वैशाख शुक्ला तीज, १९ अप्रैल को लूणवा (राज.) में आचार्यकल्प मुनि श्री श्रुतसागर जी ने अन्न का त्याग कर दिया था पुनः आचार्यकल्प मुनि श्री ने २८ अप्रैल को एकदम चतुर्विध आहार का त्याग कर दिया। ब्र. रवीन्द्र कुमार व माधुरी कई श्रावकों के साथ यहां से लूणवा गये थे।
यहाँ पर स्वाध्याय बंद करके तीन दिनों तक दोनों समय णमोकार मंत्र का पाठ कराया गया था। ज्येष्ठ वदी ५, शुक्रवार ६ मई १९८८ को प्रातः नौ बजे के बाद पूज्य श्री ने महामंत्र का स्मरण व श्रवण करते हुए इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। यहाँ समाचार मिलने पर हम सभी ने भक्ति पाठ करके श्रद्धांजलि सभा रखी।
ब्र. रवीन्द्र कुमार ने आकर बताया कि आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी की समाधि शांतिपूर्वक बहुत ही अच्छी हुई है। वास्तव में मनुष्य जीवन में संयम धारण करके अंत में समाधिपूर्वक मरण करना यही मनुष्य पर्याय का फल है। यह समाधिमरण हर किसी के लिए सुलभ नहीं है, बहुत ही दुर्लभ है। मुनि श्री ने बारह वर्ष की सल्लेखना ले ली थी, उसकी अवधि पूर्ण हो जाने पर तत्काल में उन्होंने अन्नादि चारों आहार का त्याग कर दिया था।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के मुख से मैंने यह सुना था कि जब तक अपनी आयु का १२ वर्ष मात्र का पूर्ण निर्णय न हो जावे, तब तक बारह वर्ष की सल्लेखना नहीं लेना चाहिए। महान् ग्रंथ आचारसार में सिद्धांतचक्रवर्ती श्री वीरनंदि आचार्य ने भी यही लिखा है-
ज्योतिः शास्त्रविनूतजातकमतान्नानानिमित्तक्षणात्।
प्रश्नाच्चापचयग्रहावलिबलक्षीणत्वसंप्रेक्षणात् ।।
प्रश्नस्याक्षरलक्षणेक्षणवशात् कालागमात्स्वायुषो।
मानं द्वादशवर्ष-संमितमतो हीनं च निश्चित्य सः १।।३।।
तात्पर्य यह है कि ज्योतिषशास्त्र से, जातक में कथित संकेतों से, नाना निमित्त के लक्षणों से, प्रश्न से, ध्वजादि समूह, ग्रहावलि के बल से इत्यादि किसी भी प्रकार से मुमुक्ष-आचार्य अपनी आयु को बारह वर्ष प्रमाण या कम निश्चित करके बारह वर्ष की सल्लेखना को ग्रहण करें, इत्यादि। वर्तमान में मुनि श्री सुपार्श्वसागर जी ने सन् १९६६ में उदयपुर में आचार्यश्री शिवसागर जी के सानिध्य में ऐसा ही वीरमरण किया था।
आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी ने जब सल्लेखना ग्रहण की थी तब मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी अस्वस्थ थे, उन्हें अधिक वर्ष शरीर टिक सकने की उम्मीद नहीं थी किन्तु बाद में अवधि पूरी के समय उनके शरीर में कुछ दिन या वर्ष और चल सकने की योग्यता आ गई थी। मैं समझती हूँ शायद इसलिए गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी ने एवं आचार्यश्री धर्मसागर जी ने १२ वर्ष की सल्लेखना नहीं ली थी, फिर भी उन्होंने शरीर के शिथिल हो जाने पर अन्त में क्रम-क्रम से आहार का त्याग करते हुए विधिवत् प्रत्याख्यान मरण करके बहुत ही सुन्दर समाधिमरण प्राप्त किया था।
गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी के समय तो मैं संघ में ही थी और आचार्यश्री धर्मसागर जी के दर्शनार्थ बराबर ब्र. रवीन्द्र कुमार, कु. माधुरी आदि जाते रहते थे अतः सर्व स्थिति से अवगत कराते ही रहे थे। चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी ने १२ वर्ष की सल्लेखना ली थी।
