विक्रम संवत् १९७० में पौष शु. १५ के दिन राजस्थान में बूंदी जिला के अंतर्गत ‘गम्भीरा’ नाम के गांव में सेठ श्री बख्तावरमल जी की धर्मपत्नी उमराव बाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ था। माता-पिता ने उसका नाम चिरंजीलाल रखा था। ये खंडेलवाल जाति के भूषण छाबड़ा गोत्रीय थे। बचपन से ही आपके माता-पिता का निधन हो जाने से आपके ताऊ की पुत्री ‘दाखाबाई’ बहन ने आपका लालन-पालन किया था। आपने आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से द्वितीय प्रतिमा के व्रत लिये थे। अनंतर आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी के संघ में रहकर वि.सं. २००१ में आपने क्षुल्लक दीक्षा ली थी। छह वर्ष बाद गुरु की समाधि हो जाने से आपने आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के पास आकर कार्तिक शुक्ला १४ को विक्रम संवत् २००८ में मुनि दीक्षा ले ली थी। सन् १९५६ में जब मैं आचार्यश्री वीरसागर जी के संघ में आई थी, तभी से आपका परिचय हुआ था। आप सरल स्वभावी और गंभीर थे। आचार्यश्री की समाधि के बाद गिरनार की यात्रा तक आप आचार्य श्री शिवसागर जी के संघ में रहे थे। पश्चात् सन् १९५८ में आप ब्यावर से अलग विहार कर गये थे। १९६९ में महावीर जी में शांतिवीर नगर में जब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी, तब आप वहाँ पधारे थे। वहाँ अकस्मात् फाल्गुन कृ. अमावस्या को आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की समाधि हो जाने से अनेक ऊहापोह के उपरांत संघ के ज्येष्ठ मुनि होने से चतुर्विध संघ ने आपको आचार्यपट्ट प्रदान किया था। उसी समय आपके करकमलों से ग्यारह दीक्षाएँ सम्पन्न हुई थीं। इसके बाद आप जयपुर आ गये थे। यहाँ से मुनिश्री श्रुतसागर जी कई मुनि आर्यिकाओं के साथ अन्यत्र विहार कर गये थे पुनः मुनिश्री श्रेयांससागर जी भी अलग विहार कर गये थे। तब जयपुर के अनेक प्रबुद्ध लोेगों ने मुझसे बार-बार निवेदन किया- ‘‘माताजी! श्री धर्मसागर जी को आचार्य बनाया गया है अब आपको कुछ वर्ष संघ में ही रहकर अध्यापन आदि करके धर्म प्रभावना करनी-करानी चाहिए, तभी तो आचार्य शांतिसागर जी महाराज के परंपरागत पट्ट की शोभा है……।’’ यही सोचकर मैंने आचार्यश्री के संघ में ही रहकर उनकी आज्ञा लेकर सभी मुनियों-आर्यिकाओं को अध्ययन कराना शुरू कर दिया था। इस प्रकार अध्यापन में मेरा समय लगभग ५-६ घंटे व्यतीत हो रहा था। साथ ही मोतीचंद जी आदि भी अध्ययन कर रहे थे। मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार, कु. मालती, कु. त्रिशला आदि को मैं अष्टसहस्री के सारांश, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, राजवार्तिक आदि पढ़ाती थी। मुझे अभी तक स्मृति है कि लावा, मालपुरा आदि गाँवों में सायंकाल प्रतिक्रमण के बाद आचार्यश्री कु. त्रिशला (११ वर्षीया) आदि से कर्मकांड के प्रश्न करते और उनसे उत्तर सुनकर गद्गद हो उठते थे। इसके बाद माता मोहिनी को आर्यिका दीक्षा दिलाकर उन्हें आर्यिका रत्नमती बनाकर आचार्यश्री की आज्ञा लेकर २५सौंवे निर्वाणोत्सव के निमित्त से मैं सन् १९७२ में दिल्ली आ गई थी। सन् १९७४ में आचार्यश्री भी अपने विशाल संघ सहित दिल्ली पधारे। निर्वाणोत्सव में हर एक प्रसंग में मुझसे चर्चा करते रहते थे। उसके अनेक संस्मरण हैं। इसके अनंतर सन् १९७५ में आचार्यश्री हस्तिनापुर पधारे। विशाल संघ के सानिध्य में यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर भगवान महावीर की प्रतिमा विराजमान की गई। आपने उनके नीचे अचलयंत्र रखकर माघ शु. १२ को सूरिमंत्र दिया था। आज वे प्रतिमा जी साक्षात् कल्पवृक्ष के रूप में मुंह मांगा फल दे रही हैं। जंबूद्वीप निर्माण, ज्ञान ज्योति प्रवर्तन, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि यहाँ के प्रत्येक कार्य में आपका मंगल आशीर्वाद मिलता रहा है। आप इतनी दूर बैठकर भी हर किसी से मेरे स्वास्थ्य समाचार पूछा करते थे और सभा में मेरे पुरुषार्थ की प्रशंसा भी करते रहते थे, जिसका टेप कैसेट रवीन्द्र कुमार लाये और मुझे सुनाया था। वास्तव में महान् पुरुष ही हम जैसों को महान् बना सकते हैं। आचार्यश्री की गुण ग्राहकता और वात्सल्य असीम था, उसका वर्णन शब्दों से परे है।
चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री अजितसागर जी
इसके बाद मुनिश्री श्रुतसागर जी, जिन्हें आचार्यकल्प कहा जाता था, उनसे अत्यधिक अनुरोध करने पर भी उन्होंने आचार्य पद लेना स्वीकृत नहीं किया। तब चतुर्विध संघ के आग्रह से आचार्यकल्प श्रुतसागर जी ने वैशाख शुक्ला ८, दिनाँक ६ मई को उपाध्याय मुनि श्री अजितसागर के लिए आचार्यपट्ट की घोषणा कर दी। मंगल मुहूर्त में ज्येष्ठ शुक्ला १०,दिनाँक ७ जून को उदयपुर में इन्हें सभा के मध्य आचार्य पद प्रदान किया गया । रवीन्द्र कुमार भी उस उत्सव में सम्मिलित हुए। जब रवीन्द्र ने आकर वहाँ के समाचार सुनाये, उस समय हर्ष से विभोर होकर मेरे मुख से सहसा निकल पड़ा- ‘‘मेरा बेटा चक्रवर्ती बन गया……।’’ यद्यपि यह वाक्य उपयुक्त नहीं था क्योंकि कितने ही वर्षों की पुरानी आर्यिका क्यों न हो, वे एक दिन के दीक्षित मुनि को भी नमस्कार करती हैं किन्तु पूर्व के संस्कार अर्थात् सन् १९५६, ५७, ५८, ५९ और ६० के संस्कार कभी-कभी उभर ही आते हैं कि जब ब्र. राजमल जी मुझे अपनी माता के रूप में मानते थे और मैंने उन्हें पुत्रवत् वात्सल्य दिया था। वे सन् १९६१ में मुनि अजितसागर जी बन गये, तब से वे मेरे द्वारा भी पूज्य हो गये। उसी समय पास में बैठे हुए क्षुल्लक मोतीसागर जी बोले-‘‘माताजी! क्या आपके हृदय में श्री अजितसागर जी के प्रति उनसे पढ़ी हुई आर्यिकाओं एवं उनसे दीक्षित आर्यिकाओं जैसी भक्ति है?’’ मैंने गंभीर स्वर में कहा- ‘‘मोतीसागर जी! उन जैसी भक्ति भावना न होकर भी उनके प्रति जो भक्ति और वात्सल्य भाव मेरे हृदय में है, सो उन शिष्याओं में होना शक्य नहीं है। देखो! मुनिश्री श्रेयांससागर जी की माता अरहमती आर्यिका हैं, वे उन्हें नमस्कार भी करती हैं उनके हृदय में उन मुनिश्री के प्रति वात्सल्य भक्ति और उन मुनिश्री की शिष्याओं की भक्ति में अन्तर भले ही हो, फिर भी अरहमती जैसा वात्सल्य-प्रेम उन शिष्याओं में होना असंभव है। ऐसे ही मेरी जन्मदात्री मां मोहिनी जी आर्यिका रत्नमती बनकर मुझे बड़ा मानकर नमस्कार तो करती ही थीं, मेरे से प्रायश्चित भी लेती थीं, उनका मेरे प्रति जो वात्सल्य था, भक्ति थी, उसकी अपेक्षा मेरी शिष्याएँ आर्यिका जिनमती जी, आर्यिका आदिमती जी आदि की भक्ति भावना में अंतर है ही है। मुनिश्री अजितसागर जी ने भी ब्र. राजमल की अवस्था में मुझे माँ सदृश ही माना था अतः उनकी शिष्याओं की भक्ति की अपेक्षा भी मेरा वात्सल्य कुछ विलक्षण और असीम है, उन शिष्याओं से इसकी तुलना असंभव है।’’ सन् १९५७-५८-५९ में मैंने इन्हें (ब्र. राजमल जी को) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, इष्टोपदेश, पंचाध्यायी आदि पढ़ाया था पुनः अत्यधिक प्रेरणा दे-देकर सन् १९६१ में सीकर में मुनि बनने के लिए तैयार किया था। आज भी वे प्रेरणा की घड़ियाँ और वे प्रेरणा के शब्द मुझे याद आते रहते हैं। तब प्रसन्नता होती है कि मेरा प्रेरणारूपी बीज वृक्ष बनकर फलित तो हुआ ही है, उसमें सर्वोत्तम फल आ चुके हैं। यद्यपि योग्य मुनि बनना, उनके पुण्योदय का फल है, मैं तो निमित्त मात्र ही थी, फिर भी सराग अवस्था में कर्तृत्वबुद्धि आ ही जाती है। सन् १९६२ में मैं सम्मेदशिखर यात्रा के लिए गई थी। पांच वर्ष तक यात्रा के मध्य यदि मुझे कुछ कठिनाइयाँ आतीं, तो वे मुनिश्री संघ में रहते हुए भी चिंता करते थे और आर्यिका विशुद्धमती जी से पत्र लिखाते रहते थे। पाँच वर्ष बाद सन् १९६७ में मैं पुनः आचार्य शिवसागर जी के संघ में आ गई थी। सन् १९६९ में आचार्यश्री की समाधि के बाद मुनिश्री श्रुतसागर जी के साथ मुनिश्री अजितसागर जी महाराज अलग विहार कर गये थे। सन् १९७२ में दिल्ली की ओर विहार करने पर अजमेर में उनके पुनः दर्शन हुए थे। आज उनको आचार्यपट्ट पर पदासीन सुनकर प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही है। आचार्यपट्ट प्रदान के दिन मैंने नवीन आचार्यश्री के प्रति जो श्रद्धा सुमन अर्पित किये थे, रवीन्द्र कुमार ने उन्हें सम्यग्ज्ञान में छपाया भी था, वे ये हैं-
चतुर्थ पट्टाचार्य पूज्य श्री अजितसागर जी महाराज के प्रति उद्गार
कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र में सन् १९५५ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने यमसल्लेखना ली थी, तब अपना आचार्यपट्ट अपने प्रथम शिष्य वीरसागर जी महाराज को भेजा था पुनः सन् १९५७ में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने आश्विन वदी अमावस्या को नश्वर शरीर छोड़ा, तब उनके प्रथम शिष्य शिवसागर जी मुनिराज आचार्यपट्ट पर आरूढ़ हुए। सन् १९६९ में परमतपस्वी आचार्य शिवसागर जी महाराज की महावीर जी में आकस्मिक समाधि हो गई। अब आचार्य वीरसागर जी के द्वितीय शिष्य मुनि श्री धर्मसागर जी ने आचार्यपट्ट को अलंकृत किया। सन् १९८७ में इनकी समाधि हुई है। इनके बाद इस शांतिसागर परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश उपाध्याय मुनि श्री अजितसागर जी हुए हैं। सन् १९६१ में ब्र. राजमल जी ने आचार्य श्री शिवसागर जी से मुनि दीक्षा लेकर अजितसागर नाम पाया। ज्ञानाराधना में सतत निरत होने से उपाध्याय पद को विभूषित किया पुनः आप आज इस सर्वश्रेष्ठ आचार्य परम्परा के मणिस्वरूप आचार्य पद पर आरूढ़ हुए हैं। आप १. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं २. मितभाषी हैं ३. सरल स्वभावी हैं ४. आर्ष परम्परा के प्रति पूर्ण दृढ़ हैं और ५. शिष्यों के अनुग्रह में कुशल हैं। इन पाँच विशेष गुणरत्नों से अलंकृत आप चिरकाल तक इस भूतल पर धर्म प्रभावना करते हुए इस दिगम्बर जैन धर्म की परम्परा को युग-युग तक अक्षुण्ण बनावें, इस मंगल कामना के साथ आपको शत-शत नमन।
७ जून १९८८ जंबूद्वीप, हस्तिनापुर -गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
आचार्यश्री देशभूषणजी की समाधि
आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज का वियोग दुःख भूला ही नहीं था कि अकस्मात् आचार्यरत्नश्री देशभूषण जी महाराज की समाधि का समाचार प्राप्त हुआ। सुनकर मुख से निकल गया- ‘‘कलिकाल में धर्मप्रभावना के धुर्य आचार्यरत्न कहाँ चले गये? आचार्यश्री ने कर्नाटक प्रांत में जिला बेलगांव के ‘कोथली’ नाम के छोटे से गांव में सत्यगोंडा पाटिल के घर में माता अक्कादेवी से जन्म लिया था। बचपन में ही माता-पिता का वियोग हो जाने से आप नानी के संरक्षण में पले और बढ़े थे। आपका नाम बालगौड़ा था। इन्होंने आचार्य श्री जयकीर्ति जी के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा की, रामटेक पर आचार्यश्री से ऐलक दीक्षा ग्रहण की, तब गुरुदेव ने आपका नाम ‘देशभूषण’ रखा। यह नाम अन्वर्थ तो क्या कहा जाये? गुरु देशभूषण जी तो विश्व के भूषण बन गये थे पुनः आपने जल्दी ही मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली और कठिन तपश्चर्या के साथ ज्ञानाराधना में विशेष आगे बढ़े। आचार्य जयकीर्ति जी की समाधि के बाद आपकी योग्यता देखकर आचार्य श्री पायसागर जी की आज्ञा से आपको चतुर्विध संघ ने सन् १९४८ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। आपने सन् १९३६ से १९४७ तक दक्षिण भारत में धर्म का प्रचार किया। सन् १९४७ के उपरांत आपने लगभग सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा करके जैनधर्म की महान प्रभावना की। सन् १९४७ का चातुर्मास बनारस में हुआ था। उसके बाद सूरत, आरा, लखनऊ, बाराबंकी, टिकैतनगर आदि से लेकर सन् १९८६ का चातुर्मास सदलगा में सम्पन्न किया था। बाद में आप कोथली में विराज रहे थे। ज्येष्ठ शु.१, दिनाँक २८ मई १९८७ को आपका समाधिमरण प्रातः ४ बजे हुआ है, आपके निकट गणधराचार्य श्री कुंथुसागर जी पहुँच गये थे और उन्होंने भी आपकी समाधि में अच्छा सहयोग दिया। आप स्वयं सावधान थे, उठकर महामंत्र का ध्यान करते हुए आपने इस नश्वर शरीर को छोड़ दिया। मुझे २९ मई को समाचार मिला, तब मैंने भक्ति पाठ करके गुरू के श्री चरणों में श्रद्धांजलि समर्पित की। सर्वत्र सारे भारत में ही श्रद्धांजलि सभा के आयोजन हुए हैं। मैंने सन् १९५२ में घर छोड़ा था, तब बाराबंकी के चातुर्मास में आपके श्री चरणों का आश्रय लिया था पुनः क्षुल्लिका दीक्षा आपसे ग्रहण कर आपके सानिध्य में १९५३ का चातुर्मास टिकैतनगर एवं १९५४ का चातुर्मास जयपुर में किया है, ऐसे दो-ढाई वर्ष आपके श्री चरणों में रहकर मैंने आपके श्री मुख से बहुत कुछ शिक्षाएँ प्राप्त की हैं। आपकी प्रेरणा से एवं आपकी आज्ञा से ही मैंने आचार्य श्री वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा ली थी क्योंकि उस समय तक आपने किसी को आर्यिका दीक्षा नहीं दी थी, इसलिए मुझे आचार्य श्री वीरसागर जी के संघ में भेज दिया था। मैंने आपका असीम वात्सल्य प्राप्त किया है पुनः दिल्ली में १९७२-७३-७४ इन तीन चातुर्मासों में सानिध्य प्राप्त कर आपके वरदहस्त से जम्बूद्वीप रचना के महान निर्माण में संबल मिला है। आपने अयोध्या तीर्थ का जीर्णोद्धार कर महान् उत्तुंग प्रतिमा विराजमान कराई। जयपुर खानिया में चूलगिरि तीर्थक्षेत्र बना दिया और कोथली में शांतिगिरि तीर्थ बनाकर दक्षिण में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। अनेक मंदिर और जिनप्रतिमाओं के निर्माण कराकर आपने सातिशय पुण्य और यश अर्जित किया है। अनेक ग्रंथ रचनाएँ आपके द्वारा हिन्दी, कन्नड़, मराठी और अंग्रेजी में हुई हैं । इस शताब्दी में जितने ग्रंथों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन आपके करकमलों से