्रिया के त्रेपन भेद हैं, दीक्षान्वय के अड़तालीस और कत्र्रन्वय के सात भेद माने गये हैं।
कितने ही काल बीत जाने पर एक दिन सम्राट भरत ने अद्भुत फल दिखाने वाले कुछ स्वप्न देखे। वे अचानक जाग उठे और उनका फल पंचम काल में होगा तथा अशुभ होगा, ऐसा समझकर ही वे भगवान् के समवसरण में पहुँचे। प्रभु की वंदना के समय भरत को परिणामों की निर्मलता विशेष से अवधिज्ञान प्रकट हो गया। पुनः भरत ने भगवान् से निवेदन किया है कि हे भगवन् ! मैने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है। समस्त धर्म सृष्टि को साक्षात् उत्पन्न करने वाले आपके रहते हुए मैंने यह महान मूर्खता की है। हे देव! इसमें क्या दोष है और क्या गुण है? सो कृपा कर कहिए तथा हे नाथ! आज मैने रात्रि में सोलह स्वप्न देखे हैं, उनके फल का भी निरुपण कीजिए। तब भगवान् की दिव्यध्वनि खिरी। हे भरत! यह ब्राह्मणों की रचना यद्यपि आज दोष उत्पन्न करने वाली नहीं है, फिर भी आगामी काल में खोटे मतों को उत्पन्न करेगी अतः दोष का बीज रूप है। तूने जो स्वप्न देखे हैं, खेद है कि वे पंचम काल में धर्म के ह्रास को सूचित करने वाले हैं। क्रमशः उनका फल सुनो।
१. तूने जो पृथ्वी पर अकेले विहार कर पर्वत पर चढ़े हुए तेईस सिंह देखे हैं, उसका फल यह है कि श्री महावीर स्वामी को छोड़ कर शेष तेईस तीर्थंकरों के समय दुष्टनयों की उत्पत्ति नहीं होगी।
२. अकेले सिंह के बच्चे के पीछे हरिणों का समूह देखने से श्री महावीर स्वामी के तीर्थ में परिग्रह सहित बहुत से कुलिंगी हो जावेंगे।
३. हाथी के उठाने योग्य बोझ से जिसकी पीठ झुक गई, ऐसे घोड़े के देखने से पंचम काल के साधु समस्त तपश्चरण के भार को उठाने में समर्थ नहीं होगे।
४. सूखे पत्ते खाने वाले बकरों को देखने से मालूम होता है कि आगामी काल में मनुष्य सदाचार को छोड़ कर दुराचारी हो जावेंगे।
५. गजेन्द्र के वंâधे पर चढ़े हुए वानरों के देखने से आगे चल कर प्राचीन क्षत्रिय वंश नष्ट हो जावेंगे और नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे।
६. कौवों द्वारा उल्लू को त्रास दिया जाना देखने से, मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य मत के साधुओं के समीप जायेंगे।
७. नाचते हुए बहुत से भूतों को देखने से, प्रजा के लोग व्यंतरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे।
८. जिसका मध्य भाग सूखा हुआ है, ऐसे तालाब के चारों ओर पानी देखने से धर्म आर्यखंड से हटकर म्लेच्छों में ही रह जायेगा।
९. धूल से मलिन रत्नों की राशि देखने से पञ्चम काल में ऋद्धिधारी मुनि उत्पन्न नहीं होंगे।
१०. आदर से जिसकी पूजा की गई ऐसे कुत्ते को नैवेद्य खाते देखने से, व्रतरहित ब्राह्मणगुणी पात्रों के समान सत्कार पायेंगे।
११. ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार देखने से, लोग तरुण अवस्था में ही मुनिपद में ठहर सवेंâगे अन्य अवस्था में नहीं।