मध्य में ही अवधि पूरी हुए बिना ही, नेत्र ज्योति कमजोर हो जाने से आचार्यश्री ने कुंथलगिरि में आदर्श और आगमानुसार प्रत्याख्यानमरण नाम के सल्लेखना मरण को स्वीकार करके वीरमरण-पण्डितमरण किया था। मेरी समझ में उनका उदाहरण हर किसी साधु को सहसा नहीं लेना चाहिए, बहुत सोच-विचार कर लेना चाहिए।
गुरुओं को भी विशेष ज्ञान से, आयु की सीमा जान लेने के बाद ही १२ वर्ष की सल्लेखना देनी चाहिए। आचार्यश्री शांतिसागर जी से एक विवेकी श्रावक ने कई बार सल्लेखना लेने के लिए कहा-तब आचार्यश्री ने यही उत्तर दिया-‘‘बाबा, मुझे आगम का ज्ञान है, मैं सल्लेखना के योग्य अपनी शरीर-स्थिति देखकर ही सल्लेखना लूँगा-स्वर्ग में संयम तो है नहीं, वहाँ तो असंयमी जीवन ही है अतः यहाँ जितने दिन संयम की साधना हो रही है, अच्छा ही है।’’
मुनि श्री दर्शनसागर का हस्तिनापुर आगमन
मुनिश्री दर्शनसागर जी सहारनपुर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराकर बड़ौत, खतौली आदि की जैन समाज के आग्रह से १३ मई, ज्येष्ठ शुक्ला १२ को यहाँ हस्तिनापुर में आ गये और दिगम्बर जैन बड़े मंदिर पर ठहर गये। उन्होंने उच्च स्वर से यह घोषणा कर दी कि- ‘‘यहाँ बड़े मंदिर के परिसर में एकान्तवादी कानजीपंथियों का शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर नहीं लगाया जा सकता है।’’ उन्होंने वहाँ के कार्यकर्ताओं को समझाया भी और कठोर अनुशासन भी किया।
मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब कि इस प्रान्त के अधिकांश जैन बंधु मुनिभक्त दिखे और कानजी पंथ के विरोधी दिखे। कहते हैं-‘‘सहारनपुर में कतिपय लोगों के समर्थन से कानजीपंथी विद्वानों द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई जाने का निर्णय हो चुका था किन्तु झण्डारोहण के दिन ही इन विद्वानों द्वारा धूप खेने का विरोध करने से इन्हें हटाकर प्रतिष्ठाचार्य पं. फतेहसागर को बुलाकर प्रतिष्ठा कराई गई थी।
ये मुनिश्री दर्शनसागर जी इधर जंंबूद्वीप पर दर्शन करने हेतु भी आते थे और वे स्वयं और उनके संघ के साधु इधर ब्र. कु. माधुरी व ब्र. श्यामाबाई के चौकों में आहार हेतु भी आ जाया करते थे। उधर बड़े मंदिर से विहार कर वे चार-पाँच दिन जम्बूद्वीप पर भी ठहरे थे।
यद्यपि ये तेरहपंथी परम्परा के साधु थे, फिर भी यहाँ प्रवचन में बीसपंथ, शासनदेवी पद्मावती जी का समर्थन करते रहते थे। इस प्रांत के श्रावकों के अथक प्रयास से और मुनिश्री की निर्भीक प्रवृत्ति व कठोर अनुशासन से वह कानजीपंथी शिविर यहाँ हस्तिनापुर में नहीं हो सका पुनः यह शिविर उसी समय मवाना ग्राम में लगाया गया। यह शिविर अतीव विवाद का विषय बना। बड़े मंदिर के परिसर में श्रावकों में झगड़ा होकर पुलिस केस भी बनाये गये। काफी अशांति रही और आपस में खींचतान चलती रही है।
कानजीपंथ चर्चा
वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज में सर्वत्र ही यह कानजीपंथ अतिचर्चित हो चुका है अतः इस विषय में मुझे यहाँ विशेष कुछ नहीं लिखना है। संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त है कि- ‘‘हर एक सम्प्रदाय में कोई न कोई लोग अपने को भगवान का अवतार कहने वाले देखे जाते हैं। अन्तर इतना ही है कि यदि वे अपने सम्प्रदाय के गुरुओं को नीच, नरकगामी आदि न कहें तो अवश्य ही पूजे जाते हैं।’’
अथवा कोई व्यक्ति गुरुओं को नीच,पाखण्डी आदि कहता रहे किन्तु चर्या में स्वयं उनसे हीन होकर भी स्वयं को भगवान न कहे, तो भी लोग उसकी बात मान सकते हैं। कानजी भाई ने इससे भी आगे बढ़कर दिगम्बर जैन मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका ऐसे साधुओं को तो द्रव्यलिंगी, पाखण्डी, मिथ्यादृष्टि, नरकगामी आदि शब्दों से अपमानित करके न स्वयं कभी उन्हें नमस्कार किया है न उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहार ही दिया है।
