समयसार अनुवाद प्रारंभ- द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ला ५, श्रुत पंचमी कहलाता है। दिनाँक १९ जून को जिनवाणी की पूजा कराके हम सभी ने श्रुतपंचमी की क्रिया सम्पन्न की पुनः मैंने समयसार की दोनों टीकाओं का अनुवाद शुरू किया। पहले ईसवी सन् १९७८ में मैंने दिल्ली में यह अनुवाद प्रारंभ किया था, मात्र १७ गाथाओं तक ही हुआ था। बाद में दिल्ली से विहार कर हस्तिनापुर आ गई थी, यहाँ १९७९ की मई में सुमेरु के जिनबिंबों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी। इसके बाद अनेक छोटी-मोटी पुस्तके, विधान आदि ग्रंथों के लेखन और प्रकाशन होते रहे थे। अब मैंने पुनः अत्यधिक उपयोगी समझकर इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद को हाथ में उठाया, तब १८वीं गाथा से शुरू किया है।
नय समन्वय
इस ग्रंथ मेंं स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने निश्चयनय और व्यवहारनय के विषय को दिखलाकर पुनः दोनों नयों का स्थल-स्थल पर समन्वय किया है। टीकाकारों ने भी स्पष्ट किया है और व्यवहारनय पर जोर दिया है। जैसे ‘‘तीर्थ प्रवृत्ति के लिए व्यवहारनय को दिखलाना आवश्यक है, अन्यथा लोग त्रसादि जीवों को राख के समान मर्दित कर डालेंगे……..।’’१ श्री जयसेनाचार्य ने तो सर्वत्र ही गुणस्थान व्यवस्था खोली है और महामुनि के निर्विकल्प ध्यान में ही यह समयसार अवस्था आती है। यथा-‘‘पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।’’ श्री जयसेनाचार्य ने तो कई स्थल पर यह भी कहा है कि-इस ग्रंथ में पंचमगुणस्थानवर्ती व्रती श्रावकों से ऊपर वाले महामुनियों के लिए कथन है। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कई जगह ऐसे वाक्य लिए हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री जयसेनाचार्य ने सरल शब्दों में इन्हीं का अनुसरण किया है। जैसे ‘‘यथाख्यात चारित्र के पहले राग अवश्यंभावी है, तब तक कर्म बंध होता ही है। तथा-अप्रतिक्रमण प्रतिक्रमण से आगे जो तृतीय भूमिका है, यहीं पर प्रतिक्रमण छुड़ाया गया है। यह तृतीय अवस्था निर्विकल्प ध्यानी शुद्धोपयोगी मुनि की है, ऐसा समझना। इस ग्रंथ के अनुवाद में मुझे जो आनंद आया है, वह शब्दों से परे हैं। वास्तव में यह आध्यात्मिक आनन्द अंत तक बना रहे क्योंकि इस अध्यात्म भावना से ही भवभवांतर की परम्परा समाप्त होगी। इसीलिए इस ग्रंथ के अनुवाद में मैंने रुचि ली है।
इन्द्रध्वज विधान
शांतिलाल जी गंगवाल इंफाल वाले यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर त्रिमूर्ति मंदिर में इन्द्रध्वज विधान करने के लिए आये। उनके साथ में अनेक काकाजी माणिकचंद जी रांची वाले और सूरजमल जी सांगानेर वाले भी सम्मिलित हुए। ज्येष्ठ शु. ३, शुक्रवार, १७ जून १९८८ के दिन प्रातः झंडारोहण हुआ। प्रतिदिन विधान पूजन प्रातः होती थी, उसी के मध्य मेरा प्रवचन हो जाता था, मध्यान्ह में कु. माधुरी सामायिक विधि सिखलातीं एवं ह्रीं का ध्यान करातीं, जिसमें आगंतुक यात्री भी भाग लेते थे पुनः ज्येष्ठ शु. १३, दिनाँक २७ जून १९८८ के दिन पूर्णाहुति के साथ यह विधान सम्पन्न हुआ। इस दिन ‘जंबूद्वीप ज्ञानज्योति’ का प्रवर्तन सन् १९८२ में हुआ था। उस दिन के उपलक्ष्य में जंबूद्वीप के जिनबिम्बों का अभिषेक पूजन कराया गया। इस विधान में भाग लेने वाली माणिकचंद गंगवाल की धर्मपत्नी एक दिन कहने लगीं- ‘‘माताजी! ३-४ वर्ष पूर्व मेरे सिर में इतना भयंकर दर्द उठता था कि कभी-कभी मैं बेहोश हो जाती थी, यहाँ तक कि ३-३ दिन होश नहीं आता था। तीन वर्ष पूर्व सम्मेदशिखर में मैंने इसी इन्द्रध्वज विधान को किया, तब से मेरा वह दर्द मिट गया है। यह विधान बहुत ही अतिशयपूर्ण है….इत्यादि।’’ मैंने कहा-‘‘वास्तव में जिनेन्द्रदेव की भक्ति में ऐसी ही अद्भुत शक्ति है।’’ मेरा स्वयं का अनुभव है, अतीव अस्वस्थता में मैं इस इन्द्रध्वज विधान की जयमालाएँ सुना करती थीं। सन् १९८५-८६ में १० महिने की लम्बी बीमारी में मुझे स्वस्थ करने का श्रेय इन सुन्दर-सुन्दर भक्तिरस से ओत-प्रोत जयमाला-स्तुतियों को ही मिला है।
शिक्षण कक्षाएँ
यहाँ ग्रीष्मावकाश में आस-पास की और उत्तर प्रदेश, बहराइच, दरियाबाद, टिकैतनगर आदि से कुछ बालक-बालिकाएँ आ गये थे। क्षुल्लक मोतीसागर जी, कु. माधुरी और प्रवीणचंद शास्त्री, नरेश चंद शास्त्री आदि इनको बालविकास, द्रव्यसंग्रह, इष्टोपदेश, तत्त्वार्थसूत्र, मंडलविधान की प्रारंभ विधि में सकलीकरण, हवन विधि आदि पढ़ाते थे। वास्तव में गर्मी की छुट्टियों में बालक-बालिकाओं को ऐसे तीर्थक्षेत्रों पर अथवा मुनि-आर्यिका संघों में भेजना चाहिए। कम से कम वर्ष भर में यदि वे एक माह या पंद्रह दिन भी धर्म का अध्ययन कर लेंगे, तो जीवन भर उनके लिए वह काम आयेगा। चूँकि तीर्थों के और गुरु संघों के संस्कार अमिट हो जाते हैं।
अष्टान्हिका पर्व में इन्द्रध्वज विधान
लखनऊ से राजकुमार जैन अग्रवाल, सौ. शांति देवी जैन, इनके सुपुत्र सुशील कुमार जैन सपरिवार आये, यहाँ इन्द्रध्वज विधान करने के लिए, साथ में दिल्ली से विजेन्द्र कुमार जैन भी सपरिवार विधान करने हेतु आये। त्रिमूर्ति मंदिर में दो मंडल मांडे गये चूंकि दिल्ली के ये महानुभाव तेरहपंथी हैं और लखनऊ के विधानकर्ता बीसपंथी हैंं। आषाढ़ शुक्ला ७, २१ जुलाई १९८८ के दिन प्रातः ७.३० बजे झंडारोहण कराया गया पुनः सभी भक्त लोग क्षुल्लक मोतीसागर जी महाराज के साथ नशिया के दर्शन करने गये। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि लोग गुरुओं के साथ तीर्थक्षेत्रों की वंदना करके कुछ विशेष ही हर्ष का अनुभव करते हैं। यहाँ दोनों विधान एक साथ चल रहे थे। कई बार इस जंबूद्वीप स्थल पर तेरहपंथ और बीसपंथ के दो-दो विधान हो चुके हैं। इस प्रकार का परस्पर सौहार्द और समन्वय भला और कहाँ देखने को मिलेगा?……. बहुत ही शांति से विधान की पूजाएँ हो रही थीं। मध्य-मध्य में कहीं दिल्ली आदि से बसों के आ जाने से विधान में आनंद और उपदेश का आनन्द विशेष ही आ जाता था। यह विधान श्रावण कृ. २, ३० जुलाई को पूर्णाहुति पूर्वक संपन्न हुआ, रथयात्रा हुई, अनन्तर ३१ जुलाई को प्रातः १०८ कलशों से महाभिषेक हुआ।
आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण
आचार्यश्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ के विद्यार्थी कमलेश कुमार जैन, मैनपुरी शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण कर यहाँ से निकट शाहपुर ग्राम में विद्यार्थियों को अध्यापन कराने चले गये थे। वे समय-समय पर यहाँ आते रहते थे। आषाढ़ शु. ११, २५ जुलाई १९८८ के दिन प्रातः मुझसे इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया, प्रसन्नता हुई। मैंने कहा-मेरी प्रेरणा से गुरुदेव के नाम पर स्थापित इस संस्कृत विद्यापीठ के विद्यार्थी ने आज आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अपने मनुष्य जीवन को सार्थक किया है। आगे चलकर ये हमारे गुरुदेव का नाम दिग्दिगंत व्यापी बनावें, यही इनके लिए मेरा मंगल आशीर्वाद है।
‘असली दहेज’ नाटक
यहाँ ग्रीष्मावकाश में अध्ययन हेतु आई हुई बालिकाओं ने एक छोटा-सा एकांकी तैयार किया। ब्र. माधुरी ने यह नाटक लिखा था। आषाढ़ शु. १४, २८ जुलाई १९८८ के दिन मध्यान्ह मेंं बालिकाओं ने यह नाटक खेला। इसका विषय यह था कि-मेरी जन्मदात्री माँ मोहिनी जी को उनके पिता सुखपालदास जी ने दहेज में ‘पद्मनन्दिपंचविंशतिका’ नाम का एक शास्त्र दिया था। उसका स्वाध्याय करके माँ मोहिनी जी ने अपने गार्हस्थ्य जीवन को धर्ममय बनाकर, अंत में ५८ वर्ष की उम्र में आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिका रत्नमती जी बन गई थीं। १५जनवरी १९८५ में उनका यहीं जंबूद्वीप स्थल पर समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो चुका है। उन्होंने अपनी संतानों को दूध के साथ-साथ ही जो धर्म घूँटी पिलाई थी, उसी के फलस्वरूप मैं आर्यिका ज्ञानमती, आर्यिका अभयमती और वर्तमान में नव-दीक्षित आर्यिका चंदनामती, ये तीन पुत्रियाँ उन्हीं की देन हैं।
चातुर्मास स्थापना हेतु प्रार्थना
आज ही दिल्ली आदि अनेक स्थानों से आये श्रावक-श्राविकाओं ने यह नाटक देखा और पात्रों के साथ-साथ विषय को देखते हुए रोमांचित हो गये। वास्तव में आज दहेज की कुप्रथा से जैन समाज में कितनी अशांति फैल रही है? कहने की आवश्यकता नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। यदि आज भी प्रबुद्ध माता-पिता अपनी संतानों के विवाह के समय धर्मशास्त्र छपाकर वितरित करें और अपनी पुत्री को विशेषरूप में धर्मशास्त्र के स्वाध्याय की प्रेरणा देकर धर्मग्रंथ देवें, तो समाज में फैली हुई अनेक कुरीतियाँ दूर की जा सकती हैं। इसी अवसर पर श्रावकों ने मेरे समक्ष श्रीफल चढ़ाकर यहीं हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर चातुर्मास करने के लिए प्रार्थना की। जैन साधु-साध्वियाँ चातुर्मास तो करते ही हैं। भक्तों की भावना के अनुसार अनेक शहरों में, गांवों में चातुर्मास करते हैं। अपनी धर्माराधना विशेष के लिए या स्वास्थ्य कमजोर होने के कारण तीर्थ क्षेत्रों पर भी चातुर्मास करते हैं। क्षेत्रों पर भी श्रावकों को ही व्यवस्था करनी होती है अतः श्रावकों की प्रार्थना स्वीकार कर मैंने यहीं जंबूद्वीप स्थल पर चातुर्मास करने का निर्णय घोषित कर दिया पुनः रात्रि में ९ बजे विधिवत् भक्ति पाठ करके वर्षायोग स्थापित कर लिया।
धार्मिक नाटक
आज जैन समाज में सर्वत्र धर्म-कथाओं के आधार पर अनेक नाटक दिखाये जाते हैं। आज से ३०-४० वर्ष पूर्व समाज में यह प्रथा थी कि या तो नाटक में पुरुष पात्र ही रहते थे, वे ही स्त्री पात्र का अभिनय करते थे या महिलाएँ ही पूरा नाटक खेलती थीं, वे ही पुरुष पात्र बन जाती थीं। आज भी महावीर जी के आश्रम, दिल्ली के बालाश्रम आदि की बालिकाएँ ऐसा ही नाटक करती हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से कहीं-कहीं कुछ विसंगतियाँ आ गई हैं और चलचित्र (सिनेमा, टेलीविजन) को देखकर कुछ प्रबुद्ध महिलाएँ भी अपनी संस्कृति से चलायमान होती जा रही हैं। मैंने १० वर्ष पूर्व सुना-‘‘एक महिला ने अपने ही पुत्र-पुत्रियों को अर्थात् सगे भाई-बहनों को पति-पत्नी का पाठ दे दिया।’’ मैंने बुलाकर उन्हें समझाया, वे बोलीं-‘‘माताजी! ये बालक-बालिकाएँ अभी क्या समझते हैं, अबोध हैं अतः क्या दोष है….?’’ मैंने कहा-‘‘बाई! जब ये बड़े होंगे, इस नाटक को याद करेंगे तो अपने पति-पत्नी के रूप में फोटो देखेंगे, तो भला क्या सोचेंगे?…..खैर! वे १०-११ वर्ष के लगभग थे ही अतः बहुत छोटे तो नहीं थे। खैर, वे मेरी बात मान गर्इं और पति-पत्नी का पाठ दो कन्याओं को ही दे दिया। तब मुझे प्रसन्नता हुई। यहाँ जंबूद्वीप पर मेरे सानिध्य में होने वाले विद्वानों के प्रशिक्षण शिविर एवं सेमिनारों में मैं सदैव कहा करती हूँ- नाटक में कौन-कौन से स्वाँग वर्जित हैं-
सूत्तत्थपयविणठ्टो मिच्छाइट्ठी हु सो मुणेयव्वो।
खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स।।७।।
(सूत्र पाहुड़-श्री कुन्दकुन्ददेव)