१२. परिमंंडल से घिरे चन्द्रमा के देखने से पंचम काल के मुनियों में अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान नहीं होगा।
१३. परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के देखने से यह सूचित होता है कि पंचम काल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होंगे।
१४. मेघों से ढके हुए सूर्य के देखने से, पंचम काल में केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय नहीं होगा।
१५. सूखा वृक्ष देखने से, स्त्री-पुरुषों का चरित्र भ्रष्ट हो जायेगा।
१६. जीर्ण पत्तों के देखने से मालुम होता है कि महाऔषधियों का रस नष्ट हो जायेगा।
हे वत्स! ऐसे फल देने वाले इन स्वप्नों को तू पंचम काल में फल देने वाला समझ और समस्त विघ्नों की शांति के लिए धर्म में बुद्धि कर। इस प्रकार भगवान् के उपदेश से परम संतोष को प्राप्त भरत महाराज बार-बार जगद्गुरु को प्रणाम कर अयोध्या वापस आ गये और खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं का महाभिषेक किया, महर्षियों की पूजा की और बड़े-बड़े दान दिये। अनन्तर बहुमूल्य रत्नों से बने हुए जिनेन्द्र की प्रतिमाओं से सजे हुए बहुत से घण्टे बनवाये तथा ऐसे-ऐसे चौबीस घंटे बाहर के दरवाजे पर राजभवन के महाद्वार पर और गोपुर दरवाजे पर अनुक्रम से टंगवा दिये। जब वे चक्रवर्ती बाहर निकलते या प्रवेश करते, तब मुकुट के अग्रभाग पर लगे हुए घंटाओं से उन्हें चौबीस तीर्थंकर का स्मरण होता था।
उसी समय से नगरवासी लोगों ने भी दरवाजों पर तोरण-मालाओं में जिनप्रतिमा आदि से युक्त घण्टे बाँधे थे। चूँकि भरतेश्वर ने अर्हंतदेव की वंदना के लिए वंदनमालाएं बाँधी थीं, अतएव आज भी प्रत्येक घर पर ‘वन्दनमालाएँ’ दिखाई देती हैं।
भगवान् ऋषभदेव के ८४ गणधर थे। नानागुणों से युत मुनियों का सात प्रकार का संघ था। जिसमें पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, विक्रियाऋद्धिधारी, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और वादी ये होते हैं। ये सब ८४००० थे, ५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकाएं, असंख्यात् देव-देवियाँ और संख्यात् मनुष्य-तिर्यंय थे।
इस प्रकार भगवान् ने भव्यों को मोक्षफल की प्राप्ति करने के लिए अपने गणधरों के साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम, एक लाख वर्ष पूर्व तक विहार किया। आयु के चौदह दिन शेष रहने पर श्रीशिखर और सिद्धि शिखर के बीच वैâलाशपर्वत पर योग निरोध कर विराजमान हो गये। वह दिन पौष सुदी पूर्णिमा का था। उसी दिन भरतेश्वर ने यह स्वप्न देखा कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाई से सिद्ध क्षेत्र तक पहुँच गया है। युवराज अर्वâकीर्ति आदि सभी मुख्यजनों ने कुछ-कुछ स्वप्न देखे जिसके फलस्वरूप भगवान् का मोक्ष गमन निकट समझ भरतेश्वर वैâलाश पर्वत पर पहुँच गये। भक्तिवंदना आदि करके चौदह दिन तक महामह पूजा करते रहे। माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त में भगवान् ऋषभदेव पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ पर्यंकासन से विराजे हुए अघातिया कर्मों का नाश कर एक समय में सम्यक्त्वादि गुणों से सहित लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो गये, वहाँ नित्य निरंजन, शरीर से कुछ कम, अमूर्त, आत्मसुख में निमग्न हो गये।