उनके अनुयायी भक्तों ने भी यही पद्धति अपनाई है। इसके बावजूद स्वयं कानजी भाई ने चंपाबेन के जातिस्मरण का आधार लेकर अपने को भावी तीर्थंंकर घोषित कर दिया और वे स्वयं भी अपने आप में तीर्थंकर भगवान का अनुभव करके खुश होने लगे और तो और उन्होंने चंपाबेन के तलुए चाटने से बेड़ा पार होने का उपदेश भी दे डाला। यह पुस्तक उन्हीं के यहाँ से छपी हुई है। पुस्तक का नाम ‘‘धन्य अवतार’’ है।
प्रकाशक-श्री वीतराग सत् -साहित्य प्रसारक ट्रस्ट, भावनगर (गुजरात), प्रकाशन वि. सं. २०३८। पुस्तक में चंपाबेन के संबंध में कांजी स्वामी द्वारा समय-समय पर प्रकट किये गये अतिशयोक्तिपूर्ण उद्गार छापे हैं, उसमें एक नमूना पृष्ठ ४ का निम्न प्रकार है- ‘‘अरे, इनके (चम्पाबेन के) दर्शन से तो भव के पाप कट जायें, ऐसा यह जीव है।
सब लोग इनके तलवे चाटें तब भी कम है, ऐसा तो यह द्रव्य है।’’ इतना ही नहीं, उनके भक्तों ने उनके तीर्थंकररूप की प्रतिमा बनवाकर प्रतिष्ठा कर अनेक मंदिरों में विराजमान करा दी है। दिगम्बर जैन आचार्यों, मुनियों, आर्यिकाओं, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं एवं भट्टारकों ने भी इस समुदाय को दिगम्बर जैन मत से बहिर्भूत कहा है।
पं. मक्खन लाल जी आदि विद्वानों ने अनेक लेख और पुस्तके भी लिखी हैं। आचार्यश्री विद्यानंद जी ने कई वर्षों पूर्व ही ‘‘दिगम्बर जैन साहित्य में विकार’’ नाम से पुस्तक लिखकर इनके द्वारा प्रकाशित साहित्य को दूषित ठहराया था। वर्तमान में श्री नीरज जैन, सतना वालों ने ‘‘सोनगढ़ समीक्षा’’ नाम से जो पुस्तक लिखी है, वह प्रमाणिक तो है ही, उनकी पोल को अच्छी तरह उद्घाटित कर देती है।
मेरा तो यही कहना है कि प्रत्येक जैन भाई-बहनों को हठाग्रह छोड़कर इन पुस्तकों को आद्योपान्त अवश्य पढ़ना चाहिए और अपनी मूल संस्कृति के अनुसार दिगम्बर जैन गुरुओं की, आर्यिकाओं की, भक्ति, पूजा करके उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान देकर अपने मानव जीवन को, गार्हस्थ्य जीवन को सफल कर लेना चाहिए।
पंथ का दुराग्रह
दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में लगभग ४०० वर्षों से तेरहपंथ और बीसपंथ नाम से दो सम्प्रदाय चल रहे हैं। यद्यपि जैनागम में इन नामों का कहीं भी उल्लेख नहीं है, फिर भी श्रावकों में मात्र जिनपूजा पद्धति में ही यह मतभेद है। तेरहपंथी विद्वानों और श्रावकों को मैंने स्वयं देखा है। वे बीसपंथी मंदिर में आकर जिनप्रतिमा का दर्शन करते हैं वहाँ पूजन भी करते हैं।
अजमेर, जयपुर, ब्यावर, इंदौर आदि शहरों में व श्रवणबेलगोल आदि तीर्थों पर ये उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। किन्तु यहाँ शिविर के मध्य में आगत विद्वानों व श्रावकों में से अधिकांशजनों ने जंबूद्वीप स्थल पर आकर त्रिमूर्ति मंदिर व कमल मंदिर में जिनप्रतिमाओं को नमस्कार तक नहीं किया।
कदाचित् क्षुल्लक मोतीसागर जी द्वारा इस विषय में प्रश्न करने पर यह उत्तर दिया कि हम लोग शुद्ध तेरहपंथी हैं, केशर चर्चित, पुष्प चढ़े हुए जिनबिम्बों को नमस्कार नहीं करते हैं, धूप अग्नि में नहीं खेते हैं, इत्यादि। इस इलाके के कट्टर से कट्टर भी तेरहपंथी श्रावक ही इस मत के विरोधी हैं, वे कहते हैं- यह नवीन ‘‘शुद्ध तेरहपंथ’’ कहाँ से पैदा हुआ है?