अर्थ-जो मनुष्य सूत्र के अर्थ और पद से रहित हैं, उसे मिथ्यादृष्टि मानना चाहिए। वस्त्रसहित को क्रीड़ा में-खेल में भी पाणिपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि खेल-खेल में दिगम्बर मुनि का वेष एवं चर्या नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार क्रीड़ा में या नाटक में दिगम्बर मुनि की दीक्षा नहीं दिखाना चाहिए। आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक और क्षुल्लिका भी नहीं बनाना चाहिए। तीर्थंकर का पाठ कराने में दीक्षा के पूर्व के पाठ कराना चाहिए। बाद में स्टेचू या चित्र को रखकर पर्दे के पीछे से पाठ बोलना चाहिए। दीक्षा लेने का भेष किसी भी हालत में नहीं ग्रहण करना चाहिए। यह मयूर पंख की पिच्छी सहित मुद्रा पूज्य है, इसे स्वांग-नाटक में भी कभी नहीं करना चाहिए। इसके विषय में ब्रह्मगुलाल की कथा प्रसिद्ध है, वे स्वांग में मुनि बने, फिर वापस घर नहीं गये, मुनि बन गए। नाटक में भी बालिकाओं और बालकों को एक साथ नहीं रखना चाहिए। पति-पत्नी का पाठ तो कभी भी किसी को नहीं देना चाहिए। भारतीय नारी स्वप्न में भी यदि किसी को पति कहती है, मान लेती है या मन में भी सोच लेती है, तो उसके शील में दूषण माना जाता है। आजकल कोई प्रबुद्ध लोग भी भाई-बहनों को पति-पत्नी का पाठ दे देते हैं। कहते हैं-ये अभी अबोध हैं, क्या समझेंगे? ऐसी स्थिति देखकर बहुत ही दुख होता है। क्या कोई भी प्रबुद्ध पुरुष अपनी माँ या पुत्री को हंसी-मजाक में भी पत्नी कहकर सम्बोधित कर सकता है? और यदि ऐसा करता है तो क्या लोग उसे सभ्य या शालीन पुरुष कहेंगे? ऐसे ही पर की स्त्री को नाटक में पत्नी मानना या परपुरुष को नाटक में पति मानना सर्वथा गलत है। ऐसे पाठ या तो कोई पति-पत्नी ही निष्णात हों, तो लेवें या पुरुष-पुरुष ही पति-पत्नी का पाठ करें या बालिकाएँ -बालिकाएँ ही पति-पत्नी बनें, जैसी कि पुरानी पद्धति थी। आज जो फिल्मों में परम्परा है, वैसी ही परम्परा नाटकों में अपनाई जा रही है, यह भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। पंचकल्याणकों में जो भगवान के माता-पिता बनते हैं। प्रायः देखने में आता है कि पिता तो बुद्धिमान रहते हैं और माता संकोची महिला रहती है, तब कोई-कोई प्रतिष्ठाचार्य माता का पाठ बोलने के लिए कोई बालिका या महिला को बिठा देते हैं। विचार करके देखा जाये, तो वह महिला जब अन्य पुरुष को पतिदेव! या स्वामिन्! कहकर सम्बोधन करती है, तब कितना अटपटा और अशोभन लगता है। प्रतिष्ठाचार्यों को भगवान के माता-पिता में तो यह अनर्गलता या विषमता नहीं करनी चाहिए। ऐसे प्रसंग पर तो किन्हीं पति-पत्नी को ही बुलाना चाहिए। धार्मिक मंच पर और धार्मिक नाटकों में महिलाओं और बालिकाओं को शीलधर्म की शिक्षा देने के लिए इन उपर्युक्त बातों पर ध्यान रखना चाहिए।
चातुर्मास में कार्यक्रम
यहाँ छोटे-मोटे शांतिविधान आदि प्रायः होते ही रहते हैं। विशेष बात यह रही कि श्रावण कृ. ७, ४ अगस्त १९८८ को कु.माधुरी ने भगवान महावीर स्वामी के चरणों में १०८ कमल पुष्प चढ़ाये। मुझे बहुत ही आनन्द आया, मैं बैठी-बैठी मंत्र बोलती रही। वास्तव में पुण्यवानों को ही कमल के पुष्पों से श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा का अवसर मिलता है। २१ अगस्त, रविवार को संस्थान की ओर से दिल्ली से लगभग ५२ बालक, बालिकाएँ आये। उन्हें प्रातः से सायंकाल तक शिक्षण दिया गया, मेरा आशीर्वादात्मक प्रवचन हुआ। बालकों के लिए ये संस्कार जीवन में बहुत ही उपयोगी हैं।
कल्पद्रुम विधान
बड़ौत में दशलक्षण पर्व में दिगम्बर जैन समाज ने बहुत अच्छे रूप में कल्पद्रुम विधान का आयोजन किया था। वे ब्र. रवीन्द्रकुमार और ब्र. माधुरी के लिए पहले ही स्वीकृति ले गये थे अतः इन दोनों को यहाँ से ले गये थे। कु. माधुरी २१ अगस्त को यहांँ स्नान घर में गिर पड़ी थीं, सो उन्हें रीढ़ की हड्डी में चोट आ जाने से दर्द अधिक होने से वह पर्यूषण पर्व प्रारंभ होने के दो दिन बाद गई थीं। वहाँ का विधान बहुत ही प्रभावनापूर्ण रहा।
जंबूद्वीप स्थल पर दशलक्षणपर्व
यहाँ दशलक्षण पर्व में बाहर से कई एक श्रावक-श्राविकाएँ आ जाते हैं। अहमदाबाद से चंदूभाई जैन, दिनेशभाई जैन, इनकी मातु श्री मंगूबेन, ब्र. चन्दनबेन आदि यहाँ पर थे और एक महिला ने शक्कर-मेवा का पानी लेकर दस दिन व्रत किये। संस्थान के आवास प्रबंधक सत्यप्रकाश जैन ने पाँच उपवास किये। प्रतिदिन प्रातः पर्व पूजन और समयसार का स्वाध्याय चलता था। मध्यान्ह में सरस्वती की पूजा व तत्त्वार्थसूत्र की पूजा होती थी पुनः क्षुल्लक मोतीसागर जी द्वारा एक-एक अध्याय का अर्थ सहित वाचन होता था, अनन्तर एक-एक धर्म पर मेरा प्रवचन होता था। व्रत करने वालों को श्रीफल देकर फूल माला पहनाकर सम्मानित किया गया। वास्तव में व्रत करने वालों को सम्मानित करने में, व्रत करने की प्रेरणा अन्य लोगोेंं में भी जागृत हो, यही भावना रहती है और व्रत करने वालों का भी उत्साह वर्धित होता है।
हापुड़ में इन्द्रध्वज विधान
आश्विन कृ. ५ को हापुड़ में इन्द्रध्वज विधान के लिए झंडारोहण सम्पन्न हुआ। श्री शिखरचंद जैन बहुत ही आग्रहपूर्वक कु. माधुरी को विधान में ले गये। मैंने यह अनुभव किया है कि जो भी एक बार कु. माधुरी के मुख से इन्द्रध्वज आदि विधान की पूजाएँ सुन लेते हैं, वे अपने विधान में उसे अवश्य ले जाना चाहते हैं। कैसे भी संगीतकार हों किन्तु माधुरी के स्वर के आगे उन्हें सब कुछ फीका लगता है…….यह इनके पूर्व पुण्य के साथ ही जिनेन्द्र भक्ति का ही प्रभाव समझ में आता है।
कल्पद्रुम विधान