हुआ है, दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में उतने लेखन कार्य को किसी ने नहीं किया है। आपके एक-एक ग्रंथ-रत्नाकरशतक, अपराजितशतक, णमोकारग्रंथ आदि मंदिर में आबाल-गोपाल के स्वाध्याय के लिए बहुत उपयोगी हैं। आपके द्वारा मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका दीक्षा को प्राप्त कर यशस्वी होने वाले अनेक शिष्य-शिष्यायें हैं। जिनमें से आचार्य सुबलसागर जी, आचार्य विद्यानंदजी, आचार्य बाहुबली सागरजी और मैं क्षुल्लिका वीरमती (वर्तमान में आर्यिका ज्ञानमती) आदि हैं। जनवरी १९८७ में मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार, माधुरी आदि दक्षिण यात्रा के प्रारंभ में आपके दर्शनार्थ पहुँचे। आपने उन्हें वात्सल्य से आप्लावित किया पुनः बार-बार मोतीचंद को यही शिक्षा दी कि-‘‘तुम दीक्षा लेकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ जाना। जैन धर्म की प्रभावना के लिए सतत कार्यशील रहना। देखो! अपने लोगों की अपेक्षा प्रत्येक सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने धर्म को कितना बढ़ा रहे हैं फिर अपना जैनधर्म अनादि निधन-सार्वभौम धर्म है, इसकी उन्नति, वृद्धि और प्रभावना मेेंं जितना भी काम करोगे, वह कम ही होगा……।’’ गुरु का उपदेश और आशीर्वाद हमारे लिए भी परोक्ष में वह अंतिम ही था। अब भी आपके एक-एक उपदेश कण याद आते रहते हैं। आपकी शिक्षाओं से सदैव मनोबल बढ़ता रहा है और आगे भी बढ़ता रहेगा। आपके द्वारा भारत में हर प्रांत में जितनी धर्म प्रभावना सर्वांगीण रूप में हुई है, शायद ही किन्हीं से वैसी सर्वांगीण हो सकेगी। भगवान महावीर २५सौवाँ निर्वाण महोत्सव आपकी ही सूझबूझ की देन है। दिल्ली में आप एवं स्थानकवासी श्वेतांबर मुनि श्री सुशील कुमार जी दोनों ने मिलकर ही निर्वाण महोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने की रूपरेखा बनायी थी। आचार्य श्री इन सभी रूपरेखाओं को मुझे स्वयं सुनाया करते थे। मंदिर-मूर्तियों के निर्माण की प्रेरणा, स्वयं साहित्य सृजन करना, उपदेश में जन-जन को आकर्षित ही नहीं, मंत्र-मुग्ध कर लेना, सर्वत्र प्रांतों में पदविहार करते हुए आबालगोपाल को दर्शन देकर कृतार्थ करना और उपदेश देकर समीचीन मार्ग बताना, बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठाएँ कराना, अनेक दीक्षाएँ देना आदि सर्वकार्य आपके द्वारा सम्पन्न हुए हैं। आपके श्रीचरणों मेेंं मेरी पुनः पुनः विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित है।
शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर
गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर द्वारा दिनाँक ३१ मई से ८ जून १९८७, तिथि ज्येष्ठ शु. ४ से ज्येष्ठ शु. ११ तक एक विशाल ‘ज्ञानज्योति शिक्षण-प्रशिक्षण’ शिविर का आयोजन किया गया। इस शिविर में यहाँ से रवीन्द्र कुमार, माधुरी आदि गये थे और अनेक विद्वान आमंत्रित किये गये थे। शिविर में लगभग १००० विद्यार्थियों ने लाभ लिया। गुजरात में आर्षपरम्परा का इतना विशाल यह पहला शिविर था। इस शिविर से प्रभावित हुए वहाँ से कई महानुभावों ने अपने पुत्रों को यहाँ विद्यापीठ में अध्ययन के लिए भेजा। उसी शिविर में शिक्षण प्राप्त कर धर्मेन्द्र कुमार ने यहाँ आकर मुझसे आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लेकर दो प्रतिमा के व्रत लिए हैं और धर्माध्ययन में रत हैं।