अग्नि में धूप न खेना, पीले चावलों से हवन करना आदि। इस बारे में वे लोग आगम प्रमाण नहीं दे सकते हैं, केवल असन्दर्भित प्रकरणों से ही भोले लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। खैर, मुझे यहाँ इतना ही कहना है कि वर्तमान शताब्दी के चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज से लेकर आज तक के चार सौ (४००) से भी अधिक साधुओं ने इस कानजीपंथ को गलत कहा है।
मात्र एक आचार्य शांतिसागर नाम के साधु हैं जिन्होंने आज से १५ वर्ष पूर्व सन् १९७८ में मेरे सामने इसे मिथ्यात्व की आँधी कहा था, अब वे इस पंथ का समर्थन कर रहे हैं। उनके द्वारा दीक्षित एक क्षुल्लक व एक मुनि भी इस दुराग्रह में लगे हुए हैं जबकि उस मत के विद्वान पंडित, या श्रीमानों ने इन्हें भी आहारदान आज तक नहीं दिया है। ये कानजीपंथी लोग प्रायः हर ग्रामों, शहरों में, अनेक घरों में आपस में भी बैर, कलह करा देते हैं।
यहाँ तक कि जगह-जगह कोर्ट केसों में लोग समाज के धन को नष्ट कर रहे हैं, यह सब देखकर यही कहना पड़ता है कि यह हुण्डावसर्पिणी का दोष कलिकाल का ही प्रभाव है। आज भी जैनबंधु, बहिनें पूर्वाचार्यों के ग्रंथों का यदि क्रम से स्वाध्याय करें, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के ग्रंथों को क्रम से पढ़ें और बन सके तो गुरुमुख से पढ़ें तथा वर्ष में कम से कम एक माह दिगम्बर गुरुओं, आर्यिकाओं के संघों में जाकर रहें, तो सही मार्गदर्शन प्राप्त कर इस पंचमकाल में भी चतुर्थकाल के सदृश मोक्षमार्गी बनेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
श्री कुन्दकुन्द’देव ने भी पाहुड़ ग्रंथों में पंचमकाल में मुनियों का अस्तित्व सिद्ध किया है।यथा-
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।
इस भरत क्षेत्र में दुषमकाल में भी साधुओं के आत्मा के स्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है, ऐसा जो नहीं मानते हैं, वे अज्ञानी हैं, इत्यादि। श्री यतिवृषभाचार्य ने तो स्पष्ट कह दिया है कि इक्कीस हजार वर्ष के पंचमकाल में अंत तक अविच्छिन्न रूप से मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ रहेगा ही रहेगा।
अंतिम मुनि ‘‘वीरांगज’’ नाम के होंगे एवं अंतिम आर्यिका सर्वश्री होंगी, इत्यादि। व्रती व्रतों को छोड़ देते हैं- यहाँ एक ब्रह्मचारी भी इस शिविर के दिनों आये थे, वे पहले आचार्यकल्प श्रुतसागर जी के संघ में वर्षों रहे थे। सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथों का अध्ययन भी उपाध्याय मुनिश्री अजितसागरजी से किया था और आचार्यकल्प से सप्तम प्रतिमा के व्रत भी लिये थे।
उन्होंने कहा-‘‘मैंने सातों प्रतिमायें छोड़ दी हैं क्योंकि मैं अपने को प्रतिमाओं का पात्र नहीं समझता हूँ। ऐसे एक नहीं अनेक व्यक्ति हम लोगों से चर्चाएँ कर चुके हैं। उनकी तर्कणाबुद्धि और नूतन विचारधारा को देखकर बहुत ही दुःख हो जाता था।
क्षुल्लक श्री मोतीसागर ने उन ब्रह्मचारी से कहा-‘‘भाई! आपके गुरु आचार्यकल्प श्री की समाधि हुई है, क्या आप लोग अपने सम्प्रदाय में उनकी श्रद्धांजलि सभा रख सकते हैं? वे मुनि श्री श्वेताम्बर से दिगम्बर सम्प्रदाय में आकर, आचार्यश्री वीरसागर जी के संघ में रहकर, उनसे ही दीक्षा लेकर मुनि बने। उनकी समाधि बहुत ही सुन्दर हुई है।’’ इतना सुनकर भी वे ब्रह्मचारी जी मौन ही रहे थे। वास्तव में वर्तमान में इस कानजी पंथ के निमित्त से यह एक विडम्बना ही हो रही है।