आसोज शुक्ला ५, १६ अक्टूबर १९८८ के दिन कल्पद्रुम-विधान के लिए यहाँ जंबूद्वीप के सामने झंडारोहण हुआ। श्रीमान मांगीलाल जी पहाड़े, हैदराबाद सपरिवार आकर यह विधान करा रहे थे। इन्होंने यहाँ खुले मन से और खुले हाथों से जिनपूजा करते हुए चार प्रकार के दान वितरित किये। बात यह है कि इस विधान के समय जब विधानाचार्य बार-बार प्रमुख यजमान को चक्रवर्ती महोदय कहकर पुकारते हैं, तब श्रावक को बहुत ही आनन्द आता है, एक क्षण के लिए वह अपने को चक्रवर्ती ही समझने लगता है, जैसे कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय श्रावक सौधर्म इन्द्र की बोली लेकर अपने को सौधर्म इन्द्र ही समझने लगता है। मेरे उपदेशों को संकलित करके कु. माधुरी ने ‘ज्ञानरश्मि’ नाम से एक छोटी सी पुस्तक तैयार की थी। जिसे प्रकाशित कर जैन-अजैन सभी को ज्ञान दान के रूप में बाँटी गई। आर्ष ग्रंथों में पूजा चार प्रकार की मानी गई है-सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुम और आष्टाह्निक। प्रतिदिन अपने घर से जल, चन्दन आदि अष्टद्रव्य लेकर मंदिर में जाकर जिनपूजा करना सदार्चन या नित्यमह है अथवा जिनमंदिर, जिनप्रतिमा का निर्माण कराना, दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान देना, इसके सिवाय नित्य दान देते हुए जो मुनियों की पूजा की जाती है, वह भी सदार्चन है। महामुकुटबद्ध राजाओं द्वारा जो जिन-महायज्ञ किया जाता है, वह चतुर्मुख पूजा है। इसे ‘सर्वतोभद्र’ पूजा भी कहते हैं। जो चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक (मुंहमांगा) दान देते हुए समस्त जगत की आशाएँ पूर्ण करके जिनयज्ञ किया जाता है, उसे ‘कल्पद्रुम’ पूजा कहते हैं। जो कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह में अंतिम आठ दिनों में नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की पूजा की जाती है, वह ‘आष्टान्हिक’ पूजा है। इसके सिवाय एक ‘इन्द्रध्वज’ महायज्ञ भी है, जो इन्द्रों द्वारा किया जाता है।
शरद पूर्णिमा
आसोज शुक्ला १५, शरद पूर्णिमा, २५ अक्टूबर को मेरा ५४ वाँ जन्म दिवस था। इस उपलक्ष्य में मांगीलाल जी पहाड़े, उनके भाई बाबूलाल जी पहाड़े, इन दोनों की पुत्र-वधुओं ने मिलकर एक छोटा सा एकांकी नाटक प्रस्तुत किया, जिसमें वीर कुमार जैन टिकैतनगर वाले नवयुवक ने अच्छी भूमिका अदा की। बात यह है कि मेरा सन् १९६४ में हैदराबाद में चातुर्मास हुआ था, तभी से यह पहाड़े परिवार मेरा अनन्य भक्त रहा है अतः वे गुरु-भक्ति में ही यह सब कौतुक किया करते हैं। इसी अवसर पर बाबूलाल पहाड़े की पुत्रवधु सौ. आशा ने एक लाख, दस हजार की दानराशि घोषित की, यह खासकर ज्ञानदान हेतु-ग्रंथ प्रकाशन हेतु बोली गई थी। इसी में से प्राप्त द्रव्य से समयसार के पूर्वार्ध का अभी प्रकाशन हो चुका है जो कि डेढ़ माह में ही जैन समाज के हाथ में पहुँचने वाला है। इस विधान के मध्य श्रवणबेलगोल के भट्टारक श्री चारूकीर्ति जी पधारे थे। उन्होंने श्रवणबेलगोल में यह विधान कराने का निर्णय लिया और १६ नवम्बर १९८८ घोषित कर दिया। यहीं से संगीतकार व मण्डल के उपकरण धर्मचक्र, मानस्तंभ आदि ले जाने का निर्णय लिया। वहाँ पर उनके द्वारा कराया गया यह कल्पद्रुम-विधान भी दक्षिण भारत में एक प्रमुख आकर्षण बना था। अनेक बसों से आगत यात्रियों ने मुक्तकंठ से उस विधान की प्रशंसा की थी। तब तक के प्राप्त समाचार के अनुसार यह श्रवणबेलगोल में होने वाला विधान ८वाँ था। जैसे कि- १. २४ फरवरी १९८८ का जम्बूद्वीप स्थल पर २. २४ फरवरी १९८८ का तेजपुर, आसाम में ३. भिंडर में आचार्य अजितसागर जी के सानिध्य में ४. झुमरीतलैया-बिहार में ५. बड़ौत, उत्तर प्रदेश में ६. गौतमपुरी दिल्ली में, ७. जंबूद्वीप-हस्तिनापुर में ८. श्रवणबेलगोल में। प्राप्त समाचारों के अनुसार यह जानकारी थी। अन्यत्र भी श्रावक इस महान् कल्पद्रुम विधान को करा रहे होंगे, जिनके द्वारा कभी-कभी यहाँ समाचार नहीं भी आ पाते हैं। मैंने यह अनुभव किया है कि आज श्रावक अनेक समस्याओं को सुलझाने के लिए जब गुरुओं के पास, यहाँ मेरे पास यंत्र-मंत्र लेने आते हैं, तब जाप्य करने में प्रायः असमर्थता व्यक्त कर देते हैं, ऐसे लोगों के लिए यह विधान के आयोजन अमोघ उपाय सिद्ध होते हैं। १०-१२ दिन सहज ही भक्ति रस से ओत-प्रोत होकर इन विधानों को सम्पन्न करते हैं और तब नियम से वे वांछित कार्य की सिद्धि कर लेते हैं। स्वयं लोग आकर कहते हैं- ‘‘माताजी! मैंने जितना सोचा था, उससे अधिक यह विधान फलीभूत हुआ है…..।’’ सचमुच में जो जिनेन्द्र-भक्ति परम्परा से मोक्ष को देने में समर्थ है, उससे लौकिक कार्यों की सिद्धि हो जावे, इसमें भला आश्चर्य ही क्या है?……
वर्षायोग निष्ठापना
कार्तिक वदी १४, ८ नवम्बर १९८८ की पिछली रात्रि में हम सभी साधुओं ने वर्षायोग निष्ठापन की क्रिया करके चातुर्मास समापन कर दिया पुनः कार्तिक कृ. अमावस्या के दिन प्रत्यूष बेला में, ९ नवम्बर के प्रभात के पूर्व ही श्रावकों ने यहाँ मंदिर जी में भगवान महावीर की पूजा करके ‘निर्वाणलाडू’ चढ़ाया। इस दिन दक्षिण की बस आई हुई थी अतः उपदेश आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुए।
दीपावली पूजन
पुनः सायंकाल में मेरे द्वारा रचित श्री गौतमस्वामी की पूजा और केवलज्ञान महालक्ष्मी की पूजा संघस्थ ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी आदि ने सम्पन्न की। यहाँ कार्यालय में भी रवीन्द्र कुमार ने पूजा करके नये रजिस्टरों में ‘स्वस्तिक’ ‘श्री’ आदि लिखे। सायंकाल में श्रावकों ने दीपकों को जलाकर जंबूद्वीप व सुमेरु आदि स्थलों को जगमगा दिया। अगले दिन से अर्थात् कार्तिक शु. एकम् से वर्ष का नया दिन प्रारंभ हो जाता है। वास्तव में जैन सम्वत् तो महावीर निर्वाण सम्वत् ही है। इस पर मैंने एक लेख भी लिखा था-