उसी समय मोक्षकल्याणक की इच्छा से देवों ने आकर भगवान् के शरीर को अत्यन्त पवित्र जानकर ‘अग्निकुमार देव’ के मुकुट से उत्पन्न अग्नि से संस्कार किया, महान पूजा की, अनंतर भस्म को अपने मस्तक आदि में लगाकर अपने को कृतार्थ माना। इधर भरत को शोक से व्याकुल देख कर श्री वृषभसेन गणधर ने उन्हें खूब समझाकर इष्टवियोग के दुःख को दूर किया था।
जो ऋषभदेव का जीव पहले भव में जयवर्मा, दूसरे भव में महाबल, तीसरे भव में ललितांग देव, चौथे भव में राजा वङ्काजंघ, पाँचवे भव में भोगभूमिज आर्य, छठे भव में श्रीधरदेव, सातवें भव में राजा सुविधि, आठवें भव में अच्युतेन्द्र, नवमें भव में चक्रवर्ती वङ्कानाभि, दशवें भव में सवार्थसिद्धि के अहमिंद्र हुए थे-अनन्तर पञ्चकल्याणकों के वैभव से युक्त समस्त इंद्र द्वारा वंद्य तीन लोक के गुरु ऋषभदेव नाम के प्रथम तीर्थंकर हुए हैं, वे हमारी सदैव रक्षा करें।
१. कहाँ से गर्भ में आये सर्वार्थसिद्धि
२. जन्म नगरी अयोध्या
३. पिता नाभिराज
४. माता मरुदेवी
५. गर्भतिथि आषाढ़ कृष्ण २
६. जन्म तिथि चैत्र कृष्ण नवमी
७. जन्म नक्षत्र उत्तराषाढ़ा
८. वंश इक्ष्वाकु
९. आयु ८४ लाख पूर्व
१०. कुमार काल २० लाख पूर्व
११. उत्सेध ५०० धनुष
१२. शरीर वर्ण सुवर्ण वर्ण
१३. राज्यकाल त्रेसठ लाख पूर्व
१४. चिन्ह वृषभ
१५. वैराग्य कारण नीलांजना मरण
१६. दीक्षा तिथि चैत्र कृष्णा नवमी
१७. दीक्षा नक्षत्र उत्तराषाढ़ा
१८. दीक्षावन सिद्धार्थ
१९. दीक्षोपवास षष्ठोपवास (छह मास)
२०. दीक्षा काल अपराह्न
२१. सहदीक्षित ४००० राजा
२२. छद्मस्थ काल १००० वर्ष
२३. केवल तिथि फाल्गुन कृष्ण ११
२४. केवलोत्पत्ति काल पूर्वाह्न
२५. केवल स्थान पुरिमताल नगर
२६. केवल नक्षत्र उत्तराषाढ़ा
२७. समवसरण भूमि १२ योजन
२८. अशोक वृक्ष (केवल वृक्ष) न्यग्रोध (वटवृक्ष)
२९. यक्ष गोमुख
३०. यक्षिणी चक्रेश्वरी
३१. केवली काल १००० वर्ष कम, एक लाख वर्ष पूर्व
३२. गणधर संख्या ८४
३३. मुख्य गणधर वृषभसेन
३४. ऋषि संख्या ८४०००
३५. पूर्वधर ४७५०
३६. शिक्षक ४१५०
३७. अवधिज्ञानी ९०००
३८. केवली २००००
३९. विक्रियाधारी २०६००
४०. विपुलमती मुनि १२७५०
४१. वादीमुनि १२७५०
४२. आर्यिका संख्या ५००००
४३. मुख्य आर्यिका ब्राह्मी
४४. श्रावक ३०००००
४५. श्राविका ५०००००
४६. मोक्ष तिथि माघ कृष्ण १४
४७. मोक्षकाल पूर्वाह्न
४८. मोक्ष नक्षत्र उत्तराषाढ़ा
४९. मोक्ष स्थान केलाश पर्वत
५०. सहमुक्त १००००
५१. योगनिवृति १४ दिन पूर्व
मंत्र-ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नमः।
इस मंत्र को आप सभी भव्यजन प्रतिदिन जपते रहें सम्पूर्ण मनोकामनाएं सफल होंगी।