नूतन-वर्ष अभिनंदन
आज भारत देश में वीरनिर्वाण संवत्, विक्रम संवत्, शालिवाहन शक और ईसवी सन् प्रचलित हैं। इनके प्रथम दिवस को वर्ष का प्रथम दिन मानकर नववर्ष की मंगल कामनाएँ की जाती हैं। जैन धर्मानुयायी महानुभावों को किस संवत् का कौन सा दिवस नववर्ष का मंगल दिवस मानना चाहिए? इस विषय पर विचार करना चाहिए। आज ईसवी सन् अत्यधिक प्रचलित है। प्रायः कलेंडर, तिथि-दर्पण और डायरियां भी इसी सन् से छपने लगी हैं। वास्तव में अंग्रेजों ने अपने भारत पर शासन करके अपना ऐसा प्रभाव छोड़ा है कि उसे मिटाना असंभव है। खैर! कोई बात नहीं, १ जनवरी से ईसवी सन् प्रारंभ होता है। अभी सन् १९८८ चल रहा है। इसे भी मान लीजिए, मना लीजिए, कोई बाधा नहीं है। कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा गुजरात में विक्रम संवत् को अधिक महत्व दिया जाता है। मैंने श्रवणबेलगोल में देखा, जो लोग वहीं रहकर भी ऊपर जाकर भगवान का दर्शन नहीं करते थे, वे भी जैन बंधु चैत्रवदी अमावस्या (दक्षिण व गुजरात के अनुसार फाल्गुन कृ. अमावस्या) की रात्रि में ऊपर पहाड़ पर जाकर सोते हैं और प्रातः उठते ही भगवान बाहुबली का दर्शन कर नूतन-वर्ष की मंगल-कामना करते हुए नीचे उतरते हैं। चैत्र शुक्ला एकम् से विक्रम संवत् का नया वर्ष शुरू होता है। आज पंचांग इसी संवत् से चल रहे हैं। अभी १५-१६ वर्षों से वीरनिर्वाण महोत्सव की चर्चा जैन क्या, जैनेतरों में भी सारे देश में फैल चुकी है। पच्चिससौवां निर्वाण महोत्सव भी एक वर्ष तक जैनों के चारों सम्प्रदायों के महारथियों ने आगे होकर मनाया, जिससे जैन के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार खूब ही हुआ है। अब तिथि-दर्पण भी ‘‘वीरनिर्वाणसंवत्’’ से निकाले जाने लगे। वैसे पं. नाथूलाल शास्त्री द्वारा संपादित ‘‘जैनतिथि दर्पण’’ बहुत पुराना प्रतीत होता है। यह कब से चालू हुआ है, मुझे मालूम नहीं है, फिर भी यह प्रामाणिक माना जाता है। आज जैन समाज में ही नहीं, जैनेतर समाज में भी वीरनिर्वाण दिवस (दीपावली के दिन) रात्रि में गणेश पूजा और लक्ष्मी पूजा करके दुकान पर नूतन वसना और नूतन बही आदि बदलने की प्रथा है। इस दिन अनेक प्रबुद्ध जैन अपनी-अपनी दुकान पर यंत्र अथवा जिनवाणी रखकर भगवान महावीर की पूजा, सरस्वती की पूजा आदि करके मंगलाष्टक पढ़कर, नूतन बहियों और वसनों पर स्वस्तिक, श्री आदि बनाकर ‘‘श्री महावीराय नमः’’ आदि मंत्र लिखकर, बही बदलने का मुहूर्त करके संवत् लिख देते हैं। इस दिन लक्ष्मी-गणेश की पूजा के बारे में सही स्थिति का बोध कराने के लिए मैंने श्री गौतम गणधर की पूजा और केवलज्ञान महालक्ष्मी की पूजा, ऐसी दो पूजाएँ बनाई हैं क्योंकि कार्तिक कृ. अमावस्या को प्रातः प्रत्यूष बेला में भगवान महावीर स्वामी ने पावापुरी से निर्वाण प्राप्त किया था, उसी के उपलक्ष्य में स्वर्ग से इन्द्रों ने असंख्य देव-देवियों ने आकर यहाँ पावापुरी में भगवान का निर्वाणोत्सव मनाया था और पावापुरी में दीपों को जलाकर उत्सव किया था। उसी समय से आज तक प्रतिवर्ष अपने भारत देश में सायंकाल में सर्वत्र दीपक जलाकर ‘‘दीपमालिका’’ या दीपावली दिवस मनाया जाता है। जैसा कि हरिवंशपुराण में कहा भी है-
भगवान महावीर भी निरन्तर सब ओर के भव्य समूह को सम्बोध कर पावानगरी पहुँचे और वहाँ के ‘‘मनोहरोद्यान’’ नामक वन में विराजमान हो गये।।१५।। भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् उन्हीं की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे।।२१।। यह हुई दीपावली की बात, पुनः जो उसी दिन रात्रि में नूतन बही पूजन के लक्ष्मी और गणेश की पूजा की प्रथा है, उसमें भी रहस्य है। उसी दिन भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद सायंकाल में श्री गौतम गणधर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, तत्क्षण ही इन्द्रों ने आकर उनकी गंधकुटी की रचना करके उनके केवलज्ञान की पूजा की थी। ‘गणानां ईशः गणेशः, गणधरः’ ये पर्यायवाची नाम श्री गौतमस्वामी के ही हैं। सब लोग इस बात को न समझकर गणेश और लक्ष्मी की पूजा करने लगे। वास्तव में गणधर देव की, केवलज्ञान महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। खास कर जैनों में यही कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा का नूतन वर्ष मानना चाहिए। इसी दिन से तिथि दर्पण व कलेंडर छपाना चाहिए।
युगादि
वैसे मेरी दृष्टि से ‘‘युगादि दिवस’’ भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसकी तरफ प्रायः जैन धर्मानुयायियों का लक्ष्य नहीं है। यह मंगलमय दिवस है। ‘‘श्रावण कृष्णा प्रतिपदा’’ यह प्रत्येक युग का आदि दिवस है इसलिए इसे ‘‘युगादि’’ कहा है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह-छह काल माने हैं। अवसर्पिणी के सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा। ये ही उत्सर्पिणी में उल्टे क्रम से चलते हैं जैसे अतिदुःषमा आदि। इन सब कालों की समाप्ति आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को होती है और प्रारंभ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है। इस मंगल दिवस को ही भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी अतः आज इसे ‘‘वीरशासन जयंती’’ दिवस के नाम से मनाने की प्रथा है। इस विषय में आप प्रमाण देखिये-
‘‘एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि।
तेत्तीसवासअडमासपण्णरसदिवससेसम्मि ।।६८।।
वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजीणक्खत्तम्मिं य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स।।६९।।
सावणबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो।
अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं।।७०।।
यहाँ अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अंतिम भाग में तेतीस वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्ष के श्रावण नामक प्रथम महीने में, कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।।६८-६९।। श्रावण कृष्णा एकम् के दिन रुद्र मुहूर्त के रहते हुए सूर्य का शुभ उदय होने पर अभिजित्, नक्षत्र के प्रथम योग में इस युग का प्रारंभ हुआ, यह स्पष्ट है१।।७०।। धवला प्रथम पुस्तक में लिखा है- इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दुःषमा-सुषमा नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के दिन प्रातः काल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ अर्थात् भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरने से धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।। ५५,५६।।
सावण-बहुण-पडिवदे रुद्द-मुहुत्ते सुहोदए रविणो।
अभिजिस्स पढम-जोए एत्थ जुगाई मुणेयव्वो।।५७।।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन, रुद्र मुहूर्त में, सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई, तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए१।।५७।। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि ‘‘श्रावण कृष्णा प्रतिपदा’’ युग की आदि है। भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद पाँचवां काल प्रवेश होने में तीन वर्ष, आठ माह, पन्द्रह दिन बाकी रहे थे। तीन वर्ष, कार्तिक शुक्ला के पन्द्रह दिन और मगसिर से आषाढ़ तक आठ माह गिनने चाहिए। कर्नाटक में लोग चैत्र शु. १ को ही ‘‘युगादि अब्बा’’ कहते हैं किन्तु वह तो विक्रमादित्य राजा से चला है अतः वह ‘‘युगादि अब्बा’’ न होकर श्रावण कृष्णा एकम् ही युगादि पर्व है। दक्षिण में पर्व को ‘‘अब्बा’’ कहते हैं। इसे यहाँ लिखने का मेरा अभिप्राय यही है कि आप जैन लोग वीरनिर्वाण संवत् से ही ‘‘नूतन वर्ष’’ मनावें तथा श्रावण कृष्णा एकम् को ‘‘वीरशासन जयन्ती’’ और युगादि दिवस-पर्व अवश्य मनावें। यदि जैन ही अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं करेगा, तो भला और कौन करेंगे? इसलिए वीर निर्वाण के दिन रात्रि में जैन विधि से बही और वसना आदि बदलकर कार्तिक शुक्ला एकम् से ‘‘नूतन वर्ष’’ मानना चाहिए।
सर्वतोभद्र विधान
कार्तिक शुक्ला ७, १६ नवम्बर १९८८ से आष्टान्हिक पर्व शुरू हो गया। प्रातः ८.४५ बजे सर्वतोभद्र विधान का झंडारोहण कराया गया। वीरेन्द्र कुमार जैन टिकैतनगर से सपरिवार व अनेक श्रावकों सहित आये तथा विजेन्द्र कुमार जैन दिल्ली, सपरिवार आये। इन दोनों के लिए यहाँ त्रिमूर्ति मंदिर में तीन लोक आकार के दो मंडल बनाये गये चूंकि वीरेन्द्र कुमार बीसपंथी आम्नायी हैं एवं विजेन्द्रकुमार तेरहपंथी हैं। विधान का अनुष्ठान प्रारंभ हो गया। वीरेन्द्र कुमार कु. माधुरी के चाचा के सुपुत्र हैं। ब्र. माधुरी भी विधान में बैठीं।
विधान का विषय
सन् १९७६ में मैंने खतौली के लिए जब विहार किया था, तब ‘तीन लोक मंडल’ विधान बनाने की भावना से तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रंथ साथ में ले गई थी किन्तु वहाँ मोतीचंद, रवीन्द्रकुमार के निवेदन से मैंने ‘इन्द्रध्वज’ विधान की रचना की थी वे ग्रंथ उस विधान रचना में भी काम आये थे। उसके बाद ‘तीस चौबीसी’ आदि कई विधान बड़े-छोटे रचे गये। सन् १९८५-८६ की अस्वस्थता के बाद भी मैंने जंबूद्वीप विधान व कल्प्रदुम विधान बनाये। इसके बाद वृहद् तीन लोक विधान बनाना प्रारंभ किया। इस विधान में तीन लोक के समस्त पूज्य तीर्थंकर महापुरुष, उनकी कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमाएँ, उनके पंचकल्याणक स्थान आदि आ गये, यह ‘सर्वतोमुखी’ है अथवा सर्वतः-सब तरफ से भद्र-कल्याण करने वाला है, इसलिए इसका ‘सर्वतोभद्र’ यह नाम दिया है। इस विधान में चार प्रकार के देवों के गृहों के सर्व अकृत्रिम जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं की पूजा है। मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिरों व जिनप्रतिमाओं की पूजा है तथा विदेह के २० तीर्थंकर व ५ भरत, ५ ऐरावत के भूत, भावी, वर्तमान ऐसी तीस चौबीसी की पूजाएँ हैं। एक सौ सत्तर (१७०) कर्मभूमि में होने वाले अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालयों की पूजाएँ हैं। मेरी समझ से इसमें पूज्य की पूजा संबंधी कुछ भी नहीं छूटा है। अति संक्षेप में ही क्यों न हो, सब कुछ आ गया है। इसमें एक सौ एक पूजाएँ हैं जो कि एक से एक रोचक हैं। कु. माधुरी ने सर्व पूजाएंँ पढ़ते हुए विधान स्वयं भी किया और कराया। आज भी वे कहा करती हैं, कि-‘‘माताजी! जितना आनन्द भगवान की इस पूजा में, भक्तिरस में आया है, उतना आनन्द मुझे जीवन में कभी नहीं आया।’’ इस विधान में १०८ स्वस्तिक चढ़ाने के लिए लिखा है। ब्र. माधुरी ने धातु की सुन्दर स्वस्तिक मुरादाबाद से बनवाई थीं, बड़े आनन्द और उत्साह से माधुरी ने मंडल के ऊपर प्रत्येक पूजा की जयमाला में स्वस्तिक चढ़ाई थीं। दूसरे मंडल पर विजेन्द्र कुमार ने भी चढ़ाई थीं। उस समय यह मंडल बहुत ही सुन्दर दिख रहे थे, मानों ये स्वस्तिक जगत् का स्वस्ति-कल्याण-भद्र करने की सूचना ही दे रही थीं। हापुड़ के श्री शिखरचंद व उनकी धर्मपत्नी शकुन्तला भी विधान में बैठे थे। शकुन्तला जी ने आष्टान्हिका के आठ उपवास मीठा शरबत लेकर किये थे। फिर भी पूजा के मध्य भक्तिरस में विभोर वे स्वयं चंवर लेकर नृत्य करती रहती थीं। अन्य सभी भक्तगण स्त्री-पुरुष भक्ति में तन्मय हो नृत्य करते रहते थे। यह विधान अगहन कृ. ४, रविवार को पूर्णाहुति के साथ सम्पन्न हुआ था। इसके मध्य ही कार्तिक मेला के निमित्त से कार्तिक शु. १४, २२ नवम्बर को वार्षिक रथ-यात्रा निकाली गई थी।
आचार्य सुमतिसागर जी का आगमन
रविवार, २० नवम्बर, कार्तिक शु. १२ को आचार्य सुमतिसागर जी महाराज हस्तिनापुर पधारे, बड़े मंदिर जी में ठहरे। यहाँ भी दर्शनार्थ आये, त्रिमूर्ति मंदिर में ‘एक विधान तेरहपंथ से हो रहा था एवं एक बीसपंथ से’ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उपदेश में बोले- ‘‘मैंने जंबूद्वीप के बारे मे जो भी अफवाहें सुनी थीं, वैसा कुछ भी देखने में नहीं आया, वे सब गलत निकलीं, यहाँ तो बहुत ही अच्छा लगता है…..इत्यादि।’ चतुर्दशी के दिन रथयात्रा के समय भी वे ससंघ यहाँ जंबूद्वीप स्थल से निकलने वाली रथयात्रा के साथ चले थे। यहाँ ब्र. माधुरी तथा ब्र. श्यामाबाई के चौके में उधर से उस संघ के ४-५ साधु-साध्वी प्रतिदिन यहाँ आहारार्थ आ जाते थे, आचार्य महाराज के भी कई आहार और उपदेश इधर हुए हैं। एक दिन आचार्य सुमतिसागर जी, उनके संघ की गणिनी आर्यिका ज्ञानमती, मैं (गणिनी आर्यिका ज्ञानमती) और क्षुल्लक मोतीसागर आदि यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर एकांत में बैठे और आपस में जैनधर्म के अंतर्गत पंथभेद की खूब चर्चा हुई। निष्कर्ष यह निकला कि-ये सज्जाति के पक्षधर हैं, अंतर्जातीय, विजातीय और विधवा विवाह के विरोधी हैं, ऐसे लोगों के यहाँ आहार ग्रहण करते नहीं हैं। कानजीपंथ के विरोधी हैं किन्तु तेरहपंथ के अत्यधिक आग्रही हैं। फिर भी यहाँ उन्होंने बीसपंथ की जरा भी आलोचना नहीं की। पौष वदी ३, २६ दिसम्बर को ये संघ सहित यहीं आकर सामायिक के लिए बैठे पुनः अभिषेक देखकर मंदिरों के दर्शन करके यहीं से विहार कर दिया। कुल मिलाकर इनका व्यवहार यहाँ सौहार्दपूर्ण ही रहा।
आर्यिका अभयमती का आगमन
मगशिर वदी ५, १३ दिसम्बर को आर्यिका अभयमती जी, क्षुल्लिका शांतिमती जी के साथ यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर आ गर्इं। इन्होंने यह सन् १९८८ का चातुर्मास ‘बड़ेगांव’ किया था, वहाँ से ही आर्इं हैं। मगशिर शुक्ला ७, को इनका ४७वाँ जन्मदिवस था। ब्र. कु. माधुरी ने दूध से अभयमती माताजी के चरण प्रक्षालन किये पुनः इनकी पूजा की, सायंकाल में ४७ दीपकों से इनकी आरती उतारी। सन् १९६४ में इन्होंने मुझसे क्षुल्लिका दीक्षा ली थी पुनः सन् १९६९ में आचार्य श्रीधर्मसागर जी से आर्यिका दीक्षा ली थी। तब से लेकर आज तक ये अपनी चर्या को पालते हुए अहर्निश ज्ञानाराधना में लगी रहती हैं। इनका स्वास्थ्य बहुत ही कमजोर चलता है।
समयसार का स्वाध्याय और अनुवाद कार्य
यहाँ प्रतिदिन प्रातः समयसार का स्वाध्याय चलता था। कभी-कभी क्षु. गणेशप्रसाद जी वर्णी, प्रो. मोतीलाल जी, फल्टन आदि के अनुवादित समयसार का भी अवलोकन किया जाता था। प्रतिदिन मेरे द्वारा अनुवादित ताजी-ताजी दोनों टीकाएँ भी पढ़ी जाती थींं, मेरा अनुवाद कार्य भी अपनी गति से चल रहा था। प्रतिदिन प्रायः घंटे, दो घंटे तो अनुवादकार्य के लिए निकालती ही थी। मध्यान्ह में एक घंटा तो आगत यात्री आदिकों व दर्शनार्थियों के लिए रहता था। शेष समय अपनी आवश्यक क्रियाओं में व शरीर सेवा में चला जाता था। जो भी हो, समयसार के अनुवाद करने में मुझे जो आनन्द आता था, वह शब्दों से परे है। निश्चय-व्यवहार नयों को कहाँ-कहाँ घटित करना? आचार्यों के शब्दों में देखकर लिखते हुए परिणामों में बहुत ही निर्मलता आती थी और ऐसा भाव जाग्रत होता था-‘‘भगवन्! ऐसा दिन कब आवेगा कि जब मैं निश्चयनय का अवलंबन लेकर निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करूँगी।’’ मैं समझती हूँ, मेरी यह भावना इस भव में न सही, अगले भव में अवश्य ही पूरी होगी।
समयसार अनुवाद पूर्ण
३ जनवरी, पौष वदी ११ को रवीन्द्र कुमार ने मेरठ में हरीश जैन, सुमन प्रिंटर्स को समयसार पूर्वार्ध छापने को दे दिया था। आगे उत्तरार्ध का अनुवाद मैं कर रही थी।
कुन्दकुन्दमणिमाला
समयसार अनुवाद के मध्य रवीन्द्र कुमार ने अनेक बार निवेदन किया-‘‘माताजी! श्री कुन्दकुन्ददेव के सभी ग्रंथों का आपने स्वाध्याय किया है और कराया है उनके सभी ग्रंथों में से मक्खनस्वरूप कुछ ५०-६० गाथाएँ निकाल दीजिये, जिनका हम खूब प्रचार-प्रसार करेंगे…..।’’ समयसार ग्रंथ के अनुवाद के बाद मुझे जो अतिशय प्रिय थीं, ऐसी गाथाएँ संकलित करना शुरू किया। नातिविस्तार और नातिसंक्षेप मैंने मध्यम रूप में १०८ गाथाएँ निकाली पुनः इसका ‘कुन्दकुन्दमणि माला’ नामकरण दिया। इन गाथाओं का मूल अर्थ और भावार्थ भी किया, जिसे मैंने ‘महावीर जयन्ती’ के दिन १८ अप्रैल को पूर्ण किया है। यहाँ श्री ऋषभजयंती, श्री महावीर जयन्ती आदि के कार्यक्रम प्रभातफैरी, १०८ कलशों से भगवान का अभिषेक और सभा गोष्ठी पूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं। इस बार दोनों जयन्ती के अवसर पर यात्रियों की बसें होने से अभिषेक के लिए बोेलियाँ भी हुई थीं। इस मणिमाला को संघ के आने पर शिक्षण-प्रशिक्षण में रखने की इच्छा से रवीन्द्र कुमार ने इसे सम्यग्ज्ञान मई-जून १९८८ का विशेषांक बनाकर जल्दी छपा दिया था। अब तो पुस्तक भी छपकर आ गई है।
चत्तारिमंगलं
चत्तारिमंगलं पाठ में कुछ दिनों से विभक्तियाँ लगाकर पाठ बोलने की परम्परा चल गई है। पता लगाने से विदित हुआ कि यह श्वेताम्बरों ने विभक्ति सहित पाठ चलाया है। मैंने सन् १९८३ में ब्र. माधुरी से कुछ साधुओं व विद्वानों के पास इस ‘चत्तारिमंगल’ के विभक्ति रहित व विभक्ति सहित पाठ के बारे में पत्राचार कराये। अनेक पत्र व अभिमत आये, वे यहाँ फाइल में एकत्रित हैं। एक पत्र क्षुल्लक सिद्धसागर जी (आ. श्री वीरसागर के शिष्य) का मौजमाबाद से २८-४-८३ का लिखा हुआ आया, वह हमें विशेष संतोषप्रद प्रतीत हुआ। उन्होंने लिखा-‘‘अ आ इ उ ए तथा ओ को व्याकरण सूत्र के अनुसार समान भी माना जाता है। ‘एदे छ च समाणा’ इस प्राकृत सूत्र के अनुसार ‘अरहंता मंगलं के स्थान में अरहंत मंगलं, सिद्धा मंगलं के स्थान पर सिद्ध मंगलं तथा साहू मंगलं’ के स्थान में ‘साहुमंगलं’ और ‘केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं’’ है। ‘आ’ तथा ‘अ’ को समान मानकर अरहंत के आ के स्थान में अ पाठ रखा गया है, यह व्याकरण से शुद्ध हुआ। इसी प्रकार ‘अरहंत लोगुत्तमा’ इत्यादि पाठ भी शुद्ध है। अरहंते सरणं पव्वज्जामि के स्थान में ‘अरहंत सरणं पव्वज्जामि’ पाठ भी शुद्ध है क्योंकि ‘एदे छ च समाणा’ इस व्याकरण सूत्र के अनुसार ‘ए’ तथा ‘अ’ को समान मानकर ‘ए’ के स्थान में ‘अ’ पाठ शुद्ध है। इसलिए जो चत्तारिमंगल पाठ विभक्ति रहित है, प्राचीन काल से चला आ रहा है, वह विभक्ति सहित ही है अतः शुद्ध है। शास्त्रों और यंत्रों में भी विभक्ति रहित ही जो पाठ देखे जाते हैं, वे शुद्ध हैं और लाघवयुक्त हैं। ‘केवलिपण्णत्तो धम्मो’ यहां ‘हेतौ प्रायः सर्वाः’ इस व्याकरण सूत्र के अनुसार धर्म केवली के द्वारा प्रणीत है, इसलिए ‘सरणं’ पव्वज्जामि’ मैं उसकी शरण को प्राप्त होता हूँ, ऐसा पाठ पाया जाता है वह भी व्याकरण से शुद्ध है।’’ इससे मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि प्राचीन पाठ शुद्ध है, उसे ही पढ़ना चाहिए, नये संशोधित पाठ को नहीं लेना चाहिए। पं. पन्नालाल, साहित्याचार्य के पत्र में भी यह वाक्य है कि ‘श्वेताम्बरों के यहाँ नया पाठ प्रचलित है, वह व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध पाठ है अतः उसे अपना लिया गया है।’’ ब्र. सूरजमल प्रतिष्ठाचार्य एवं पं. शिखरचंद प्रतिष्ठाचार्य ने भी प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी है। प्रो. पं. मोतीलाल कोठारी, फलटन वालों से मेरी दरियागंज दिल्ली में चर्चा हुई थी, उन्होंने भी प्राचीन विभक्ति रहित पाठ को प्रामाणिक माना था। पं. सुमेरुचंद दिवाकर सिवनी वालों से दिल्ली में सन् १९७४ में चर्चा हुई थी, तब उन्होंने भी प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी थी। सन् १९८५ के ब्यावर के चातुर्मास में मैंने पं. पन्नालाल जी सोनी से इस विषय में चर्चा की थी, तब उन्होंने कहा था कि- ‘‘हमारे यहाँ सरस्वती भवन में बहुत प्राचीन मंत्र में भी विभक्ति रहित प्राचीन पाठ ही है तथा प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में भी प्राचीन पाठ मिलता है। विभक्ति सहित चत्तारिमंगलपाठ शास्त्रों में देखने में नहीं आया है अतः प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिए। आजकल के विद्वानों द्वारा संशोधित पाठ नहीं अपनाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मंत्र व्याकरण अलग ही थी, आज उसका ज्ञान हम लोगों को नहीं है अतः मूलमंत्रों में अपने मन से विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए। इत्यादि। मेरी अपनी यही विचारधारा है कि मंत्रों में विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए। एक त्रयोदशाक्षरी मंत्र है उसमें प्रथमान्त विभक्ति के साथ ‘स्वाहा’ पल्लव है। एक बार किसी विद्वान ने उस मंत्र में ह्रीं बढ़ा दिया और प्रथमान्त में चतुर्थी विभक्ति लगा दी ‘‘केवली स्वाहा’’ के स्थान में केवलिभ्यः स्वाहा कर दिया, पहली बात तो अक्षर बढ़ जाने से यह पंचदश अक्षरी मंत्र हो गया। उस अनुष्ठान में अनेक विघ्न बाधाएँ आर्इं। मेरे सामने भी चर्चा आई, तब मैंने कहा कि मूल मंत्र आचार्यों द्वारा वर्णित था, ग्रंथ के आधार से था इसमें अक्षर नहीं बढ़ाना चाहिए, अपना व्याकरण नहीं लगाना चाहिए। मंत्र अशुद्ध हो जाने से ही यह हानि हुई है, इत्यादि।
पंचकल्याणक तिथियां
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कल्याणकों की तिथियों में कोई-कोई अलग है और उत्तरपुराण ग्रंथ में कुछ अलग है। कई एक विद्वान श्रावक तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के कल्याणक तिथियों के नक्षत्रों के आधार से कई एक तिथियाँ बदलने के लिए तैयार हो गये, मेरे पास पत्र भी भेजे, परामर्श के लिए भी आये, मैंने कई वर्षों तक बहुत कुछ चिन्तन किया किन्तु तिलोयपण्णत्ति व उत्तरपुराण दोनों ग्रंथों में से किसी भी ग्रंथ में एक तिथि के बारे में भी मैं परिवर्तन के बारे में नहीं सोच सकी, ऐसा अतिसाहस मेरे द्वारा संभव नहीं हो पाया। कल्पद्रुम विधान में पंचकल्याणक पूजन रचना के समय मेरे मन में यह समस्या पुनः आई कि किस ग्रंथ के आधार से अर्घ्य रचना बनावें? तब मैंने पहले तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ को अति प्राचीन मानकर उसी के आधार से लिखना चाहा किन्तु उसमें गर्भकल्याणक की तिथियाँ नहीं थीं, तो किस ग्रंथ से जोड़ना? समझ में नहीं आया पुनः उत्तरपुराण के आधार से ही मैंने तिथियाँ लेकर पूजन बनाई है। प्रायः वृन्दावन आदि की चौबीसी पूजन में भी ये ही तिथियाँ हैं। धवला टीका आदि में भी आचार्यों ने जहाँ दो मत आये हैं, वहाँ यही लिखा है कि जब तक केवली, श्रुतकेवली नहीं मिलें, तब तक दोनों को ही प्रमाणिक मानना चाहिए। एक सत्य है, दूसरा असत्य, ऐसा निर्णय नहीं देना चाहिए। ऐसे उद्धरण मैंने ‘प्रवचन निर्देशिका’ में दिये हैं।